Manu Smriti
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पक्षिजग्धं गवा घ्रातं अवधूतं अवक्षुतम् ।दूषितं केशकीटैश्च मृत्प्रक्षेपेण शुध्यति ।।5/125
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (५।१२५) श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त है - (क) यह श्लोक प्रसंग विरूद्ध है । क्यों कि यहां प्रसंग ५।११० तथा ५।१४६ श्लोकों के अनुसार द्रव्यशुद्धि का है । किन्तु इस श्लोक में पक्षी से खाये फलादि की शुद्धि का कथन प्रसंग विरूद्ध है द्रव्य शुद्धि में भक्ष्य पदार्थों की शुद्धि का कहना अप्रासंगिक वर्णन है । (ख) और इस श्लोक की शैली भी अयुक्तियुक्त है । इससे कहा है कि जिस फलादि को पक्षी ने खा लिया है, वह मिट्टी डालने से शुद्ध हो जाता है । यह निराधार कथन ही है । क्यों कि मिट्टी डालने से फलादि की शुद्धि सम्भव ही नहीं है । और जिस गाय के पंच्चगव्यों का औषधरूप में प्रयोग होता है, उसके सूंघने मात्र से प्रथम तो वस्तु अशुद्ध ही नहीं होती और यदि अशुद्ध हो भी जाती है तो मिट्टी डालने मात्र से कैसे शुद्ध हो सकती है । और किसी फल में कीड़े पड़ जाते हैं, तो क्या वह मिट्टी डालने से भक्ष्य हो सकता है ? अतः ऐसा निरर्थक बातों के कथन से यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
 
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