Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इस रीति से गृहस्थाश्रम को पूर्ण करके स्नातक द्विज सांसारिक चिन्ताओं को छोड़ जितेन्द्रिय होकर वानप्रस्थ आश्रम के निमित्त वन में बसकर जीवन व्यतीत करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. पूर्वोक्त प्रकार विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्या पढ़के समावत्र्तन के समय स्नानविधि करने हारा द्विज - ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जितेन्द्रिय, जितात्मा होके, यथावत् गृहाश्रम करके वन में बसे ।
(सं० वि० वानप्रस्थाश्रम सं०)
टिप्पणी :
‘‘इस प्रकार स्नातक अर्थात् ब्रह्मचर्यपूर्वक गृहाश्रम का कत्र्ता द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, गृहाश्रम में ठहर कर, निश्चितात्मा और यथावत् इन्द्रियों को जीत के वन में बसे ।’’
(स० प्र० पंच्चम समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
इस प्रकार विधिपूर्वक, ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्या पढ़ के समावर्तन के समय स्नानविधि करने वाला द्विज, गृहाश्रम में ठहर कर निश्चितात्मा और यथावत् जितेन्द्रिय होकर वन में बसे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(स्नातकः द्विजः) स्नातक द्विज (एवं विधिवत् गृहाश्रमे स्थित्वा) इस प्रकार नियमानुसार गृहस्थाश्रम में रहकर (विजितइन्द्रियः) इन्द्रियों को जीतकर अर्थात् विषयों में न फंसकर (नियतः) नियमों का पालन करता हुआ (यथावत्) ठीक ठीक (वने वसेत् तु) वन में बसे। अर्थात् गृहस्थ के पीछे वानप्रस्थ आश्रम में जावे।