Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो वस्तु हल द्वारा उत्पन्न हुई तथा जो क्षेत्र (खेत) के समीप हो चाहे उसे क्षेत्र स्वामी ने त्याग दिया हो परन्तु उसे भोजन न करें तथा दुःखी होने पर भी हल चलाये बिना गाँव के भीतर जो फल मूल उत्पन्न हुए हों उनका भोजन न करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
हल से जीती हुई भूमि में उत्पन्न पदाथो्रं को किसी के द्वारा दिये जाने पर भी और ग्राम में उत्पन्न किये गये मूल और फलों को भूख से पीडि़त होते हुए भी न खाये ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
एवं, खेत का जोत कर पैदा किये गये अनाज को, चाहे कोई उसे छोड़ या दे ही क्यों न गया हो, कभी न खावे। तथा, क्षुवा-पीड़ित होने पर भी कभी गांव में उपजे हुए मूलों और फलों को न खावे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(केनचित्) किसी के द्वारा (उत्सृष्टम् अपि) छोड़े हुए भी (फालकृष्टम्) खेत के धान्य आदि को (न अश्नीयात्) न खावें (आर्तः अपि) रोग में भी (ग्रामजातानि मूलानि च फलानि च) गाँव में उत्पन्न हुए मूल और फल को न खावें।