राष्ट्र के उत्कर्ष का उद्योग कर – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः दीर्घतमाः । देवता द्यावापृथिवी । छन्दः अतिशक्वरी।।
इषे पिन्वस्वोर्जे पिन्वस्व ब्रह्मणे पिन्वस्व क्षत्राय पिन्वस्व द्यावापृथिवीभ्यो पिन्वस्व। धर्मासि सुधर्मामैन्यस्मे नृणानि । धारय ब्रह्म धारय क्षत्रं धारय विशं धारय ।
-यजु० ३८.१४
हे सम्राट् ! राष्ट्र में ( इषे ) अन्नादि भोज्य पदार्थों की वृद्धि के लिए ( पिन्वस्व ) उद्योग कर। ( क्षत्राय) राष्ट्र की रक्षा के लिए ( पिन्वस्व ) उद्योग कर। ( ब्रह्मणे ) ज्ञान की वृद्धि के लिए ( पिन्वस्व ) उद्योग कर। ( क्षत्राय ) राष्ट्र की रक्षा के लिए ( पिन्वस्व ) उद्योग कर। ( द्यावापृथिवीभ्यां ) सूर्य और पृथिवी का उपयोग लेने के लिए (पिन्वस्व) उद्योग कर। हे ( सुधर्म ) श्रेष्ठ धर्म का आचरण करनेवाले ! ( धर्मा असि ) तू धर्म का प्रचारक है। ( अनेमि ) अहिंसक रूप से ( अस्मे ) हम में ( नृम्णानिधारय) धनों को उत्पन्न कर, ( ब्रह्म धारय ) ब्राह्मणों को उत्पन्न कर, ( क्षत्रं धारय ) क्षत्रियों को उत्पन्न कर, (विशं धारय ) वैश्यों को उत्पन्न कर।
हे सम्राट! आपने राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया है. आपको राष्ट्र की चतुर्मुखी उन्नति करनी है। आप राष्ट्र में सब प्रकार के अन्नों और भोज्य पदार्थों की उत्पत्ति का प्रबन्ध करो। किसी भी अन्न या भोज्य पदार्थ के लिए हमारे राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र का मुखापेक्षी न होना पड़े। बाहर से किसी अन्न का आयात न करना पड़े। आपको राष्ट्र का बल बढ़ाना है। आप जल-सेना, स्थल-सेना और अन्तरिक्ष-सेना की वृद्धि करो। कोई शत्रु हमारे राष्ट्र की ओर आँख उठाने का साहस न कर सके। आप राष्ट्र के ज्ञान की वृद्धि करो, राष्ट्र में सब विद्याओं के अध्ययन-अध्यापन एवं क्रियात्मक प्रयोग का उद्योग करो। आप राष्ट्र की रक्षा का, राष्ट्र के क्षात्रबल को बढ़ाने का उद्योग करो। प्रत्येक राष्ट्रवासी के लिए सैनिक शिक्षा अनिवार्य करो और शस्त्रास्त्रों को चलाने की विद्या सिखाओ, जिससे आवश्यकता पड़ने पर प्रत्येक राष्ट्रवासी वीर सैनिक का कार्य कर सके। आप सूर्यताप से यन्त्रों को चलाने की, सौर विद्युत् से प्रकाश-प्राप्ति की, पृथिवी की खानों से खनिज द्रव्यों की प्राप्ति की, समुद्र से मणि-मुक्ताओं की प्राप्ति की, और ओषधि वनस्पतियों से मूल, पुष्प, फल, पत्र एवं छाल इन पञ्च द्रव्यों की प्राप्ति की व्यवस्था करो। |
हे नायक! आप सुधर्म हो, उत्कृष्ट धर्म का पालन करनेवाले हो, प्रजा में भी धर्म का प्रचार करो। आप अपने राष्ट्र को धर्मसापेक्ष कह कर सब धर्मों की भीड़ इकट्ठी मत करो। शुद्ध, स्वच्छ, पवित्र वैदिक धर्म का नाद गुंजाओ। हे राजन् ! आप प्रजा के अहिंसक बनो, प्रजा की किसी भी दृष्टि से हिंसा मत होने दो। न धन की क्षति हो, न बल की क्षति हो, न अन्नों की क्षति हो, न जल की क्षति हो। आप प्रजा में सोने-चाँदी आदि की लक्ष्मी भर दो। आप राज्य में ब्रह्मबली ब्राह्मणों को उत्पन्न करो, छात्रधर्म के धनी क्षत्रियों को उत्पन्न करो, कृषि व्यापार एवं पशुपालन के प्रेमी वैश्यों को उत्पन्न करो। आप अपने राष्ट्र को दिग्विजयी बना दो।
पाद-टिप्पणियाँ
१. पिन्वस्व, पिवि सेवने सेचने च, भ्वादिः । यहाँ उद्योग अर्थ है।
२. मिञ् हिंसायाम् । मिनोति हिनस्तीति मेनिः, न मेनि अनेमि यथा स्यात्
तथा।
३. नृम्ण=धन । निरु० ५.९
राष्ट्र के उत्कर्ष का उद्योग कर – रामनाथ विद्यालंकार