Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो आचार वेदशास्त्र में कहे हैं, वह परमधर्म हैं। इस हेतु जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अपना भला चाहें, वह इस शास्त्रानुसार कर्म करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
उपरोक्त श्लोक देकर स्वामी जी ने निम्न अर्थ दिया है -
‘‘कहने सुनने - सुनाने, पढ़ने - पढ़ाने का फल यह है कि जो वेद और वेदानुकूल स्मृतियों में प्रतिपादित धर्म का आचरण करना । इसलिये धर्माचार में सदा युक्त रहे ।’’
(स० प्र० तृतीय समु०)
‘‘जो सत्य - भाषणादि कर्मों का आचरण करना है वही वेद और स्मृति में कहा हुआ आचार है । ’’
(स० प्र० दशम समु०)
श्रुत्युक्तः च स्मार्त एव वेदों में कहा हुआ और स्मृतियों में भी कहा हुआ जो आचारः आचरण है परमः धर्मः वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है तस्मात् इसीलिए आत्मवान् द्विजः आत्मोन्नति चाहने वाले द्विज को चाहिए कि वह अस्मिन् इस श्रेष्ठाचरण में सदा नित्यं युक्तः स्यात् सदा निरन्तर प्रयत्नशील रहे ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(आचारः परमः धर्मः श्रुति-उक्तः स्मार्त एव च) वेद में बताया हुआ और स्मृति में बताया हुआ सदाचार परम धर्म है। (तस्मात्) इसलिये (अस्मिन् सदा युक्तः नित्यं स्यात्) इसमें सदा तत्पर रहे (आत्मवान् द्विजः) आत्मज्ञानी द्विज।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
परम धर्म यही है-सुनने सुनाने और पढ़ने पढ़ाने का फल यही है-कि वेद और वेदानुकूल स्मृतिओं में प्रतिपादित धर्म का आचरण करना। इसलिए आत्माभिमानो ब्राह्मण क्षत्रिय व वैश्य द्विज इस धर्माचरण में सदा नित्य युक्त रहे।