[भारत-चीन युद्ध के समय देश की परिस्थितियों का वर्णन करता एक लेख]
पिछले दिनों प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने एक भाषण में घोषणा की कि “चीन ने हमारी आँखें खोल दीं।” ऐसे भावगर्भ वाक्य महान पुरुषों के मुख से कभी-कभी अचानक निकला करते हैं। सारे राष्ट्र का अपमान हुआ, हजारों जवान बलिदान हुए, करोड़ों का सामान नष्ट हुआ, पर आपकी आँखें खुल गईं।
कुर्बान जाइए इस अदा पर, किसी की जान गई आपकी अदा ठहरी। यहाँ तो किसी की नहीं हजारों की जान गई। पर साथ ही हम यह नहीं भूल सकते कि आप हजार झुंझलाइये, पर इस अदा में एक शान, एक भोलापन जरूर है। आखिर जहाँ इस भूल की भयंकरता को नहीं भुलाया जा सकता, वहाँ अपनी भूल को इस प्रकार स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करने में जो शानदार सादापन है। उसे भी किसी प्रकार किसी कीमत पर नहीं भुलाया जा सकता ? परन्तु प्रश्न तो कुछ और है ? न तो भूल पर झुंझलाने से हमारी समस्या का समाधान होगा न सादगी के गीत गाने से।
प्रश्न तो यह है कि क्या हमारी आँखें सचमुच खुल गईं? जहाँ चारों ओर से देश के तन-मन-धन न्यौछावर करने के समाचार आ रहे हैं, वहाँ यह समाचार भी आ रहे हैं, फिर डाक्टर लोग सेना में भरती होने वालों से रिश्वत मांग रहे हैं, व्यापारी लोग जो इस विषय में सबसे बदनाम थे वह वस्तुओं के मूल्य न बढ़ाकर त्याग की तथा देशभक्ति की भावना का परिचय दे रहे हैं पर यह डाक्टर यह निर्लज्जता के अवतार डाक्टर जो देशभक्त नौजवानों से उनके जीवनदान की कीमत वसूल कर रहे हैं, इनका क्या नाम रखियेगा। यह लोग अनपढ़ तो नहीं, सुशिक्षित हैं। शिक्षित नहीं सुशिक्षित हैं। इन्हें यह कुशिक्षा कहाँ से मिली, धर्म के नाम पर मनुष्य डरता था, आज सम्प्रदाय निरपेक्ष शिक्षा की आड़ में जो चरित्र निरपेक्ष शिक्षा मिल रही है उसीके यह दुष्परिणाम हैं : भर्तृहरि ने कहा है :- आहार निद्राभय मैथुनश्च सामान्यमेतत् पशुभिनराणाम्। धर्मो हि तेषामधिको विशेषः।
आहार, निद्रा, भय, मैथुन यह चार वस्तु तो मनुष्य तथा पशु दोनों में एक समान है। विशेषता है तो धर्म की, धर्म जो मैथुन में भी मर्यादा बांधता है। मैथुन मानव राष्ट्र के कल्याण के लिये होना चाहिये। मां, बहन, बेटी के साथ नहीं होना चाहिये। यह धर्म आज धक्के दे दे कर बाहर निकाला जा रहा है।
साथ ही राजा का धर्म है दण्ड देना और आवश्यकतानुसार कठोर से कठोर दण्ड देना। परन्तु यहां तो दण्ड के स्थान में धमकियाँ दी जा रही है। रोज कोई न कोई मंत्री कालणा चेतावनी दे छोड़ते हैं। इस संकट के समय बेईमानी करने वालों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जायगी। जनता प्रतीक्षा में बैठी है कब! पर वह कड़ी कार्रवाई केवल चेतावनी तक परिमित है तभी तो ऐसे डाक्टर मौजूद हैं जो सेना में भरती होने वालों से भी रिश्वत मांगते हैं। इस अवस्था में कैसे मान लें कि हमारी आँखें खुल गई।
हमारी आँखें खुल गई यह उस दिन माना जायेगा जिस दिन शिक्षा पद्धति में चरित्र निर्माण की शिक्षा को उचित स्थान अर्थात् मुख्य स्थान प्राप्त होगा और साथ ही संकटकाल में अपने अधिकार का दुरुपयोग करने वालों को केवल चेतावनी नहीं सचमुच दण्ड दिया जाएगा पर चलो आँखें खुली नहीं तो खुलनी आरम्भ तो हो गई हैं। किसी दिन खुल भी जाएंगी। आर्यसमाज के एक एक बच्चे का धर्म हैं कि इस नेत्रोयोद्घाटन महायज्ञ में पूरे बल से सहयोग दें और जहां कहीं जिस कोने में कोई दुष्ट अपने अधिकार का दुरुपयोग करता है , उसका प्रजा में भी भाण्डा फोड़ करें तथा अधिकारियों को ठीक-ठीक सूचना भी पहुँचाते रहें। यही ठीक आँखें खोलने का मार्ग है। परम पिता सचमुच हमारी आँखें खोल दें। [आर्य संसार १९६३ से संकलित]
✍🏻 लेखक – स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती (पूर्व : पं० बुद्धदेवजी विद्यालंकार)
प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥