Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अपने पति की मृत्यु पश्चात् दूसरे पति का नाम तक भी न लेवे, उत्तम मूल, फल फूल, इच्छानुसार कल्प भोजन करके निर्दोष शरीर (कामेच्छा रहित) रह कर जीवन व्यतीत करे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
५।१५३ - १६२ तक ये श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
इन श्लोकों में मनु की मान्यताओं का स्पष्ट विरोध है, अतः ये श्लोक मनुप्रोक्त नहीं हैं । जैसे - १. मनु जी ने पति - पत्नी आदि के सम्बन्ध शारीरिक होने से इस जन्म के ही माने हैं, दूसरे जन्मों के नहीं । इस विषय में ४।२३९वां श्लोक द्रष्टव्य है । परन्तु ५।१५३ में पति को स्त्रियों के लिये परलोक में सुख देने वाला माना है । मरने के बाद इस जन्म के सब सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं, परलोक में केवल धर्म ही सहायक होता है, तो पति दूसरे जन्म में कैसे सुख दे सकता है ? इसी प्रकार ५।१५६ में भी ‘पतिलोकमभीप्सन्ती’ कह कर ‘पतिलोक’ की किसी स्थानविशेष या स्थिति - विशेष की कल्पना मिथ्या की है ।
२. इन श्लोकों में पति की अनावश्यक अतिशयोक्तिपूर्ण महिमा प्रदर्शित की गई है । स्त्रियों के लिये ही समस्त कत्र्तव्य बताकर पति को मुक्त रखा गया है, जो कि एक पक्षीय पूर्वाग्रहबद्ध वर्णन है । मनु की मान्यता में पति - पत्नी का समान दर्जा है, उन में छोटा बड़ा कोई नहीं होता । दोनों के लिये मनु जी ने एक समान आचार - संहिता बनाई है । इस विषय में (३।५५ - ६२) तथा (९।२८,९।१०१,९।१०२) श्लोक द्रष्टव्य हैं । परन्तु यहाँ ५।१५४ में गुणहीन, कामुक - परस्त्रीगमन करने वाले, दुश्शील पति को भी देववत् मानने के लिये स्त्री को बाध्य किया गया है । जब मनु के अनुसार गुण, कर्म, स्वभाव मिलाकर विवाह करने का विधान है, तो यह गुणादि की विषमता क्यों ? अतः इससे परवत्र्ती पौराणिक भावना की ही गन्ध आ रही है कि माता - पिता ने जिसके साथ भी विवाह कर दिया हो, उसी की पूजा करनी चाहिये । परन्तु मनु जी तो स्वंयवर - विवाह को मानते हैं । स्त्री की इच्छा के विरूद्ध अथवा उससे बिना पूछे ही विवाह करना शास्त्रीय नहीं है ।
३. और ५।१५५ में स्त्रियों के लिये पति - सेवा के अन्तर्गत ही सब कत्र्तव्यों की समाप्ति मानकर यज्ञादि श्रेष्ठ कार्यों का निषेध करना मनु की मान्यता के विरूद्ध है । क्यों कि मनु जी ने तो ९।२८ में ‘अपत्यं धर्मकार्याणि............................दारधीनः’ कहकर यज्ञादि धर्मकार्य स्त्री के आधीन बताये हैं । और ९।११ में स्पष्ट कहा है कि धर्म - कार्यों में स्त्रियों को लगावें । और ९।९६ में कहा है -
‘तस्मात् साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्न्या सहोदितः’
अर्थात् पति - पत्नी के लिये धर्म कार्य एक समान कहे हैं । इनसे स्पष्ट है कि मनु जी यज्ञादि धर्म कार्यों में स्त्रियों का भी समान अधिकार मानते हैं । किन्तु यहाँ यज्ञादि के अधिकार का स्त्रियों के लिये निषेध दुराग्रहपूर्ण ही है ।
४. ५।१५५ में ‘स्वर्गे महीयते’ कहकर ‘स्वर्ग’ एक स्थान विशेष की कल्पना की गई है । यह मनु की मान्यता के विरूद्ध है । क्यों कि मनु जी तो स्वर्ग का अर्थ सुख - विशेष ही मानते हैं, स्थानविशेष नहीं ।
५. ५।१५६ में कहा है कि साध्वी स्त्री जीवित तथा मृत पति का अप्रियाचरण न करे । जीवित के साथ तो इसकी संगति है, परन्तु मृत - पति की प्रियता अथवा अप्रियता का बोध कैसे होगा ? अतः यह कल्पना भी निराधार तथा मिथ्या ही है ।
६. ५।१५७ - १६२ तक के श्लोकों में वर्णित बातें मनु की मान्यता के विरूद्ध हैं । क्यों कि मनु जी ने ९।५६-६३ श्लोकों में सन्तानादि न होने पर नियोग विधि से सन्तान प्राप्ति लिखी है । परन्तु यहाँ (५।१५७ में) पति के मरने पर और ५।१६१ में सन्तान प्राप्ति के लिये भी विवाहित पति से भिन्न पुरूष का निषेध किया है । और ५।१६२ में अन्य पुरूष से उत्पन्न सन्तान को सन्तान ही नहीं माना तो ९।६० इत्यादि श्लोकों में वर्णित नियोग विधि से प्राप्त सन्तान का क्या होगा ? जब कि इस विधि का विधान तो सन्तान प्राप्ति के लिये ही किया गया है । इस प्रकार इन अन्तर्विरोधों के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।