Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
नगर के 1-पश्चिम, 2-उत्तर, 3-पूर्व, 4-दक्खिन द्वार से यथाक्रम (प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ द्वार से) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का शव ले जाना चाहिये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये ५।५८-१०४ तक के श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) ये सभी श्लोक प्रसंग - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । ५।५७ श्लोक में कहा है कि ‘प्रेतशुद्धि प्रवक्ष्यामि द्रव्यशुद्धि तथैव च’ । अर्थात् इसके आगे प्रेत - मृत शरीर के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि को दूर करने का उपाय कहा जायेगा । और ५।१०५ - १०६ श्लोकों में शुद्धि करने वाले पदार्थों का परिगणन किया । तत्पश्चात् ५।१०९ श्लोक में मृतक के सम्पर्क से होने वाली शारीरिक अशुद्धि का उपाय, मृत्यु के वियोग से दुःखी मानसिक शुद्धि का उपाय बताये गये । इस प्रकार ५।५७ श्लोक की संगति ५।१०५ से ११० तक श्लोकों से ठीक लग जाती है । परन्तु ५।५८ - १०४ तक के श्लोकों ने उस क्रम को भंग कर दिया है और इनमें मृतक के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि को एक धार्मिक कृत्य के रूप में मनाने की एक ऐसी व्यवस्था लिखी है कि जिससे पूर्वापर का क्रम त्रुटित हो गया है । अन्यथा आवश्यक तो यह था कि अशुद्धि के उपाय बताने के लिये प्रथम शुद्धिकारक पदार्थों का परिगणन करके फिर यह लिखना चाहिये था कि किससे किसकी शुद्धि होती है । और शुद्धि के विषय में कार्यकारण सम्बन्ध का भी ध्यान रखना चाहिये था । अतः ये श्लोक एक भिन्न व्यवस्था के प्रतिपादक हैं और प्रसंग को भंग कर रहे हैं ।
(ख) मनु जी ने प्रेत शुद्धि की बात ५।५७ में कही है और उसकी परिसमाप्ति ५।११० श्लोक में ‘एष शौचस्य वः प्रोक्तः शारीरस्य विनिर्णयः’ कहकर की है । अतः इन के बीच में शारीरिक - शुद्धि के उपाय न बताकर ‘आशौच’ को एक धार्मिक कृत्य मानकर उसके मानने की अवधियों का निर्धारण किया गया है, जो कि प्रतिज्ञात तथा समाप्ति सूचक वचन से सर्वथा असंगत ही हैं ।
(ग) और मृतक के सम्पर्क से जो अशुद्धि होती है, उसमें सपिण्ड, असपिण्ड का भेद क्यों ? जो भी मृतक से सम्पर्क में आया है, वह अशुद्धि से पृथक् नहीं हो सकता, चाहे वह सपिण्ड हो अथवा असपिण्ड । इनकी अशुद्धियों में अन्तर बताना निष्कारण ही है । और यह कैसी निरर्थक बात है कि जो मृतक के सम्पर्क में आया ही नहीं है और बहुत दूर किसी दूसरे स्थान में रहता है, वह भी अपनी जाति वालों की दश दिन बाद भी (५।७७ में) मृत्यु की बात सुनकर अशुद्ध हो जाता है । यदि इस प्रकार मृतक की बात सुनने से ही अशुद्धि हो सकती है, तो इसमें सपिण्ड या असपिण्ड का क्या सम्बन्ध है ? फिर तो जो भी किसी की मृत्यु का समाचार सुने, वह ही अशुद्ध होना चाहिये । यदि यहां यह कहे कि मृत्यु के वियोग का दुःख तो सपिण्ड को ही होगा, दूसरों को नहीं, तो हमारा उनसे यह प्रश्न है कि मानसिक दुःख से मन की शुद्धि ही बतानी चाहिये, शारीरिक नहीं । अतः शरीर की अशुद्धि की अवधि बताना निरर्थक ही है । और ५।७६ श्लोक में कहा है कि एक वर्ष के पश्चात् भी मृतक का समाचार सुनकर जलस्पर्श करने से शुद्धि हो जाती है । क्या इस भौतिक जल से मानसिक शुद्धि हो सकती है ? जब कि स्वयं मनु ने ५।१०९ वें श्लोक में जल से केवल शरीर की शुद्धि मानी है । इसलिये दूरस्थ व्यक्ति की मृतक - समाचार सुनने से ही शारीरिक - अशुद्धि बताना निष्कारण ही है ।
(घ) और ५।५७ में प्रेत शुद्धि की प्रतिज्ञा करके प्रेत - शुद्धि ही कहनी चाहिये थी, परन्तु ५।७७ में पुत्र - जन्म से होने वाली अशुद्धि का कथन करना नितान्त असंगत ही है । इसी प्रकार ५।६१, ५।६२ श्लोकों में जन्म सम्बन्धी अशुद्धि कही है । (५।६३) में गर्भाधान से होने वाली अशुद्धि का कथन, ५।६६ में गर्भपातज अशुद्धि और रजस्बला स्त्री की अशुद्धि की बात असंगत ही है । और प्रेत शुद्धि की प्रतिज्ञा करके ५।६८ - ७० श्लोकों में किसको जलाना चाहिये, किसको नहीं, यह एक भिन्न प्रसंग ही कहा गया है । और ५।७२ में अविवाहित स्त्रियों के मरने पर एक विशेष अवधि का कथन युक्तियुक्त नहीं है । मृतक कोई भी हो, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित उसमें भेद करना निरर्थक ही है ।
(ड) और चारों वर्णों के शरीरों में परमात्मा ने कोई अन्तर नहीं रक्खा है । चाहे ब्राह्मण हो अथवा शूद्र, सबके शरीर पंच्चभौतिक ही हैं । अतः मृतक के सम्पर्क से जो अशुद्धि होगी, उसमें वर्णों के भेद से (५।८३) अन्तर मानकर १० दिन, १२ दिन, १५ दिन तथा एक मास में शुद्धि बताना निष्कारण ही है । यह किसी जन्म - परक वर्णव्यवस्था को मानने वाले की दुराग्रह - कल्पना ही है । क्यों कि मनु ने तो कर्मानुसार वर्णव्यवस्था को मानी है ।
(च) और इसी प्रकार ५।८० -८२ तक श्लोकों में आचार्य, आचार्य - पुत्र, आचार्य की पत्नी, वेदपाठी, मामा, शिष्य, ऋत्विक् तथा बन्धवों की मृत्यु पर भिन्न - भिन्न आशौच की अवधियों का निर्धारण भी निष्कारण ही है । क्यों कि जब इनके पंच्चभौतिक शरीरों में कोई अन्तर नहीं, तो इनके सम्पर्क से होने वाली अशुद्धियों में अन्तर क्यों ?
(छ) घर में मृतक पड़ा हो और कोई व्यक्ति किसी व्रत विशेष को कर रहा हो, तो उसके लिये ५।८८ में यह व्यवस्था देना कि व्रत - समाप्ति तक प्रेतोदकक्रिया न करे, व्रत -समाप्ति पर करे, निरर्थक एवं अव्यावहारिक ही हैं । यदि उदक क्रिया का कोई महत्त्व है, तो उसे समस्त कार्य छोड़कर तत्काल ही करना चाहिये । इसी प्रकार ५।८९, ५९० में वर्णसंकर, संन्यासी, आत्महत्यारा, पाखण्डी, स्वैरिणी, गर्भपाती, पतिघाती, शराबी स्त्रियों की उदक क्रिया के निषेध में भी कोई कारण नहीं है । यथार्थ में प्रेत - शुद्धि प्रकरण में यह उदक - क्रिया की बात ही निरर्थक है ।
(ज) और ५।९२ में कहा है कि चारों वर्णों के मृतकों को नगर के भिन्न - भिन्न द्वारों से ले जायें । यह कथन भी निराधार तथा पक्षपातपूर्ण है । यह जन्म - मूलकवर्णव्यवस्था को मानने वाले ने निरर्थक कल्पना की है । क्यों कि मृतकों को ले जाने में दिशा - विशेष का कोई महत्त्व नहीं है । और यह कथन अव्यावहारिक भी है ! आज कल बड़े - बड़े महानगरों में प्रथम तो द्वार ही नहीं हैं, और दिशा के आधार पर ले जाने में अत्यधिक व्यर्थ परेशानी ही होगी ।
(झ) और ५।९३ में मृतक - अशुद्धि से राजा, व्रती तथा यज्ञ करने वाले को मुक्त ही कर दिया है । यह भी निष्कारण ही है, क्या इनके शरीर पंच्चभूतों के नहीं हैं, जो अशुद्ध (मृतक सम्पर्क से) नहीं होते ? और ५।९५ में युद्ध में मृतक, विद्युत् से मरे, गो ब्राह्मण के लिये मरे, और जिसको राजा चाहे, उसका आशौच तुरन्त बताना भी निराधार ही है । और ५।९९ में फिर जन्म - मूलकवर्णव्यवस्था को मानकर कहा है कि ब्राह्मण जल को छूकर, क्षत्रिय सवारी व शस्त्र को छूकर, वैश्य रास को छूकर और शूद्र छड़ी को छूकर ही शुद्ध हो जाता है । मृतक के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि का रथ, शस्त्र, छड़ी रासादि से क्या सम्बन्ध है, जो ये स्पर्शमात्र से ही शुद्ध कर देते हैं ? इसे आपद्धर्म भी नहीं कहा जा सकता, क्यों कि मनु जी ने आपद्धर्मों का एक पृथक् अध्याय में वर्णन किया है ।
(ञ) और ५।९६, ९७ श्लोकों में चन्द्रादि आठ लोकपालों का कथन भी मिथ्या ही किया है । क्यों कि इन्द्र, कुबेरादि लोकपालों की कल्पना निरर्थक ही है यथार्थ नहीं । इत्यादि शब्दों से सूर्यादि भौतिक शक्तियों के ग्रहण से यदि अभिप्राय माना जाये, तो भी ठीक नहीं । क्यों कि इन लोक पालों की कल्पना करने वाले इन के स्थान - विशेष मानकर शरीरधारी देवविशेष मानते हैं । यथार्थ में भौतिक देव तो जड़ हैं, वे ईश्वर की व्यवस्था से कार्य कर रहे हैं, उनकी शुद्धि व अशुद्धि से मुक्ति नहीं माना जा सकता है । और इनके आश्रय से राजा को अशुद्धि का प्रश्न ही नहीं होता । क्यों कि राजा का शरीर भी दूसरे मनुष्यों की भांति ही है, अतः राजा भी मृतक के सम्पर्क से अशुद्धि से नहीं बच सकता । इस प्रकार इन श्लोकों की शैली अयुक्तियुक्त, पक्षपातपूर्ण, निराधार तथा असंगत है, अतः ये सभी श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।