Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इस प्रकार मन, वाणी, शरीर का संयत (वश में) करके इस लोक में अपार कीर्ति लाभ करती है और परलोक में पतिलोक को प्राप्त करती है।
टिप्पणी :
यह श्लोक सर्वथा सम्मिलित किया हुआ है क्योंकि विवाह प्रकरण के द्वारा जो प्रतिज्ञा होती है उसके सर्वथा विरुद्ध है और अन्याय में सम्मिलित है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (५।१६६वां) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है -
(क) मनु जी की स्पष्ट मान्यता है कि पिता - पुत्र, पति - पत्नी आदि के सम्बन्ध शारीरिक होने से इस शरीर के नष्ट होने पर समाप्त हो जाते हैं । जन्म - जन्मान्तरों में पहले शरीरों के सम्बन्ध नहीं रहते । इसलिये मनु जी ने कहा है -
नामुत्र हि सहायार्थ पिता माता च तिष्ठतः ।
न पुत्रदारा न ज्ञातिधर्मस्तिष्ठति केवलः ।। (४।२३९)
अर्थात् - परलोक मरने के बाद दूसरे जन्म में माता, पिता, पुत्र, स्त्री तथा सम्बन्धी कोई भी सहायक नहीं होते, केवल धर्म ही सहायक होता है । अतः इस श्लोक का यह कथन मनु से विरूद्ध है कि स्त्री संयम से रहकर मरने के बाद पति - लोक को प्राप्त करती है । क्यों कि ‘पतिलोक’ कोई स्थान विशेष नहीं है । इसी मिथ्या मान्यता ने सतिप्रथा, जैसी बुराइयों को जन्म दिया है । मनु जी ने तो कर्म - फल व्यवस्था में जीवों की दो ही स्थिति मानी है - एक कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जाना, और दूसरी मोक्षप्राप्ति ।
(ख) और यह श्लोक प्रसंग को भी भंग कर रहा है । मनु जी ने तो स्त्रियों के धर्म बताकर ५।१६७ में ‘एवं वृत्ताम्’ कहकर प्रकरण की समाप्ति की है । इनके मध्य में फलकथनपरक यह (५।१६६वां) श्लोक अप्रासंगिक ही है ।
(ग) और इस श्लोक में पुनरूक्ति भी की है । जब ५।१६५ में स्त्री के लिये, मनोवाग्देहसंयता, कह दिया है, तो फिर ५।१६६ में उसी विशेषण की क्या आवश्यकता थी ? मनुसदृश आप्त पुरूष इस प्रकार का पिष्टपेषण नहीं करते । अतः यह श्लोक परवत्र्ती सिद्ध होता है ।