Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
स्त्री को योग्य है कि अतिप्रसन्नता से घर के कामों में चतुराई युक्त सब पदार्थों के उत्तम संस्कार, घर की शुद्धि और व्यय में अत्यन्त उदार रहे । अर्थात् सब चीजें पवित्र और पाक इस प्रकार बनावे जो औषधरूप होकर शरीर वा आत्मा में रोग को न आने देवे । जो - जो व्यय हो उसका हिसाब यथावत् रख के पति आदि को सुना दिया करे । घर के नौकर - चाकरों से यथायोग्य काम लेवे, घर के किसी काम को बिगड़ने न देवे ।
(स० प्र० चतुर्थ समु०)
टिप्पणी :
‘‘स्त्री को योग्य है कि सदा आनन्दित होके चतुरता से गृहकार्यों में वर्तमान रहे तथा अन्नादि के उत्तम संस्कार, पात्र, वस्त्र, गृह आदि के संस्कार और घर के भोजनादि में जितना नित्य धन आदि लगे उस के यथायोग्य करने में सदा प्रसन्न रहे ।’’
(स० वि० गृहाश्रम प्र०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
पवित्र बनने के लिए स्त्री को चाहिए कि वह सदा प्रसन्न रह कर घर के सब कामों को बड़ी चतुराई से संभाले, खान-पान वस्त्र पान गृह आदि समस्त गृहसामग्री को सम्यक्तया साफ-सुथरा रखे, और व्यय में खुला हाथ न रखे, प्रत्युत यथायोग्य नियमित खर्च करे।१
टिप्पणी :
१. स० स० ४ में शब्दार्थ के बाद स्वामी जी ने विस्तृत व्याख्यान इस प्रकार किया है-‘‘सब चीजें पवित्र और पाक इस प्रकार बनावे जो ओषधिरूप होकर शरीर व आत्मा में रोग को न आने देव। जो-जो व्यय हो, उस का हिसाब यथावत् रखके पति
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(गृहकार्येषु दक्षया सदा प्रहृष्टया भाव्यम्) घर के कार्य करने में दक्ष हो, सदा आनन्द से रहे। (सुसंस्कृत उपस्करया) बरतनों को शुद्ध रक्खे, (व्यये च अमुक्त हस्तया) खुले हाथ खर्च न करे, अर्थात् मित-व्यय करे।