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बादलों में ऊपर-नीचे चलनेवाले विमान -रामनाथ विद्यालंकार

बादलों में ऊपर-नीचे चलनेवाले  विमान-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः देववातः । देवता नावः । छन्दः विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् ।

प्र पर्वतस्य वृषभस्य पृष्ठान्नावश्चरन्ति स्वसिचऽइयानाः । ताऽआर्ववृत्रन्नधुरागुक्ताऽअहिं बुध्न्युमनुरीयमाणाः । विष्णोर्विक्रमणमसि विष्णोर्विक्रान्तमसि विष्णोः क्रान्तमसि॥

-यजु० १० । १९

( वृषभस्य) वर्षा करनेवाले ( पर्वतस्य ) मेघ’ के ( पृष्ठात् ) पृष्ठ से ( स्वसिचः) स्वयं को मेघजल से सिक्त करनेवाली ( इयानाः३ ) गतिशील, वेगवती (नावः ) विमान रूपिणी नौकाएँ ( चरन्ति ) चलती हैं । ( ताः ) वे ( बुध्न्यम् अहिम् अनु रीयमाणाः५) अन्तरिक्षवर्ती मेघ में गति करती हुई ( अधराक् उदक्ताः ) नीचे से ऊपर जाती हुई (आववृत्रन्६ ) चक्कर काटती हैं। हे विमानरूप नौका की उड़ान ! तू (विष्णोःविक्रमणम् असि ) सूर्य का विक्रमण है, सूर्य की यात्रा के समान है, (विष्णोःविक्रान्तम् असि ) वायु का चरण-न्यास है, ( विष्णोः क्रान्तम् असि ) शिल्प-यज्ञ की क्रान्ति है। |

पर्वत शब्द निघण्टु कोष में मेघवाची शब्दों में पठित है। वेद में इसके पहाड़ और मेघ दोनों अर्थ होते हैं। प्रस्तुत मन्त्र में मेघों के मध्य चलनेवाली नौकाओं का वर्णन है। मेघ अन्तरिक्ष में होते हैं । अन्तरिक्ष में नौकाएँ नहीं चल सकतीं, नौकाओं की आकृतिवाले विमान ही चल सकते हैं। नौका की आकृतिवाला होने से लक्षणा के प्रयोग से विमानों को नौका कह दिया गया है। अन्तरिक्ष में चलनेवाली नौकाओं की चर्चा वेद में अन्यत्र भी मिलती है। सामान्यतः जो विमान अन्तरिक्ष में उड़ते हैं, वे बादलों से नीचे उड़ते हैं। इस मन्त्र में बादलों में या बादलों से भी ऊपर उड़ान भरनेवाले विमानों का वर्णन है। ये विमान भूमि से अन्तरिक्ष में पहुँच कर मेघों में घुसकर  वर्षा करनेवाले मेघ के एक छोर से दूसरे छोर तक उडान भरते हुए चले जाते हैं। मेघ-जल से ये गीले भी होते रहते हैं, फिर भी इनमें कोई विकार नहीं आता। ये बहुत वेग से चलते हैं। ‘बुध्न्य अहि’ अन्तरिक्षवर्ती मेघ का ही नाम है। उसमें ये गतिशील होते हैं। नीचे से ऊपर की ओर भी उड़ान लेते हैं। बादल को पार करके उससे ऊपर भी पहुँच जाते हैं। बादलों के आर-पार, नीचे-ऊपर चक्कर काटते हैं। अन्त में विमानरूप नौका की उड़ान के विषय में कहा गया है कि तू विष्णु सूर्य के विक्रमण या उसकी यात्रा के समान है। जैसे सूर्य प्राची में उदित होकर उत्क्रमण करता-करता मध्याकाश में पहुँच जाता है, ऐसे ही विमान भी भूमि से ऊपर उठता उठता अन्तरिक्षवर्ती मेघों के बीच में पहुँच कर यात्रा करता है और कभी उससे भी ऊपर उठ जाता है। विष्णु का अर्थ सूर्य के अतिरिक्त वायु भी होता है। विमान की उड़ान वायु के चरण न्यास के समान है, जैसे वायु कभी पूर्व दिशा की ओर, कभी पश्चिम दिशा की ओर, कभी दक्षिण या उत्तर दिशा की ओर तथा कभी नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे की ओर, और कभी चक्रवात के रूप में चलता है, ऐसे ही विमान भी उड़ान भरता है। विष्णु का अर्थ यज्ञ भी होता है । शिल्प भी एक यज्ञ है। विमान का निर्माण और उसकी विविध दिशाओं में उड़ाने भरना शिल्पयज्ञ की एक क्रान्ति है। | आओ, हम भी विमानों में बैठकर मेघमण्डल की यात्रा का आनन्द लें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पर्वतळमेघ । निघं० १.१०

२. स्वं सिञ्चन्तीति स्वसिचः ।

३. इण् गतौ, चानश्=आन प्रत्यय।

४. अहि=मेघ, निघं० १.१०, अहिर्बुध्न्यः योऽहि: स बुध्न्यः , बुध्नम्।अन्तरिक्षं तन्निवासात् । निरु० १०.३०।।

५.रीयते= गच्छति । निघं० २.१४।

६. आ वृतु वर्तने, णिच्, लुङ्, रक् का आगम छान्दस।

७. निरु० २.२२ ।

८. नौभिरात्मन्वतीभिः अन्तरिक्षप्रद्भिः अपोदकाभि: । ऋ० १.११६.३

९. (विष्णो:) व्यापकस्य वायो:। -द० ।

१०.यज्ञो वै विष्णुः । –श० १.१.२.१३ 3 u

बादलों में ऊपर-नीचे चलनेवाले  विमान-रामनाथ विद्यालंकार 

निर्वाचित राजा की यज्ञाहुतियाँ -रामनाथ विद्यालंकार

निर्वाचित राजा की यज्ञाहुतियाँ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः देवरातः । देवता अग्न्यादयो मन्त्रोक्ताः । छन्दः आर्षी जगती ।

अग्नये गृहपतये स्वाहा सोमय् वनस्पतये स्वाहा मुरुतमोजसे स्वाहेन्द्रस्येन्द्रियाय स्वाहा पृथिवि मातुर्मा मा हिसीर्मोऽअहं त्वाम् ॥

-यजु० १० । २३

राज्याभिषेक के समय नवनिर्वाचित राजा आहुतियाँ दे रहा है—(अग्नयेगृहपतयेस्वाहा) गृहपति अग्नि के लिए आहुति हो। ( सोमाय वनस्पतयेस्वाहा) सोम वनस्पति के लिए आहुति हो। ( मरुताम् ओजसे स्वाहा ) सैनिकों के ओज के लिए आहुति हो। ( इन्द्रस्य इन्द्रियाय स्वाहा ) इन्द्र के इन्द्रत्व के लिए आहुति हो। ( पृथिवी मातः ) हे पृथिवी माता ! ( मा मा हिंसीः ) तू मेरी हिंसा न करना, ( मो अहं त्वाम् ) न मैं तेरी हिंसा करूंगा।

मुझे आप प्रजाजनों ने राजा के पद पर निर्वाचित और अभिषिक्त किया है। मैं यह जानता हूँ कि यह पद बड़े ही उत्तरदायित्व का है। जिन बड़ी-बड़ी आशाओं को लेकर आपने मेरा राजतिलक किया है, वे सब मुझे स्मरण हैं और मैं यह दृढ़ सङ्कल्प के साथ निवेदन करता हूँ कि उन सबको मैं भरसक पूर्ण करने के लिए उद्यत रहूँगा। आज अपने कार्यालय में जाने से पूर्व प्रथम दिन मैं यज्ञ रचा कर अपने कर्तव्य की कुछ बातें अपने और आपके सम्मुख रखने के लिए आहुतियाँ दे रहा हूँ। प्रथम आहुति ‘अग्नि’ के नाम पर देता हूँ। अग्नि गृहपति है, गृहों का रक्षक है। प्रत्येक गृह में अग्नि अनेक रूपों में आकर गृहों की कार्यसिद्धि करता है। अग्निहोत्र में हम अग्नि को प्रज्वलित करते हैं। भोजन बनाने के लिए हम अग्नि का प्रयोग करते हैं। अन्धकार में प्रकाश  करने के लिए भी हम विद्युदग्नि को ही चमकाते हैं। सूर्य भी एक अग्नि ही है, जो सारे दिन आकाश में विद्यमान रहकर हमें प्राण प्रदान करता है। इस भौतिक अग्नि के अतिरिक्त श्रद्धा की अग्नि, ईशस्तुति, ईशप्रार्थना, ईशोपासना की अग्नि, महत्त्वाकांक्षा की अग्नि, दृढ़ता की अग्नि, राष्ट्रप्रेम की अग्नि, शत्रुसंहार की अग्नि, राष्ट्रहित बलिदान की अग्नि आदि अग्नियों की भी हमारे राष्ट्रगृह के रक्षार्थ आवश्यकता पड़ती है। यह अग्नि राष्ट्र के प्रत्येक गृह में और प्रत्येक राष्ट्रवासी के हृदय में प्रज्वलित रहे इसके लिए मैं सदा प्रयत्नशील रहूँगा।

दूसरी आहुति मैं सोम वनस्पति’ के नाम से देता हूँ। सोम को वेद में ओषधियों का राजा कहा गया है, अत: सोम के अन्तर्गत सभी ओषधियाँ आ जाती हैं। मैं राष्ट्रवासियों की पुष्टि और रोगनिवृत्ति के लिए सभी उपयोगी ओषधियों के संग्रहार्थ और पर्यावरणशुद्धि, वृष्टि आदि के लिए वनस्पतियों के आरोपणार्थ एवं संवर्धनार्थ भी उद्यत रहूंगा। तीसरी आहुति मैं ‘मरुतों के ओज’ के नाम से देता हूँ। मरुत राष्ट के वे वीर क्षत्रियजन हैं, जो सदा राष्ट्ररक्षार्थ कमर कसे रहते हैं। अतः राष्ट्र की सैन्यशक्ति के विकास द्वारा क्षात्रबल के संवर्धन का भी मैं व्रत लेता हूँ। चतुर्थ आहुति मैं इन्द्र के इन्द्रत्व के लिए देता हूँ। इन्द्र वेद में जिनका प्रतिनिधित्व करता है, उनमें ऐश्वर्य भी एक है। अतः इन्द्र के इन्द्रत्व का अभिप्राय है राष्ट्र की ऐश्वर्यशालिता। मेरा राष्ट्र ऐश्वर्य में किसी राष्ट्र से कम न। रहे, इसके लिए भी मैं सजग रहूँगा।

इसके अतिरिक्त पृथिवी हम सबकी माता है। वह प्रदूषित और विकृत होने पर हमारे विनाश का कारण भी बन सकती है, और पर्यावरणशुद्धि द्वारा तथा अपने धरातल पर और गर्भ में विद्यमान समस्त वस्तुओं के प्रदान द्वारा वह सच्चे अर्थों में हमारी माता भी बन सकती है। अतः पृथिवी की पर्यावरणशुद्धि के लिए भी मैं सदा सचेत रहुँगा, जिससे हम उसकी हिंसा न करें और वह भी हमारी हिंसा का कारण न बने ।

ईश्वर को साक्षी रख कर आप सब प्रजाजनों के सम्मुख इन व्रतों को ग्रहण करता हूँ। प्रभु मुझे इन व्रतों के पालन की शक्ति दें और प्रजाजनों को अधिकार है कि यदि मैं इन व्रतों को पालन करने में असफल रहूँ, तो मुझे राजगद्दी से उतार दें।

निर्वाचित राजा की यज्ञाहुतियाँ -रामनाथ विद्यालंकार 

राजपत्नी के प्रति -रामनाथ विद्यालंकार

राजपत्नी के प्रति -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वामदेवः। देवता राजपत्नी। छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

स्योनासि सुषदसि क्षेत्रस्य योर्निरसि स्यनामासद सुषदमासीद क्षत्रस्य योनिमासीद॥

-यजु० १० । २६

हे राजपत्नी! तू वेद की दृष्टि में (स्योना असि) सुखदायिनी है, ( सुषदा असि ) शोभन व्यवहार में स्थित है, ( क्षत्रस्य योनिः असि ) क्षात्रबल, राजन्याय तथा राजनीति का केन्द्र है, अत: (स्योनाम् ) सुखदान की विद्या को ( आसीद ) प्राप्त कर, ( सुषदाम् ) शोभन व्यवहार की विद्या को ( आसीद) प्राप्त कर, ( क्षत्रस्य योनिम् ) क्षात्रबल, राजन्याय तथा राजनीति की विद्या को ( आसीद) प्राप्त कर ।

हे राजपत्नी! आज आपके पति को प्रजा ने राजा के रूप में निर्वाचित किया है। राज्यसञ्चालन में राजपत्नी के भी कुछ कर्तव्य होते हैं। वेद की दृष्टि में राजपत्नी को प्रजा के लिए सुखकारिणी होना चाहिए। उसे व्यावहारिक विद्या में भी निपुण होना चाहिए, जिससे जब जिसके साथ जैसा व्यवहार या लोकाचार करना उचित हो, वैसा कर सके। उसे ‘क्षत्र की योनि’ भी होना चाहिए। क्षेत्र का अर्थ है। क्षात्रबल, क्षत्रिय धर्म, राजन्याय और राजनीति। यदि आपने पहले से ही ये विद्याएँ सीखी हुई हैं, तब तो आपका स्वागत है, आप अपनी इन विद्याओं से राष्ट्र को अपने पति के साथ मिलकर लाभान्वित करें। परन्तु यदि आप इन विद्याओं में निष्णात नहीं हैं, तो इनकी सुशिक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिए। दयानन्द स्वामी अपने भाष्य में इस मन्त्र के भावार्थ में लिखते हैं कि ‘‘राजपत्नी को यजुर्वेद ज्योति चाहिए कि संब स्त्रियों का न्याय और उनकी सुशिक्षा वह करे। स्त्रियों के न्याय और सुशिक्षा पुरुषों से नहीं कराने चाहिये, क्योंकि पुरुषों के समीप स्त्रियाँ लज्जित और भययुक्त होकर यथावत् बोलकर अपनी बात नहीं कह सकतीं और न ही अध्ययन कर सकती हैं।” इससे ज्ञात होता है कि राजपत्नी स्त्रियों के न्यायविभाग और शिक्षाविभाग की अधिकारिणी होगी। उसके नीचे स्त्रियों को न्याय करनेवाली तथा कन्याओं को अध्यापन करनेवाली अन्य स्त्रियाँ होंगी। स्वामीजी का यह सुदृढ़ विचार है कि लड़कों की पाठशालाओं में सब पुरुष अध्यापक हों तथा कन्याओं की पाठशालाओं में सब स्त्रियाँ अध्यापिकाएँ हों।

राजनीति के अन्य कार्यों का उत्तरदायित्व भी राजपत्नी पर होगा तथा आवश्यकता पड़ने पर वह शत्रुओं के प्रति संग्राम का नेतृत्व भी करेगी। स्वामीजी लिखते हैं  संग्राम में राजा के अभाव में रानी सेनापति हो और जैसे राजा युद्ध कराने के लिए वीरों को प्रेरणा दे और उत्साहित करे, वैसे ही वह भी आचरण करे।”२

पादटिप्पणियाँ

१. कर्मकाण्डक व्याख्यानुसार इस कण्डका द्वारा खदिर की लकड़ी सेबना तथा रस्सी से बुनी आसन्दी (पीठिका) लाकर उस पर यजमान राजा को बैठाया जाता है। हमने दयानन्दभाष्य से दिशानिर्देश लेकर राजपत्नीपरक व्याख्या की है। २. ऋग्भाष्य ६.७५.१३ के संस्कृत भावार्थ का अस्मत्कृत अनुवाद ।

राजपत्नी के प्रति -रामनाथ विद्यालंकार

राजा का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार

राजा  का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः शुन:शेपः । देवता यजमानः । छन्दः विराड् धृतिः ।

अभिभूरस्य॒तास्ते पञ्च दिशः कल्पन्तां ब्रह्नस्त्वं ब्रह्मासि सवितासि त्यप्रसव वरुणोऽसि सत्यौजाऽइन्द्रोऽसि विशौजा रुद्रोऽसि सुशेवः । बहुंकार श्रेयस्कर भूर्यास्करेन्द्रस्य वज्रोऽसि तेने मे रध्य ।।

-यजु० १० । २८ |

हे राजन् ! तू ( अभिभूः असि ) दुष्टों का तिरस्कर्ता है। (एताः ते ) ये तेरी (पञ्च दिशः ) पाँच दिशाएँ-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊध्र्वा ( कल्पन्ताम् ) प्रजा को सुख देने में समर्थ होवें । ( ब्रह्मन्) हे महिमामय ! ( त्वं ब्रह्म असि ) तू ब्रह्म है, चतुर्वेदवित् है, (सविता असि ) सविता है, प्रेरक है, ( सत्यप्रसवः ) सत्य को जन्म देनेवाला (वरुणःअसि ) पाप-निवारक, वरणीय है, ( सत्यौजाः इन्द्रः असि ) सच्चे ओजवाला इन्द्र है, ( विशौजाः ) प्रजाओं में ओज भरनेवाला ( सुशेवः ) उत्तमसुखकारी (रुद्रःअसि ) रुद्र है। ( बहुकार ) हे बहुत-से कार्य करनेवाले ! ( श्रेयस्कर ) हे प्रशस्यकारी ! ( भूयस्कर) हे प्रचुर धन-धान्य आदि उत्पन्न करनेवाले ! तू (इन्द्रस्यवज्रः असि) इन्द्र का वज्र है। ( तेन ) इस कारण ( मे ) मुझे, हम प्रजाजनों को, (रध्य ) कार्यसिद्धि या सफलता प्रदान कर ।

नवनिर्वाचित राजा को प्रजा का प्रतिनिधि कह रहा है। हे वीर ! हम तुम्हें राज्यशासन के लिए सर्वगुणसम्पन्न मानकर प्रजा के बीच से चुनकर लायें हैं और बड़े उत्साह के साथ हमने तुम्हारा अभिषेक किया है। हे राजन् ! तुम ‘अभिभू’ हो, दुष्टों का तिरस्कार करनेवाले हो । पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा ऊध्र्वा इन पाँचों दिशाओं में तुम अपनी कीर्ति का विस्तार यजुर्वेद ज्योति करनेवाले हो। ये पाचों दिशाएँ तुम्हारी प्रजा के लिए सुखदायक हों। तुम्हारे राज्य की किसी भी दिशा में कोई सत्पुरुष चला जाए, तो उसे स्वागत-सत्कार प्राप्त हो, ठोकरें न खानी पड़े। हे राष्ट्रधुरन्धर ! तुम देवों का अंश लेकर बने हो। हे ब्रह्मन् ! हे परम वृद्धि को प्राप्त राजन् ! तुम ‘ब्रह्मा’ हो, चतुर्वेदवित् हो। अतः वेदानुकूल ही प्रजा पर शासन करो। हे देव! तुम ‘सविता’ हो, प्रजा को शुभ कार्यों की एवं शुभ योजनाओं की प्रेरणा देनेवाले हो। हे सम्मानास्पद ! तुम सत्यप्रसव हो, सत्य को जन्म देनेवाले हो। तुम वरुण हो, पापनिवारक तथा वरणीय हो, श्रेष्ठ हो, अनृताचरण करनेवाले को पाशों से बाँधो और सत्यव्रती को पुरस्कृत करो। हे प्रजापालक! तुम सच्चे ओज से ओजस्वी ‘इन्द्र’ हो, परमैश्वर्यवान् एवं शत्रुविदारक हो। सच्चा ओज प्रकट करके असत्यकर्मा आततायियों का दमन करो। हे राजप्रवर! तुम ‘रुद्र’ हो, दुष्टों को रुलानेवाले तथा सज्जनों के रोगादि सन्ताप को द्रावण करनेवाले हो। तुम अपने इस गुण को क्रियान्वित करो। हे सद्गुणनिधान! तुम ‘सुशेव’ हो, उत्कृष्ट सुख के दाता हो, अतः प्रजा को श्रेष्ठ सुख प्राप्त कराओ। तुम ‘बहुकार’ हो, बहुत से कार्य करने में समर्थ हो। तुम ‘श्रेयस्कर’ हो, तुम्हारे कार्य कल्याणकारक ही होते हैं। तुम ‘भूयस्कर’ हो, प्रचुर धनधान्यादि उत्पन्न करनेवाले हो। तुम इन कर्तव्यों का पालन करते रहना। तुम ‘इन्द्र’ के वज़ हो। जैसे वेद का इन्द्र अपने वज्र से रिपुओं का संहार करता है, वैसे ही तुम भी करते रहना ।

हे नर श्रेष्ठ ! क्योंकि तुम उक्त सब गुणों से सम्पन्न हो, अतः हम प्रजाजनों को सदा सफलताएँ प्रदान करते रहना। हम तुम्हारा भावभीना स्वागत करते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. (अभिभू:) दुष्टानां तिरस्कर्ता।

२. (सुशेव:) शोभनं शेवं सुखं यस्य सः । शेव=सुख, निघं० ३.६।।

३. (रध्य) सं राध्नुहि । –द० । रध्य, रध हिंसासंराध्योः, दिवादिः ।

राजा  का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार

विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार

विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता सविता । छन्दः भुरिग् आर्षी पङ्किः।

युजे वां ब्रह्म पूर्घ्यं नमोभिर्वि श्लोकऽएतु पथ्येव सूरेः। शृण्वन्तु विश्वेऽअमृतस्य पुत्राऽआ ये धामानि दिव्यानि स्थुः ।।

 -यजु० ११ । ५

हे यजमान पति-पत्नी ! ( वाम् ) तुम दोनों के ( पूर्त्य ब्रह्म ) पूर्व योगियों से प्रत्यक्षीकृत ज्ञान को ( नमोभिः ) नमन के भावों से ( युजे ) जोड़ता हूँ। तुम्हें ( श्लोकः ) यश (विएतु) विशेषरूप से प्राप्त हो, ( सूरेः पथ्या इव ) जैसे विद्वान् भक्त को धर्ममार्ग में चलने की गति प्राप्त होती है। इस धर्मोपदेश को ( शृण्वन्तु ) सुनें ( विश्वे) सब (अमृतस्य पुत्राः) अविनाशी सविता जगदीश्वर के पुत्र, ( ये ) जो ( दिव्यानि धामानि ) प्रकाशित धामों में ( आ तस्थुः ) आकर स्थित है

तुमने गुरुचरणों में बैठकर ज्ञान प्राप्त किया है, समस्त विद्याओं और कलाओं में तुम निष्णात हो चुके हो । समावर्तन संस्कार करा कर आचार्य से विदा लेकर अपने घर आकर विदुषी कन्या से विवाह करके गृहस्थाश्रम बसाकर आज तुम दोनों पति-पत्नी लोकोपकार-यज्ञ में प्रवृत्त हुए हो। पर यह क्या ! तुम्हारे अन्दर तो विद्वत्ता का अहङ्कार हिलोरें ले रहा है। तुम समझते हो कि तुम-जैसे विद्वान् और विदुषी संसार में दुर्लभ हैं, तुम्हारी विद्वत्ता की थाह पाना असम्भव है। परन्तु भले ही तुम चारों वेद, चारों उपवेद, छहों वेदाङ्ग, षड् दर्शन तथा इनसे अतिरिक्त भी इनकी शाखा-प्रशाखाओं सहित समग्र विद्याओं के धनी हो चुके हो, तो भी ये विद्याएँ तब तक किसी  काम आनेवाली नहीं हैं, जब तक तुम्हारे अन्दर नम्रता नहीं आती। अहङ्कार या अभिमान मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं। ज्ञान के साथ नमन, नम्रता या विनय का गठजोड़ होना अनिवार्य है। वह विद्या विद्या नहीं है, जो विनय को नहीं देती। कवि ने कहा है-‘विद्या विनय को देती है, विनय से मनुष्य पात्रता को प्राप्त करता है। पात्र बनने से उसे धन मिलता है। धन पाकर वह धर्माचरण करता है। इससे वह सुख पाता है।’४ अहङ्कारी होकर यदि तुम धर्मोपदेश करोगे, ज्ञानचर्चा करोगे, तो उसका कुछ फल नहीं होगा। तुम्हारे अन्दर विनय आते ही विद्या फलवती होने लगेगी। इसलिए तुम्हारे महान् ज्ञान को मैं विनय को भावों के साथ जोड़ता हूँ। विनय के आने से तुम्हें यश प्राप्त होगा, जैसे विद्वान् भक्त को धर्ममार्ग में चलने की गति प्राप्त होती है।

विद्या और विनय के योग की बात मैं केवल तुम्हारे लिए ही नहीं कह रहा हूँ, किन्तु अविनाशी सविता प्रभु के सभी पुत्र-पुत्रियाँ इस उपदेश को सुनें, समझें, जीवन में लायें । किसी देश-विशेष के नर-नारियों के लिए ही यह विद्या विनय के सङ्गम का उपदेश नहीं है, किन्तु प्रभु से प्रकाशित सभी धामों में जो लोग स्थित हैं, उन सभी के लिए यह वेदोपदेश है। आओ, हम भी अपने अन्दर विद्या और विनय का सङ्गम करें।

पादटिप्पणियाँ

१. (पूर्व्यम्) पूर्वयोगिभिः प्रत्यक्षीकृतम्-२० । पूर्व शब्द से ‘पूर्वैःकृतमिनयों च, पा० ४.४.१३३ से कृत अर्थ में ये प्रत्यय।

२. (पथ्या) पथि साध्वी गति:-द० | पथोऽनपे ता पथ्याधर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते’, पा० ४.४.९२ से यत् प्रत्यय।।

३. (अमृतस्य) अविनाशिनो जगदीश्वरस्य-२० ।

४. विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।।पात्रत्वाद् धनमाप्नोति धनाद् धर्मं ततः सुखम् ॥

विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार

योगमार्ग के विघ्नों को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार

योगमार्ग के विघ्नों  को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः मयोभूः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

आगत्य वन्यध्वनिश्सर्वा मृध विधूनुते । अग्निसुधस्थे महुति चक्षुषा निर्चिकीषते

-यजु० ११ । १८

(वाजी ) बलवान् जीवात्मा (अध्वानम् आगत्य ) योगमार्ग में आकर ( सर्वाः मृधः ) सब हिंसक विप्नों को ( विधूनुते ) प्रकम्पित कर देता है। फिर वह ( महति सधस्थे ) महान् हृदय-सदन में (अग्निम् ) प्रकाशमय प्रभु को ( चक्षुषा )अन्त:चक्षु से (निचिकीषते ) देख लेता है।

आओ, तुम्हें वाजी की बात सुनायें । किन्तु ‘वाजी’ का तात्पर्य घोड़ा मत समझ लेना। ‘वाज’ का अर्थ होता है बल, अतः ‘बलवान्’ को वाजी कहते हैं । घोड़ा भी बलवान् होने के कारण ही वाजी कहलाता है। हम यहाँ जिस ‘वाजी’ की बात करने लगे हैं, वह है बलवान् जीवात्मा । हमारे अन्दर सबसे अधिक बलवान् जीवात्मा ही है। जब तक वह सोया रहता है, तब तक तो काम, क्रोध आदि चूहे उस पर कूदते रहते हैं। पर ज्यों ही वह जाग कर हंकार भरता है, त्यों ही सब विषयविकारों की सेना भाग खड़ी होती है।

उस ‘वाजी’ अर्थात् बलवान् जीवात्मा के विषय में मन्त्र कहता है कि जब वह योगमार्ग में पदार्पण करता है, तब इस मार्ग में बाधा डालनेवाले सब विघ्नों को प्रकम्पित कर देता है। ये विघ्न हैं व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्व रूप चित्तविक्षेप।  इन चित्तविक्षेपों के सहवर्ती होते हैं, दुःख, दौर्मनस्य अङ्गमेजयत्व एवं श्वास प्रश्वास। योगमार्ग में इनकी प्रतिषेध करने के लिए एकतत्त्वाभ्यास करना आवश्यक होता है। सुखी जनों के प्रति मैत्री, दु:खी जनों के प्रति करुणा, पुण्यात्माओं को देख कर मुदित होना, अपुण्यात्माओं के प्रति उपेक्षावृत्ति धारण करना इन चारों वृत्तियों की भावना अपने अन्दर धारण करने से चित्त का प्रसाद प्राप्त होता है। विषयवती प्रवृत्ति भी उत्पन्न होकर मन के स्थितिलाभ का कारण बनती है। अथवा विशोका ज्योतिष्मती प्रज्ञा भी मन को विघ्नों से हटा कर निर्मल कर देती है। |

इस प्रकार योगविघ्नों को पराजित करके ‘वाजी’ जीवात्मा महान् हृदय-सदन में प्रकाशमय ‘ अग्नि’ नामक परम प्रभु का दर्शन कर लेता है। अग्निप्रभु के दर्शन उसे चर्म-चक्षुओं से नहीं, किन्तु अन्तश्चक्षु से होते हैं। आओ, हम भी योगमार्ग के यात्री बनकर योगविघ्नों का अपसारण कर परम प्रभु के दर्शन करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. निचिकीषते पश्यति। यह दर्शनार्थक छान्दस धातु है।

२. योगदर्शन, समाधिपाद, सूत्र ३०-३६ ।।

योगमार्ग के विघ्नों  को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार

हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार

हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः सिन्धुद्वीपः । देवता वायुः । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

सं ते वायुर्मातरिश्वा दधातूत्तानाय हृदयं यद्विकस्तम्। यो देवानां चरसि प्राणथेन कस्मै दे वर्षडस्तु तुभ्यम् ॥

-यजु० ११ । ३९ |

हे नारी! ( उत्तानायाः) चित्त लेटनेवाली ( ते ) तेरा ( हृदयं ) हृदयं ( यद् विकस्तम् ) जो बढ़ गया है, या किसी अन्य विकार को प्राप्त हो गया है, उसे ( मातरिश्वा वायुः ) अन्तरिक्ष में चलनेवाला वायु ( सं दधातु ) स्वस्थ कर देवे । ( यः ) जो हे मातरिश्वा वायु ! तू ( देवानां ) विद्वानों के ( प्राणथेन) प्राणरूप में ( चरसि ) चलता है, ( कस्मै ) उस सुखदायक ( तुभ्यं ) तेरे लिए ( वषट् अस्तु) स्वाहा हो, अर्थात् अग्नि में घृत तथा ओषधियों की आहुति हो।

शरीर में रक्तसंस्थान का केन्द्र हृदय है। शरीर का अशुद्ध रक्त शिराओं द्वारा हृदय के दक्षिण प्रदेश में आता है। हृदय शुद्ध होने के लिए उसे फुप्फुस में सूक्ष्म रक्त-केशिकाओं में भेज देता है। जब शुद्ध वायुमण्डल से श्वास द्वारा शुद्ध वायु फुप्फुस में पहुँचता है, तब वह शुद्ध वायु अशुद्ध रक्त से सम्पर्क करके उसकी मलिनता को अपने अन्दर ले लेता है। और शुद्ध प्राणवायु (ऑक्सिजन) रक्त में भेज देता है, जिससे रक्त शुद्ध होकर हृदय के वामप्रकोष्ठ में चला जाता है। वहाँ से बृहद् धमनि द्वारा छोटी धमनियों में होता हुआ सारे शरीर में पहुँच जाता है। पुनः शरीर की मलिनता को ग्रहण करके अशुद्ध होकर शुद्ध होने के लिए हृदय में आता है। इस प्रकार हृदय समस्त रक्त-संस्थान को नियन्त्रण में रखता है। यदि यजुर्वेद ज्योति हृदय किसी कारण घट-बढ़ जाए, उसके कलेवर में शोथ आ जाए, उच्च रक्तचाप या निम्न रक्तचाप हो जाए, या किसी अन्य प्रकार का हृदयरोग हो जाए, तो उसे स्वस्थ करने का उपाय मन्त्र में प्राणायाम बताया गया है। मन्त्र नारी के हृदयरोग के विषय में है। हृदयरोग का कारण अधिक उत्तान या चित लेटना या शयन करना भी हो सकता है, यह मन्त्र से सूचित होता है। आकाशवर्ती स्वच्छ वायु को ‘मातरिश्वा वायु’ कहा गया है। निरुक्तकार कहते हैं कि वायु को मातरिश्वा कहने का कारण यह है कि वह निर्माता आकाश में गति करता है। अथवा निर्माता अन्तरिक्ष में शीघ्र-शीघ्र प्राण देने की क्रिया करता है। हे नारी! उत्तान सोने के कारण जो तेरा हृदय बढ़ गया है, उसमें सूजन आ गयी है, धड़कने की गति कम या अधिक हो गयी है, तो प्राणवायु उचित प्राणायाम के द्वारा उसे स्वस्थ कर सकता है, हृदय के किस रोग में कौन सा प्राणायाम अपेक्षित है, यह योगक्रिया-विशेषज्ञ लोग बतलायेंगे। उनके निर्देश के अनुसार तू प्राणायाम कर।।

मन्त्र के उत्तरार्ध में हृदयरोगनिवारण के लिए किन्हीं विशेष ओषधियों की अग्नि में आहुति डालना अर्थात् यज्ञचिकित्सा करना उपाय बताया गया है। हे मातरिश्वा वायु ! तू प्राणदाता के रूप में प्रसिद्ध है, तेरे लिए हम ‘स्वाहा’ या ‘वषट्’ उच्चारण करते हुए आहुति डालते हैं। ओषधियों की सुगन्ध से सुवासित होकर तू हृदयरोग से ग्रस्त महिला के फुप्फुसों में जाकर रक्त से सम्पर्क करके रक्त का शोधन कर। इस प्रकार रोगिणी को हृदयरोग से मुक्त कर दे। यद्यपि मन्त्र हृदयरोगिणी महिला के विषय में है, तथापि हृदयरोगा पुरुष के लिए भी ये दोनों उपचार करना लाभदायक हो सकता है।

पाद टिप्पणियाँ

१. कस गतौ, भ्वादिः । विकस्तं=विकसितम्।।

२. मातरिश्वा वायुः, मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति, मातरि आशु अनितीतिवा। निरु० ७.३, मातरिश्वस्, अथवा मातरि-शु-अन् (अन प्राणने) ।।

हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः हिरण्यगर्भः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री ।

अग्ने यत्ते शुक्रं यच्चुन्द्रं यत्पूतं यच्च॑ य॒ज्ञियम्। तद्देवेभ्यों भरामसि

-यजु० १२ । १०४

हे (अग्ने ) अग्रनायक परमेश्वर ! ( यत् ते शुक्रं ) जो तेरा दीप्तिमान् रूप, ( यत् चन्द्रं ) जो आह्लादक रूप, ( यत् पूतं ) जो पवित्र रूप ( यत् च यज्ञियं ) और जो यज्ञसंपादनयोग्य रूप है, ( तत् ) उसे हम ( देवेभ्यः ) विद्वान् प्रजाजनों के लिए (भरामसि )* लाते हैं ।

हे जगदीश्वर ! आप ‘अग्नि’ हो, अग्रनायक हो, जो आपको अपना अग्रणी बनाता है, उसे सत्पथ पर चला कर उसके नियत उद्देश्य तक पहुँचा देनेवाले हो। आप अग्नि के तुल्य तेजस्वी-यशस्वी भी हो। साधक को आपके अनेक रूप दृष्टिगोचर होते हैं। कभी आपका ‘शुक्र’, अर्थात् जाज्वल्यमान रूप उसके सम्मुख प्रकट होता है, जो उसके अन्त:करण को उद्भासित कर देता है। उसका मानस दृढ़ सङ्कल्प की ऊँची ऊँची अर्चियाँ उठाने लगता है। कभी उसके सम्मुख आपका ‘चन्द्र’ रूप, अर्थात् चाँद-जैसा आह्लादक रूप प्रकट होता है, जिस के माधुर्य से उसको हृदय रसमय, मधुर, शीतल हो जाता है। कभी उसके सम्मुख आपका ‘पूत’ अर्थात् पवित्र रूप आविर्भूत होता है, जिससे उसके तन, मन, धन, ज्ञान, कर्म, उपासना सब निर्मल हो जाते हैं। कभी उसके सम्मुख आपका यज्ञिय अर्थात् यज्ञार्ह, पूजार्ह तथा यज्ञसम्पादक रूप प्रकाशित होता है, जिससे वह आपकी वन्दना, अर्चना, पूजा में प्रवृत्  हो जाता है। आपका यज्ञनिष्पादक रूप साधक को भी विद्यायज्ञ, शान्तियज्ञ, शिल्पयज्ञ, योगयज्ञ, उपासनायज्ञ, धर्मप्रवर्तन-यज्ञ आदि के निष्पादन में प्रवृत्त कर देता है।

हे सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी परमात्मन् ! मन्त्रोक्त रूपों से इतर भी आपके अनेक रूप हैं, जिनका ध्यान करने से साधक ‘देव’ बन जाता है। हम चाहते हैं कि न केवल हमारे राष्ट्र को, अपितु समग्र संसार का प्रत्येक निवासी आपके गुणों का मनन, चिन्तन, ध्यान करके, उन्हें अपने अन्दर धारण कर कृतकृत्य हो। हे देवेश! हम भी आपके गुणों को अपने अन्तरात्मा में धारण करते हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. शुक्रं शोचतेचैलतिकर्मणः, निरु० ८.११ । औणादिक रन् प्रत्यय।

२. चन्द्रं, चदि आह्लादे। स्फायितञ्चि० उ० २.१३ से रक् प्रत्यय । चन्दतिआह्लादयति स चन्द्रः ।।

३. यज्ञकर्म अर्हतीति यज्ञियः। तत्कर्माहतीत्युपसंख्यानम्’ वार्तिक पा०१.६.४ से घ प्रत्यय ।

४. भरामसिहरामः । हृञ् हरणे, हग्रहोर्भश्छन्दसि, इदन्तो मसि ।।

अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार

सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार

सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः हिरण्यगर्भः । देवता सर्पा: । छन्दः भुरिग् आर्षी उष्णिक्।

नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु।। येऽअन्तरिक्ष य दिवि तेभ्य: सर्पेभ्यो नमः॥

-यजु० १३।६

( नमः अस्तु ) स्तुति हो ( सर्पेभ्यः ) उन सप के लिए ( ये के च ) जो कोई (पृथिवीम्अनु ) पृथिवी पर स्थित हैं। ( ये अन्तरिक्षे ) जो अन्तरिक्ष में हैं, ( ये दिवि ) जो द्युलोक में हैं ( तेभ्यः सर्पेभ्यः नमः ) उन सर्यों के लिए भी स्तुति हो। |

शतपथब्राह्मण में लिखा है कि ये लोक ही सर्प हैं, क्योंकि जब ये सर्पते हैं, तब जो कुछ इनके अन्दर होता है, उसके साथ ही सर्पते हैं। इस कारण भी लोकों को सर्प कहा जाता है कि जो कोई पदार्थ या प्राणी सर्पता है, वह इन्हीं लोकों में रहता हुआ सर्पता है। एवं इन लोकों में सर्पण करनेवाले पदार्थ तथा प्राणी भी सर्प कहलाते हैं। मन्त्र कह रहा है कि हम उन सर्यों को नम:’ देते हैं, जो पृथिवी पर रहते हैं। ‘नम:’ के अर्थ वैदिक कोष निघण्टु में अन्न तथा वज्र दिये हैं। नमस्कार अर्थ भी वेद में भी लोक के समान होता ही है। प्रकृत में ‘नम:’ का अर्थ स्तुति या गुणवर्णन उचित है। पृथिवी पर रहनेवाले चर पदार्थ मनुष्यकृत रेलगाड़ी, मोटरकार, ट्रक, इञ्जन, ट्रैक्टर, युद्धयान आदि हैं। इनके गुण जानकर, उनका वर्णन करके तथा इन चर पदार्थों का उपयोग करके हम असीम लाभ प्राप्त कर सकते हैं। पृथिवी पर रहनेवाले प्राणीरूप सर्प मनुष्य, सिंह, व्याघ्र, हाथी, पक्षी तथा अन्य जीवजन्तु हैं। इनका ज्ञान, गुणवर्णन तथा उचित उपयोग भी लाभदायक हो सकता है। अन्तरिक्ष में रहनेवाले सर्प अनेक ग्रह और उपग्रह हैं। इन ग्रह-उपग्रहों का हम पर फलित ज्योतिष का अभिमत प्रभाव भले ही न पड़ता हो, किन्तु प्राकृतिक प्रभाव तो पड़ता ही है। और अब तो ग्रह उपग्रहों में पहुँच कर वहाँ ग्राम और नगर बसाने की योजनाएँ चल रही हैं। द्युलोक में रहनेवाले सर्प सूर्यलोक तथा असंख्य नक्षत्रमण्डल हैं। मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या आदि १२ राशियाँ और २८ नक्षत्र, जिनमें हमारी पृथिवी के प्रवेश करने से संवत्सर का निर्माण होता है, सप्तर्षि आदि अनेक नक्षत्रपुञ्ज, आकाशगङ्गा के तारे ये सब द्युलोकस्थ सर्प हैं। इन सबका कुछ न कुछ प्राकृतिक प्रभाव हमारे स्वास्थ्य आदि पर तथा भौतिक घटनाचक्र आदि पर पड़ता है। अतः अपनी बुद्धि को इनके प्रति नत करके एतद्विषयक ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करना हमारे लिए कल्याणकारी हो सकता है।

अतः आओ इन सब पार्थिव, अन्तरिक्षस्थ तथा द्युलोकस्थ सर्यों के प्रति हम अपने ज्ञान और कर्म को प्रेरित करें।

पादटिप्पणियाँ

१. इमें वै लोकाः सर्पास्ते हानेन सर्वेण सर्पन्ति। श० ७.३.१.२५।।

२. इमे वै लोकाः सर्पा यदि किं च सर्पति एष्वेव तल्लोकेषु सर्पति । श०७.३.१.२७।।

३. निघं० अत्र २.७, वज्र २.२० ।

सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार  

पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार

पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः त्रिशिराः । देवता भूमिः । छन्दः पञ्चपादा आर्षी प्रस्तारपङ्कि: ।

भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधया विश्वस्य भुवनस्य धर्मी। पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृह पृथिवीं मा हिंसीः ।

-यजु० १३ । १८

हे पृथिवी ! तू ( भू: असि) भू है, ( भूमिः असि ) भूमि है, ( अदिति:४ असि ) अदिति है, (विश्वधायाः५) विश्वधाया है, विश्व को दूध पिलानेवाली है, (विश्वस्य भुवनस्य धर्ती) सब प्राणियों को धारण करनेवाली है। हे पृथिवी माता के पुत्र मनुष्य! तू (पृथिवींयच्छ) पृथिवी को नियन्त्रित कर, इसकी क्षति को रोक, ( पृथिवीं दूंह) पृथिवी को दृढ़ कर, ( पृथिवीं मा हिंसीः ) पृथिवी की हिंसा मत कर। |

वेद के अनुसार पृथिवी माता है, मैं उसका पुत्र हूँ। हे पृथिवी माता ! तू ‘भू:’ है, विशिष्ट अस्तित्ववाली है। नभोमण्डल में जो अगणित लोकलोकान्तर दिखायी देते हैं, उनके बीच तेरा विशेष अस्तित्व है, क्योंकि तू अनेक प्राणियों को जन्म देकर उनकी माता बनती है। तू केवल ‘भूः’ ही नहीं, अपितु ‘भूमि’ भी है, अर्थात् अपने भूतल पर निवास करनेवाली प्राणियों को अस्तित्व देनेवाली भी है। तुझ पर बसनेवाले सिंह, व्याघ्र, हाथी, हरिण आदि कैसी शान से रहते हैं। तुझ पर रहनेवाले मानव की शान तो निराली ही है, जिसने अपने बुद्धिकौशल से सुखी जीवन के लिए अनेक ज्ञान-विज्ञानों तथा अनेक उपयोगी वस्तुओं का आविष्कार किया है । हे माँ! तू ‘अदिति’ है, अखण्डनीया है, अलग-अलग टुकड़ों में बाँटने योग्य नहीं है। जैसे माँ के कभी टुकड़े नहीं किये जाते, वैसे ही पृथिवी भी टुकड़ों में नहीं बाँटी जा सकती । माँ के अङ्ग प्रत्यङ्ग तो होते हैं, पर उनमें सामञ्जस्य और एकसूत्रत्व रहता है, वैसे ही पृथिवी के भी विभिन्न राष्ट्र तो हो सकते हैं, परन्तु यजुर्वेद ज्योति उनमें परस्पर सौहार्द और एकसूत्रत्व रहना चाहिए। माँ के अङ्ग-प्रत्यङ्ग यदि एक-दूसरे से विद्रोह या विरोध करने लगे, तो उसका जीवन विपत्ति में पड़ जाएगा। ऐसे ही पृथिवी के अलग-अलग राष्ट्र यदि वाणी और क्रिया से एक-दूसरे के विरोध में तत्पर हो जाएँगे, तो पृथिवी भी निर्जीव हो जाएगी।

हे पृथिवी! तू ‘विश्वधायाः’ है, सब सन्तानों को अपना दूध पिलानेवाली है, अपने अन्दर विद्यमान नाना खाद्य एवं पेय पदार्थों से उनका पोषण करनेवाली है। खाद्य पेय से अतिरिक्त तुझमें विद्यमान सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि अन्य पदार्थ भी तेरा दूध ही हैं, जिनसे तू अपने पुत्र-पुत्रियों को उपकृत करती है। हे जननी ! तू सकल भुवन को, सकल प्राणि-समूह को अपनी गोद में धारण करनेवाली है।

हे मानव ! अपनी इस पृथिवी माता पर तू गर्व कर, इसकी क्षति को रोक। देख, प्रतिवर्ष बरसात की उमड़ती नदियों से, समुद्र के तूफान से न जाने कितनी भूमि कट जाती है और उस पर बसे हुए लोगों के घर उजड़ जाते हैं। तू धरती माँ के इस अङ्ग-विच्छेद को रोक, पृथिवी को दृढ़ कर। बाँधों से नदियों की धारा को बाँध । वृक्षारोपण करके पहाड़ों की कटती हुई भूमि को कटने से बचा। तू पृथिवी की हिंसा मत कर, इसकी उपजाऊ शक्ति को नष्ट मत होने दे, अन्यथा सोना उगलनेवाली यह धरती बञ्जर हो जाएगी। हे मनुज ! अपनी धरती माता की सेवा कर, इसके पर्यावरण प्रदूषण को रोक, इसे सजा संवार कर रख। तब यह भी युग युग तक तेरी सेवाकरती रहेगी।

पाद-टिप्पणियाँ

१. प्रस्तारपङ्कि १२+१२-८+८=४० की होती है, यहाँ ११+१३+५+५+६=४० को प्रस्तारपङ्कि कहा गया है।

२. भवतीति भूः ।।

३. भवन्ति पदार्था अस्यामिति भूमिः ‘भुवः कित्’ उ० ४.४६ से मिप्रत्यये तथा उसका किवद्भाव-द० ।।

४. दो अवखण्डने। दीयते अवखण्ड्यते इति दिति:, न दिति: अदितिःअनवखण्डनीया । निरुक्त में– अदितिः अदीना देवमाता, निरु० ४.४९,दाङ क्षये ।।

५. विश्वं धापयति दुग्धं पाययतीति विश्वधायाः, घेट् पाने ।

६. माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः , अ० १२.१.१२|

पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार