Manu Smriti
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वसीत चर्म चीरं वा सायं स्नायात्प्रगे तथा ।जटाश्च बिभृयान्नित्यं श्मश्रुलोमनखानि च ।।6/6
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
चमड़ा व वस्त्र का टुकड़ा पहन कर सांय प्रातः स्नान करें, जटा, मोछ, बाल तथा नख बढ़ावें अर्थात् क्षौर न करावें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (६।६) श्लोक पूर्वापर प्रसंग से विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त है । ६।५ में कहा है कि - ‘एतान् एव महायज्ञान् निर्वपेत् विधिपूर्वकम्’ अर्थात् वानप्रस्थी इन पंच्चमहायज्ञों को करे । इस श्लोक के अनुसार अग्रिम श्लोकों में वानप्रस्थी के पंच्चयज्ञों का ही विधान होना चाहिये । और वह (६।७ - १२) तक श्लोकों में विधान किया है । इस प्रकार इनके मध्य में यह श्लोक पूर्वापरक्रम को भंग करने से प्रक्षिप्त है । क्यों कि ६।६ में कथित मृगचर्म या वल्कल धारण करना, सांयप्रातः स्नान करना और जटायें मूछें आदि रखना पंच्चमहायज्ञों के अन्तर्गत नहीं आते ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
वसीत चर्म चीरं वा) मृगचर्म या वल्कल पहने (सायं स्नायात् प्रगे तथा) सायं और प्रातः स्नान करे। (जटाः च श्मश्रु लोम नखानि च) जटा, दाढ़ी, मोछ तथा नाखूनों को (नित्यं विभृयात्) सदा रक्खे। अर्थात् केशच्छेदन न करे।
 
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