Manu Smriti
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मृत्तोयैः शुध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुध्यति ।रजसा स्त्री मनोदुष्टा संन्यासेन द्विजोत्तमाः ।।5/108
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दो (५।१०७-१०८) श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) मन से दूषित स्त्री का रजस्वला से कोई सम्बन्ध नहीं है, अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है । (ख) इन श्लोकों की शैली भी अयुक्तियुक्त तथा मनु की मान्यता से विरूद्ध है । जैसे ५।१०७ में कहा है कि जो दुष्कर्म करने वाले हैं, वे दान करने से शुद्ध हो जाते हैं । दान करने से दुष्कर्मों की शुद्धि का क्या सम्बन्ध है ? फिर तो मनुष्य को छूट ही मिल जायेगी, विशेषकर धनी पुरूषों को, कि वे कितने भी दुष्कर्म करते रहें, दान करने से शुद्ध हो जायेंगे । इसी प्रकार मन से दूषित स्त्री की शुद्धि का रज से क्या सम्बन्ध है ? रजस्वला होने से शारीरिक शुद्धि हो सकती हैं किन्तु मन की नहीं । मनु जी ने ५।१०९ में मन की शुद्धि सत्य से मानी है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(मृत् + तोयैः) मिट्टी और जल से (शोध्यम्) मैली चीज (शुद्धयते) साफ हो जाती है। (नदी वेगेन शुद्धयति) नदी का कीचड़ आदि वेग अर्थात् तेज धारा से शुद्ध होता है। (रजसा स्त्री मनो दुष्टा) मन से दूषित स्त्री रजस्वला होकर शुद्ध होती है (सन्यासेन द्विजोत्तमः) ब्राह्मण सन्यास लेकर शुद्ध होता है, अर्थात् सन्यास में सब स्वार्थों को छोड़कर निष्काम भाव से कर्म करना होता है।
 
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