[यह “आर्य” का सम्पादकीय लेख का अंश है जो की आषाढ़ सम्वत् १९८२ (जुलाई सन् १९२५) अंक में छपा था]
आर्यसमाज की स्थापना हुए ५० साल से ऊपर हो चुके हैं और तभी से उसका यह दावा रहा है कि हमारे प्राचीन साहित्य में सर्वत्र स्थान-स्थान पर इस देश के रहने वाले लोगों के लिये ‘आर्य’ शब्द ही का प्रयोग होता रहा है और ‘हिन्दू’ शब्द हमारे विरोधी यवन लोगों का ही चलाया हुआ है। इस पर समय-समय पर हिन्दू (सनातनी) लोगों की ओर से यह कहा जाता रहा कि यह सब कार्यवाही इने गिने कुछेक आर्यसमाजियों की है और इसका उद्देश्य गुप्त रूप से आर्यसमाज का प्रचार करना है। अब भी कुछेक ऐसे व्यक्ति हैं जो निष्काम भाव से इस बात का विश्वास रखते हैं और हृदय से इसे स्वीकार करते हैं कि इस देश का नाम हिन्दू है। किन्तु उन्हें यह याद रखना चाहिए कि यह प्रश्न कोई आर्यसमाजियों का उठाया हुआ नहीं है। आज से ५५ साल पूर्व (जब आर्यसमाज की इस रूप में स्थापना भी नहीं हुई थी) भी काशी के विद्वानों में इस प्रश्न ने खलबली पैदा की थी। उस समय उन विद्वानों ने इस विषय में जो व्यवस्था दी थी इसे अभी स्वामी श्रद्धानन्दजी ने पुराने कागजों से निकाल कर पत्रों में प्रकाशित कराया है। वह निम्न प्रकार है –
🤔प्रश्न – श्रीमद्भागवत, एकादश स्कन्ध, सत्रहवें अध्याय में लिखा है कि सतयुग हंसवर्ण सब कोई कहाबते थे; और त्रेता में हंसाक्त चार वर्ण, चार आश्रम का विभाग होता गया। इस कारण वर्णाश्रमी कहाये। अब सब कोई हिन्दू नाम करके ख्याल करते हैं। सो हिन्दू शब्द की चर्चा कोई शास्त्र में नहीं मिलती। इस हेतु हम यह जानना चाहते हैं, कि हिन्दू कहावना उचित वा अनुचित है?
🌺उत्तर – वर्णाश्रमी देश बोधक जो हिन्दू शब्द है सो यवन-संकेतित है। वर्णाश्रमी बोधक जो हिन्दू शब्द है, यह भी यवन-सङ्केतित है। इस कारण हिन्दू कहावना सर्वथा अनुचित है। यह निर्णय श्रीकाशी मध्य टेढ नीम तले श्रीमहाराजाधिराज काशीराज महाराज संरक्षित धर्म-सभा में सब लोगों ने किया। हस्ताक्षर –
(१) श्री विश्वनाथ शर्मा …………….(४५) श्रीबाबा शास्त्री।
🔥हिन्दूशब्दो हि यवनेष्वधर्मिजनबोधकः।
अतो नाहति तच्छब्द बोध्यतां सकलो जनः।
पापिनां पानी यवनः संकेत कृतवान्नरः।
नोचितः स्वीकृतोस्माभिर्हिन्दूशब्द इतीरितः॥
काफ़िर को हिन्दू कहत, यवर स्व-भाषा मांहि।
ताते हिन्दू नाम यह, उचित कहइवो नांहि॥
✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰
[📖 साभार ग्रन्थ – विचार वाटिका(भाग-२) – राजेंद्र जिज्ञासु]
प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥