Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
नित्य वेदपाठ कर जप को स्थिर रक्खें, सबका मित्र होकर रहें, शीत, घाम, क्रोध, आदि को सहन करें, किसी से कुछ न लेवें, सब भूतों (जीवों) पर दया रक्खें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
स्वाध्याय अर्थात् पढ़ने - पढ़ाने में नियुक्त जितात्मा सब का मित्र इन्द्रियों का दमनशील विद्या आदि का दान देने हारा सब पर दयालु किसी से कुछ भी पदार्थ न लेवे इस प्रकार सदा वर्तमान रहे ।
(स० प्र० पंच्चम समु०)
टिप्पणी :
‘‘वहां जंगल में वेदादि शास्त्रों को पढ़ने - पढ़ाने में नित्ययुक्त मन और इन्द्रियों को जीतकर यदि स्व - स्त्री भी समीप हो तथापि उससे सेवा के सिवाय विषय सेवन अर्थात् प्रसंग कभी न करे, सब से मित्र भाव, सावधान, नित्य देने हारा और किसी से कुछ भी न लेवे, सब प्राणीमात्र पर अनुकंपा - कृपा रखने हारा होवे ।’’
(सं० वि० वानप्रस्थाश्रम सं०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
वनस्थ वेदादिशास्त्रों के पढ़ने पढ़ाने में नित्य युक्त, इन्द्रियों का दमन करने वाला, सब का मित्र, जितात्मा, नित्य विद्याविद का दान करने वाला, परन्तु अपने आप किसी से कुछ पदार्थ न लेने वाला, और सब जीवों पर दयालु होवे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(स्वाध्याये नित्य युक्तः स्यात्) स्वाध्याय में सदा रत रहें। (दान्तः) इन्द्रियों का दमन करके (मैत्रः) सबसे मित्रता करके (समाहितः) मन को वश में रखकर (दाता) दान दे, (अनादाता) दान न लें, (सर्वभूत + अनुकम्पकः) सब प्राणियों पर दया करें।