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जीवन्मुक्त की चित्रण -रामनाथ विद्यालंकार

जीवन्मुक्त की चित्रण -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषयः देवाः । देवता प्रजापतिः: । छन्दः निवृद् आर्षी बृहती।

सुत्रस्यऽऋद्धिरस्यगन्म ज्योतिरमृताऽअभूम। दिवं पृथिव्याऽअध्यारुहामाविदाम देवान्त्स्वर्योतिः

-यजु० ८।५२

हे जीवन्मुक्ति! तू ( सत्रस्य) जीवन-यज्ञ की ( द्धिःऋ असि ) समृद्धि है। (अगन्मज्योतिः ) पहुँच गये हैं हम प्रजापति रूप ज्योति तक। ( अमृताः अभूम) अमर हो गये हैं, जीवन्मुक्त हो गये हैं। (पृथिव्याः दिवम् अध्यारुहाम ) पृथिवी से द्युलोक में चढ़ गये हैं, निचले स्तर से सर्वोच्च स्तर पर पहुँच गये हैं। हमने (अविदामदेवान्) पा लिया है, दिव्य गुणों को, ( स्वः) आनन्द को, (ज्योतिः ) दिव्य प्रकाशको।।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये जीवन के पुरुषार्थ-चतुष्टय कहलाते हैं। धर्माचरण, धर्मानुकूल उपायों से अर्थसञ्चय एवं धर्मानुकूल काम का सेवन करते हुए मोक्ष के लिए प्रयत्नशील रहना मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है। मुक्ति के मुख्य उपाय हैं विवेक, वैराग्य, षट्क सम्पत्ति (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान) और वृत्ति-चतुष्टय (मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा) । इन उपायों द्वारा अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पाँच क्लेशों से छूट कर मनुष्य मुक्ति का परमानन्द प्राप्त करता है। उक्त साधनों के अतिरिक्त ‘‘परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म-अविद्या-कुसङ्ग-कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने, सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्यायधर्म की वृद्धि करने, परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने-पढ़ाने, धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने, पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार आचरण करने आदि साधनों से मुक्ति और इनसे विपरीत ईश्वराज्ञाभङ्ग आदि से बन्ध होता है।”१ जब मनुष्य उस परमात्मा के दर्शन कर लेता है, जो अपने आत्मा के भीतर और सर्वत्र बाहर भी व्याप रहा है तब उससे अज्ञानरूपी गाँठ कट जाती है, उसके सब संशय छिन्न हो जाते हैं और दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। इस स्थिति में जब तक शरीरपात नहीं होता, तब तक वह जीवन्मुक्त कहाती है। ऐसे ही कोई मनुष्य अपनी आनन्दमय जीवन्मुक्ति का वर्णन करते हुए प्रस्तुत मन्त्र में कह रहे हैं

‘हे जीवन्मुक्ति ! तू हमारे जीवन-यज्ञ की अतिशय समृद्ध अवस्था है। इस अवस्था में हमने प्रजापति परमात्मारूप ज्योति को पा लिया है। हम अमर हो गये हैं। हम पृथिवी से उठकर अन्तरिक्ष में पहुँच गये हैं, हमने ऊर्ध्व स्तर को पा लिया है। हमने दिव्य गुण पा लिये हैं। हमने आनन्द पा लिया है। हमने दिव्य प्रकाश प्राप्त कर लिया है। हमें जीवन्मुक्त हो गये हैं। देहपात के अनन्तर अब हम सुदीर्घ काल तक मुक्ति का आनन्द पाते रहेंगे, प्रभु के साहचर्य का दिव्य सुख अनुभव करते रहेंगे।’

पादटिप्पणियाँ

१. स० प्र०, समु० ९।।

२. मु० उप० २.२.१८

  जीवन्मुक्त की चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार 

देहधारक चौतीस तत्व -रामनाथ विद्यालंकार

देहधारक चौतीस तत्व -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वसिष्ठः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः भुरिक् आर्षी त्रिष्टुप् ।

चतुस्त्रिशत्तन्तवो ये वितनिरे यऽइमं यज्ञस्वधया दर्दन्ते। तेषां छिन्नसम्वेतद्दधामि स्वाहा घुर्मोऽअप्येतु देवान्

-यजु० ८।६१ |

( चतुस्त्रिंशत् ) चौंतीस (तन्तवः) सूत्र ( ये वितत्निरे ) जो देहरूप ताने को तन रहे हैं, (ये ) जो ( इमं यज्ञं ) इस जीवन-यज्ञ को ( स्वधया) आत्मधारणशक्ति से ( ददन्ते ) धारण कर रहे हैं, ( तेषां छिन्नं ) उनके छिन्न हुए अंश को ( एतत् सं दधामि ) यह संधान कर रहा हूँ, पूर्ण कर रहा हूँ। ( स्वाहा ) शरीर में यथोचित ओषधि की आहुति से स्वस्थ किया हुआ ( घर्म:२ ) जीवन-यज्ञ ( देवान्) दिव्य गुणों को ( अप्येतु) प्राप्त हो।

यों तो प्रत्येक पदार्थ पञ्च तत्त्वों के विभिन्न अनुपातों के मेल से बना है, तो भी देहधारक तत्त्व चौंतीस माने जा सकते हैं। पञ्चभूत, १० इन्द्रियाँ, १० प्राण, अहङ्कारचतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार), ४ धातुएँ (अस्थि, मांस, मज्जा, रक्त), १ आत्मा। इनमें से किसी की भी न्यूनता या दुर्बलता होने पर शरीर न्यून या दुर्बल हो जाता है। उदाहरणार्थ इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि या आत्मा के दुर्बल हो जाने से शरीर अस्वस्थ या दयनीय लगने लगता है। आँख की दूरदृष्टि या समीपदृष्टि यदि अल्प हो जाती है, तो उस कमी को दूर करने के लिए हम उपनेत्र (ऐनक) का प्रयोग करते हैं। कभी-कभी आँख में मोतिया उतर आता है, तब शल्यक्रिया करानी पड़ती है और कृत्रिम लैन्स डाला जाता है। शल्यक्रिया यदि सफल न हो, तो एक आँख या दोनों आँखें सदा के लिए बेकार हो जाती हैं। तब अन्धा हो जाने से कितनी बड़ी कमी शरीर में अनुभव होने लगती है। इसी प्रकार श्रवणशक्ति कम हो जाने से या सर्वथा नष्ट हो जाने से भी शरीर अल्पसामर्थ्य हो जाता है। प्राण, अपान आदि के ठीक काम न करने से भी पाचन संस्थान, रक्त-संस्थान, ज्ञानतन्तु-संस्थान आदि अपना कार्य ठीक प्रकार से नहीं कर पाते । मनोबल या आत्मबल न्यून हो जाए, तब तो मनुष्य नकारे के तुल्य हो जाता है, क्योंकि कठिन कार्य करने की या सङ्कटों से मुकाबला करने की शक्ति उसके अन्दर नहीं रहती। उक्त सभी चौंतीसों तत्त्व स्वात्मधारण शक्ति से हमारे जीवन-यज्ञ को धृत या सञ्चालित कर रहे हैं। यदि इनमें से किसी का भी अंश न्यून हो जाता है, तो यथोचित चिकित्सा द्वारा या शरीर में ओषधि की आहुति द्वारा मैं उसे पूर्ण कर लेता हूँ। परन्तु कमी को पूर्ण करके स्वस्थ किया हुआ भी जीवन-यज्ञ किसी काम का नहीं है, यदि उसमें सद्गुणों का समावेश न हो। अतः शरीरस्थ आत्मा में मैं सत्य, अहिंसा, न्याय, दयालुता, सेवाभाव आदि सद्गुणों का समावेश भी करता हूँ। तब स्वस्थ और सर्वगुणसम्पन्न मेरा जीवन उन्नति और परोपकार में लगकर यशस्वी हो उठता है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. ददन्ते धारयन्ति, दद दानधारणयो:-म० ।।

२. घर्म:=यज्ञ, निघं० ३.१७

देहधारक चौतीस तत्व -रामनाथ विद्यालंकार 

आत्मा और मन के जीते जीत -रामनाथ विद्यालंकार

आत्मा और मन के जीते जीत -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः बृहस्पतिः । देवता बृहस्पतिः इन्द्रश्च । छन्दः आर्षी जगती ।

बृहस्पते वाजं जय बृहस्पतये वाचे वदत बृहस्पतिं वाजे जापयत। इन्द्र वाजे येन्द्रा वाचे वदतेन्द्रं वाजे जापयत ।।

-यजु० ९ । ११

( बृहस्पते ) हे महान् शक्ति के स्वामी जीवात्मन्! तू ( वाजं जय ) देवासुरसंग्राम को जीत । ( बृहस्पतये ) महाशक्ति के स्वामी जीवात्मा के लिए ( वाचे वदत ) उद्बोधन की वाणी बोलो। ( बृहस्पतिम् ) महाशक्ति के स्वामी जीवात्मा को ( वाजं ) संग्राम (जापयत ) जितवाओ। ( इन्द्र ) हे परमैश्वर्यवान् मन ! तू ( वाजं जय ) संग्राम को जीत। ( इन्द्राय ) परमैश्वर्यवान् मन के लिए (वाचं वदत ) उद्बोधन की वाणी बोलो। (इन्द्रं ) परमैश्वर्यवान् मन को ( वाजं ) संग्राम ( जापयत ) जितवाओ।।

हे मेरे आत्मन् ! तू बृहती शक्ति का अधिपति होने के कारण ‘बृहस्पति’ कहलाता है। तेरे अन्दर अपार बल निहित है। उस बल से तू अपने अन्दर होनेवाले देवासुरसंग्राम पर विजय प्राप्त कर । जब भी तू किसी व्रत की दीक्षा लेना चाहता है या कोई पुण्य कार्य करना चाहता है, तभी आसुरी वृत्तियाँ आकर तुझे उस व्रत से तथा उस पुण्य कार्य से रोकना चाहती हैं। उन आसुरी वृत्तियों के वश में तू मत हो। अन्दर के समान बाहर भी तुझे देवासुरसंग्राम लड़ना पड़ता है। आसुर वृत्ति के पामर लोग श्रेष्ठ मार्ग पर चलनेवाले तुझे भटका कर उस मार्ग से विचलित करना चाहते हैं। परन्तु उनके प्रभाव में न आकर तू अपनी सात्त्विक वृत्ति के साथ श्रेष्ठ मार्ग पर चलने का आदर्श स्थापित करता रह ।।

हे मनुष्यो ! जब कभी तुम्हें कोई पाशविक वृत्ति उद्विग्न करने लगे, तुम्हारी ऊर्ध्व यात्रा में कोई विघ्न आकर अवरोध उपस्थित करने लगे, कोई शत्रु आकर तुम्हें ऊपर से नीचे गिराने लगे, तब तुम अपने बृहस्पति’ आत्मा को उद्बोधन दो, उसे जागृत करो। उसे उद्बोधन देकर उससे संग्राम जितवाओ। यदि तुम समझते हो कि चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों से तुम संग्राम जीत लोगे, तो यह तुम्हारी भूल है। ये इन्द्रियाँ तो विषयों की ओर प्रवृत्त होकर संग्रामों में तुम्हारी पराजय करानेवाली सिद्ध होती हैं। आत्मा ही है, जो निर्भीक, निश्चल होकर शत्रुओं से लोहा लेता है।

हे मेरे ‘इन्द्र’! हे मेरे परमैश्वर्यवान् मन! तू अपने सङ्कल्प बल से देवासुरसंग्राम को जीत । हे मानवो ! जब भी तुम्हें कभी विपदा आती दिखायी दे, शत्रुओं की टोली तुम्हें लीलने के लिए आगे बढ़ती दृष्टिगोचर हो, तब तुम अपने मन को उद्बोधन दो, मन को जागृत एवं प्रबुद्ध करो, उससे देवासुरसंग्राम जितवाओ। मत भूलो ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’ । आओ, हम सभी अपने आत्मा और मन को प्रबुद्ध करके देवासुरसंग्रामों में विजय प्राप्त करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. बृहत्या: महत्याः शक्तेः पतिः बृहस्पतिः । बृहत्-पति। त् का लोपऔर सुट्स् का आगम। ‘तबृहतोः करपत्योश्चोरदेवतयोः सुट् तलोपश्च’, वार्तिक, पा० ६.१.१५७

२. जापयत, जि जये, णिच्, लोट् ।

३. यन्मन: स इन्द्रः । गो० उ० ४.११

आत्मा और मन के जीते जीत -रामनाथ विद्यालंकार 

राजपुरुषों का दायित्व -रामनाथ विद्यालंकार

राजपुरुषों का दायित्व -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वसिष्ठः । देवता बृहस्पतिः। छन्दः भुरिक् पङ्किः।

शन्नो भवन्तु वाजिनो हवेषु देवतता मितद्रवः स्वः । जम्भयन्तोऽहिं वृकुरक्षासि सनेम्यस्मद्युयवन्नमवाः ॥

यजु० ९ । १६

 हे बृहस्पति राजन् ! ( मितद्रव:१) मपी-तुली गतिवाले, (स्वक:२) शुभ अर्चिवाले (वाजिनः ) वीर राजपुरुष ( देवताता ) यज्ञ में, और ( हवेषु ) संग्रामों में ( नः ) हमारे लिए ( शं भवन्तु ) सुखशान्तिकारी हों। वे ( अहिं ) साँपको, ( वृकं ) भेड़िये को, और (रक्षांसि ) राक्षसों को ( जम्भयन्तः५) विनष्ट करते हुए ( अस्मद् ) हमसे ( सनेमि६ ) शीघ्र ही ( अमीवाः ) रोगों को ( युयवन्) दूर कर देवें । |

राजपुरुषों की नियुक्ति उनके पदों पर उन्हें सम्मान देने के लिए या प्रजा पर रोबदाब जमाने के लिए नहीं होती है, अपितु प्रजा की सेवा के लिए होती है। ‘वाज’ शब्द बलवाचक है, अतः ‘वाजी’ का अर्थ है बली। ‘वाजिनः’ उसका बहुवचन है। यहाँ ‘वाजिनः’ का अर्थ है बली राजपुरुष। मन्त्र में ‘वाजिनः’ के दो विशेषण दिये गये हैं ‘मितद्रवः’ और ‘स्वर्का:’ । ‘मितद्रव:’ का अर्थ है मपी-तुली गतिवाले । जिस-जिस अधिकार या पद पर उन्हें नियुक्त किया गया है, उसकी जो सीमा है, वहीं तक गति करना उनका कार्य होता है। परन्तु गति करनी अवश्य है, अपने क्षेत्र में पूरा सक्रिय होना है, उदासीन होकर नहीं बैठना है। ‘स्वर्का:’ का निरुक्त में एक अर्थ ‘स्वर्चिषः’ दिया गया है, अर्थात् उत्कृष्ट ज्योतिवाले। प्रत्येक राजपुरुष को ज्योतिष्मान् अर्थात् अन्यों पर अपना प्रभाव छोड़नेवाला होना चाहिए। ढीला-ढाला या गलत बात पर समझौता कर लेनेवाला नहीं। इनके विषय में एक बात यह कही गयी है कि ये यज्ञ में और संग्रामों में हमारे लिए सुखकारी हों। जिस राजपुरुष को जो कार्य सौंपा गया है, वही उसके लिए यज्ञ है। उसे पवित्र यज्ञ मानकर ही करना है। जब कभी अपने राष्ट्र को किसी दूसरे राष्ट्र से युद्ध करना पड़ जाता है, तब उसमें भी क्षत्रियभिन्न राजपुरुषों को भी सेना की सहायता के लिए भेजना पड़ जाता है, क्योंकि वेद की दृष्टि में प्रत्येक राष्ट्रवासी को सैनिक शिक्षा देना अनिवार्य है। जैसे नियुक्त स्थल पर राजपुरुषों को प्रजाहित करना है, वैसे ही संग्रामों में भी राष्ट्रहित या प्रजाहित करना होता है। जो क्षत्रिय राजपुरुष होते हैं, उनसे तो संग्रामों में प्रजाहित अपेक्षित होता ही है।

राजपुरुषों का यह भी कर्तव्य है कि वे अहि, वृक और राक्षसों को विनष्ट करें । अहि, वृक और राक्षस राष्ट्रवासियों में भी हो सकते हैं और शत्रुओं में भी। जो साँप की तरह कुटिल चाल चलते हैं और विषैले हैं, वे ‘अहि’ होते हैं। हिंसा, मार काट मचानेवाले लोग ‘वृक’ या भेड़िये हैं। जिनसे अपनी रक्षा करनी पड़ती है ऐसे नरपिशाच राक्षस या रक्षस् हैं। इन्हें विनष्ट करके ही तो राजपुरुष प्रजा को सुख पहुँचा सकेंगे। अन्त में कहा गया है कि वे राजपुरुष इन सबका विध्वंस करते हुए हमारे रोगों या अस्वास्थ्य को भी दूर करें, अर्थात् हमें चिन्ताओं से मुक्त करें। रोग शारीरिक व्याधियाँ ही नहीं, मानसिक चिन्ताएँ भी रोग कहाती हैं। | हे राजपुरुषो! तुम हम प्रजाओं को सर्वभाव से सुखी रखो, हम तुम्हारा धन्यवाद करेंगे।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (मितद्रवः) ये परिमितं द्रवन्ति गच्छन्ति ते-द० ।।

२. स्वर्का: स्वञ्चना इति वा, स्वर्चना इति वा, स्वर्चिष इति वा-निरु०१२.३० । ।

३. देवताता=यज्ञे । निघं० ३.१७। देव-तातिल् प्रत्यय, सप्तमी विभक्ति कोडा=आ आदेश ।।

४. ह्वयन्ते स्पर्धन्ते योद्धारो यत्र स हवः संग्रामः । ह्वञ् स्पर्धायां शब्दे च,भ्वादिः ।।

५. जभि नाशने, चुरादिः ।।

६. सनेमि=क्षिप्रम्, निरु० १२.३० ।।

७. युयवन् पृथक् कुर्वन्तु। अत्र लेटि शपः श्लु:-द० । यु मिश्रणेअमिश्रणे च, अदादिः ।

राजपुरुषों का दायित्व -रामनाथ विद्यालंकार 

हम पुरोहित राष्ट्र में जागरुक रहें -रामनाथ विद्यालंकार

हम पुरोहित राष्ट्र में जागरुक रहें -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वसिष्ठः । देवता प्रजापतिः । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

वाजस्येमं प्रसवः सुषुवेऽग्रे सोमराजानमोषधीष्वप्सु ताऽअस्मभ्यं मधुमतीर्भवन्तु वयश्राष्ट्र जागृयाम पुरोहिताः स्वाहा॥

 -यजु० ९।२३ |

( वाजस्य ) अन्नादि ऐश्वर्य से भरपूर जगत् के ( प्रसवः ) उत्पत्तिकर्ता प्रजापति ने (अग्रे) सृष्टि के आरम्भ में ( ओषधीषु अप्सु ) ओषधियों और जलों में ( इमं सोमं ) इस सोम ओषधि को ( राजानं ) राजा ( सुषुवे ) बनाया। ( ताः ) वे ओषधियाँ और जल (अस्मभ्यं) हमारे लिए ( मधुमतीः भवन्तु ) मधुमय होवें। ( पुरोहिताः वयं ) पुरोहित हम, अग्रगण्य पद पर स्थित हम ( राष्ट्रे ) राष्ट्र में ( जागृयाम ) जागरूक रहें, ( स्वाहा ) आहुति देने के लिए।

जिनके हाथों में राष्ट्र की बागडोर है, वे प्रधानमन्त्री विभिन्न विभागों के पृथक्-पृथक् मन्त्री, प्रदेशों के मुख्य मन्त्री, राज्यपाल, न्यायाधीश, सेनाध्यक्ष, उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति आदि ही राष्ट्रयज्ञ के पुरोहित होते हैं। वे यदि प्रतिक्षण जागरूक नहीं हैं, तो राष्ट्र कभी भी विपत्ति में पड़ सकता है। कौन राष्ट्र कितना ऊँचा है, यह उस राष्ट्र के शिक्षा, शिल्प, उत्पादन, व्यापार, यात्रा–साधन, चिकित्सासाधने, स्वास्थ्य, विदेशों से सम्बन्ध आदि देख कर निर्णय होता है। जिस राष्ट्र के पुरोहित जितने अधिक जागरूक हैं, उतना ही अधिक वह राष्ट्र उन्नत हो सकता है। अन्य राष्ट्रों से तुलना भी होगी। सभी राष्ट्रों के पुरोहित सक्षम, सावधान, क्रियाशील बने रहने का यत्न करते हैं, किन्तु वे उन्नति के साधने कितने जुटा पाते हैं, यह भी देखा जाता है। एक राष्ट्र में ९० प्रतिशत राष्ट्रवासी शिक्षित हैं, दूसरे राष्ट्र में १० प्रतिशत ही शिक्षित हैं, एक राष्ट्र में खाद्य पदार्थों की प्राप्ति अपनी कृषि से ही हो जाती है, अन्य पदार्थ भी अपने कल-कारखानों से ही तैयार हो जाते हैं, दूसरे राष्ट्र को इन पदार्थों के लिए अन्य राष्ट्रों पर निर्भर रहना पड़ता है। एक देश रक्षासाधन शस्त्रास्त्रों की दृष्टि से स्वात्मनिर्भर है, दूसरा राष्ट्र परापेक्षी है। इस स्थिति में कौन-सा राष्ट्र अधिक समुन्नत है, यह स्वतः निर्णय हो जाता है।

पुरोहितों के निर्वाचन के पश्चात् यज्ञपूर्वक उनका सामूहिक अभिषेक हो रहा है। अभिषेक सोम आदि ओषधियों के पत्र पुष्पों की मालाएँ भेंट करते हुए तथा जल छिड़कते हुए किया जा रहा है। पुरोहित कहते हैं कि अन्नादि ऐश्वर्य से भरपूर जगत् के उत्पादक प्रजापति परमेश्वर ने सोम राजावाले जल और ओषधियाँ उत्पन्न किये हैं, जिनसे हमारा अभिषेक किया जा रहा है। वे हमारे लिए मधुर हों, शान्तिदायक हों, उद्बोधक हों, पौरोहित्य के कार्य में सफल करनेवाले हों। ‘हम पुरोहित राष्ट्र में सदा जागरूक रहेंगे।’ यह हम यज्ञाग्नि में आहुति डालते हुए प्रजापति परमेश्वर से आशीर्वाद चाहते हैं। जिस मार्ग पर हम चले हैं, वह अकण्टक नहीं है। अनेक बाधाओं से जूझते हुए हमें राष्ट्रोत्थान और राष्ट्रकल्याण करना है, राष्ट्र की सेवा करनी है। हम किसी भी पद पर हों सेवक पहले हैं, अधिकारी बाद में हैं। हमें गर्व है इस बात का कि हमें जनता ने चुनकर इस बात का प्रमाणपत्र दिया है कि हम राष्ट्रसेवा के योग्य हैं। हम अपनी पूरी योग्यता से राष्ट्र का हित साधन करने में अपनी शक्ति लगायेंगे और सदा जागरूक रहेंगे। हम यज्ञाग्नि में स्वाहा’ के साथ आहुति देते हुए राष्ट्र की अग्नि में स्वयं को ‘स्वाहा’ करने की प्रेरणा ले रहे हैं। प्रभु का और जनता-जनार्दन का आशीर्वाद हमें प्राप्त होता रहे।

पाद-टिप्पणी

१. सुषुवे-घूङ् प्राणिगर्भविमोचने, लिट् ।

हम पुरोहित राष्ट्र में जागरुक रहें -रामनाथ विद्यालंकार 

तुम दाता हो, मुझे भी दो -रामनाथ विद्यालंकार

तुम दाता हो, मुझे भी दो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषि: तापसः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

अग्नेऽअच्छा वदेह नुः प्रति नः सुमना भव। प्र नो यच्छ सहस्रजित् त्वहि धनदाऽअसिस्वाहा।

-यजु० ९।२८

( अग्ने ) हे अग्रनेता तेजस्वी परमात्मन् ! आप (इह ) यहाँ, इस संसार में (नः अच्छ) हमारे प्रति ( वद ) सदुपदेश करते रहो। ( नः प्रति ) हमारे प्रति ( सुमनाः भव) शुभ मनवाले होवो। हे ( सहस्रजित् ) सहस्रों ऐश्वर्यों के विजेता ! आप ( नः प्र यच्छ) हमें ऐश्वर्य देते रहो, ( हि ) क्योंकि ( त्वम् ) आप ( धनदाः असि ) ऐश्वर्यों के प्रदाता हो। (स्वाहा ) हम आपके प्रति आत्मसमर्पण करते हैं।

हे ज्योतिर्मय प्रभु ! हमने अपने हृदय में तुम्हारी जोत जगायी है, तुम्हें अपना हृदयेश बनाया है। तुम ‘अग्नि’ हो, प्रकाशप्रदाता हो, हमारे अन्तस्तल में भी ज्ञान को प्रकाश देते हो। तुम हमें नित्य सदुपदेश देते रहो, हमारे अन्दर ‘सत्यं, शिवं, सुन्दरम्’ की प्रेरणा करते रहो। हम मार्ग से भटकने लगें, तो हमें मार्ग पर लाते रहो। हमारे सम्मुख जो अज्ञान को अन्धकार छाया हुआ है, उसे दूर करते रहो। हमें कर्तव्यबोध कराते रहो। हमारे अन्दर से तामसिकता को हटाकर हमें विवेक एवं जागरूकता की ज्योति प्रदान करते रहो।।

हे देव! तुम हमारे प्रति ‘सुमना:’ होवो, सुप्रसन्न मनवाले होवो। तुम हमें पुचकारो, दुलराओ, अपना स्नेह हमारे प्रति उंडेलो, अपने भावभीने मञ्जल आशीर्वचनों से हमें कृतकृत्य करो।

हे मेरे परम प्रभु ! तुम ‘सहस्रजित्’ हो, तुमने सहस्रों का दिल जीता हुआ है, मेरा भी दिल जीत लो ! तुम ‘सहस्रजित्’ इस कारण भी हो कि तुमने सहस्रों ऐश्वर्यों को जीता हुआ है, सहस्रों ऐश्वर्य तुम्हारे पास भरे पड़े हैं। तुम मुझे भी ऐश्वर्य प्रदान करो, क्योंकि तुम ‘धनदाता’ नाम से विख्यात हो। तुम्हारे पास न्याय का ऐश्वर्य है, तुम्हारे पास दया का ऐश्वर्य है, तुम्हारे पास सहृदयता का ऐश्वर्य है, तुम्हारे पास प्रेम का ऐश्वर्य है, तुम्हारे पास परोपकार का ऐश्वर्य है। इन इन आन्तरिक ऐश्वर्यों के अतिरिक्त जगत् की सब भौतिक धन दौलत भी तुम्हारी ही है। हे प्रभु, तुम ये सब ऐश्वर्य मुझे भी प्रदान करो। तुम मुझे भी न्यायकारी, दयालु, सहृदय, प्रेमी, परोपकारी बना दो। तुम मुझे भी भौतिक धन-सम्पदा से परिपूर्ण कर दो। ‘स्वाहा’-मैं तुम्हें आत्मसमर्पण करता हूँ, स्वयं को आहुति बनाकर तुममें आहुत करता हूँ। तुम मेरे इस आहुतिदान को स्वीकार करो। मुझे अपनी अग्नि में तपा कर कुन्दन बना दो।

तुम दाता हो, मुझे भी दो -रामनाथ विद्यालंकार

हम नायकों को पुकारते हैं -रामनाथ विद्यालंकार

हम नायकों को पुकारते हैं -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः तापसः । देवताः मन्त्रोक्ताः सोमः, अग्निः, आदित्याः, विष्णुः,सूर्यः, ब्रह्म, बृहस्पति: । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

सोमेश्राजानमवसेऽग्निमन्वारभामहेआदित्यान्विष्णुसूर्यं ब्रह्माणं च बृहस्पतिस्वाहा ।।।

 -यजु० ९ । २६

हम ( अवसे ) रक्षा के लिए ( सोमं राजानम् ) सौम्य तथा ज्योति से राजमाने परब्रह्म को, ( अग्निम्) अग्रनेता तेजस्वी जननायक को, ( आदित्यान्) सूर्यसदृश तेजस्वी वीर सैनिकों को, (विष्णुम्) अपने प्रभाव से सकल राष्ट्र में व्यापक राजा को, ( सूर्यम् ) विद्या और सदाचार के सूर्य उपदेशक को, ( ब्रह्माणम्) यज्ञ के नेता ब्रह्मा को, (बृहस्पतिं च) और वाक्पति आचार्य को (अन्वारभामहे ) स्वीकार करते हैं, ( स्वाहा) इनके प्रति हमारा समर्पण फलदायक हो ।

हम आत्मरक्षा और आत्मोन्नति के लिए केवल स्वयं पर ही नहीं, किन्तु अन्यों पर भी निर्भर रहते हैं। उनमें से सर्वप्रथम हम अपने ‘सोम राजा’ को कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करते हैं। ‘सोम राजा’ हमारा परम प्रभु है, जो अन्तरिक्षस्थ चन्द्रमा के समान सौम्य, रसमय, मधुर और मधुस्रावी है तथा सुखद ज्योति से राजमान है। वह निरन्तर हमें अपनी छत्रछाया में लेकर हमारी रक्षा कर रहा है, हमें आगे बढ़ना सिखा कर हमारी उन्नति कर रहा है। फिर हम ‘अग्नि’ अर्थात् अग्रनेता, तेजस्वी जननायक को पुकारते हैं। वह हमारे अन्दर मानवता, सहृदयता एवं प्रेम की ज्योति प्रज्वलित कर हमारी रक्षा करता है तथा पारस्परिक अभ्युत्थान के लिए हमें प्रेरित करता है। तदनन्तर हम आदित्यों अर्थात् वीर क्षत्रियों को पुकारते हैं, जोआदित्य की किरणों के समान तेजस्वी होते हुए हमारे राष्ट्र की रक्षा करते हैं तथा उच्च राष्ट्रों की श्रेणी में हमारे राष्ट्र को ले जाते हैं। तत्पश्चात् हम राष्ट्रोन्नायक विष्णु को अर्थात् राष्ट्र के राजा को पुकारते हैं, जो अपने प्रभाव से समग्र राष्ट्र में व्याप्त होता हुआ, समस्त प्रजा का रक्षक होता हआ राष्ट्र को उन्नति के शिखर पर पहुँचाता है। फिर हम सूर्य के समान तेजस्वी उपदेशक को पुकारते हैं, जिसकी वाणी में ओज है तथा जो अपनी प्रभावोत्पादक वाणी से राष्ट्रजनों को उद्बोधन देता है, उनके प्रसुप्त हृदयों को जगाता है एवं उन्हें कर्तव्योन्मुख करता है। साथ ही हम ब्रह्मा का भी आह्वान करते हैं, जो राष्ट्र में यज्ञों का सञ्चालन करे, वायु-जल आदि को तथा जनमानस को शुद्ध कर राष्ट्रवासियों के हृदयों को यज्ञसूत्रता में बाँध कर हमारा महान् उपकार करता है। अन्त में हम बृहस्पति अर्थात् वाचस्पति आचार्य को पुकारते हैं, जो गुरुकुल में प्रविष्ट बालकों को ब्रह्मचारी बनाकर ज्ञान तथा सदाचार की उच्च शिक्षा देकर सुयोग्य नागरिक बनाता है।

हम उक्त सब महान् नेताओं के प्रति स्वयं को समर्पित करते हैं-‘स्वाहा’। ये हमें महान् लक्ष्य के प्रति प्रबुद्ध एवं जागरूक करके हमारा अभ्युत्थान करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. अवसे–अव रक्षणादिषु, असुन्, चतुर्थी विभक्ति।

२. अनु-आ-रभ राभस्ये, भ्वादिः ।

हम नायकों को पुकारते हैं -रामनाथ विद्यालंकार 

राज्याधिकारियों से निवेदन -रामनाथ विद्यालंकार

राज्याधिकारियों से निवेदन -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः तापसः । देवता मन्त्रोक्ता: । छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री ।

प्रनों यच्छत्वर्यमा प्रपूषा प्र बृहस्पतिः। प्र वाग्देवी ददातु नः स्वाहा।।

-यजु० ९ । २९ |

( अर्थ्यमा ) न्यायाधीश ( नः ) हमें (प्रयच्छतु ) अपनी देन दे। ( प्र पूषा) पुष्टि, पशुपालन और यातायात का मन्त्री अपनी देन दे। ( प्र बृहस्पति:३) शिक्षामन्त्री भी अपनी देन दे। ( वाग् देवी ) दिव्य वेदवाणी भी (नः प्र ददातु ) हमें अपनी देन दे।

हम चाहते हैं कि राष्ट्र के सब अधिकारी हमें अपने-अपने अधिकार और सेवा से लाभ पहुँचाएँ।’ अर्यमा’ अपनी देन दे। जो ‘अर्यो’ अर्थात् श्रेष्ठों का मान करता है और अश्रेष्ठों को दण्डित करता है वह न्यायाधीश अर्यमा कहलाता है। उसका कर्तव्य है कि वह प्रत्येक अभियोग के दोनों पक्षों को ध्यान से सुनकर अपना निर्णय दे कि दोषी कौन है और उसे क्या दण्ड दिया जाए। अपराध का दण्ड मिलने पर अपराधी को यह शिक्षा मिलती है कि भविष्य में वह अपराध न करे और अन्य लोग भी सजग हो जाते हैं। इस प्रकार न्यायाधीश की समाज को यह देन है कि वह राष्ट्र में निरपराधता का वातावरण तैयार करता है। पूषा’ वेद में पुष्टि, पशुपालन और मार्गों का नियन्त्रण करता है, अत: वह इस विभाग का मन्त्री है। खेती और बागवानी की सब समस्याओं को वह देखेगी। वेद में ब्रीहि, यव, माष, तिल, मूंग, चने, किनकी चावल (अणु), साँवक चावल (श्यामाक), तृणधान्य (नीवार), गेहूँ, मसूर आदि अन्नों के नाम आते हैं। दूध, घी, रस, मधु का भी वर्णन आता है। पुष्ट और पुष्टि की प्रचुरता होने का भी उल्लेख है। पशुपालन के सूक्त भी हैं। इन सब विषयों की समस्याओं का समाधान करना और अपनी ओर से इन सबकी उन्नति करना पूषा मन्त्री की देन है। वह हमें प्रचुरता से प्राप्त होती रहे। ‘बृहस्पति’ शिक्षामन्त्री है। विश्वविद्यालयों की उन्नति, शिक्षा के विषयों की वृद्धि, उच्च शिक्षा का प्रबन्ध, वैज्ञानिक विषय कृषि, शिल्प आदि तथा अन्य विभिन्न विषयों की शिक्षा को सञ्चालित तथा उन्नत करना शिक्षा मन्त्री का कार्य है। वह इस कार्य को भलीभाँति करके अपनी देन देता रहे। |

‘वाग् देवी’ दिव्य वेदवाणी है, सरस्वती भी उसी का नाम है। वेदवाणी विभिन्न विद्याओं का सरस प्रवाह हमें देकर हमारा उपकार करती है। साथ ही उद्बोधन, आशावाद की उमङ्ग, शिवसङ्कल्प, आत्मा की अमरता, आत्मा की अद्भुत क्षमता, सन्मार्ग में प्रवृत्ति, बाधाओं और विघ्नों का क्षय एवं ऊध्र्वारोहण करा कर हमें समुन्नत करती है।

उक्त सब मन्त्रोक्त विभिन्न विभागों के राज्याधिकारी एवं वेदविद्या हम सबको अपनी बहुमूल्य देन देकर उपकृत करते रहें, यही हमारी कामना है।

पादटिप्पणियाँ

१. (अर्यमा) न्यायाधीश:-२० ।

२. पुष्टं च मे पुष्टिश्च मे । य० १८.१०, पूषा गा अन्वेतु नः पूषा रक्षत्वर्वतः ।।पूषा वाजं सनोतु नः । ऋ० ६.५४.५, पथस्पते ऋ० ६.५३.१

३. बृहत्याः वेदवाच:, बृहतो ज्ञानस्य शिक्षाशास्त्रस्य वा पतिः बृहस्पतिःशिक्षामन्त्री।

४.य० १८.१२ ५.

५.य० १८.९

६.अ० २.३४, ३.९८, ६.३१, ७.१०४ आदि ।

राज्याधिकारियों से निवेदन -रामनाथ विद्यालंकार 

हे प्रभु, यजमान की पुकार सुनो -रामनाथ विद्यालंकार

हे प्रभु, यजमान की पुकार सुनो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः देववातः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

अग्ने सर्हस्व पृतनाऽअभिमतीरपस्य। दुष्टरस्तरन्नरातीर्वचधा यज्ञवहसि ॥

-यजु० ९ । ३७ |

( अग्ने) हे अग्रनायक वर्चस्वी परमात्मन्! आप (पृतना: ) सेनाओं को ( सहस्व ) पराजित करो, ( अभिमाती: ) अभिमानवृत्तियों को ( अपास्य ) दूर करो। ( दुष्टर: ) दुरस्तर आप ( अरातीः३) अदानवृत्तियों को एवं अदानी रिपुओं को ( तरन्) तरते हुए, तिरस्कृत करते हुए ( यज्ञवाहसि) यज्ञवाहक यजमान के अन्दर ( वर्चः धाः५) वर्चस्विता को धारण करो।

हे परमेश्वर ! आप अग्रनायक और जलती आग के समान जाज्वल्यमान, तेजस्वी, वर्चस्वी होने के कारण ‘अग्नि’ कहलाते हो। आप अपनी ज्वाला से मुझे भी प्रज्वलित कर दो। मुझे ऐसा बना दो कि कितनी ही शत्रु-सेनाएँ मुझसे लोहा लेने के लिए आयें, सब मुझसे पराजित हो जाएँ। अध्यात्म में काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष, अनुत्साह, अकर्मण्यता आदि की सेनाएँ मझे दबोचना चाहती हैं और बाहर मुझे तथा मेर राष्ट्र को परास्त करके अपने अधीन करना चाहने वाली शत्रु सेनाएँ नीचा दिखाना चाहती हैं। आप मुझे ऐसी शक्ति दें कि मैं इन पर विजय प्राप्त कर सकें। अनेक अवसरों पर कठिनाइयों का पराजय तो मैं आपकी कृपा से करता हूँ, किन्तु अभिमान मुझे अपनी महत्ता का हो जाता है। इन अभिमातियों को, अभिमानवृत्तियों को भी आप चकनाचूर करके मुझमें विनय का बीजारोपण कीजिए। हे जगदीश्वर ! आप दुस्तर हैं, किसी से हारनेवाले नहीं हैं, अपितु जहाँ कहीं भी अमानवीयता दृष्टिगोचर होती है, उसे आप भस्मसात् करके राक्षस को मानव बना देते हो। अत: मेरे अन्दर भी जो अराति या अदान वृत्तियाँ पनप रही हैं, जिनके कारण मैं परोपकार में संलग्न नहीं होता हैं, उन्हें तिरस्कृत करके मुझे उद्भट दानी बना दीजिए। आप मुझे उदासीन, निस्तेज, बुझा हुआ भी मत रहने दीजिए, प्रत्युत मेरे अन्दर वर्चस्विता, उत्साह, अग्रगामिता, आशावादिता आदि उत्पन्न करके समाज में ऐसा उत्साही और तेजस्वी बना दीजिए कि जहाँ भी मैं अन्याय, अत्याचार आदि देखें, उसे कुचल डालँ।।

हे अन्तर्यामी ! मैं आज यजमान बना हूँ, यज्ञ का व्रती बना हूँ। यज्ञ शब्द देवपूजा, संङ्गतिकरण और दान अर्थवाली यज धातु से निष्पन्न होता है। अतः आप मुझे ऐसा आत्मबल दीजिए कि मैं देवपूजक बनूं, सत्कार्यों के सङ्गठन में भागीदार बनूं और अपने तन, मन, धन का दूसरों की भलाई के लिए दान कर सकें। हे प्रभु, मेरी इन सदिच्छाओं को पूर्ण कीजिए, मुझे सच्चे अर्थों में यज्ञवाहक बनाइये ।।

पाद-टिप्पणियाँ

१. अप-असु क्षेपणे, दिवादिः ।

२. दुष्टर: दुःखेन तर्तुं शक्यः ।

३. अराती:-न रा दाने, क्तिन्, अराति: ।

४. यज्ञवाहस् सप्तमी एकवचन।।

५. धाः अधाः । बहुलं छन्दस्यमायोगेऽपि पा० ५.४.७५ से अडागमका निषेध। लिङर्थ में लुड्।

हे प्रभु, यजमान की पुकार सुनो -रामनाथ विद्यालंकार 

नवनिर्वाचित राजा का अभिषेक -रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित राजा का अभिषेक -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वरुणः । देवता क्षत्रपति: । छन्दः आर्षी पङ्किः।

सोमस्य त्वा द्युम्नेनाभिषिञ्चाम्यग्नेजसा सूर्यस्य वर्चसेन्द्र स्येन्द्रियेण क्षत्राणी क्षत्रपतिरेध्यति दिद्यून् पहि ॥

-यजु० १० । १७

हे नवनिर्वाचित राजन् ! ( सोमस्य द्युम्नेन ) सोम के यश से ( त्वी अभिषिञ्चामि ) तुझे अभिषिक्त करता हूँ, ( अग्नेः भ्राजसा ) अग्नि के तेज से, ( सूर्यस्य वर्चसा ) सूर्य के वर्चस् से, (इन्द्रस्य इन्द्रियेण ) इन्द्र के इन्द्रत्व से । तू ( क्षत्राणां क्षत्रपतिः) क्षात्रकुलोत्पन्नों का क्षत्रपति ( एधि) हो। ( दिद्युन् अति ) मारक शास्त्रास्त्रों को विफल करके, तू ( पाहि ) राष्ट्र की रक्षा कर।।

हे क्षत्रियश्रेष्ठ! आप मतदाताओं द्वारा बहुसम्मति से राष्ट्र के राजा निर्वाचित हुए हैं। इस अवसर पर हम राष्ट्रवासियों की ओर से हर्ष प्रकट करते हैं और आपको वधाई देते हैं। यह हम राष्ट्र का सौभाग्य मानते हैं कि आप जैसे सुयोग्य व्यक्ति के पक्ष में जनता ने मतदान किया है। अब विभिन्न स्थानों के जलों से आपका अभिषेक हो रहा है। प्रजा की ओर से आपका अभिषेक करने के लिए नियुक्त मैं पुरोहित आपको ‘सोम’ के यश से अभिषिक्त करता हूँ। सोम चन्द्रमा का और ओषधियों के राजा का नाम है। चन्द्रमा अपनी चाँदनी के यश से यशस्वी बना हुआ है। वह चान्द्र तिथियों, चान्द्र मासों तथा चान्द्र वर्षों का भी निर्माण करता है। आपका यश भी चाँदनी जैसा हो, आप पूनम के चाँद बनकर राष्ट्रगगन में चमकें। ‘सोम’ ओषधियों का राजा एक पौधा भी होता है, जिसका रस स्फूर्ति, उत्साह, मनीषा, वीरता आदि को बढ़ाता है, तथा जो रोगियों को नीरोग, निराशों की आशावादी और मृततुल्यों  को सजीव कर सकता है। उस जैसा यश भी आप प्राप्त करें। ‘अग्नि’ के तेज से आपको अभिषिक्त करता हूँ। यज्ञकुण्ड में अग्नि की ऊर्ध्वगामिनी ज्वालाएँ यजमान को तेजस्वी होकर ऊध्र्वारोहण करने का सन्देश देती हैं। अग्नि का वह यश भी आपको प्राप्त हो। फिर मैं सूर्य के वर्चस् से आपको अभिषिक्त करता हूँ। सूर्य का वर्चस् समस्त सौर मण्डल को प्राण प्रदान करता है, अपने आकर्षण की डोर से सबको अपने साथ बाँध कर अपने चारों ओर अपनी परिक्रमा करवाता है, प्रकाश देता है, अपने ताप से ओषधि-वनस्पतियों को उगाता, बढ़ाता, पुष्पित-फलित तथा परिपक्व करता है। आप अपने राष्ट्र की फुलवारी को सींचिए, सप्राण कीजिए, बढाइए, विकसित कीजिए, फलवती कीजिए। मैं आपको इन्द्र के इन्द्रत्व से अभिषिक्त करता हूँ। वैदिक इन्द्र के कर्म हैं वर्षा करना, वृत्रादि का वध करना तथा जो भी वीरता के कार्य हैं, उन्हें करना। आप भी प्रजा पर सुखसमृद्धि की वर्षा कीजिए, वैरियों का संहार कीजिए और अन्य भी वीरता के सेवाकार्य कीजिए। | हे राजन्! आप सच्चे अर्थों में क्षत्रपति बनिए, क्षात्र तेज को चारों ओर बखेरिए, चोरों से, आघातों से, शत्रु के आक्रमणों से राष्ट्र की रक्षा कीजिए। शत्रुओं की वाणवर्षा, बम-गोलों की वर्षा, तोप-गोलों की वर्षा विफल करके राष्ट्र की रक्षा कीजिए। हम आपका जयकार करते हैं, आपके सहयोगियों का जयकार करते हैं, आपके अभिषेक का जयकार करते हैं और आपसे आशा करते हैं कि आप अपने कार्यकाल में राष्ट्र को ऊँचा उठायेंगे।

पादटिप्पणियाँ

१. द्युम्नं द्योततेः, यशो वा अन्नं वा। निरु० ५.३४

२. दो अवखण्डने। द्यन्ति खण्डयन्ति ये ते दिद्यवो बाणाः। ‘इषवो वै दिद्यवः इषुवधमेवैनमेतदतिनयति’ श० ५.४.२.९ इति श्रुतेः । तानतक्रम्यशत्रुप्रयुक्तान् इष्वादीन् अपसार्य इमं यजमानं हे सोम पाहि पालय–म० |

३. अथास्य कर्म रसानुप्रदानं वृत्रवधः या च का च बलकृति: इन्द्रकमेवतत् । निरु० ७.१०

नवनिर्वाचित राजा का अभिषेक -रामनाथ विद्यालंकार