Category Archives: Uncategorized

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः हैमवर्चिः । देवता अग्निः । छन्दः शक्वरी ।

यदापिपेष मातरं’ पुत्रः प्रमुदितो धयन् । एतत्तदग्नेऽअनृणो भवाम्यर्हतौ पितरौ मया सम्पृच स्थ सं मा भद्रेण पृङ्ख विपृचे स्थवि मा पाप्मना पृङ्ख ॥

-यजु० १९ । ११

( यत् ) जो ( आ पिपेष ) चारों ओर से पीसा है, पीड़ित किया है ( मातरं ) माता को (पुत्रः ) मुझ पुत्र ने (प्रमुदितः ) प्रमुदित होकर ( धयन्) दूध पीते हुए, ( एतत् तद् ) यह वह ( अग्ने ) हे विद्वन् ! ( अनृणः भवामि ) अनृण हो रहा हूँ। अब बड़ा होकर ( मया ) मैंने (पितरौ ) माता-पिता को ( अहतौ ) पीड़ित नहीं किया है, [प्रत्युत उनकी सेवा की है] । हे विद्वानो! आप लोग ( सम्पृचः स्थः ) संपृक्त करनेवाले हो। ( मा ) मुझे (भद्रेण) भद्र से ( संपृक्त ) संपृक्त करो, जोड़ो। आप लोग (विपृचः स्थ) वियुक्त करनेवाले हो, ( मा ) मुझे ( पाप्मना ) पाप से ( वि पृङ्क) वियुक्त करो, | पृथक् करो।

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार  

जब मैं बच्चा था, तब माता की गोदी में लेटा हुआ बहुत हाथ-पैर मारता था, किलकारी भर कर मचलता था, उछलता था, प्रमुदित होकर माँ का दूध पीता था, ऐसी गतिविधियाँ करता था कि माँ को पीसे डालता था। माँ के साथ चिपट कर सोता था, बिस्तर पर ही मल-मूत्र कर देता था, माँ मुझे सूखे में कर स्वयं गीले में सोती थी, सब कष्ट सहती थी। जब कुछ बड़ा हुआ, तब घुटनों के बल सरकने लगा। कोई कितनी ही मूल्यवान् वस्तु रखी होती थी, वह मेरे हाथ लग जाती थी, तो उसे गिरा देता था, फेंक देता था। तब भी माँ मुझे कुछ  नहीं कहती थी। ज्यों-ज्यों कुछ बड़ा होता गया, मेरी शरारतें बढ़ती गयीं और मैं माँ को कष्ट ही कष्ट देता गया। फिर भी माँ मुझे दुलराती थी, पुचकारती थी। कभी मार भी देती, तो फिर उठा कर छाती से चिपटा लेती थी। अब तो मैं बहुत बड़ा हो गया हूँ, युवक कहलाने लगा हूँ। बचपन में माँ को दी गय पीड़ाओं को याद करता हूँ, तो दु:खी होने लगता हूँ। सोचता हूँ, माता-पिता ने बाल्यकाल में मेरी जो सेवा की है, उसका ऋण क्या कभी मैं चुका सकुँगा? मैंने बालपन में जो उन्हें कष्ट पहुँचाये हैं, उनका क्या कभी प्रतीकार कर सकेंगा? मैं उन्हें कष्ट ही कष्ट देता रहा और वे मुझे सुख ही सुख देते रहे। उन्होंने मेरी सेवा की, पढ़ने योग्य हुआ तो पढ़ाया लिखाया, योग्य बनाया। उनके उस ऋण से मैं अनृण होना चाहता हूँ। अतः मैं आज से व्रत लेता हूँ कि भविष्य में मैं कभी ऐसा काम नहीं करूंगा, जिससे उनका जी दु:खे, उन्हें कष्ट पहुँचे। बचपन में मेरी जैसी सेवा उन्होंने की है, उससे बढ़कर उनकी सेवा करूंगा। पहले मैं उन्हें पैर मारता था, अब उनके चरण दबाऊँगा। वे रोगी होंगे तो उनके लिए औषध लाऊँगा। स्वयं कमा-कमा कर उन्हें खिलाऊँगा, उनकी सबै आवश्यकताएँ पूरी करूंगा। हर तरह से उन्हें प्रसन्न रखने का यत्न करूंगा। कभी उनका हनन नहीं करूंगा-”अहतौ पितरौ मया।”

हे विद्वानो ! आपसे जो सम्पर्क स्थापित करता है, उसे आप सद्गुणों और सत्कर्मों से सम्पृक्त कर देते हो। आपके सदाचरण से वह भी सदाचार की शिक्षा ले लेता है। आप मुझे * भद्र’ से संपृक्त करो, भले कर्मों से जोड़ो। मुझे परोपकार में लगाओ, पर-सेवा में तत्पर करो, परों का कष्ट मिटाने में और उन्हें सुखी करने में संलग्न करो। मेरे विचार भद्र हों, मेरे सङ्कल्प भद्र हों, मेरी चेष्टाएँ भद्र हों । हे विद्वानो! आपसे जो सम्बन्ध जोड़ता है, उसे अभद्र कार्यों से आप वियुक्त कर देते हो, छुड़ा देते हो। मुझे ‘पाप’ से वियुक्त करो, पृथक् करो। पाप विचार को और पाप कर्म को मैं अपने पास न फटकने दें और यदि पाप मैं करूं, तो आप उसे मेरे अन्दर से निकाल फेंको। मैं आपका गुणगान करूँगा, मैं आपको सदा ऋणी रहूँगा। आपको मेरा नमस्कार है।

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार  

अष्टाङ्गयोग का ढूध -रामनाथ विद्यालंकार

अष्टाङ्गयोग का ढूध -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वसिष्ठः । देवता यज्ञ: । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।।

यज्ञस्य दोहो विर्ततः पुरुत्रा सोऽअष्टधा दिवमन्वाततान। य यज्ञ धुक्ष्व महिं मे प्रजायाश्चरायस्पोषं विश्वमायुरशीय स्वाहा।

-यजु० ८ । ६२

( यज्ञस्य ) योग-यज्ञ का ( दोहः ) दूध ( पुरुत्रा ) बहुत स्थानों में ( विततः ) फैला हुआ है । (सः ) वह यज्ञ ( अष्टधा ) यम, नियम आदि आठ योगाङ्गों के खम्भों पर (दिवं ) आत्मा रूप द्युलोक का ( अन्वाततान) तम्बू तानता है। ( नः यज्ञ ) वह तू हे योगयज्ञ ( मे प्रजायां ) मेरी प्रजा में ( महि रायस्पोषं ) महान् योगैश्वर्य की पुष्टि को ( धुक्ष्व ) दोहन कर। मैं योगबल से ( विश्वम् आयुः ) सम्पूर्ण आयु ( अशीय) प्राप्त करूं। (स्वाहा ) योग-यज्ञ में मेरी आहुति है।

क्या तुम ऐसे यज्ञ को जानते हो, जो दूध देता है, अनेक स्थानों पर जिसकी शालाएँ दूध बाँटने के लिए खुली हुई हैं। और जो आठ खम्भों पर द्युलोक का तम्बू तानता है? यह यज्ञ योग-यज्ञ है, जिसमें सब चित्तवृत्तियों का अभ्यास और वैराग्य के द्वारा अथवा ईश्वरप्रणिधान के द्वारा निरोध करके, मार्ग में आनेवाले चित्तविक्षेपरूप अन्तरायों (विघ्नों) का प्रतिषेध करके समाधि प्राप्त की जाती है, अध्यात्मप्रसाद मिलता है, जिसमें ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय होता है। ईश्वर के स्वरूप का साक्षात्कार, आनन्द और शान्ति ही उस योग-यज्ञ का दूध है। देश-विदेश में जहाँ-जहाँ भी योग के शिविर लगते हैं और योगसाधना होती है, वहाँ-वहाँ वह दूध बँटे रहा है। आगे मन्त्र कहता है कि वह यज्ञ आठ प्रकार से या आठ साधनों से द्युलोक का तम्बू तानता है। योग-यज्ञ के आठ अङ्ग होते हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। अध्यात्म में शरीर पृथिवी है, मन अन्तरिक्ष है और आत्मा द्यलोक है। अतः द्यलोक का तम्ब तानने का अभिप्राय है आत्मा की ऋद्धि-सिद्धि को फैलाना । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहे ये पाँच यम कहलाते हैं। जो अहिंसा को अपने अन्दर प्रतिष्ठित कर लेता है, उसके प्रति सब प्राणी वैर को त्याग देते हैं। सत्य प्रतिष्ठित कर लेने पर योगी जो आशीर्वाद देता है, वह सत्य सिद्ध हो जाता है। अस्तेय की प्रतिष्ठा से वह सब रत्नों की प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है। ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा से वीर्यलाभ होता है। अपरिग्रह की स्थिरता से पूर्व जन्म की बातें याद आ जाती हैं। शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान ये पाँच नियम हैं। शौच से शरीर इन्द्रियाँ, मन आदि सर्वथा शुद्ध रहते हैं। सन्तोष से सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति होती है। तप से अशुद्धिक्षय होकर शरीर, इन्द्रियों और मन की अणिमा, लघिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। स्वाध्याय से अभीष्ट विषय का ज्ञान होता है। ईश्वरप्रणिधान से समाधि सिद्ध होती है। चिरकाल तक जिससे सुखपूर्वक बैठ सके वह आसन कहलाता है, उससे सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्व नहीं सताते । प्राणायाम से प्रकाशावरण का क्षय होता है और धारणाओं में मन की योग्यता हो जाती है। इन्द्रियों का बाह्य विषयों से हटाना प्रत्याहार कहाता है। उससे इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं। चित्त का किसी देश-विशेष में लगाये रखना धारणा कहलाती है। चित्त को जिस विषय में लगाना हो चिरकाल तक उसमें लगाये रखना ध्यान कहलाता है। समाधि में चित्त निर्विषय हो जाता है, उससे आनन्द की अनुभूति तथा ईश्वर-साक्षात्कार होता है। इस प्रकार योगयज्ञ अष्टाङ्गों द्वारा आत्मा को आध्यात्मिक सुख प्रदान करता है। मन्त्र के अन्तिम भाग में कहा गया है कि योगयज्ञ द्वारा प्रजाओं में योगैश्वर्य की पुष्टि होती है तथा पूर्ण आयु प्राप्त हो सकती है। ये सब अष्टाङ्गयोग के दूध हैं। आइये, हम भी अष्टाङ्गयोग की उपासना करके उसके दूध का पान करने का सौभाग्य प्राप्त करें।

अष्टाङ्गयोग का ढूध -रामनाथ विद्यालंकार 

हे बली! वायुवेग से चल -रामनाथ विद्यालंकार

हे बली! वायुवेग से चल -रामनाथ विद्यालंकार 

 ऋषिः बृहस्पतिः । देवता वाजी । छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् ।

वातरम्हा भव वाजिन् युज्यमानऽइन्द्रस्येव दक्षिणः श्रियैधि। युञ्जन्तु त्वा मरुतो विश्ववेदसऽआ ते त्वष्टा पत्सु जवं दधातु ॥

-यजु० ९।८

हे ( वाजिन्) बली मनुष्य ! तू (नियुज्यमानः ) कर्म में नियुक्त होता हुआ (वातरंहाःभव ) वायु के समान वेगवाला हो। ( इन्द्रस्य इव ) राजा की तरह ( श्रिया) लक्ष्मी से ( दक्षिणः ) सम्पन्न ( एधि ) हो। ( युञ्जन्तु ) कार्यों में प्रेरित करें ( त्वा ) तुझे (विश्ववेदसः ) सकल विद्याओं के वेत्ता ( मरुतः ) विद्वान् जन । ( त्वष्टा ) जगत् का शिल्पी परमेश्वर ( ते पत्सु ) तेरे पैरों में (जवं ) वेग ( आ दधातु ) ला देवे ।

हे वीर ! संसार तुझे बली कहता है और तू भी स्वयं को बली मानता है। तो फिर मरियल चाल से क्यों चल रहा है? क्या इस उदासी- भरे मन और निष्क्रिय चाल से तुझे सङ्कोच नहीं होता? तू यह भी नहीं सोचता कि जग क्या कहेगा। तेरे बल को धिक्कारेगा या सराहेगा। | हे बली ! उड़, वायुवेग से उड़। बैलगाड़ी का युग नहीं रहा, वायुयान से यात्रा कर। जलपोत में बैठकर जहाँ तू चार दिन-रात में पहुँचेगा, वहाँ वायुयान से पाँच घण्टे में पहुँच जाएगा। करने को बहुत कुछ है, समय कम है। अत: प्रत्येक कार्य तीव्र गति से कर। आज के वैज्ञानिक आविष्कारों का भी लाभ उठा। वायुवेग से भी नहीं, मनोवेग से उड़। मन एक सेकेण्ड में अमरीका पहुँच जाता है। तू बेलगाड़ी से भूमि पर चलेगा, नाव से समुद्र पार करेगा, तो हिसाब तो लगा कि अमरीका कितने महीनों में पहुँचेगा। केवल यात्रा में ही तेजी लाने के लिए मैं तुझे नहीं प्रेरणा दे रहा हूँ। यात्रा तो उपलक्षण है, उदाहरण है, सब कार्यों में तुझे तेजी लानी होगी। परन्तु एक बात याद रख। कार्य में अन्धाधुन्धी भी नहीं करनी है। सोच-विचार कर पहले निर्णय कर ले कि किस कार्य को करना है, कैसे करना है, कितने समय में करना है, यह कार्य व्यर्थ तो सिद्ध नहीं होगा या यह कार्य सामूहिक जगत् में उपहसनीय अथवा निन्दनीय तो नहीं होगा। ‘इन्द्र’ की प्रेरणा में चल, ‘वृत्र’ की प्रेरणा में नहीं। इन्द्र ऐश्वर्य, वीरता, सत्य शिव-सुन्दर सबका प्रतिनिधित्व करता है, वृत्र प्रतिनिधि है। अन्धकार, पर-पीड़ा, आच्छादन, संहार, आतङ्क का। इन्द्र की प्रेरणा से कार्य-तत्पर होगा, तो यश मिलेगा, अभिनन्दन होंगे, जयकार होगा। वृत्र की प्रेरणा से चलेगा, तो अपयश हाथ लगेगा, मनीषियों के बीच हास्यास्पद होगा। इसलिए तेजी से तो चल, किन्तु ऐसी तेजी मत ला कि यह भी न सोचे कि चलना किधर है। इन्द्र की प्रेरणा में चलकर इन्द्र के समानश्री-सम्पन्न बन। |

कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व सब विद्याओं के विज्ञानी विद्वान् लोगों से भी परामर्श कर ले कि यह कार्य किस सीमा तक लाभ या हानि पहुँचा सकता है। उन अनुभवी विद्वानों से सहमति प्राप्त करके ही कार्य आरम्भ कर । यदि वे तेरी योजना में कुछ संशोधन करना चाहें, तो संशोधन कर ले। यदि वे उस योजना को रद्द करके तुझे कोई अन्य योजना बनाने की राय दें, तो उस पर विचार कर ले।

त्वष्टा’ प्रभु अखिल ब्रह्माण्ड का शिल्पी है। वही सुविचारित कार्यों को सफल करता है। उसका भी आशीर्वाद ग्रहण कर ले। त्वष्टा प्रभु तेरे पैरों में वेग ला देवे। पैर सभी इन्द्रियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। त्वष्टा प्रभु तेरे शरीर की प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय

और कर्मेन्द्रिय में बल और वेग उत्पन्न कर दे, जिससे तू प्रत्येक कार्य त्वरित गति से कर सके। ‘त्वष्टा’ का अर्थ सूर्य भी होता है, सूर्य के पैर उसकी किरणें हैं। सूर्य-किरणों या सूर्य-प्रकाश की गति प्रति सेकेण्ड ३ लाख कि० मीटर है। उससे भी शिक्षा लेकर सब कार्य द्रुत गति से कर। अन्यथा मृत्यु के समय तू पछतायेगा कि इस जीवन में ये- ये कर्म हो सकते थे, मैंने तो कुछ भी नहीं किया। जा, कार्यक्षेत्र में उतर, वायुवेग से चल, मनोवेग से चल, सफलता तेरे चरण चूमेगी।

हे बली! वायुवेग से चल -रामनाथ विद्यालंकार 

पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार

पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वत्सप्री: । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

अग्नेऽअङ्गिरः शतं ते सन्त्ववृतेः सहस्त्रे तऽउपवृतः अध पोषस्य पोषे पुनर्नो नष्टमाकृधि पुनर्नो रयिमाकृधि॥

-यजु० १२।८

हे ( अङ्गिरः अग्ने ) विद्यारसयुक्त अध्यापक! ( शतं ) एक-सौ ( ते सन्तु ) तेरी हों (आवृतः ) आवृत्तियाँ। ( सहस्त्रं ) एक सहस्र हों ( ते ) तेरी ( उपावृतः ) उपावृत्तियाँ। यदि पाठ विस्मृत ही हो गया है, आवृत्ति से काम नहीं चलता, तब (नः ) हमारे ( नष्टं ) नष्ट या विस्मृत पाठ को ( पोषस्य पोषेण ) परिपुष्ट अध्यापक के पोषण से (पुनःआकृधि ) पुनः मन में बैठा दो। ( पुनः ) फिर ( नः ) हमारी ( रयिं ) विद्या-लक्ष्मी को ( आकृधि) उत्पन्न कर दो।।

शिक्षणालयों में विद्या ग्रहण करनेवाले विद्यार्थियों का योग्यता के कई कारण होते हैं, जिनमें अध्यापक की अध्यापन रीति एक प्रमुख कारण है। एक शिक्षाशास्त्री का कथन है कि * आचार्य समाहित होकर छात्रों को ऐसी रीति से विद्या और सुशिक्षा करे कि जिससे उनके आत्मा के भीतर सुनिश्चित अर्थ होकर उत्साह ही बढ़ता जाये। दृष्टान्त, हस्तक्रिया, यन्त्र, कलाकौशल, विचार आदि से विद्यार्थियों के आत्मा में पदार्थ इस प्रकार साक्षात् करावे कि एक के जानने से हजारों पदार्थ यथावत् जानते जायें ।

प्रस्तुत मन्त्र में अध्यापक को ‘अग्नि’ कहा गया है। अग्नि शब्द उणादि कोष में गत्यर्थक ‘अगि’ धातु से ‘नि’ प्रत्यय करके निष्पन्न किया गया है। इससे अध्यापक के क्रियाशीलता, तत्परता, ज्ञानप्रकाशयुक्तता, अध्यापन-कुशलता  आदि गुण सूचित होते हैं। यहाँ अध्यापक को एक विशेषण ‘अङ्गिरस्’ है। उणादि में अङ्ग से असि प्रत्यय तथा इरुङ् का आगम करके यह शब्द निपातित किया गया है, जिससे अध्यापक का विद्याङ्गसमय होना सूचित होता है। तात्पर्य यह है कि अध्यापक को अखिल वेदवेदाङ्गों का तथा ज्ञान-विज्ञान के भण्डार का स्वामी होना चाहिए। मन्त्र में अध्यापक द्वारा शिष्यों को पढ़ाये हुए पाठ की आवृत्तियाँ और उपावृत्तियाँ कराने पर विशेष बल दिया गया है। वह शिष्यों को एक-सौ आवृत्तियाँ तथा एक-सहस्र उपावृत्तियाँ कराये। आवृत्ति से तात्पर्य है, उस पाठ की अक्षरशः पूर्ण आवृत्ति अर्थात् उस पाठ को पूरा दोहराना। उपावृत्ति का अभिप्राय है, उस पाठ पर सामान्य दृष्टि डालना। प्रतिदिन एक आवृत्ति की जाए, तौ एक-सौ आवृत्तियों में तीन मास दस दिन लगेंगे। एक सहस्र उपावृत्तियों में २ वर्ष ९ मास १० दिन। यह अनुभव से देखा गया है कि किन्हीं श्लोकों, मन्त्रों आदियों का प्रतिदिन पाठमात्र कर लेने पर, स्मरण करलेने के लिए मस्तिष्क पर कोई बल न देने पर भी वे तीन-चार मास में स्मरण या कण्ठस्थ हो जाते हैं। उसके बाद अक्षरशः न देख कर सामान्य दृष्टि-निक्षेप से ही काम चल जाता है।

उत्तरार्ध में मन्त्र कहता है कि यदि कोई पाठ पूर्णतः लुप्त (नष्ट) हो जाए, उसके सब ग्रन्थ जलविप्लव या अग्नि आदि से विनष्ट हो जाएँ तो भी सुयोग्य विद्वान् पुनः उस विद्या का अनुसन्धान या आविष्कार कर सकते हैं। इस प्रकार खोई हुई लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करा सकते हैं। यहाँ यदि ‘नष्ट’ का अर्थ पूर्णतः विस्मृत लें, तो कुशल अध्यापक पुनः उसे शिष्य के मस्तिष्क में बैठा सकता है, यह भाव लेना चाहिए।

पादटिप्पणियाँ

१. स्वामी दयानन्द सरस्वती, ऋ० भा० १.४.४, भावार्थ ।।

२. अङ्गेर्नलोपश्च उ० ४.५१, अगि- नि, अङ्ग नि, अग्-नि=अग्नि।

३. अङ्ग- असि प्रत्यय, इरुङ्-इर् का आगम। अङ्गिरा: उ० ४.२३७।

४. अङ्गिराः विद्यारसयुक्तः-द० । अङ्ग-रस=अङ्गिरस्।

पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वरुण: । देवता मन्त्रोक्ताः । छन्दः स्वराड् धृतिः ।

सोमस्य विषिरसि तवेव मे विषिर्भूयात् । अग्नये स्वाहा सोमाय स्वाहा सवित्रे स्वाहा सरस्वत्यै स्वाहां पूष्णे स्वाहा बृहस्पतये स्वाहेन्द्राय स्वाहा घोषाय स्वाहा श्लोकाय स्वाहा शाय स्वाहा भगाय स्वाहार्यम्णे स्वाहा॥

-यजु० १०/२३

तू ( सोमस्य ) चन्द्रमा की ( त्विषिः असि) दीप्ति है, ( तव इव ) तेरी दीप्ति के समान (मे त्विषिः भूयात् ) मेरी दीप्ति हो। ( अग्नये स्वाहा ) अग्नि के लिए स्वाहा, (सोमायस्वाहा ) सोम के लिए स्वाहा, ( सवित्रे स्वाहा ) सविता के लिए स्वाहा, (सरस्वत्यै स्वाहा ) सरस्वती के लिए स्वाहा, ( पूष्णे स्वाहा ) पूषा के लिए स्वाहा, (बृहस्पतये स्वाहा ) बृहस्पति के लिए स्वाहा, ( इन्द्राय स्वाहा ) इन्द्र के लिए स्वाहा, (घोषाय स्वाहा ) घोष के लिए स्वाहा, ( श्लोकाय स्वाहा ) श्लोक के लिए स्वाहा, (अंशाय स्वाहा ) अंश के लिए स्वाहा. ( भगाय स्वाहा ) भग के लिए स्वाहा. (अर्यमणेस्वाहा ) अर्यमा के लिए स्वाहा।

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार 

नवनिर्वाचित राजा सोम ( चन्द्रमा) को देख कर या उसका ध्यान करके कह रहा है–’तू चन्द्रमा की दीप्ति है, तेरी तरह मेरी भी दीप्ति हो। पूर्णिमा की रात्रि में चन्द्र-ज्योत्स्ना अपने धवल शान्तिदायक, मधुर प्रकाश से जैसे सबको आच्छादित करती है, ऐसे ही राजा कामना कर रहा है कि मैं भी सबको अपनी सात्त्विकता, स्वच्छता, निष्कलङ्कता, पवित्रता के प्रभाव में लेकर निष्कलङ्क और पवित्र बना सकें। तत्पश्चात् वह विभिन्न देवों के लिए आहुतियाँ देता है। ‘अग्नये स्वाहा’ तात्पर्य यह है कि मैं स्वयं अग्नि जैसा तेजस्वी, ऊर्ध्वगामी और राष्ट्र में परिपक्वता लानेवाला बनूंगा। ‘सोमाय स्वाहा’ सोम जैसे ओषधियों का राजा है, वैसे ही मैं प्रजा का राजा हूँ। सोम ओषधि के समान मैं भी पीड़ित, आतुर, रोगार्त लोगों को स्वास्थ्य और सजीवता प्रदान करूंगा। राष्ट्र में विभिन्न चिकित्सा-पद्धतियों को और शल्यक्रिया-विभाग को समुन्नत करूंगा। औषध-निर्माण की ओर भी ध्यान देंगा। ‘सवित्रे स्वाहा’-सूर्य जैसे अन्धकार को विच्छित्र कर प्रकाश फैलाता है, वैसे ही मैं भी अपने राज्य में अनैतिकता के अन्धकार को और तामसिकता को दूर कर नैतिकता का प्रकाश फैलाऊँगा और प्रजा में सात्त्विक वृत्ति उत्पन्न करूंगा। ‘सरस्वत्यै स्वाहा’ सरस्वती विद्या, वेदवाणी, शिक्षणकला आदि को सूचित करती है। मैं राष्ट्र में शिक्षा का स्तर उन्नत करूंगा, विभिन्न विद्याओं को प्रसारित करूंगा, राष्ट्र को सारस्वत साधना का केन्द्र बनाऊँगा।’पूष्णे स्वाहा’-पूषा पुष्टि के गुण को सूचित करता है। वेद में यह मार्गरक्षक तथा पशुरक्षक के रूप में भी वर्णित हुआ है। मैं राष्ट्र में अन्नादि की पुष्टि की प्रचुरता लाऊँगा तथा मार्गरक्षक नियुक्त करूंगा, जिससे यातायात में यात्रियों को कष्ट न हो और गाय आदि पशुओं की सुरक्षा का भी प्रबन्ध करूंगा। ‘बृहस्पतये स्वाहा’–बृहस्पति से विशाल वाङ्मय का स्वामी विद्वान् गृहीत होता है। राष्ट्र में विद्वानों का यथोचित सम्मान हो, उन्हें साहित्यसर्जन, ग्रन्थलेखन, प्रकाशन आदि की सुविधाएँ प्राप्त हों, उनकी जीविका का भी प्रबन्ध हो, इसका ध्यान रखेंगा। ‘इन्द्राय स्वाहा’–इन्द्र वीरता का देव है, यह सैनिक शक्ति, युद्ध, राक्षस-विध्वंस आदि को सूचित करता है। राष्ट्र की स्थलसेना, जलसेना, अन्तरिक्षसेना, शस्त्रास्त्रशक्ति आदि को विकसित करूंगा तथा यदि किसी राष्ट्र से युद्ध अनिवार्यतः करना पड़े, तो हमारी विजय ही हो इसका प्रबन्ध करूंगा। ‘घोषाय स्वाहा’-सब प्रकार के ध्वनियन्त्र ग्रामोफोन, फोनोग्राम, दूरभाष, चलभाष, दुन्दुभिवाद्य, युद्ध-वाद्य आदि के आविष्कार तथा निर्माण की व्यवस्था करूंगा। ‘श्लोकाय स्वाहा’–सङ्गीत, गायन, सस्वर वेदमन्त्रपाठ, श्लोकरचना आदि को प्रोत्साहन दूंगा।’अंशाय स्वाहा’—जिसका जो अंश या भाग है, वह उसे मिले, कोई उससे वञ्चित न हो, इसका उपाय करूंगा। पिता या सम्पत्ति के स्वामी की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति का कितना अंश किसे मिले, इसके नियम निर्धारित होंगे । आयकर सम्बन्धी नियमों के निर्धारण और प्रजा द्वारा उनके पालन की ओर भी ध्यान देंगा। राजकर के रूप में प्राप्त धन प्रजाहित में ही व्यय हो, इसका भी ध्यान रखा जाएगा। ‘भगाय स्वाहा’–भग धन का प्रतिनिधित्व करता है। मेरा राष्ट्र अच्छा धनी हो, सब राष्ट्रवासियों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो, बेकारी, भुखमरी आदि का कोई शिकार न हो, इसकी भी व्यवस्था करूंगा। ‘अर्यम्णे स्वाहा’-अर्यमा का अर्थ दयानन्दभाष्य में प्रायः न्यायाधीश किया गया है। राष्ट्र में न्यायव्यवस्था को सही रूप में चलाऊँगा। सबको समुचित न्याय प्राप्त होगा। अपराधियों के लिए कारागार और दण्डव्यवस्था भी होगी।

आज आप सबके सम्मुख यज्ञाग्नि में आहुतियाँ देते हुए मैंने जो प्रण लिये हैं, उन्हें पूर्ण कर सकने के आशीर्वाद की प्रभु से और जनता से याचना करता हूँ।

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ – रामनाथ विद्यालंकार 

राष्ट्र के उत्कर्ष का उद्योग कर – रामनाथ विद्यालंकार

rashtra ke utkarsh ka udhyog kar1राष्ट्र के उत्कर्ष का उद्योग कर – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता द्यावापृथिवी । छन्दः अतिशक्वरी।।

इषे पिन्वस्वोर्जे पिन्वस्व ब्रह्मणे पिन्वस्व क्षत्राय पिन्वस्व द्यावापृथिवीभ्यो पिन्वस्व। धर्मासि सुधर्मामैन्यस्मे नृणानि । धारय ब्रह्म धारय क्षत्रं धारय विशं धारय ।

-यजु० ३८.१४

हे सम्राट् ! राष्ट्र में ( इषे ) अन्नादि भोज्य पदार्थों की वृद्धि के लिए ( पिन्वस्व ) उद्योग कर। ( क्षत्राय) राष्ट्र की रक्षा के लिए ( पिन्वस्व ) उद्योग कर। ( ब्रह्मणे ) ज्ञान की वृद्धि के लिए ( पिन्वस्व ) उद्योग कर। ( क्षत्राय ) राष्ट्र की रक्षा के लिए ( पिन्वस्व ) उद्योग कर। ( द्यावापृथिवीभ्यां ) सूर्य और पृथिवी का उपयोग लेने के लिए (पिन्वस्व) उद्योग कर। हे ( सुधर्म ) श्रेष्ठ धर्म का आचरण करनेवाले ! ( धर्मा असि ) तू धर्म का प्रचारक है। ( अनेमि ) अहिंसक रूप से ( अस्मे ) हम में ( नृम्णानिधारय) धनों को उत्पन्न कर, ( ब्रह्म धारय ) ब्राह्मणों को उत्पन्न कर, ( क्षत्रं धारय ) क्षत्रियों को उत्पन्न कर, (विशं धारय ) वैश्यों को उत्पन्न कर।

हे सम्राट! आपने राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया है. आपको राष्ट्र की चतुर्मुखी उन्नति करनी है। आप राष्ट्र में सब प्रकार के अन्नों और भोज्य पदार्थों की उत्पत्ति का प्रबन्ध करो। किसी भी अन्न या भोज्य पदार्थ के लिए हमारे राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र का मुखापेक्षी न होना पड़े। बाहर से किसी अन्न का आयात न करना पड़े। आपको राष्ट्र का बल बढ़ाना है। आप जल-सेना, स्थल-सेना और अन्तरिक्ष-सेना की वृद्धि करो। कोई शत्रु हमारे राष्ट्र की ओर आँख उठाने का साहस न कर सके। आप राष्ट्र के ज्ञान की वृद्धि करो, राष्ट्र में सब विद्याओं के अध्ययन-अध्यापन एवं क्रियात्मक प्रयोग का उद्योग करो। आप राष्ट्र की रक्षा का, राष्ट्र के क्षात्रबल को बढ़ाने का उद्योग करो। प्रत्येक राष्ट्रवासी के लिए सैनिक शिक्षा अनिवार्य करो और शस्त्रास्त्रों को चलाने की विद्या सिखाओ, जिससे आवश्यकता पड़ने पर प्रत्येक राष्ट्रवासी वीर सैनिक का कार्य कर सके। आप सूर्यताप से यन्त्रों को चलाने की, सौर विद्युत् से प्रकाश-प्राप्ति की, पृथिवी की खानों से खनिज द्रव्यों की प्राप्ति की, समुद्र से मणि-मुक्ताओं की प्राप्ति की, और ओषधि वनस्पतियों से मूल, पुष्प, फल, पत्र एवं छाल इन पञ्च द्रव्यों की प्राप्ति की व्यवस्था करो। |

हे नायक! आप सुधर्म हो, उत्कृष्ट धर्म का पालन करनेवाले हो, प्रजा में भी धर्म का प्रचार करो। आप अपने राष्ट्र को धर्मसापेक्ष कह कर सब धर्मों की भीड़ इकट्ठी मत करो। शुद्ध, स्वच्छ, पवित्र वैदिक धर्म का नाद गुंजाओ। हे राजन् ! आप प्रजा के अहिंसक बनो, प्रजा की किसी भी दृष्टि से हिंसा मत होने दो। न धन की क्षति हो, न बल की क्षति हो, न अन्नों की क्षति हो, न जल की क्षति हो। आप प्रजा में सोने-चाँदी आदि की लक्ष्मी भर दो। आप राज्य में ब्रह्मबली ब्राह्मणों को उत्पन्न करो, छात्रधर्म के धनी क्षत्रियों को उत्पन्न करो, कृषि व्यापार एवं पशुपालन के प्रेमी वैश्यों को उत्पन्न करो। आप अपने राष्ट्र को दिग्विजयी बना दो।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पिन्वस्व, पिवि सेवने सेचने च, भ्वादिः । यहाँ उद्योग अर्थ है।

२. मिञ् हिंसायाम् । मिनोति हिनस्तीति मेनिः, न मेनि अनेमि यथा स्यात्

तथा।

३. नृम्ण=धन । निरु० ५.९

राष्ट्र के उत्कर्ष का उद्योग कर – रामनाथ विद्यालंकार

अरविन्द केजरीवाल ने किया “औ३म्” का अपमान

अरविन्द केजरीवाल ने किया “औ३म्” का अपमान

भारतीय लोकतंत्र का उत्सव (चुनाव) आने वाला है, हर पार्टी अपने अपने सामर्थ्यानुसार प्रचार कार्य कर रही है, परन्तु अभी देखने में आया है की कुछ पार्टियाँ कुछ जमात विशेष, मत विशेष वालों को खुश करने के लिए हिन्दुओं के उनके ईश्वर के मुख्य नाम “औ३म्” का अपमान कर रही है |

झाड़ू पार्टी (नाम जान गये होंगे) के मुख्या, दिल्ली की भूल मुख्यमंत्री “अरविन्द केजरीवाल” ने 21 मार्च 2019 को एक ट्वीट किया और स्वास्तिक के निशान के पीछे एक व्यक्ति झाड़ू लेकर दौड़ते हुए का चित्र उसमें डाला हैScreenshot_2019-03-23-09-03-56

 

 

 

इसने लिखा है की यह फोटो किसी ने इसे भेजा है
मेरा सवाल है अरविन्द जी की कल को आपको कोई आपके किसी परिवार वाले का आपतिजनक फोटो भेजे तो क्या इसी तरह उसे प्रचारित करेंगे या आपका आत्मस्वाभिमान उस समय जगेगा ??

 

अरविन्द जी जिस धर्म ने आपको संस्कार दिए है आज उसे ही आप निगलने में लगे है ??

क्या आपके माता पिता ने आपको यही संस्कार दिए है ?

या सत्ता के लालच में आपने अपना जमीर, आपके संस्कारों को बेच दिया है ??

क्या सत्ता के लिए आप अपनी, अपने परिवार की इज्जत भी इसी तरह प्रदर्शित करेंगे उसे बेचेंगे ?
आपके चमचे कह रहे है की जो फोटो आपने डाला है वह तो “नाजी हिटलर” का चिन्ह है, मुझे तरस आता है आपके अनपढ़ चमचों पर जिन्हें यह ज्ञात ही नही की यह “औ३म्” का ही प्रतीकात्मक चिन्ह है और “औ३म्” उस परमपिता परमात्मा का निज नाम है, जिसने आपको, आपके परिवार को आपके चमचों को भी जन्म दिया है क्या सत्ता के लालच में आप लोग उसका भी मजाक उड़ाने लगे हो ?

आपके और आपके चमचों के लिए एक लिंक दे रहा हूँ इसे चश्मा लगाकर पढना, नही समझ आये तो www.aryamantavya.in पर यह लेख लगा होगा यहाँ आकर मुझसे सम्पर्क कर इसे समझ लें

http://aryamantavya.in/swastik-hindi
http://aryamantavya.in/svastik-english/
हिन्दुओं को चाहिए की इस अरविन्द केजरीवाल को इतना बाध्य करना चाहिए की यह आम जनता से क्षमा मांगे, अरविन्द केजरीवाल तुम्हारी दुश्मनी मोदी से है तो उन्हें जैसा लिखना है लिखो क्यूंकि हम यह जानते है की भक्त आपको एक पल के लिए भी नहीं छोड़ेंगे
पर अपनी ओछी राजनीती के लिए किसी धर्म को अपमानित करने का अधिकार आपको संविधान नही देता है
देश की 1 करोड़ जनता के सम्मान को, उनके मन को ठेस पहुंची है

तुम्हे बिना समय गंवाए इस जनता से क्षमा मांगनी होगी इसके अतिरिक्त कोई दुसरा विकल्प नहीं है, अन्यथा जिस लोकतंत्र की तुम दुहाई देते हो यदि वह लोकतंत्र सड़कों पर उतर आया तो विश्वास कीजिये आपके पार्टी का चिन्ह आपको कही और घुसा हुआ दिखाई देगा

आशा करता हु आगामी चुनावों के मद्देनजर ही सही तुम क्षमा मांगोगे, क्यूंकि संस्कार और जमीर जैसी चीजे तो तुमने अन्ना के आन्दोलन के समय ही बेच दी थी

:-गौरव आर्य

अरविन्द केजरीवाल ने किया “औ३म्” का अपमान

अहिंसाको दर्शन-वैदिक संस्कृति..२

ओ३म्….

download

हिन्दुहरुका पौराणिक ग्रन्थहरुमा पनि अहिंसालाई धर्म घोषित गरिएको छ। महाभारतमा  अहिंसालाई कहीं परमधर्म त कहीं सकल धर्म भनिएको छ। शांतिपर्व (अध्याय-१६२) मा सत्यका तेह्र रुपहरुमा केवल अहिंसालाई मात्र गणना गरिएको छैन, सबै रूप अहिंसाका नै विविध अभिव्यक्तिहरु देखिन्छन्, जसको अर्थ हुन्छ सूक्ष्म स्तरमा अहिंसा र सत्य एक हुनु जस्तै-महात्मा गौतम बुद्धले मान्ने गर्दथे। महाभारतको अनुशासन पर्व (अध्याय:११५-१६) तथा मनुस्मृति मा पनि मांसाहारलाई निषेध गर्दै हत्याका लागि पशु-पंक्षी ल्याउने, मार्नका लागि अनुमति दिने, मार्ने, किन्ने, बेच्ने, पकाउने र खानेहरु सबै पापका समान भागीदार हुन् भनिएको छ।

वामन पुराण १४/१-२ मा निर्देशित दशांग-धर्ममा केवल अहिंसालाई मात्र सर्वप्रथम नराखेर अस्तेय, दान, क्षमा, दम, शम, अकृपणता आदि पनि अहिंसा कै अभिव्यक्तिहरु हुन्। मत्स्य पुराण (१४३/३०-३२) मा अक्रोध,  अलोभ, शम, दम, भूतदया, सुकुमारता, क्षमा र धैर्यलाई सनातन धर्मको मूल भनिएको छ। विष्णु पुराण (प्रथम भाग, अध्याय ७) मा हिंसालाई अधर्मकी पत्नी भनिएको छ भने ब्रह्मांड पुराण (२/३१-३५) मा अहिंसालाई धर्मको द्वार भनिएको छ। त्यसैगरी ब्रह्म पुराण, शिव पुराण, कूर्म्म पुराण, पद्म पुराण, वायु पुराण आदिमा पनि अहिंसालाई सर्वोच्च धर्म र सुख भनिएको छ । अग्निपुराणमा अहिंसाको सन्दर्भमा विस्तृत व्याख्या गर्दै समस्त सद्गुणहरुलाई त्यसैको रूप भनिएको छ। पुराणहरुमा केवल निषेधात्मक अहिंसाको निर्देशन मात्र नभएर जनकल्याणका सबै कार्यहरु द्वारा अहिंसाका सकारात्मक रूपमा पनि आग्रह गरिएको छ। भागवत पुराणले (७/१४-१८) त यहांसम्म भन्छ कि मनुष्यहरुको स्वत्व केवल त्यहीं सम्म छ जतिले उसको पेट भरिन्छ, जुन व्यक्तिले त्यस भन्दा अधिकलाई आफ्नो भन्दछ त्यो चोर हो, त्यसैले दंडनीय छ।

वेदनिष्ठ अनुचिंतनात्मक दर्शन-संप्रदायहरुको नैतिकीमा पनि अहिंसालाई नै केंद्रीय हैसियत प्राप्त छ। न्याय-दर्शनमा पृथकत्वको बोध बाट मुक्तिलाई परम श्रेय मानिएको छ किनकि सबै पाप-कर्महरु आफ्नो पृथक् हुनाको बोधले नै उत्पन्न हुने गर्दछन्। श्रीधरको न्यायकंदली मा अहिंसालाई सबै देशकालमा लागू हुनेवाला सनातन कर्तव्य बताइएको छ। वैशेषिक दर्शनमा पनि अहिंसा, सबैको हितचिंता तथा क्रोधवर्जनलाई अनिवार्य सनातन कर्तव्यमा शामेल गरिएको छ। सांख्य-दर्शनमा पनि जीव-हत्यालाई पापको जननी मानिएको छ। मोक्ष प्राप्त गर्ने मार्गमा सबभन्दा ठूलो बाधा अहम् भाव नै हो, त्यसैले ‘नास्मि (म केहि हैन),  ‘न में (मेरो केहि हैन/छैन) र ‘नाहम् (अहंभावको लोप) को बोध मोक्ष-प्राप्तिका लागि आवश्यक छ। योग-दर्शनमा नैतिक साधनामा अत्यधिक बल दिँदै अहिंसा, सत्य, अस्तेय, जितेंद्रियता तथा अपरिग्रहको पालनमा निर्देशन दिइएको छ तथा अन्य सब गुणहरुलाई अहिंसामा नै बद्धमूल मानिएको छ। योगभाष्य का अनुसार अहिंसाको तात्पर्य हो- सबै प्रकारको द्वेषभाव देखि मुक्त हुनु। यहि वैर गर्ने तथा क्षति पुर्याउनेको अभाव हो। शंकराचार्यको अद्वैत वेदांतले अहिंसाको आग्रह गर्दै योगभाष्य मा यसलाई योगीको मूल व्रत भनेको छ। अध्यात्मपटल भाष्य मा शंकराचार्यले नैतिक गुणहरुलाई ज्ञानाभिव्यक्तिको हेतु भनेकाछन् तथा अक्रोध, अहर्ष, अरोष, अमोह, अदंभ, अद्रोह, त्याग, आर्जव(कुटिलाताको अभाव), मार्दव(मृदुता), शम(चित्तको स्थाई भाव), दम, अविरोध, अक्षुब्धता(उत्तेजनाहीन) र अनृशंसयताको गणना योगमा गर्दछन्। यी सबै अहिंसा कै गुणाभिव्यक्तिहरु हुन्। उनले अहिंसाको परिभाषा गर्दै उसलाई सर्वभूतहितको अविरोध भन्दछन्-“सर्वभूताविरोधलक्षणा हिंसा”। अस्तु…

नमस्ते..!

परोपकारिणी सभा की एक देन क्यों भूल गये: राजेन्द्र जिज्ञासु

राजस्थान ने अतीत में पं. गणपति शर्मा जी, पूज्य मीमांसक जी आदि कई विभूतियाँ समाज को दीं। स्वामी नित्यानन्द जी महाराज भी वीर भूमि राजस्थान की ही देन थे और पं. गणपति शर्मा जी से तेरह वर्ष बड़े थे। श्री ओम् मुनि जी कहीं से एक दस्तावेज़ खोज लाये हैं। उसका लाभ पाठकों को आगे चलकर पहुँचाया जावेगा। आज महात्मा नित्यानन्द जी के अत्यन्त शुद्ध, पवित्र और प्रेरक जीवन के कुछ विशेष और विस्तृत प्रसंग देकर पाठकों को तृप्त किया जायेगा। आर्यसमाज के प्रथम देशप्रसिद्ध शीर्षस्थ विद्वान् स्वामी नित्यानन्द ही थे, जिन्होंने पंजाब के एक छोर से मद्रास, हैदराबाद, मैसूर, बड़ौदा आदि दूरस्थ प्रदेशों तक वैदिक धर्म का डंका बजाया था। आपका जन्म सन् १८६० में जालौर (जोधपुर) में हुआ।

छोटी आयु में गृह त्यागकर विद्या प्राप्ति के लिये काशी आदि कई नगरों में कई विद्वानों के पास रहकर ज्ञान अर्जित किया।

घूम-घूमकर कथा सुनाते रहे। महर्षि दयानन्द जी के अमर बलिदान पर आपका झुकाव एकदम आर्यसमाज की ओर हो गया। श्रीयुत अमरनाथ जी कालिया एक तत्कालीन आर्य लेखक की पठनीय अलभ्य पुस्तक से पता चलता है कि ऋषि के बलिदान के पश्चात् परोपकारिणी सभा के प्रथम उत्सव में स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी के साथ आपने भी सोत्साह भाग लिया था। इस कथन में सन्देह का कोई प्रश्न ही नहीं उठता परन्तु इसकी पुष्टि में किसी अन्य पत्र-पत्रिकाओं से प्रमाण की सघन खोज की जायेगी।

परोपकारिणी सभा ने इस नररत्न को खींच लिया:- श्री अमरनाथ जी ने ही यह लिखा है कि परोपकारिणी सभा के प्रथम उत्सव में ही इन दोनों की सभा के तथा आर्यसमाज के नेताओं से बातचीत हुई तो सबको यह जानकर हार्दिक आनन्द हुआ कि दोनों विद्वान् संन्यासी दृढ़ आर्यसमाजी बन गये हैं। उसी समय से आर्यसमाज में प्रविष्ट होकर समर्पण भाव से दोनों वेद-प्रचार करने में सक्रिय हो गये। ऋषि जी के प्रति सभा की यह प्रथम बड़ी श्रद्धाञ्जलि मानी जानी चाहिये। वेद-प्रचार यज्ञ में निश्चय ही यह सभा की प्रथम व श्रेष्ठ आहुति थी।

स्वामी नित्यानन्द जी के जीवन के ऐतिहासिक व अद्भुत प्रसंग लिखने की आवश्यकता है। राजस्थान में तो इस दिशा में किसी ने कुछ किया ही नहीं। दक्षिण के पत्रों में इनकी विद्वत्ता पर स्मरणीय लेख छपे। वीर चिरंजीलाल के पश्चात् धर्म-प्रचार में बन्दी बनाये गये आर्य पुरुष आप ही थे। ऋषि के पश्चात् आपके ब्रह्मचर्य-व्रत की अग्नि-परीक्षा की गौरवपूर्ण घटना फिर कभी दी जायेगी।

वाह! प्यारे वीर पं. लेखराम: पं. त्रिलोकचन्द्र जी ‘अमर’ शास्त्री

(विशेष टिप्पणी:- ७२ वर्ष पूर्व पं. त्रिलोकचन्द जी शास्त्री रचित यह सुन्दर गीत आर्य मुसाफिर के विशेषाङ्क में छपा था। पूज्य पण्डित जी सात भाषाओं के विद्वान्, तीन भाषाओं के सिद्धहस्त लेखक तथा कवि थे। सर्वाधिक पत्रों के सम्पादक रहे। तीन आर्यपत्रकारों १. स्वामी दर्शनानन्द जी, २. पं. त्रिलोकचन्द्र जी, एवं ३. पं. भारतेन्द्रनाथ पर आर्यसमाज को बहुत अभिमान है। आपने उर्दू-हिन्दी में कविता लिखनी क्यों छोड़ दी? यह कभी बताया नहीं। जीवन के अन्तिम वर्षों में केवल संस्कृत में ही काव्य रचना करते थे। पं. लेखराम जी पर उनकी यह ऐतिहासिक रचना, यह अमर गीत पाठकों को सादर भेंट है-‘जिज्ञासु’)

रौदाय तालीम पं. लेखराम।

लायके ताज़ीम पं. लेखराम।।

अज़मते लासानी ज़ाहिर दर जहाँ।

दौर अज़ त$फसीर पण्डित लेखराम।।

उल$फते तसदीके वेद पाक थी।

मखज़ने त$फसीर पण्डित लेखराम।।

दूर की सारी बतालत कु$फ्र की।

असद-तक$फीर पण्डित लेखराम।।

अय मुबल्लि$ग मु$फस्सिर वेद के।

माहिरे तहरीर पण्डित लेखराम।।

ज़ुल्मे ज़ालिम झेलकर भी उ$फ न की।

वाह! प्यारे वीर पं. लेखराम।।

र$फ्ता र$फ्ता वेद के कायल हुए।

सुन तेरी तकरीर पण्डित लेखराम।।

अबद तक कायम रहेगा नामे तू।

तू ‘अमर’ अय वीर पण्डित लेखराम।।

– पं. त्रिलोकचन्द्र जी ‘अमर’ शास्त्री

लेखराम नगर (कादियाँ), पंजाब।