Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अग्नि जल के संयोग से स्वर्ण तथा रूपा (चांदी) उत्पन्न होता है अतएव अपने मूल तत्व द्वारा दोनों की शुद्धता अत्युत्तम है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (५।११३वां) श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त है -
(क) स्वर्ण आदि द्रव्यों की शुद्धि का उल्लेख ५।१११ - ११२ श्लोकों में कर दिया है, पुनः उनकी शुद्धि की बात कहना अनावश्यक है । ५।१२ में स्वर्ण - पात्र की शुद्धि जल से नहीं है, पुनः उसकी शुद्धि का कहना पिष्ट - पेषण करना ही है ।
(ख) और इस श्लोक की शैली भी अयुक्तियुक्त है । इसमें स्वर्ण व चांदी की शुद्धि स्वयोनि - अपने कारण जल और अग्नि से कही है । जब सभी धातुओं की उत्पत्ति जल और अग्नि के संयोग से होती है, तो क्या उनकी शुद्धि अपने कारण से नहीं होगी ? केवल स्वर्ण - चांदी को ही पृथक्ता से क्यों कहा गया ? और ५।१४ में ताम्बा आदि की शुद्धि के उपाय बताये हैं, क्या उनकी शुद्धि उनके कारण - जल व अग्नि से नहीं होती ? यदि होती है तो फिर दुबारा १।११४ में शुद्धि के कारण दिखाने की क्या आवश्यकता है ?
(ग) इस श्लोक में परस्पर विरोध भी है । ५।११२ में कांच्चन - स्वर्ण की शुद्धि अद्धिरेव - जल से ही मानी है किन्तु इस ५।११३ में स्वयोन्यैव - अपने कारण से ही शुद्धि कही है । यदि दोनों का एक ही आशय है तो दुबारा क्यों कहा गया ? और यदि भिन्न है तो ‘एव’ लगाने का क्या तात्पर्य रहा ? क्यों कि ‘एव’ शब्द तो निर्धारण के लिये होता है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अपाम् अग्रेः च संयोगात्) जल और अग्नि के संयोग से (हैमं रौप्यं च निर्बभौ) सोना और चाँदी निकले हैं। (तस्मात्) इसलिये (तयोः) इन दोनों की (निर्णेकः) शुद्धि (स्व योन्या एव) अपनी ही योनि अर्थात् जल और अग्नि से (गुणवत्तरः) अच्छी है।