Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
कोई मनुष्य किसी को आचमन कराता हो और आचमनकत्र्ता के मुँह से जल की बूँद जमीन पर गिर कर आचमन कराने वाले के पाँव पर पड़े तो वह बूँद भूमि के जल के तुल्य है, उससे अपवित्रता नहीं होती।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
५।१२७ - १४५ तक श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
इन श्लोकों में प्रसंग - विरूद्ध बातें हैं । ५।११० श्लोक के अनुसार यहां प्रकरण द्रव्य - शुद्धि का है और ५।१४६ वां समाप्ति सूचक श्लोक से भी इसी प्रकरण की पुष्टि हो रही है । किन्तु इन श्लोकों में न तो द्रव्यों की शुद्धि का वर्णन है प्रत्युत क्या शुद्ध है और क्या अशुद्ध, यह वर्णन किया गया है । जैसे ५।१२७ कहा है - अदृष्ट, जल से शुद्ध तथा ब्राह्मण, की वाणी से प्रशंसनीय वस्तु शुद्ध होती है । यह प्रकरण से विरूद्ध बात है । क्यों कि द्रव्यों की अशुद्धि दूर करने का इसमें कोई उपाय नहीं बताया गया है ।
(ख) द्रव्यों की शुद्धि के उपाय ५।१११ से प्रारम्भ हुए हैं और ५।१२६ वें श्लोक में द्रव्य -शुद्धि की सामूहिकरूप से अवधि बताकर इस प्रकरण की समाप्ति कर दी है । इससे स्पष्ट रूप में प्रकरण के समाप्त होने पर भी ५।१२७ से ५।१४५ तक श्लोकों में शुद्ध व अशुद्ध का वर्णन अप्रासंगिक है । यदि यह पूर्ववर्ती विषय से भिन्न कहा जाये तो भी ठीक नहीं है । क्यों कि मनु विषय का निर्देश अवश्य करते हैं । इन श्लोकों का वर्णन विषय निर्देश के बिना किया गया है अतः ये परवर्ती सिद्ध होते हैं ।
(ग) इन श्लोकों में मनु की मान्यताओं का स्पष्ट विरोध किया गया है । जैसे - मनु ने मांस - भक्षण का सर्वथा निषेध किया है , किन्तु यहां ५।१३०-१३१ श्लोकांे में मांस की प्राप्ति के कुछ प्रकारों को शुद्ध बताकर उसे भक्ष्य माना है । और ‘नोच्छिष्टं’ कस्यचिद्दद्यात् (२।५६) अर्थात् किसी को झूठा भोजन न देना चाहिये, मनु की इस मान्यता के विरूद्ध ५।१४० में शूद्रों को झूठा भोजन खाने का वर्णन परस्पर विरूद्ध है । और जब ५।१२७ के अनुसार ब्राह्मण की वाणी से ही वस्तु पवित्र हो जाती है, तो ५।१११ - १२६ तक श्लोकों में वर्णित व्यवस्था तो निरर्थक ही सिद्ध होती है । और वाणी मात्र से पवित्रता की बात अयुक्तियुक्त होने से मनुसम्मत नहीं है ।
(घ) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त तथा अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन होने से ये श्लोक मनु के नहीं है । जैसे - ५।१२७ में ब्राह्मण की वाणी से ‘शुद्ध’कहने मात्र से किसी वस्तु को पवित्र मान लेना, और जिसकी अपवित्रता नहीं देखी है, उसाके पवित्र मानना, ५।१२९ में कारीगर के हाथ को सदा शुद्ध मानना, और बाजार में विक्रय के लिये रखी प्रत्येक वस्तु को पवित्र मानना, ५।१३० में स्त्रियों के मुख को सदा शुद्ध मानना, और हिरणादि को पकड़ने वाले कुत्ते के मुख को पवित्र मानना, ५।१३१ में कुत्तों से मारे गये, कच्चा मांस खाने वाले सिंहादि पशुओं से मारे गये, और चाण्डालादि द्वारा मारे गये पशु के मांस को पवित्र मानना, ५।१३७ में शौच के बाद हाथों की शुद्धि चालीस - चालीस बार मिट्टी लगाने से मानना और गृहस्थादि आश्रमियों की शुद्धि में अन्तर मानना अर्थात् गृहस्थ की अपेक्षा ब्रह्मचारी को द्विगुणी शुद्धि, वानप्रस्थियों को तीन गुणी तथा संन्यासियों को चार गुणी शद्धि का विधान करना अयुक्तियुक्त है, क्यों कि भौतिक शरीर के अंगों की शुद्धि में अन्तर करना निराधार कल्पना ही है, ५।१३९ में शौचादि के पश्चात् शरीर की शुद्धि के लिये तीन आचमनों का विधान किया है, किन्तु स्त्रियों और शूद्रों के लिये एक बार ही आचमन से शुद्धि कही है, यह अन्तर भी निराधार ही है, ५।१४० में केवल शूद्रों के मासिक - मुण्डन का विधान और द्विजों के झूठे भोजन का विधान मनु की मान्यता के विरूद्ध और पक्षपातपूर्ण है, ५।१४१ में दान्तों के बीच में लगे अन्न से झूठा मुख न मानना और मुख से निकलने वाली बूंदों को पवित्र कहना, ५।१४२ में झूठे पानी की बूंदों को पवित्र कहना, ५।१४३ में झूठे हाथों से छुये हुये भोजन को आचमन करने से शुद्ध कहना, इत्यादि बातें निराधार तथा अयुक्तियुक्त होने से मनु की नहीं हैं । अतः ये श्लोक परवत्र्ती होने से प्रक्षिप्त हैं ।
(ड) और इन श्लोकों को मिलाने वाले ने अपनी बात को मनुसम्मत बनाने के लिये ५।१३१ में ‘मनुरब्रवीत्’ कहकर स्पष्ट कर दिया है कि ये श्लोक मनु के नहीं हैं । मनु अपना नाम लेकर कहीं भी नहीं कहते । जहाँ - जहाँ मनु का नाम लेकर बातें कहीं गई हैं, वे सब प्रक्षिप्त हंद ।