Category Archives: रामनाथ विद्यालंकार

दाक्षायण हिरण्य – रामनाथ विद्यालंकार

dakshaayan hiranyदाक्षायण हिरण्य – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दक्षः । देवता हिरण्यं तेजः । छन्दः भुरिक् शक्वरी ।

न तद्रक्षछिसि न पिशाचास्तरन्ति देवानामोजः प्रथमज ह्येतत्।। यो बिभर्ति दाक्षायण हिरण्यः स देवेषु कृणुते दीर्घमायुः । स मनुष्येषु कृणुते दीर्घमायुः

-यजु० ३४.५१

( न तद् ) न उसे ( रक्षांसि ) राक्षस’, ( न पिशाचाः ) न पिशाच ( तरन्ति ) लांघ सकते हैं। ( एतद् ) यह ( देवानां ) विद्वानों का ( प्रथमजम् ओजः ) प्रथम आयु ब्रह्मचर्याश्रम में उत्पन्न ओज है। ( यः ) जो ( दाक्षायणं हिरण्यं ) बलवर्धक ब्रह्मचर्य को ( बिभर्ति ) धारण करता है (सः ) वह ( देवेषु ) विद्वानों में ( आयुः ) अपनी आयु ( दीर्घ कृणुते ) दीर्घ कर लेता है, ( सः ) वह (मनुष्येषु ) मनुष्यों में ( आयुः ) अपनी आयु (दीर्घकृणुते) दीर्घ कर लेता है।

जो दाक्षायण हिरण्य को धारण करता है, वह विद्वानों में दीर्घायु होता है, वह मनुष्यों में दीर्घायु होता है। अभिप्राय यह है कि चाहे वह विद्वान् हो, चाहे साधारण मनुष्य दीर्घायु अवश्य होता है। क्या है यह दाक्षायण हिरण्य? यह विद्वानों का प्रथम आयु में उत्पन्न ओज है। प्रथम आयु होती है, ब्रह्मचर्याश्रम, उसमें संचित ब्रह्मचर्य का बल या वीर्य ही हिरण्य है। दक्ष शब्द वेद में बल का वाचक है, दाक्ष का अर्थ है बलसमूह, उसका अयन, अर्थात् प्राप्तिस्थान दाक्षायण कहलाता है। इस प्रकार दाक्षायण हिरण्य’ का अर्थ होता है बलवर्धक वीर्य । इसके संचय का माहात्म्य अधिकतर वे लोग बताते हैं, जो वीर्यरक्षा न करके अब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत कर चुके होते हैं, क्योंकि अब्रह्मचर्य से उन्हें हानि हुई होती है। वे सोचते हैं कि हमने जो हानि उठायी, वह दूसरों को न भुगतनी  पड़े। अतः वे दूसरों को सावधान करते हैं। योगी दयानन्द सदृश कोई विरले ऐसे भी होते हैं, जो न केवल प्रथम आयु में, अपितु आगे भी ब्रह्मचारी रहे होते हैं। वे भी अपने अनुभव के आधार पर ब्रह्मचर्य की महिमा दूसरों को बताते हैं । यह हिरण्य प्रथम आयु में उत्पन्न ओज है, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ब्रह्मचर्य के पश्चात् के आश्रमों में अब्रह्मचारी रहना है। गृहस्थाश्रम में भी राष्ट्र को श्रेष्ठ सन्तान देने के पश्चात् ब्रह्मचर्य का जीवन बिताना ही अभीष्ट है। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम तो पूर्णत: ब्रह्मचर्य के आश्रम हैं ही। इस रीति से यदि चलें, तो अल्पाय होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। इसीलिए अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त में ब्रह्मचर्य का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है कि विद्वान लोग ब्रह्मचर्य के तप से मत्य को मार भगाते हैं ।६ प्रथम आयु में उत्पन्न यह विद्वानों का ओज ब्रह्मचर्यबल ऐसा होता है कि न इसे राक्षस, न पिशाच पराजित कर सकते हैं । ब्रह्मचर्य के ओज से अनुप्राणित अकेला ब्रह्मचारी शत और सहस्र नरपिशाचों से लोहा ले सकता है। पिशाच का अर्थ दयानन्दभाष्य में किया गया है रुधिर-मांस आदि खानेवाले हिंसक म्लेच्छाचारी दुष्ट लोग।

आओ, हम सब ‘दाक्षायण हिरण्य’ को धारण करें, तब हमारे अन्दर शरीर-बल के साथ मनोबल और आत्मबल भी अधिकाधिक जागृत होगा और मनुष्य-कोटि से उठकर हम देव-कोटि में पहुँच जायेंगे। सचमुच दाक्षायण हिरण्य’ का ऐसा ही माहात्म्य है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (रक्षांसि) अन्यान् प्रपीड्य स्वात्मानमेव ये रक्षन्ति ते-द० ।

रक्षो रक्षितव्यम् अस्मात्, रहसि क्षणोतीति वा, रात्रौ नक्षते इति वा

निरु० ४.३४।।

२. (पिशाचा: ) ये प्राणिनां पिशितं रुधिरादिकम् आचामन्ति भक्षयन्ति ते | हिंसका म्लेच्छाचारिणी दुष्टा:-द०।।

३. (प्रथमजम्) प्रथमे वयसि ब्रह्मचर्याश्रमे वा जातम्-द० ।

४. दक्षस्य बलस्य समूहो दाक्ष:, दाक्षस्य अयनं प्राप्ति: येन से दाक्षायणः ।

५. रेतो वै हिरण्यम् तै० ३.८.२.४, मैं ३.७.५।।

६. ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्त । अ० ११.५.१९

दाक्षायण हिरण्य – रामनाथ विद्यालंकार

पथरीली नदी के उस पार – रामनाथ विद्यालंकार

pathrili nadi ke us par1पथरीली नदी के उस पार – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः सुचीकः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

अश्म॑न्वती रीयते सर्भध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखायः ।।

अत्रा जहीमोऽशिव येऽअसञ्छिवान्वयमुत्तरेमभि वाजान्॥

-यजु० ३५.१० |

( अश्मन्वती ) पथरीली नदी ( रीयते’ ) वेग से बह रही है। ( सखायः ) हे साथियो ! (सं रमध्वम् ) मिलकर उद्यम करो, ( उत्तिष्ठत ) उठो ( प्र तरत) पार हो जाओ। (अत्रजहीमः४) यहीं छोड़ दें ( ये अशिवाः असन् ) जो अशिव हैं उन्हें । उस पार के (वाजान् अभि) ऐश्वर्यों को पाने के लिए ( वयं ) हम ( उत्तरेम ) नदी के पार उतर जाएँ।

पथरीली नदी वेग से बह रही है। इस पार बंजर भूमि है, कंकड़-पत्थर हैं, भुखमरी है, नग्नता है, बेबसी है। उस पार की भूमि सोना उगलती है। हरे भरे खेत हैं, फलों से लदे बाग-बगीचे हैं, अन्य विविध ऐश्वर्य हैं। किसी साधु की वाणी सुनायी देती है-अरे, इस पार के लोगो ! नदी के उस पार जाकर क्यों नहीं बस जाते ? उसका परामर्श सुनकर सब नदी पार करने के लिए तैयार हो जाते हैं। किन्तु, जिसके पास जो कुछ है, वह उसे साथ ले जाने के लिए सिर पर लाद लेता है। कोई चूल्हे का बोझ, कोई फटे-पुराने कपड़ों का बोझ, कोई टूटे-फूटे बर्तनों का बोझ सिर-कन्धे पर रख लेता है। चल पड़ते हैं सब अकेले-अकेले । साधु की कर्कश वाणी सुनायी देती है, अरे यह क्या कर रहे हो ? नदी में काई-जमे फिसलने पत्थर हैं, उस पर तुमने व्यर्थ का बोझ लाद लिया है। आओ, मैं तुम्हारा पथप्रदर्शन करता हूँ। उठो, मित्रो, मिल  कर उद्योग करो, यह बोझ तुम्हें ले डूबेगा, इसे यहीं फेंक दो । हल्के-फुल्के होकर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर, नदी के पत्थरों पर पैर जमाते हुए पार उतर जाओ। उस पार के ऐश्वर्यों का भोग करो।

यह तो एक दृष्टान्त है। इस पार सांसारिकता है, उस पार दिव्यता-आध्यात्मिकता है। बीच में विघ्न-बाधाओं की वैतरणी नदी है, जिसमें बड़े-बड़े प्रलोभन-रूपी चिकने पत्थर हैं। हम अधिकतर लोग सांसारिकता में ही पड़े रहते हैं, दिव्यता का जो भागवत आनन्द है, उसे पाने के लिए हमारी अभीप्सा होती ही नहीं। मन्त्र हमें प्रेरणा कर रहा है कि हम दिव्यता की ओर जाने का प्रयत्न करें, योगमार्ग का अवलम्बन करें। प्रलोभनों से पूर्ण व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमोद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्व आदि चित्तविक्षेप रूप अन्तरायों को पार करके आध्यात्मिक वातावरण में पहुँचें, जहाँ चित्तवृत्तिनिरोधपूर्वक चेतना जागती है, धारणा-ध्यान समाधि लगती है और ईश्वर साक्षात्कार का आनन्दपीयूष पाने करने को मिलता है।

आओ, छोड़े सांसारिक भोग-विलास, चलें उस पार और योगैश्वर्य अर्जित करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. री स्रवणे, दिवादिः ।

२. सं–रभ राभस्ये, भ्वादिः ।

३. प्रतरता=प्रतरत, छान्दस दीर्घ ।

४. ओहाक् त्यागे, जुहोत्यादिः ।

पथरीली नदी के उस पार – रामनाथ विद्यालंकार

मेरे वाणी, मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि सशक्त हो – रामनाथ विद्यालंकार

mere vani man pran chakshu shrot aadi sashkt hoमेरे वाणी, मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि सशक्त हो  – रामनाथ विद्यालंकार

 ऋषिः दध्यङ् आथर्वणः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी पङ्किः।

ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये सार्म प्राणं प्रपद्ये । चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये। वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ ॥

-यजु० ३६.१

मैं ( ऋचं ) स्तुत्यात्मक वाणी को ( प्रपद्ये ) प्राप्त करता हूँ, ( यजुः मनः ) देवपूजा, सङ्गतिकरण और दान से युक्त मन को (प्रपद्ये ) प्राप्त करता हूँ, ( साम प्राणं ) समस्वरतायुक्त प्राण को ( प्रपद्ये ) प्राप्त करता हूँ, ( चक्षुः श्रोत्रं ) नेत्रशक्ति और श्रवणशक्ति ( प्रपद्ये ) प्राप्त करता हूँ। ( मयि ) मेरे अन्दर ( वाग्-ओजः ) वाग्बल, (सह-ओजः ) एकता का बल, तथा ( प्राणापानौ ) प्राण- अपान हों।

हे अग्नि! हे अग्रनायक, तेजस्वी परमेश्वर ! मैं चाहती हूँ कि मेरे शरीर के सब अङ्ग सशक्त हों, मेरी सब शक्तियाँ पूर्णता को प्राप्त हों। आपने सब मनुष्यों को वाणी दी है, उस वाणी से सब आपस में अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। पशु-पक्षियों तथा अन्य प्राणियों में यह सामर्थ्य नहीं है, उनकी भाषा सांकेतिक है। ऐसी उत्तम वाणी को मुझे ईशस्तुति में तथा अन्य श्रेष्ठजनों तथा सत्पदार्थों के यथार्थ-वर्णनरूप स्तुति में लगाना चाहिए, पर-निन्दा में नहीं। यदि हम अपने दैनिक चरित्र का निरीक्षण करें, तो पायेंगे कि पर्याप्त समय हम दूसरों की निन्दा या एकपक्षीय आलोचना में व्यतीत करते हैं। यह पर-निन्दा बहुत बड़ा दुर्गुण है। पर-निन्दा करते-करते मनुष्य में दूसरों के गुण देखने की प्रवृत्ति ही समाप्त हो जाती है। दूसरी मुझे मनरूप अत्युत्तम वस्तु मिली है। जिस ज्ञानेन्द्रिय से मैं ज्ञान ग्रहण करना चाहता हूँ, अपने मन को उसमें प्रवृत्त कर लेता हूँ। तब उस ज्ञानेन्द्रिय से ज्ञान की धारा मेरे आत्मा की ओर प्रवाहित होने लगती है। परन्तु मन को शिव सङ्कल्पों  में भी लगाया जा सकता है और अशिव सङ्कल्पों में भी। मैं चाहता हूँ कि मेरा मन देव-पूजा अर्थात् प्रभु-पूजा और विद्वान् विदुषियों के सम्मान में लगे, सत्सङ्गति में लगे और दान में लगे। अपने तन-मन-धन से मैं परोपकार करूं। तीसरी बहुमूल्य वस्तु मुझे ‘प्राण’ मिली हुई है। शरीर आत्मा और प्राण से संयुक्त होकर ही सजीव होता है। प्राण के शरीर में से निकलते ही आत्मा भी निकल जाता है। मैं चाहता हूँ कि मेरा प्राण समस्वरतायुक्त हो। बेसुरा प्राण जीवात्मा को भी बेसुरा कर देता है। चक्षु और श्रोत्र भी मेरे शरीर को अमोल वस्तुएँ मिली हैं। आँख और कान की कैसी अद्भुत बनावट है कि दृश्य आँख की पुतली में आकर और शब्द कान के पर्दे से लग कर दिखाई और सुनाई देने लगता है। इस आँख से मैं भद्र दृश्यों को ही देखें और कान से भद्र शब्दों को ही सुनँ। मेरी कामना है कि मेरे अन्दर वाणी का बल और एकता का बल भी आये । वाग्बल से मनुष्य मुर्दादिल को भी ओजस्वी बना सकता है, मृततुल्य को भी जागरूक कर सकता है। हतोत्साह को भी उत्साही बना सकता है. भयभीत को भी समराङ्गण में भेज सकता है, रोते को भी हँसा सकता है। एकता का बल भी अपना सानी नहीं रखता। एक सूत किसी को बाँध नहीं सकता, किन्तु बहुत से सूत मिलकर जब मोटी रस्सी बन जाती है, तब वह हाथी को भी वश में कर सकती है। अनेक वीर मिलकर जब सेना बन जाती है, तब वह शत्रु के छक्के छुड़ा देती है। मेरी अभिलाषा है कि मेरा प्राण अपान का बल भी बढ़े। शिरोभाग तथा ज्ञानेन्द्रियों में प्राण रहता है और छोटी-बड़ी आँतों में, अधोद्वारों में तथा रोमकूपों में अपान रहता है। मन, बुद्धि तथा ज्ञानेन्द्रियों के व्यापार प्राण द्वारा सम्पन्न होते हैं तथा मलनिस्सारण अपान द्वारा होता है। प्राण-अपान के सशक्त होने से ये कार्य सम्यक् प्रकार सम्पादित हो सकते हैं। हे परमेश! मुझे ऐसा बल दो कि मैं अपने शरीर के सब अङ्गों और समग्र अवयवों को सक्रिय, स्फूर्त और शक्तिशाली बना सकें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. ऋच स्तुतौ, तुदादि।।

२. यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु, भ्वादि।

मेरे वाणी, मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि सशक्त हो  – रामनाथ विद्यालंकार

कृषकों को भूमि आवंटित हो – रामनाथ विद्यालंकार

krushko ko bhumi avntit ho1कृषकों को भूमि आवंटित हो – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः आदित्या देवा: । देवता जातवेदाः । छन्दः स्वराट् त्रिष्टप् ।

वह वपां जातवेदः पितृभ्यो यत्रैनान्वेत्थ निहितान्पराके। मेदसः।

कुल्याऽउ तान्त्वन्तु त्याऽएषाशिषः संनमन्तात्र स्वाहा॥

-यजु० ३५.२०

( जातवेदः१ ) हे राजविद्या के विद्वान् सम्राट् ! आप (पितृभ्य ) पालनकर्ता कृषकों के लिए ( वपां ) बीज बोने की उपजाऊ भूमि ( वह ) प्राप्त कराओ, ( यत्र ) जहाँ ( एनान्) इन्हें ( पराके निहितान् ) दूर-दूर बसा ( वेत्थ ) आप जानते हो। ( मेदसः४ कुल्याः ) स्निग्ध नहरें ( तान् उप स्रवन्तु ) उनके समीप पहुँचे। ( एषां सत्याः आशिषः ) इनके सच्चे आशीर्वाद ( उप सं नमन्ताम् ) आपको प्राप्त हों । ( स्वाहा ) हमारा यह सुवचन क्रियान्वित हो।

राष्ट्र में कृषि और बागवानी का बहुत महत्त्व है। कृषकों को ‘पितर:’ कहा गया है, क्योंकि वे विविध अन्न आदि खेतों में उपजा कर राष्ट्रवासियों का पालन-पोषण करते हैं। कृषि से अन्न और बागवानी से तरह-तरह के विविध स्वादोंवाले फल प्राप्त होते हैं। कृषि के लिए किसानों को उत्तम भूमि चाहिए। उन्हें उत्तम भूमि आबंटित करना राजकीय कर्तव्य है। किसी के पास बंजर भूमि होती है, किसी की भूमि एक स्थान पर न होकर टुकड़ों के रूप में विभिन्न स्थानों में फैली होती है। राजकीय विभाग का कर्तव्य है कि जिसके पास बंजर भूमि है, उसे उसके बदले में उपजाऊ भूमि प्रदान करे और जिसकी भूमि टुकड़ों में बंटी हुई है, उसकी भूमि चकबन्दी द्वारा एक स्थान पर कर दे। राजकीय विभाग को यह ज्ञान होना चाहिए कि हमारे राज्य में किसान लोग दूर तक कहाँ कहाँ बसे हुए हैं। उन सबकी भूमियों की जानकारी पटरियों के पास होनी चाहिए कि किसके पास कितनी और कैसी भूमि है। जिसके पास कम भूमि है उसे अधिक भूमि उचित मूल्य में विभाग दिलवाये। इस प्रकार राज्य के सब किसानों के पास पर्याप्त और उपजाऊ भूमि एक स्थान पर हो जानी चाहिए। भूमि के लिए मन्त्र में ‘वपा’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भूमि के विविध प्रकार हैं, इमारती भूमि, कल-कारखानों के लिए उपयुक्त भूमि, पहाड़ी भूमि, खानों की भूमि, तेलकूपों की भूमि, पानी से छाई भूमि आदि। इनमें कृषियोग्य भूमि को जिसमें बीज बोया जाता है ‘वपा’ कहते हैं।

‘वपा’ शब्द बीज बोने अर्थवाली ‘वप’ धातु से बना है। किसानों को बीज बोने योग्य उपजाऊ भूमि देने के अतिरिक्त उसमें सिंचाई के लिए पानी की नहरें भेजना भी राजकीय कर्त्तव्य है । मन्त्र सम्राट को कह रहा है कि तुम अपने राज्य में बसे किसानों को भूमि प्रदान करो और सिंचाई के लिए स्निग्ध नहरें भी उनकी भूमियों के आसपास भेजो, जिससे वे उनमें से पानी लेकर भरपूर सिंचाई कर सकें। यदि ऐसा तुम करोगे तो किसानों के सच्चे आशीर्वाद तुम्हें प्राप्त होंगे और किसान राष्ट्रवासियों को उत्तमकोटि का प्रचुर अन्न आदि दे सकेंगे तथा दूसरे देशों से अन्न, चीनी, फलों आदि का आयात नहीं करना पड़ेगा। राष्ट्र अन्नादि भोज्य पदार्थों के लिए परमुखापेक्षी न रहकर स्वावलम्बी हो सकेगा। | ‘वपा’ का एक अर्थ चर्बी भी होता है। भाष्यकार महीधर ने न केवल चर्बी, अपितु गाय की चर्बी अर्थ लेकर अनर्थ कर दिया है। उनका कथन है कि इसका विनियोग श्रौतसूत्र में तो नहीं है, किन्तु पारस्कर गृह्यसूत्र में है। उनके अनुसार मन्त्र में जातवेदस् अग्नि को कहा जा रहा है कि तू दूर-दूर पितृलोक में बसे पितरों के लिए गाय की चर्बी वहन करके ले जा। पितरों के लिए चर्बी की चिकनई की नहरें बहती हुई पहुँचे ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. जातं वेदो राजनीतिविज्ञानं यस्य स जातवेदाः सम्राट् ।

२. पान्ति रक्षन्ति पालयन्ति च ये ते पितरः कृषीवलाः ।।

३. (वपाम्) वपन्ति यस्यां भूमौ ताम्-द० ।

४. (मेदसः) स्निग्धाः (कुल्याः ) जलप्रवाहधारा:-द० ।

५. अस्या विनियोगः श्रोतसूत्रे नास्ति, किन्तु गृह्यसूत्रेऽस्ति । तथाहि मध्यमा

गवा तस्यै वपां जुहोति वह वपां जातवेदः पितृभ्यो’ (पार० ३.३) इति। अस्यार्थ: मध्यमाष्टका गोपशुना कार्या, तस्या धेनोर्वपां जुहोति वह वपामिति मन्त्रेणेत्यर्थः-म० ।।

कृषकों को भूमि आवंटित हो – रामनाथ विद्यालंकार

छिद्र भर लें – रामनाथ विद्यालंकार

chidra bhar le1छिद्र भर लें – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दध्यङ् आथर्वणः । देवता बृहस्पतिः । छन्दः निवृद् आर्षी पङ्किः ।

यन्मे छिद्रं चक्षुषो हृदयस्य मनसो वार्तितृण्णं बृहस्पति तर्दधातु। शं नो भवतु भुवनस्य यस्पतिः

-यजु० ३६.२

( यत् मे छिद्रं ) जो मेरा छिद्र है (चक्षुषः ) आँख का, ( हृदयस्य ) हृदय को, (मनसःवा) अथवा मन का ( अतितृण्णं ) बहुत फटा हुआ, ( तत् मे ) उस मेरे छिद्र को ( बृहस्पतिः२) बृहस्पति परमेश्वर वा आचार्य ( दधातु ) भर देवे । ( शं नः भवतु ) कल्याणकारी हो हमारे लिए ( यः भुवनस्य पतिः ) जो ब्रह्माण्ड का स्वामी व पालक है।

मनुष्य  कितनी भी पर्णता प्राप्त कर ले कुछ न कुछ दोष उसमें रहते ही हैं। चक्षु-श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रियों में, हाथ-पैर आदि कर्मेन्द्रियों में पाचन-संस्थान में रक्त-संस्थान में श्वासोच्छास-संस्थान में, मन में, मस्तिष्क में कहीं भी दोष हो सकता है, जिसके कारण जीवन-यापन में कठिनाई होती है । मन्त्र कह रहा है कि जो मेरे चक्षु, हृदय और मन का ऐसा छिद्र है, जो बहुत चौड़ा हो गया है, उसे ‘बृहस्पति’ भर देवे। आंख का दुखना, आँख की दूरदृष्टि या समीपदृष्टि कम हो जाना, फूले, मोतियाबिन्द हो जाना आदि आँख के भौतिक दोष हैं, जो साधारण भी हो सकते हैं और बहुत बढ़े हुए भी । इन दोषों को बृहस्पति नेत्रविशेषज्ञ दूर कर सकता है। आँख हमें अच्छे दृश्य देखने के लिए मिली है। आँखों से अच्छी ज्ञानवर्धक पुस्तकें पढ़ना, सुहावने प्राकृतिक दृश्य देखना, गुरुजनों, नेताओं, संन्यासियों के दर्शन करना और उनसे उद्बोधन प्राप्त करना चक्षुष्मान् का कर्तव्य है। आँखों का उपयोग करके मनुष्य बड़े-बड़े ज्ञान विज्ञान प्राप्त कर सकता है, बड़े-बड़े  आविष्कार कर सकता है, राष्ट्र की उन्नति में चार चाँद लगा सकता है। आँखों का दोष प्राकृतिक भी हो सकता है और आध्यात्मिक भी। जब अध्यात्मसम्बन्धी दोष होता है, तब वस्तुतः वह आत्मा का दोष होता है। आँख उसमें साधन बनती है, अत: आँख का दोष वह साधनगत दृष्टि से कहलाता है। आँखों से अश्लील ग्रन्थ पढ़ना आदि आँखों के साधनगत अध्यात्म दोष हैं, जिन्हें गुरुजन, महात्मा लोग आदि बृहस्पति दूर कर सकते हैं। आँखों के इन प्राकृतिक तथा अध्यात्म दोषों को दूर करके आँखों को पूर्णतः निर्दोष कर लेना आवश्यक है। चक्षु सब ज्ञानेन्द्रियों का प्रतिनिधि है। किसी भी ज्ञानेन्द्रिय में कोई दोष आ गया है, तो बृहस्पति द्वारा उसे दूर कर लेना चाहिए। बृहस्पति में चिकित्साविशेषज्ञ, प्रधानमन्त्री, शिक्षामन्त्री, आचार्य, उपदेशक, संन्यासी आदि राजनेता तथा धार्मिक नेता आ जाते हैं। इसी प्रकार हमारे हृदय-संस्थान या रक्तसंस्थान में यदि कोई दोष रक्तचाप की न्यूनता या अधिकता, धड़कन की तीव्रता, हृदयशूल, रक्त-कर्कट आदि हो गया है, तो उसे भी उस रोग के विशेषज्ञ बृहस्पति द्वारा दूर करवा लेना उचित है। मन के दोष दुर्विचार, अशिव सङ्कल्प, मन का स्थिरता से किसी कार्य में न लगना आदि को भी मनश्चिकित्सा-विशेषज्ञों तथा महात्मारूप बृहस्पतियों से दूर करवा लेना चाहिए। सबसे बड़ा बृहस्पति तो विशाल ब्रह्माण्ड का अधिपति परब्रह्म परमेश्वर है। प्रणवजप-रूप धनुष से आत्मारूप शर को ब्रह्मरूप लक्ष्य पर छोड़ना चाहिए, तब आत्मा ब्रह्म के सम्पर्क से ब्रह्म के गुणों को धारण करके महान् बन जाता है। इस प्रकार भुवनपति परमेश्वर हमारे लिए कल्याणकारी और सुखदायक हो जाता

आओ, बृहस्पतियों को तथा भुवनपति परमेश्वर को अपना नायक बनाकर हम अपने दोष दूर करवा कर निष्कल्मष तथा शुक्ल, शुभ्र, स्वच्छ होकर आत्मविकास करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. अति-तृदिर हिंसानादरयोः, रुधादिः ।।

२. (बृहस्पतिः) इतामाकाशादीनां पालक: ईश्वर:-द० ।।

छिद्र भर लें – रामनाथ विद्यालंकार

पृथिवी और नारी – रामनाथ विद्यालंकार

prithvi aur nari1पृथिवी और नारी – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः मेधातिथिः । देवता पृथिवी । छन्दः पिपीलिकामध्या निवृद् गायत्री ।

स्योना पृथिवि नो भवानृक्षरा निवेर्शनी यच्छनः शर्मसुप्रथाः

-यजु० ३६.१३

( पृथिवि ) हे राष्ट्रभूमि और नारी! तू ( नः ) हमारे लिए ( स्योना ) सुखदायिनी, (अनृक्षरा) अकण्टक, और ( निवेशनी ) निवास देनेवाली ( भव ) हो। ( सप्रथाः ) विस्तार और कीर्ति से युक्त तू ( नः ) हमें ( शर्म ) शरण या घर ( यच्छ ) प्रदान कर।

पृथिवी हमारे लिए सुखदायिनी भी हो सकती है और दु:खदायिनी भी। हम उसका उपयोग कैसे करते हैं, इस पर निर्भर है। यदि हम उसके पर्यावरण को शुद्ध रखेंगे, उसे सस्यश्यामला और स्वच्छ रखेंगे, उस पर कृषि करके उसे गाय के समान दुधारू और उपजाऊ बना लेंगे, उस पर बाग-बगीचे और ओषधियाँ-वनस्पतियाँ लगा कर उसे फलोत्पादिका कर लेंगे, उस पर कल-कारखाने स्थापित करके उसे तरह तरह के पदार्थ उत्पन्न करनेवाली माँ के रूप में परिणत कर लेंगे, उससे लवण, कोयला, गन्धक, लोहा, चाँदी, सोना, तेल आदि निकालकर उसे खान बना लेंगे, तब वह हमारे लिए सदा सुखदात्री बनी रहेगी। किन्तु यदि अशुद्ध, अस्वच्छ, दूषित पर्यावरणवाली, बंजर बना लेंगे, तब यह हमें दुःख देने का ही कारण बनेगी। हम चाहते हैं कि हमारी राष्ट्रभूमि हमारे लिए सुख की स्रोत ही बनी रहे। वह हमारे लिए ‘अनृक्षरा’ अर्थात् अकण्टक भी हो। यदि उस पर कंटीली झाड़ियाँ उगी रहेंगी, गोखरू बिखरे रहेंगे, चुभनेवाले कंकड़-पत्थर पड़े रहेंगे, उसके बिलों में साँप-बिच्छू घर बनाये रहेंगे, तब हम न उस पर चले पायेंगे, न वह हमारे लिए जीवनदायिनी हो सकेगी। हमारा कर्तव्य है कि हम उसे सजा-संवार कर निवेशनी’ बना लें, निवासोपयोगी कर लें। तब वह विस्तीर्ण और शरणदायिनी हो सकेगी।

हे नारी! तू भी पृथिवी के समान उपजाऊ है। पृथिवी निर्जीव वस्तुएँ, ओषधियाँ, तरह-तरह के अन्न-फल आदि उत्पन्न करती है, तू महान्, उज्ज्वल, सच्चरित्र, भूमि को स्वर्ग बना देनेवाले, मरुस्थलों में भी हरियाली ला देनेवाले, पराधीनता को स्वराज्य में परिणत कर देनेवाले महापुरुषों और महामनस्का विदुषियों की जन्मदात्री बनती है। हे नारी! तू भी समाज के लिए सुखदायिनी हो। जिस देश की नारियाँ अशिक्षित, उत्साहहीन, शरीर और मन से रुग्ण, दुश्चरित्र, महत्त्वाकांक्षाहीन, विलासिनी होती हैं, वहाँ सुख के स्रोत नहीं बहते हैं। हे नारी ! तू अकण्टक भी हो, क्रूरता आदि के कांटों से विहीन, मधुर स्वभाववाली बन। समाज को निवास देनेवाली बन, उजाड़नेवाली नहीं। तू ‘सप्रथाः’ बन, यश से जगमगा, प्रख्यात कीर्तिवाली हो । अशरणों को शरण दे, बे-घरों को घर दे, बिना माँ वालों की माँ बन । याद रख, वेद की नारी उषा के समान प्रकाशवती और प्रकाशदात्री है। पृथिवी के समान विस्तीर्ण और उदार हृदयवाली है।।

पृथिवी और नारी – रामनाथ विद्यालंकार

शान्ति की पुकार – रामनाथ विद्यालंकार

shanti ki pukar1शान्ति की पुकार – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दध्यङ् आथर्वणः । देवता लिङ्गोक्ताः । छन्दः भुरिक् शक्चरी।

द्यौः शान्तिरन्तरिक्षः शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः । सर्वशान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥

-यजु० ३६.१७ |

( द्यौः शान्तिः ) द्युलोक शान्तिकर हो, ( अन्तरिक्षं शान्तिः ) अन्तरिक्ष शान्तिकर हो, ( पृथिवी शान्तिः ) पृथिवी शान्तिकर हो, ( आपः शान्तिः ) जल शान्तिकर हों, (ओषधयः शान्तिः ) ओषधियाँ शान्तिकर हों, ( वनस्पतयः शान्तिः ) वनस्पतियाँ शान्तिकर हों, (विश्वे देवाः शान्तिः ) समस्त विद्वज्जन शान्तिकर हों, ( ब्रह्म शान्तिः ) परब्रह्म परमेश्वर शान्तिकर हो, ( शान्तिः एव शान्तिः ) शान्ति ही शान्ति हो, (सामाशान्तिः एधि ) वह तू शान्ति भी मेरे लिए शान्तिकर हो।

आतङ्कवाद, हाहाकार, आर्तनाद, कलह, विद्वेष, युद्ध से मानव संत्रस्त हो चुका है। अब विभिन्न राष्ट्र प्रतीक्षा कर रहे हैं पारस्परिक मैत्रीभाव, सांमनस्य, सौहार्द और शान्ति की। आवश्यकता इस बात की है कि अशान्ति और चीत्कार को हटा कर शान्ति और सहृदयता की दुन्दुभि बजे। देखो, दिन में सूर्य-रश्मियों से और रात्रि में छिटकती हुई चन्द्र-तारावलि से जगमगाता हुआ द्युलोक हमें शान्ति का सन्देश दे रहा है। परस्पर हार्दिक आकर्षण से खिंचे हुए द्यौ के विभिन्न लोक हमें भी शान्ति से एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट होने की शिक्षा दे रहे हैं। सूर्य अन्धकाराच्छन्न मंगल, बुध आदि ग्रहों को अपना प्रकाश प्रदान कर उनके प्रति कैसा स्नेह दर्शा रहा है। आओ, हम भी विभिन्न राष्ट्रों के प्रति स्नेह और मैत्री की भावना अपने मन में उत्पन्न करें। अन्तरिक्ष की ओर भी दृष्टिपात करो। पृथिवी और अन्तरिक्ष में कैसा अद्भुत प्रेम है। पृथिवी सूर्यताप के माध्यम से अपना जल अन्तरिक्ष में पहुँचा देती है, अन्तरिक्ष पुन: उस जल को प्यासी पृथिवी पर बरसा कर ताल, तलैया, नदी, सागर को अपने स्नेह से सिक्त कर देता है। पृथिवी की शान्तिप्रियता को भी देखो। उत्तुंग हिमशैल, रंग-बिरंगे पुष्प-फलों से लदी ओषधि-वनस्पतियाँ, जलस्रोत सरोवर-प्रपात-सरिता-समुद्र, भूगर्भ की खानें, तैलकूप आदि सभी पृथिवी पर शान्ति बखेर रहे हैं। जल की शान्ति को भी निहारो। पसीने से तर-बतर, प्यास से व्याकुल मनुष्य एक गिलास पानी पीकर कैसी शान्ति का अनुभव करता है। पर्वतीय स्रोतों, झरनों, सरोवर-परिसरों, नदी-तटों की शीतलता किसे शान्ति की लहरों में स्नान नहीं करा देती। ओषधि-वनस्पतियाँ कैसे शान्तभाव से खड़ी हुई अपने मूल, छाल, पत्र, पुष्प एवं फलों से प्राणियों का कैसा उपकार कर रही हैं।

विद्वानों की विद्वत्ता और उनके चरित्र-बल का भी मूल्याङ्कन करो। वेद, ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद्, दर्शनशास्त्र, योगशास्त्र, भौतिक विज्ञान, आयुर्वेद, शिल्पशास्त्र आदि विविध ज्ञान-विज्ञान का पाण्डित्य प्राप्त करके अध्ययन-अध्यापन, प्रबोधन एवं अनुसन्धान में संलग्न यह विद्वन्मण्डली प्रत्येक राष्ट्र के लिए गौरव का विषय है। विद्वज्जन एक जुट होकर शान्ति के साथ विज्ञान को कैसा विकसित कर रहे हैं। अन्त में परब्रह्म परमेश्वर की शान्ति को भी दृष्टिगत करो। सृष्टि की उत्पत्ति, उसका लालन-पालन और समय आने पर उसकी प्रलय-लीला सब शान्तभाव से वह कर रहा है। इसके साथ शुभ गुण-कर्म-स्वभाव की प्रेरणा और न्याय–व्यवस्था भी उसके द्वारा शान्तिपूर्वक हो रही है। उसकी शान्तिमयी रीति नीति से भी हम शान्ति का पाठ पढे।।

शान्ति ही शान्ति हमें चाहिए, अशान्ति बिन्दुमात्र भी अभीष्ट नहीं है। शान्ति की बात समाप्त करते हुए वेदमन्त्र कह रहा है कि शान्ति भी हमें शान्ति देनेवाली हो। हमें सजीव शान्ति चाहिए, मरघट की शान्ति नहीं। ऐसी शान्ति चाहिए जो हमारे हृदयों को गुदगुदाये, तरङ्गित करे, आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे, हमें विजय का सन्देश दे, ऊध्र्वारोहण की शिक्षा दे, हमें ब्रह्मानन्द के झूले में झुलाये।

शान्ति की पुकार – रामनाथ विद्यालंकार

सब परस्पर मित्रदृष्टि से देखें – रामनाथ विद्यालंकार

sab paraspar mitradrushti se dekhenसब परस्पर मित्रदृष्टि से देखें  – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दध्यङ् आथर्वणः । देवता ईश्वरः । छन्दः भुरिग् आर्षी जगती ।

दृते दृह मा मित्रस्य म चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् । मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे

-यजु० ३६.१८

हे ( दृते ) अविद्यान्धकार निवारक जगदीश्वर ! ( दूंह मा ) दृढ़ता प्रदान कीजिए मुझे । (मित्रस्य चक्षुषा ) मित्र की आँख से ( मा ) मुझे ( सर्वाणि भूतानि ) सब प्राणी (समीक्षन्ताम् ) देखें । ( मित्रस्य चक्षुषा ) मित्र की आँख से ( अहं ) मैं (सर्वाणिभूतानि) सब प्राणियों को ( समीक्षे ) देखें। ( मित्रस्य चक्षुषा ) मित्र की आँख से ( समीक्षामहे ) हम सब एक-दूसरे को देखें।

अविद्यान्धकार में ग्रस्त रहने के कारण हम यही नहीं जानते कि समाज में दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, एक-दूसरे को कैसी दृष्टि से देखना चाहिए। हम परस्पर कलह, विद्वेष, असन्तोष, उपद्रव, मार-काट में ही आनन्द मानते हैं, भय के वातावरण में ही रहना पसन्द करते हैं, चोरी-डकैती, आतङ्कवाद और हिंसा के नग्न ताण्डव और आर्तनाद में ही जीना चाहते हैं। पता नहीं कब कोई किसी की जान ले लेगा, पता नहीं कब किस पर वज्रपात हो जायेगा और उसके आश्रय में रहनेवाले चीत्कार कर उठेंगे, पता नहीं कब कोई साध्वी विधवा हो जाएगी और उसके तथा शिशुओं के विलाप से दिशाएँ कराहने लगेंगी, पता नहीं कब राजमहलों में रहनेवाले परिवार खण्डहरों के निवासी हो जाएँगे, पता नहीं कब अच्छे घरानों के लोग सड़कों पर बसेरा करने को बाध्य हो जाएँगे। ऐसी भीषण परिस्थितियाँ पैदा करनेवाले आतङ्कवादी लोग इसकी पीड़ा को, वेदना को, क्यों अनुभव नहीं करते?  वे शान्ति को भङ्ग करने तथा हँसतों को रुलाने में ही क्यों सुखी होते हैं?

आओ, संहारलीला को छोड़कर हम परस्पर प्रेम और भाईचारे से रहना सीखें । हम जिनके घर बर्बाद करते हैं, वे यदि हमारे घर बर्बाद करें तो हमें कैसा लगेगा, थोड़ी देर के लिए यह भी सोचें । हम जिनकी जान लेते हैं, वे यदि हमारी जान लेने पर उतारू हो जाएँ, तो हम कैसा अनुभव करेंगे, यह भी सोचें । एक दिन आयेगा जब हम हिंसा, मार-धाड़, चीत्कार, हाहाकार, विलाप के वातावरण से तङ्ग आकर शान्ति और प्रेम के वातावरण की आवश्यकता अनुभव करने लगेंगे। तब बन्दूकों, तलवारों और बम के गोलों से हमारा विश्वास उठ जाएगा। कराहती लाशें हमें प्रेम, सौहार्द और मैत्री का वातावरण पैदा करने को बाध्य करेंगी।

हे विद्वेषविदारक जगदीश्वर! आप हमें दृढ़ता प्रदान कीजिए। आज से हम पारस्परिक मैत्री का सङ्कल्प करते हैं, हम उस पर दृढ़ रहें। हमने विद्वेष के परिणामों को भुगत लिया है, विद्वेष और वैरभाव ने हमें विनाश के कगार पर पहुँचा दिया है। हमें न केवल सब मनुष्य, अपितु सब प्राणी मित्र की दृष्टि से देखें। जब मनुष्य में अहिंसा प्रतिष्ठित हो जाती है, तब सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक प्राणी भी वैरभाव को छोड़कर मित्र बन जाते हैं। क्या आपने वह सच्ची कहानी नहीं सुनी है कि एक शेर बन्दूक की गोली से आहत हो गया था, जिसकी मरहमपट्टी एक साधु ने की और उस साधु के चरणों में सिर झुकाने वह शेर प्रतिदिन नियत समय पर आता था। सब प्राणी हमें मित्र की आँख से देखें, हम सब प्राणियों को मित्र की आँख से देखें। मित्रता और शान्ति के साम्राज्य में हम निवास करें। एक-दूसरे के सुख-दु:ख में हम साझी हों। दूसरे के आनन्दित होने पर हम भी आनन्दित हों, दूसरे की कराहट पर हम भी कराहें । हे जगदीश्वर हमें वह दिन देखने का सौभाग्य प्रदान करो।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (दृते) अविद्यान्धकारनिवारक जगदीश्वर, विद्वेषविदारक विद्वन् वा-द० ।।

२. द्रष्टव्य-कल्याण मार्ग का पथिक : स्वामी श्रद्धानन्द ।

सब परस्पर मित्रदृष्टि से देखें  – रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि परमेश्वर सबके साथ है – रामनाथ विद्यालंकार

agni parmeshwar sabke sath haiअग्नि परमेश्वर सबके साथ है – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दध्यङ् अथर्वणः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् ब्राह्मी अनुष्टुप् ।

समग्निरग्निना गत सं दैवेन सवित्रा ससूर्येणारोचिष्ट।

स्वाहा समुग्निस्तपसा गत सं दैव्येन सवित्रा ससूर्येणारूरुचत ।

-यजु० ३७.१५ |

( अग्निः ) तेजस्वी परमेश्वर ( अग्निना ) पार्थिव अग्नि के साथ ( सं गत ) संस्थित है, (दैव्येन सवित्रा ) विद्वानों के हितकारी वायु के साथ ( सं ) संस्थित है, (सूर्येणसंरोचते)  सूर्य के साथ चमक रहा है। (स्वाहा ) उस तेजस्वी परमेश्वराग्नि की हम जय बोलते हैं। ( अग्निः ) तेजस्वी परमेश्वर ( तपसा सं गतः ) ग्रीष्म ऋतु के साथ संस्थित है, ( दैव्ये न सवित्रा ) विद्वानों के हितकर्ता विद्युत् अग्नि के साथ ( सं ) संस्थित है। वही तेजस्वी परमेश्वराग्नि (सूर्येण ) सूर्य के द्वारा ( अरूरुचत ) सबको चमकाता रहा है।

ब्रह्माण्ड में जो भी अद्भुत कलाकृतियाँ दिखायी देती हैं, उन सबमें कोई कलाकार बैठा झाँक रहा है। इनमें एक कलाकृति ‘अग्नि’ है। प्राचीन याज्ञिक लोग उत्तरारणि और अधरारणि को परस्पर रगड़ कर यज्ञकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित करते थे। जङ्गल में बांसों की रगड़ से अग्नि उत्पन्न हो जाती है। आजकल का सरल उपाय यह है कि दीपशलाका की मसाले-लगी डिबिया की पीठ पर शलाका को रगड़ कर अग्नि जलाते हैं। उत्पन्न की गयी सूक्ष्म अग्नि ईंधन पाकर ऊँची विकराल ज्वालाओं को धारण कर लेती है। इस अग्नि में कितनी शक्ति है, कितनी उज्ज्वलता है, कितनी तेजस्विती है। इस अग्नि में अग्रणी परमेश्वर कारीगर बनकर बैठा हुआ है। फिर ‘सविता’ को देखो। ‘सवितृ’ शब्द निरुक्त में मध्यमस्थानीय तथा उत्तमस्थानीय दोनों प्रकार के देवों में पठित होने से इसके अर्थ मध्यमस्थानीय वायु तथा उत्तम  स्थानीय सूर्य दोनों होते हैं। यहाँ सूर्य पृथक् पठित होने से प्रस्तत स्थल में सविता प्रेरक वाय के अर्थ में है। कभी यह सविता वायु शीतल सगन्धित रूप से मन्द-मन्द चलता है और कभी प्रचण्ड उष्ण झंझावात का रूप धारण कर लेता है। मन्द-मन्द बहता हुआ यह मन में कैसी शान्ति उत्पन्न करता है और प्रखरता से धूल के चक्रवात के साथ उड़ता हुआ, बाधाओं को तोड़ता-फोड़ता हुआ, कभी बिजली की कड़क और वर्षा को साथ लेता हुआ भूमि की कैसी सफाई कर डालता है। इस सविता वायु को उत्पन्न करनेवाला और चलानेवाला परमेश्वर भी इसी के साथ बैठा हुआ है। जो उसे देखना चाहते हैं, उन्हें वह अपने पूरे साज के साथ दीख जाता है। फिर द्युलोक के देदीप्यमान राजमुकुट सूर्य की ओर भी दृष्टिपात करो। पृथिवी, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि आदि ग्रहों तथा इनके उपग्रहों को अपने आकर्षण की डोर से पकड़कर वेग से अपने चारों ओर घुमाता हुआ और इन्हें अपने प्रकाश से प्रकाशित और प्राण से अनुप्राणित करता हुआ यह कितना बड़ा सम्राट् बना हुआ है। इस सूर्य में भी परमात्माग्नि चमक रहा है, अपनी छवि बखेर रहा है।

फिर देखो, वह तेजस्वी परमेश्वर ग्रीष्म ऋतु के साथ भी सङ्गत है। ग्रीष्म की तपस कैसी उग्र होती है। यह उग्रता देनेवाला अग्रणी जगदीश्वर ही है। वह तेजोमय परमेश दैव्य सविता के साथ, दीप्तिमान् विद्युद्वजे के साथ भी सङ्गत है। विद्युत् को चमकाने-गर्जानेवाला वही है। वही परमेश्वर सूर्य द्वारा सबको प्रकाशित और रोचमान कर रहा है।

इसी प्रकार प्रकृति के अन्य सजीले पदार्थों के साथ भी वह सङ्गत है। वह पर्वतों के साथ सङ्गत है, समुद्रों के साथ सङ्गत है, बादलों के साथ सङ्गत है, वन-उपवनों के साथ सङ्गत है, स्रोतों-सरोवरों के साथ सङ्गत है, पुष्पित-फलित, हरित पत्रों से अलंकृत वृक्षों के साथ सङ्गत है। आओ, सब रमणीक पदार्थों में बैठे हुए उस परमेश्वर के दर्शन करें, उसकी विभूति को देखें और उस पर मुग्ध हों।

अग्नि परमेश्वर सबके साथ है – रामनाथ विद्यालंकार

अमर आत्मा पुन: पुन: जन्म लेती है – रामनाथ विद्यालंकार

amar atma punah punah janm leti haiअमर आत्मा पुन: पुन: जन्म लेती है –   रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दीर्घतमा: । देवता जीवात्मा। छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप्

अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा परां पृथिभिश्चरन्तम् सध्रीचीः विषूचीर्वसाऽआवेरीवर्ति भुवनेष्वन्तः

-यजु० ३७.१७

मैंने ( अपश्यं ) देखा है (गोपां’ ) इन्द्रियरूप गौओं के रक्षक जीवात्मा को (अनिपद्यमानं ) न मरनेवाला, ( पथिभिः ) मार्गों से ( आ चरन्तं ) शरीर के अन्दर आनेवाला और ( पराचरन्तं ) शरीर से बाहर जाने वाला । ( सः ) वह ( सध्रीची:३) साथ-साथ चलनेवाली नस-नाड़ियों को और ( सः ) वह (विषूचीः ) विविध दिशाओं में जानेवाली नस– नाड़ियों को ( वसानः ) धारण करता हुआ ( भुवनेषु अन्तः ) भवनों के अन्दर ( आ वरीवर्ति५ ) पूनः-पुनः आता-जाता है।

चारवाक सम्प्रदाय की मान्यता है कि जब तक जियो सुख से जियो, ऋण लेकर घी पियो, ऋण चुकाने की आवश्यकता नहीं है, मरणोपरान्त शरीर भस्म हो चुका, तो पुनर्जन्म किसी का नहीं होता है। वह आत्मा नाम की कोई नित्य वस्तु नहीं मानता, जो पुनर्जन्म ले । किन्तु उसका कथन मिथ्या है, क्योंकि सैंकड़ों उदाहरण ऐसे मिलते हैं कि कइयों को पूर्वजन्म की बातें स्मरण रहता हैं । श्रुति भी आत्मा की अमरता तथा उसके बार-बार जन्म लेने की पुष्टि करती है। प्रस्तुत कण्डिका कह रही है कि शरीर में एक गोपाः’ निवास करता है, जो शरीर के मर जाने पर भी मरता नहीं है। उसका नाम ‘गोपाः’ इस कारण है कि वह इन्द्रियरूप गौओं का रक्षक है। वैसे तो अपने आत्मा का प्रत्यक्ष प्रत्येक को होता है, जिसे वह ‘मैं’ कहता है-मैं कहता हूँ, मैं बोलता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं स्वाध्याय करता हूँ, मैं अध्यापन करता हूँ आदि। यह ‘मैं’ आत्मा ही है। न्यायदर्शनकार ने अनुमान प्रमाण से आत्मा की सिद्धि करते हुए इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दु:ख और ज्ञान को आत्मा के लिए साधक हेतु बताया है। पहले जैसे पदार्थ से मनुष्य को सुख मिले चुका होता है, वैसे पदार्थ को देखकर उसे पाने की इच्छा करता है। जैसे पदार्थ से दु:ख मिल चुका होता है, वैसे पदार्थ को देखकर उससे द्वेष करता है। जैसे पदार्थ से पहले सुख मिल चुका होता है, वैसे पदार्थ को पाने का प्रयत्न करता है। जैसे पदार्थ से पहले सुख मिल चुका होता है, वैसे पदार्थ के सेवन से अब भी सुखी होता है। जैसे पदार्थ के सेवन से पहले दु:ख मिल चुका होता है, वैसे पदार्थ के सेवन से अब भी दु:खी होता है। जो ज्ञान पहले प्राप्त कर चुका होता है, अब भी वह ज्ञान उसे होता है। इन इच्छा, द्वेष प्रयत्न, सुख, दु:ख, ज्ञान का कर्ता वही है, जो पहले तज्जातीय पदार्थों के प्रयोग से सुख या दुःख प्राप्त कर चुका होता है, अब भी वह ज्ञान उसे होता है। इस प्रकार दोनों का कर्ता एक ही है, इस हेतु से आत्मा का अनुमान होता है। वह आत्मा कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जन्म लेता है। पाप कर्मों से पाप योनि में जाता है, पुण्य कर्मों से पुण्य योनि में जाता है और पाप तथा पुण्य दोनों होते हैं, तो मनुष्य योनि में आता है। इस प्रकार विभिन्न शरीरों में आता है तथा देहान्त के समय शरीरों से बाहर निकल जाता है। शरीर में कुछ नस-नाड़ियाँ समानान्तर चलती हैं, कुछ विरुद्ध दिशाओं में चलती हैं। उन्हें धारण करता हुआ वह बार-बार जन्म लेता है।

पादटिप्पणियाँ

१. गाः इन्द्रियाणि पाति रक्षतीति गोपाः जीवात्मा ।

२. नि-पद गतौ, दिवादिः । न निपद्यते म्रियते यः सः अनिपद्यमानः ।।

३. सह अञ्चन्ति गच्छन्ति याः ता: सध्रीच्यः । सह को सध्रि आदेश।

विषु विविधं विरुद्धं विषमं वी अञ्चन्ति गच्छन्ति याः ता विषूच्यः ।

५. आ-वृतु वर्तने, यलुगन्त। पुनः पुनः आवर्तते ।।

६. इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम्। न्या०२० १.१.१०

७. द्रष्टव्य-छा० उप० ५.१०.७-९

अमर आत्मा पुन: पुन: जन्म लेती है  –  रामनाथ विद्यालंकार