ओ३म्
संसार के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो सबसे पुराना इतिहास भारत का ही उपलब्ध होता है। भारत का इतिहास 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष पुराना है। लगभग 5,200 वर्ष पहले कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध हुआ था। इससे देश का महाविनाश हुआ। इसमें सैनिक व राजा तो मरे ही, इसके साथ अव्यवस्था के कारण हमारा प्रभूत वैदिक ज्ञान व विज्ञान भी ध्वस्त वा विलुप्त हो गया। यह महाभारत युद्ध की सबसे बड़ी क्षति थी। सौभाग्य से कुछ ऋषि बच गये। उनकी कुछ वर्षों तक, महर्षि जैमिनी तक, परम्परा चली। इसके बाद भी महर्षि दयानन्द की तरह कुछ ऋषि हुए जिन्होंने ग्रन्थों के प्रणयन द्वारा वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा के प्रयास किये। दक्षिणात्य स्वामी शंकराचार्य जी से पूर्व किसी ऐसे ऋषि की जानकारी उपलब्ध नहीं है जिसने महर्षि दयानन्द की भांति, लेखन, उपदेश, शास्त्रार्थ, शंका समाधान आदि द्वारा, वेदों का प्रचार किया हो। शंकाराचार्य जी ने भी वेदान्त, उपनिषद व गीता का अपनी अद्वैतवादी वेदान्त की विचारधारा के अनुसार प्रचार किया। महाभारत के बाद जो ऋषि हुए उन्होंने अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरुक्त जैसे कई ग्रन्थों का निर्माण किया। आयुर्वेद के ग्रन्थ चरक व सुश्रुत भी भारत की प्राचीन सम्पदा हैं। यह उस समय के ग्रन्थ हैं जब यूरोप के देश अस्तित्व में भी नहीं आये थे। इसी प्रकार से भारत में उपनिषद, दर्शन आदि अनेकानेक ग्रन्थों की रचना हुई। मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण, महाभारत ग्रन्थ भी किसी प्रकार से बच गये। मुगलों ने यद्यपि तक्षशिला व नालन्दा आदि के विशाल पुस्तकालयों को अग्नि को समर्पित कर दुर्भावना से नष्ट किया, शायद ही उन्होंने हमारे धर्म ग्रन्थों को नष्ट करने का कहीं कोई अवसर छोड़ा हो, तथापि दैव कृपा से बहुत सा साहित्य सुरक्षित रहा, जिसके लिए हमारे इन ग्रन्थों के रक्षक पण्डित व अन्य सभी बन्धु समस्त आर्य-हिन्दू जनता की कृतज्ञता व धन्यवाद के अधिकारी हैं। यह भी प्रसंग से बाहर जाकर लिख दे कि जिन अपने लोगों ने भारत पर राज्य किया व कर रहे हैं, वह वैदिक साहित्य व इसके यथार्थ महत्व से सर्वथा अनभिज्ञ ही रहे हैं। इनकी रक्षा व प्रचार का जो कार्य राज्य स्तर पर किया जाना चाहिये था, वह नहीं किया गया।
वेदों को कण्ठस्थ करने की परम्परा के कारण मानव की सबसे गौरवपूर्ण एवं महनीय बौद्धिक सम्पदा ‘वेद’ सृष्टि के आरम्भ से अब तक सुरक्षित व अपने मूल रूप में विद्यमान है। इसी प्रकार से खगोल ज्योतिष के भी ग्रन्थ भारत में विद्यमान हैं। हमारे देश व देश से बाहर के पुस्तकालयों में प्राचीन ग्रन्थों की बड़ी संख्या में पाण्डुलिपियां भी विद्यमान हैं जिनकी ओर हमारे सस्कृत के जानकार विद्वानों का ध्यान नहीं है। अभी तक किसी सरकार का इस ओर ध्यान नहीं गया। इन प्राचीन पाण्डुलिपियों के अध्ययन व अनुवाद आदि से जो लाभ मिल सकता था वह नहीं हो पा रहा है। वोटरों को लुभाने की ओर ही सरकारों का मुख्य ध्यान रहता है। यदि यह पाण्डुलिपियां विश्व के किसी अन्य देशों में होती जिनको उनके पूर्वजों ने लिखा होता तो उन्होंने इन सबका अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद व मूल्यांकन अवश्य किया होता। भारत अपनी प्राचीन बौद्धि़क धरोहरों व सम्पदा का मूल्यांकन करने व उसका महत्व जानने में शायद कम ही रूचि लेता है। ऐसा लगता है कि हमारे देश के प्रायः सभी बुद्धिजीवी पश्चिम के भौतिकवाद के प्रभाव से ग्रसित हैं, इसी कारण प्राचीन ज्ञान के अध्ययन की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। सौभाग्य से हमारे आर्य विद्वानों पं. भगवद्दत्त, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक आदि ने इस दिशा में यथासम्भव कार्य किया।
ईश्वर के प्रमाणित ज्ञान के सम्बन्ध में हमारा प्राचीन साहित्य ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण व सहायक है। संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद है। वेद में ईश्वर सहित जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ ज्ञान पर भी प्रकाश डाला गया है जिसका विस्तार उपनिषदों व दर्शन आदि ग्रन्थों में मिलता है। यह ज्ञान महाभारतकाल के बाद की परिस्थितियों से प्रभावित होकर लुप्त सा हो गया था। उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द (1825-1883) का आविर्भाव हुआ। उन्होंने अपने अपूर्व ब्रह्मचर्य और पुरुषार्थ से वेदों का पूर्ण ज्ञान, जो कि कोई मनुष्य जान सकता है, ग्रहण किया और ईश्वर की प्रेरणा व अपने विवेक से इस कार्य को मानवता का सर्वाधिक कल्याणी जानकर इसका अनेक प्रकार से प्रचार व प्रसार किया। वेद ही एकमात्र ऐसे सर्वप्राचीन प्रमाणिक ग्रन्थ हैं जिसमें ईश्वर का पूर्णतया सत्य व यथार्थ स्वरुप वर्णित व उपलब्ध है। अन्य मनुष्यकृत ग्रन्थों में से अधिकांश में ईश्वर का जो स्वरुप वर्णित है वह विष सम्पृक्त अन्न के समान त्याज्य हैं।
इससे पूर्व कि हम वेदों के ऋषि महर्षि दयानन्द के वेदों पर आधारित ईश्वर विषयक विचार प्रस्तुत करें, हम यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के आठवें मन्त्र ‘स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः सव्यम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।।’ इसका अर्थ दयानन्द जी के अनुसार यह है कि ‘हे मनुष्यों ! जो ब्रह्म शीघ्रकारी, सर्वशक्तिमान्, स्थूल–सूक्ष्म और कारण शरीर से रहित, छिद्ररहित और न ही छेद करने योग्य, नाड़ी आदि के साथ सम्बन्धरूप बन्धन से रहित, अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और जो पापयुक्त पापकारी और पाप में प्रीति करनेवाला कभी नही होता, सब ओर से व्याप्त है, जो सर्वत्र सब जीवों के मनों की वृत्तियों को जाननेवाला, दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला और अनादिस्वरूप जिसकी संयोग से उत्पत्ति तथा वियोग से विनाश और जिसका माता–पिता द्वारा गर्भवास, जन्म वृद्धि और मरण नहीं होते, वह परमात्मा सनातन अनादिस्वरूप अपने–अपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाशरहित प्रजाओं के लिये यथार्थ भाव से सब पदार्थों को विशेष कर बना कर वेद द्वारा प्रकाश करता है। यही परमेश्वर तुम लोगों का उपासना करने के योग्य है।’
ईश्वर का पूर्ण विस्तृत सत्यस्वरुप जानने के लिए पाठकों को महर्षि दयानन्दकृत सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, वेदभाष्य, आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इसके साथ सभी उपनिषदें व योगदर्शन भी ईश्वर का सत्यस्वरुप प्रस्तुत करने के साथ उनकी प्राप्ति के उपयों पर भी प्रकाश डालते हैं। ईश्वर का वेदवर्णित सत्यस्वरुप यदि संक्षेप में सरलता से जानना हो तो वह आर्यसमाज के दूसरे नियम, स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थों से जाना जा सकता है। हम इन तीनों ग्रन्थों के एतदविषयक उद्धरण यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के स्वरुप का प्रकाश करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ‘ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ आर्यामन्तव्यामन्तव्यप्रकाश लघु ग्रन्थ में महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि ‘जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर (कहते हैं) मानता हूं।’ आर्योद्देश्यरत्नमाला में ग्रन्थकार ने लिखा है कि ‘(ईश्वर) जिसके गुण–कर्म–स्वभाव और स्वरुप सत्य ही हैं, जो केवल चेतनमात्र वस्तु तथा जो एक, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त, सत्य गुणवाला है, और जिसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप–पुण्य के फल ठीक–ठीक पहुंचाना है, उसको ‘ईश्वर’ कहते हैं।’
संसार के अनेक मत-मतान्तरों में इस वैदिक मत का विरोधी व विपरीत ईश्वर का जो स्वरुप वर्णित किया गया है वह असत्य, अप्रमाणिक व अविद्याजन्य है। महर्षि दयानन्द द्वारा वर्णित उपर्युक्त ईश्वर का स्वरुप वह स्वरुप है जो कि एक सिद्ध योगी को समाधि अवस्था में साक्षात्कार होने पर प्रत्यक्ष अनुभव में आता है। इसी स्वरुप का वेदों व आर्ष वैदिक साहित्य में वर्णन है। तर्क व युक्ति से भी इसकी पुष्टि होती है। ईश्वर के इसी स्वरुप का ध्यान करने से आत्मा के मलों की निवृत्ति होने पर ईश्वर का साक्षात्कार होता है। वैदिक मत के विपरीत पद्धतियों से ईश्वर विषयक पूजा व उपासना से उपासना के मनुष्य जीवन के चरम लक्ष्य ईश्वर के साक्षात्कार की उपलब्धि नहीं होती। इसका निभ्र्रान्त ज्ञान भी वैदिक साहित्य को पढ़कर व अनुमान से जाना जाता है। हमने उपर्युक्त पंक्तियों में ईश्वर का जो वेद पोषित स्वरुप प्रस्तुत किया है वही प्रमाणिक व सत्य स्वरुप है। संसार के सभी मनुष्यों को इसी स्वरुप को जानकर, वेदाध्ययन करने व ध्यान आदि साधना करने से ईश्वर की प्राप्ति जीवनकाल में ही हो जाती है। यह समाधि व ईश्वर के साक्षात्कार की अवस्था ही स्वर्ग व मोक्ष के समान सर्वाधिक सुख व आनन्द की स्थिति होती है। इसको प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य है। यदि मानव जीवन में यह स्थिति प्राप्त नहीं की, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी कर लिया जाये, इसकी तुलना में वह सब हेय व निम्न है। उत्कृष्ट मनुष्य जीवन वही है जिसमें आध्यात्म व भौतिकवाद का समन्वय हो। केवल भौतिकवादी जीवन अपंग ही कहा जायेगा। आशा है कि लेख के विचारों से पाठक लाभान्वित होंगे।
–मनमोहन कुमार आर्य
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