Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (५।१४७ - १४८) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) ये दोनों श्लोक प्रसंग - विरूद्ध हैं । यहाँ प्रकरण विवाहित स्त्रियों के धर्म वर्णन का है । इसका संकेत ‘द्वितीयमायुषोभागं कृतदारो गृहे वसेत्’ (५।१६९) इस विषयसमाप्तिसूचक श्लोक से तथा ५।१६५ श्लोक में ‘साध्वी’ स्त्री के कत्र्तव्यों से स्पष्ट है । परन्तु इन दोनों श्लोकों में अविवाहित स्त्रियों के विषय में भी कथन करने से ये श्लोक अप्रासंगिक हैं ।
(ख) इन श्लोकों में पक्षपातपूर्ण वर्णन है । क्यों कि जैसे बाल्यकाल में बालिकाओं को माता - पिता या गुरूजनों के आधीन रहना पड़ता है, वैसे बालकों को भी रहना पड़ता है । फिर बालिकाओं के विषय में ही स्वतन्त्रता का निषेध करना निरर्थक है । इससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि ये श्लोक किसी ऐसे व्यक्ति के मिलाये हुए हैं, जो स्त्रियों को पुरूषों के सर्वथा आधीन रखने के पक्ष से ग्रस्त था ।
(ग) मनु की मान्यता में स्त्री - पुरूष का समान दर्जा है । कोई किसी का दास या दासी नहीं है । विवाह से पूर्व घर पर पिता - पुत्री का सम्बन्ध होता है विवाह के बाद पति के घर में पति - पत्नी का सम्बन्ध होता है । और पति के मरने की दशा में माता - पुत्रादि का सम्बन्ध होता है । इन सभी सम्बन्धों में दमनात्मक या परतन्त्रता के लिये कोई स्थान नहीं है । मनु ने तो स्त्रियों को सदा पूज्य बताते हुए, लिखा है - ‘तस्मादेताः सदा पूज्याः’ (३।५९) । जिनके प्रति सदा पूजा - भाव - सत्कार भावना रहती हो, क्या उन्हें परतन्त्र कहा जा सकता है ? और मनु ने ‘सर्व परवशं दुःखम्’ कहकर जिस परतन्त्रता को सबसे बड़ा दुःख माना है, क्या वे स्त्रियों के लिये इस दुःख का विधान कर सकते हैं । और मनु जी ने स्त्रियों के सत्कार का फल बताते हुए कहा है -
‘‘यत्र नायस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।’’ (३।५६)
‘सन्तुष्टो भार्यया भत्र्ता..............................कल्याणं तत्र वै धु्रवम् ।’ (३।६०)
अर्थात् स्त्रियों के सत्कार से देवता - दिव्य गुणों का वास होता है, और स्त्रियों को सन्तुष्ट रखने से घर में कल्याण होता है । क्या स्त्रियों के प्रति इतनी उदात्त भावना रखने वाला मनु उन्हें परतन्त्रता रूपी (परम दुःख के) पाश से बान्ध सकता है ? क्या जिसे हम पूज्य मानते हैं, उसे परतन्त्र कह सकते हैं ? अतः ये श्लोक मनु की मान्यता का स्पष्ट विरोध करने से प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
वह बाल्यकाल में पिता के आधीन रहे, यौवनकाल में विवाहित पति के आधीन रहे, और पति के मर जाने पर पुत्रों के अधीन रहे। एवं, स्त्री स्वच्छन्दता को न वर्ते।१
टिप्पणी :
१. वह विधान घर में रहने वाली कन्याओं व स्त्रियों के लिए है। जब गुरुकुल में शिक्षा पारही होंगी, तब तो बालकों के समान वे भी अपनी आचार्याओं के आधीन रहेंगी ही। परन्तु यदि कोई स्त्री तपस्विनी बनकर सर्वथैव वास्तव में संन्यासिनी हो जावेगी, उसके लिये उपर्युक्त बन्धन नहीं रहेगा।