Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
तीनों ऋण जिन्हें देवऋण, पितृऋण तथा ऋषिऋण कहते हैं चुकाकर मन को मोक्ष में लगावें। इन तीनों ऋणों के चुकाये बिना जो मोक्ष का सेवन करता है वह नरक में जाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (६।३५) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है ।
(क) यह श्लोक प्रसंग विरूद्ध है । इससे पूर्व ६।३४ में आश्रम परम्परा से ६।१९ श्लोक में भोजन के चार विकल्प बताये हैं । क्या इन विकल्पों में पंच्चयज्ञों का कत्र्तव्य पूरा हो सकता है । जो रात को ही भोजन करेगा, वह किस प्रकार अतिथि आदि यज्ञ कर सकता है ? और रात को खाना तथा दिन में न खाना यह कोई मनुष्य की दिनचर्या नहीं है । यह तो राक्षसी वृत्ति है और इन विकल्पों में समन्वय कैसे होगा ? जो रात या दिन में खायेगा, वह चार या आठ प्रहर के अन्तर्गत ही होगा, फिर इनको पृथक् - पृथक् कहने का क्या प्रयोजन होगा ? ऐसी अयुक्तियुक्त बातें मनुप्रोक्त नहीं हो सकतीं । ३. और मनु जी ने २।१३९ (१६४), १४१ (१६६), १४२ (१६७), १५० (१७५) तथा ६।७० - ७२ इत्यादि श्लोकों में प्राणायाम, वेदाध्ययन, जितेन्द्रियता आदि को तप माना है । परन्तु यहां उसके विरूद्ध (६।२२ - २५) में भूमि पर लेटे रहना, दिन में पैरों पर खड़े रहना, ग्रीष्म ऋतु में पंच्चाग्नितप करना, वर्षा में नग्न होकर बैठना, हेमन्त ऋतु में गीले कपड़े धारण करना और कठोर तपस्या से शरीर को सुखाना इत्यादि हठयुक्त तपस्या का विधान किया है । मनु ऐसे निरर्थक तपों का विधान कैसे कर सकते हैं ? क्यों कि उन्होंने तो (२।७५ (१०० में)) स्पष्ट कहा है - ‘अक्षिण्वन् योगतः तनुम्’ अर्थात् योग का अभ्यास (तप) ऐसा होना चाहिए, जिससे शरीर का क्षय या हानि न हो । ४. और ६।२४ में मृतपितरों के तर्पण का विधान भी मनु की मान्यता से विरूद्ध है । क्यों कि मनु तो जीवित पितरों का ही तर्पण मानते हैं । एतदर्थ ३।८२ तथा ३।११९ - २८४ श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । इन अन्तर्विरोधों के कारण ये श्लोक मनु - प्रोक्त नहीं हो सकते ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(ऋणानि त्रीणि अपाकृत्य) तीनों ऋणों को चुकाकर (मनः मोक्ष निवेशयेत्) मन को मोक्ष में लगावें। (अनपाकृत्य) ऋणों को न चुकाकर (मोक्षं सेवमानः तु) मोक्ष का सेवन करने वाला तो (अधः व्रजति) अधोगति को प्राप्त होता है।