Manu Smriti
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ग्रामादाहृत्य वाश्नीयादष्टौ ग्रासान्वने वसन् ।प्रतिगृह्य पुटेनैव पाणिना शकलेन वा ।।6/28
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अथवा ग्राम से भिक्षा याचन करके आठ ग्रास खावें, वन में बस कर दोनों हाथ व मिट्टी के पात्र के ठीकर (टुकड़े) में भिक्षा ग्रहण करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (६।२८) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त हैं - इस श्लोक में वानप्रस्थी के लिए ग्राम से भिक्षा का विधान किया है । यह मान्यता मनु की व्यवस्था से विरूद्ध है । मनु ने ६।३ में ग्राम के भोजन को छोड़ने का विधान किया है । और ६।१६ में लिखा है कि पीडि़त - दशा में भी वानप्रस्थी ग्राम के अन्न फलादि को न खावे । और वानप्रस्थी को भिक्षा की आवश्यकता भी हो तो ६।२७ के अनुसार वनवासी तपस्वियों से ही भिक्षा का विधान किया है । अतः पूर्वोक्त - विधान का विरोधी होने से यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
या गाँव से लाकर वन में बसता हुआ आठ ग्रास खा लेवे। या तो पत्ते में लेवे या हाथ में या ठीकरे में।
 
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