Category Archives: रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ का चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ का चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः वामदेवः । देवता यज्ञपुरुषः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

एताऽअर्षन्ति हृद्यात्समुद्राच्छतव्रजा रिपुणा नाचक्षे घृतस्य धाराऽअभिचाकशीमि हिरण्ययों वेतसो मध्यऽआसाम्॥

-यजु० १७।९३

(एताः ) ये वेद की ऋचाएँ ( अर्षन्ति ) निकल रही हैं। ( हृद्यात् समुद्रात् ) हृदयाकाश से (शतव्रजाः ) सैंकड़ों की संख्या में, जो (रिपुणा ) यज्ञ के शत्रु द्वारा ( न अवचक्षे ) रोकने योग्य नहीं हैं। इसके अतिरिक्त (घृतस्थे धाराः) घी को धाराओं को (अभिचाकशीमि) देख रहा हूँ। ( आसां मध्ये ) इनके मध्य में ( हिरण्ययः वेतसः ) अग्निरूप सुनहरा वेतस है।

मैं वेद की ऋचाओं के पाठपूर्वक यज्ञ कर रहा हूँ। वेद की ऋचाएँ सैंकड़ों की संख्या में मेरे हृदयाकाश से निकल रही हैं। मैं इनका पाठ करता हुआ भावविभोर हो रहा हूँ, आनन्दमग्न हो रहा हूँ। ये ऋचाएँ किसी के रोके रुक नहीं सकती हैं। न आन्तरिक शत्रु यज्ञविरोधी तर्क इन्हें रोक सकते हैं, न बाह्य शत्रु यज्ञविरोधी लोग इन्हें रोक सकते हैं। जैसे अन्य अच्छे कार्यों का विरोध कुछ लोगों की ओर से होता है, ऐसे ही समाज में कुछ यज्ञविरोधी लोग भी होते हैं। वे कहते हैं कि जितने घी तथा अन्य पदार्थ अग्नि में भस्म करके नष्ट किये जा रहे हैं, उतने घी तथा अन्य गोला, मिश्री, छुहारे, बादाम, मुनक्का, किशमिश आदि गरीबों में बाँट दिये जाते, तो कितना कल्याण होता। वे यज्ञ के शत्रु पर्यावरणशुद्धि को कोई महत्त्व नहीं देते। यज्ञ से जल-वायु की शुद्धि होकर और  वृष्टि होकर जो मानवकल्याण होता है, जितना द्रव्य हम अग्नि में जलाते हैं, उससे अधिक जनहित हो जाता है, उसकी ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता। लोग कितना ही यज्ञ का विरोध करं, मेरी ऋचाओं का पाठ, यज्ञवेदि में अग्नि का प्रज्वलन और हविर्द्रव्यों की आहुतियाँ रुकेंगी नहीं। यज्ञ का जितना विरोध होगा, उतना ही अधिक उसका प्रचलन होगा। ऋचाओं के पाठ के साथ-साथ घृत की धारें भी अग्नि में पड़ रही हैं। प्रत्येक ‘स्वाहा’ के साथ घृताहुतियाँ पड़ती हैं, अन्य हविर्द्रव्य आहुत होते हैं, और प्रत्येक आहुति के साथ मध्य में अग्नि की ज्वालाएँ ऊपर उठती हैं। यह दृश्य कितना मनोमुग्धकारी है। यह हिरण्यय वेतस की प्रभा, यह सुनहरी अग्निज्वाला हमें भी निमन्त्रण दे रही है कि तुम भी अग्नि बनकर ऊध्र्वारोहण करो, बाह्य अग्निज्वाला के साथ अपने अन्दर की अग्निज्वाला भी जलाओ और ऊध्र्वारोहण करते हुए पृथिवी से अन्तरिक्ष में, अन्तरिक्ष से द्युलोक में और द्युलोक से स्वर्लोक में पहुँच जाओ। ये लोक उन्नति के स्तरों के सूचक हैं। भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम् ये सात लोक उन्नति के सात सोपान हैं। एक से दूसरे स्तर में, दूसरे से तीसरे स्तर में, इसी प्रकार उपरले-उपरले स्तर में जाते हुए हम भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति करते रहें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. अर्षन्ति, ऋषी गतौ। (अर्षन्ति) गच्छन्ति निस्सरन्ति-द० ।

२. समुद्र=अन्तरिक्ष, निघं० १.३

३. अव-चक्ष-एश् प्रत्यय। ‘अवचक्षे च’ पा० ३.४.१५

४. भिचाकशीमि=पश्यामि ।

यज्ञ का चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार  

यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार 

षयः देवा: । देवता धान्यदः आत्मा। छन्दः भुरिग् अतिशक्चरी।

व्रीहर्यश्च मे यवाश्च मे माषाश्च मे तिलाश्च मे मुद्गाश्च मे खल्वाश्च मे प्रियङ्गवश्च मेऽणवश्च मे श्यामाकाश्च मे नीवाराश्च मे गोधूमश्च मे सूराश्च मे युज्ञेन कल्पन्ताम्॥

-यजु० १८ । १२ |

( व्रीहयः च मे ) मेरे धान, ( यवः च मे ) और मेरे जो, ( माषाः च मे ) और मेरे उड़द, (तिलाः च मे ) और मेरे तिल, ( मुगाः च मे ) और मेरे मुँग, ( खल्वाः च मे ) और मेरे चने, ( प्रियङ्गवः च मे ) और मेरे अँगुनी चावल, ( अणवः च मे ) और मेरे किनकी चावल, ( श्यामाकाः च मे ) और मेरे साँवक चावल, (नीवाराः च मे ) और मेरे पसाई के चावल, जो बिना बोये उत्पन्न होते हैं, ( गोधूमाः च मे ) और मेरे गेहूँ (मसूराः च मे ) और मेरे मसूर ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) यज्ञ से प्रचुर तथा पुष्ट होवें।

मैं चाहता हूँ कि मेरे देश में धान, जौ, उड़द, तिल, मूंग, चने, कँगुनी चावल, किनकी चावल, सांवक चावल, जङ्गली धान, गेहूँ और मसूर इन धान्यों की खेती प्रचुरता के साथ हो। इन धान्यों में कुल मिलाकर खाद्योपयोगी सब तत्त्व आ जाते हैं। इनके लिए हमें दूसरे देशों पर निर्भर न रहना पड़े। ये सब अन्न यज्ञ द्वारा बहुत मात्रा में और पोषक गुणवाले होकर उपजें । यज्ञ से यहाँ एक तो कृषियज्ञ अभिप्रेत है और दूसरा अग्निहोत्र । कृषियज्ञ में उपजाऊ भूमि, अच्छी जुताई, अच्छा । खाद, अच्छा बीज, उसे उपयुक्त समय पर बोना, समय पर सिंचाई, समय पर फसल काटना, भूसी अलग करना, खलिहानों में भरना, बिक्री करना आदि सब बातें अभिप्रेत हैं। किसी भी बात में लापरवाही होने पर उपज पर प्रभाव पड़ सकता है। खाद रासायनिक खादों की अपेक्षा गोमूत्र और गाय के गोबर का अच्छा रहता है। ये कृषियज्ञसम्बन्धी सावधानियाँ हैं। अग्निहोत्र का प्रयोग इस रूप में किया जा सकता है कि गोघृत तथा धान, जौ, तिल और गूगल की सामग्री से एवं आम और पीपल दोनों की समिधाओं से यज्ञ करके उसकी राख खेतों में बखेरी जाए।

‘यज्ञेन कल्पन्ताम्’ का एक अर्थ यह भी है कि ये सब अन्न भोग-यज्ञ द्वारा आरोग्य प्रदान करने में समर्थ हों। यज्ञ शब्द देवपूजा, सङ्गतिकरण और दान अर्थवाली यज धातु से बनता है। जिस क्रिया में ये तीनों तत्त्व सन्तुलनपूर्वक विद्यमान हैं, वह ‘यज्ञ’ है। अन्न के भोग में प्रथम तो दाता परमेश्वर की पूजा है, फिर अपने उदर के साथ अन्न का सङ्गतिकरण है, फिर अन्न का भक्षण अकेले नहीं, दानपूर्वक होता है, क्योंकि स्वयं खाने के अतिरिक्त अतिथियज्ञ और बलिवैश्वदेवयज्ञ भी करना होता है। भोजन में अन्नों के चयन में सन्तुलन भी होना चाहिए कि उसमें स्टार्च, प्रोटीन, वसा, चीनी, तन्तु आदि सब ठीक अनुपात में रहें। इस प्रकार भोग करेंगे तो उससे हमारा मन, मस्तिष्क और शरीर स्वस्थ होंगे और परोपकार भी होगा।

आओ, यज्ञ द्वारा ही हम इन तथा अन्य उपयोगी अन्नों को प्रचुर मात्रा में उत्पन्न करें और यज्ञ द्वारा ही इनका भोग करें।

पादटिप्पणी

१. कल्पन्ताम्-क्लुपु सामर्थ्य, लोट् लकार।

यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार 

चारों वर्णों में दीप्ति और परस्परिक प्रेम-रामनाथ विद्यालंकार

चारों वर्णों  में दीप्ति और परस्परिक प्रेम-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः शुन:शेप। देवता बृहस्पतिः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

रुचे नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचराजसु नस्कृधि। रुचं विश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रुचा रुचम् ॥

-यजु० १८।४८ |

हे विशाल ब्रह्माण्ड के अधिपति बृहस्पति परमेश्वर ! आप (नः ब्राह्मणेषु ) हमारे ब्राह्मणों में ( रुचं धेहि ) दीप्ति और प्रेम स्थापित करो। ( रुचं ) दीप्ति और प्रेम (नःराजस ) हमारे क्षत्रियों में ( कृधि ) करो। ( रुचं ) दीप्ति और प्रेम (विश्येषु ) वैश्यों में और (शूद्रेषु ) शूद्रों में [उत्पन्न करो]। ( मयि ) मेरे अन्दर भी (रुचा ) प्रीति के साथ (रुचं ) प्रेम को ( धेहि) स्थापित करो।

हे विशाल ब्रह्माण्ड के अधिपति बृहस्पति परमात्मन् ! हे विशाल वाङ्मय के स्वामी बृहस्पति आचार्य ! हमारा समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्षों में विभक्त है। आप हमारे ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व की दीप्ति और प्रेम उत्पन्न कीजिए। ब्राह्मणत्व कहलाता है। ब्रह्मविद्या, वेदविद्या, अन्य विविध विद्या तथा आस्तिकता में नैपुण्य । इसकी प्रभा, इसकी चमक हमारे ब्राह्मणों में हो। ‘रुच’ धातु के अर्थ दीप्ति और प्रीति होते हैं, अतः ‘रुच’ का दूसरा अर्थ प्रेम भी ग्राह्य है। ब्राह्मणजन परस्पर प्रीतिभाव रखें और दूसरे वर्षों के साथ भी प्रेम का व्यवहार करें। हमारे राजाओं में, क्षत्रियों में क्षात्र धर्म की दीप्ति और प्रेम उत्पन्न कीजिए। क्षात्रवल की छुति उनमें ऐसी हो कि वे प्रजा की रक्षा में तथा शत्रु के उच्छेद में सदा तत्पर रहें। पारस्परिक प्रीति भी रखें और ब्राह्मण, वैश्य तथा  शूद्र के साथ भी प्रेम रखें। हमारे वैश्यों में भी वैश्य धर्म की दीप्ति तथा परस्पर और अन्य वर्गों के साथ प्रेमभाव रहे। वैश्य-धर्म है कृषि, व्यापार और पशुपालन । शूद्रों में भी अपने सेवाधर्म की चमक और पारस्परिक प्रेमभाव उत्पन्न कीजिए। आप मेरे अन्दर भी दीप्ति के साथ प्रेमभाव प्रकट कीजिए। इस प्रकार सम्पूर्ण समाज एक-दूसरे के प्रति प्रेम से आबद्ध और अपने-अपने कर्तव्यपालन के प्रति जागरूक रहे, तो समाज और राष्ट्र समुन्नत और प्रशस्त कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकेंगे।

हे परमेश तथा हे आचार्यवर ! आप चारों वर्गों को दूध पानी की तरह परस्पर मैत्री और प्रीतिभाव से समन्वित करके प्रतिष्ठास्पद कीजिए, यही हमारी प्रार्थना है ।।

पाद-टिप्पणी

१. रुच दीप्तौं अभिप्रीतौ च, भ्वादिः । ‘रुचं प्रेम’-द० ।

चारों वर्णों  में दीप्ति और परस्परिक प्रेम-रामनाथ विद्यालंकार  

स्वर्ग जहाँ मधु और घृत की धारा बहती हैं-रामनाथ विद्यालंकार

स्वर्ग जहाँ मधु और घृत की धारा बहती हैं-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः विश्वकर्मा। देवता यज्ञः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

यत्र धाराऽअनपेता मधोघृतस्य च याः। तदग्निर्वैश्वकर्मणः स्वर्देवेषु नो दधत् ॥

 -यजु० १८ । ६५

( यत्र) जहाँ ( मधोः ) मधु की (घृतस्य च ) और घृत की (धाराः) धाराएँ ( अनपेताः ) उपस्थित रहती हैं ( तत् स्वः ) वह स्वर्ग अर्थात् सुखी जीवन ( वैश्वकर्मणः१ अग्निः ) विश्वकर्मा परमेश्वर द्वारा रचित यज्ञाग्नि ( देवेषु ) विद्वानों केमध्य में (नः दधत् ) हमें प्राप्त कराये।

क्या तुम पूछते हो कि यज्ञाग्नि प्रज्वलित करके उसमें घृत, हवन-सामग्री, पक्वान्न, मेवा आदि की आहुति डालने से क्या फल सिद्ध होता है ? श्रुति कहती है कि इस अग्निहोत्र से स्वर्ग प्राप्त होता है। वह स्वर्ग कहीं आकाश में नहीं है, यहाँ पृथिवी पर ही है। हम यज्ञकुण्ड में मन्त्रोच्चारणपूर्वक अग्न्याधान और अग्निप्रदीपन करते हैं, समिदाधान, पञ्च घृताहुतियाँ, जलसेचन, आघार आज्याहुतियाँ, आज्याभागाहुतियाँ, प्रधान होम की आहुतियाँ देकर पूर्णाहुति करते हैं। यह तो दैनिक अग्निहोत्र का विधि-विधान है। अन्य कोई यज्ञ करते हैं, तो उसके लिए निर्धारित विधियाँ करनी होती हैं। सभी यज्ञों में यज्ञ-समिधा पलाश, शमी, पीपल, बड़, गूलर, आम, विल्व आदि की ही प्रयोग में लाते हैं। घृत के अतिरिक्त हवन-सामग्री में चार प्रकार के होम-द्रव्यों का मिश्रण होता है-”प्रथम सुगन्धृित कस्तूरी, केशर, अगर, तगर, श्वेत चन्दन,  इलायची, जायफल, जावित्री आदि। द्वितीय पुष्टिकारक घृत, दूध, फल, कन्द, अन्न, चावल, गेहूँ, उड़द आदि। तीसरे मिष्ट शक्कर, सहत, छुवारे, दाख आदि। चौथे रोगनाशक सोमलता अर्थात् गिलोय आदि ओषधियाँ।”

इन यज्ञों से पर्यावरण शुद्ध होता है, वायु जल आदि सुगन्धित होते हैं, रोग नष्ट होते हैं, शुद्ध जल की वृष्टि होती है। ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना होती है। सबके मिलकर बैठने से सङ्गठन सुदृढ़ होता है। दान की भावना जागृत होती है। प्रस्तुत मन्त्र में कहा गया है कि विश्वकर्मा परमेश्वर द्वारा रचित यज्ञाग्नि में होम करने से हमें वह स्वर्ग प्राप्त होता है, जिसमें मधु और घृत की धाराएँ बहती हैं। सुखी जीवन ही स्वर्ग है। यज्ञ करने से इस जन्म में भी ‘स्वर्ग’ अर्थात् सुखी जीवन प्राप्त होता है और इहलोकप्रयाण के बाद भी मनुष्य जन्म मिलता है और उसमें मधु, घृत आदि की सम्पदा से युक्त सुखी जीवन होता है।

आओ, हम भी यज्ञ करके मधु और घृत की धाराओंवाला स्वर्ग प्राप्त करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. विश्वकर्मणः परमेश्वराज्जातः वैश्वकर्मणः ।

२. डुधाञ् धारणपोषणयोः, लेट् लकार ।

स्वर्ग जहाँ मधु और घृत की धारा बहती हैं-रामनाथ विद्यालंकार  

सोम में सुर का मिश्रम-रामनाथ विद्यालंकार

सोम में सुर का मिश्रम-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः प्रजापतिः । देवता सोमः । छन्दः निवृत् शक्वरी ।

स्वाद्वीं त्वा स्वादुना तीव्रां तीव्रणामृतममृतेन मधुमतीं मधुमता सृजामि सश्सोमेन सोमोऽस्यश्विभ्यो पच्यस्व सरस्वत्यै पच्यूस्वेन्द्रय सुत्राणे पच्यस्व ॥

-यजु० १९ । १

हे सुरा! ( स्वाद्वीं) स्वादु, ( तीव्रां ) तीव्र, ( अमृतां ) अमृततुल्य ( मधुमतीं) मधुर ( त्वा ) तुझे ( स्वादुना ) स्वादु, | ( तीव्रण ) तीव्र (अमृतेन ) अमृततुल्य ( मधुमता) मधुर (सोमेन) सोम के साथ ( संसृजामि) संयुक्त करता हूँ, मिलाता हूँ। सोम के साथ मिलकर हे सुरा! ( सोमः असि ) तू सोम हो गयी है। (अश्विभ्यां पच्यस्व) प्राण और अपान के लिए तू परिपक्व हो। ( सरस्वत्यै पच्यस्व) विद्या के लिए परिपक्व हो, (सुत्राणे इन्द्राय पच्यस्व) सुत्राणकर्ता विश्वसम्राट् तथा राष्ट्रसम्राट् के लिए परिपक्व हो । |

आओ, सुरा को सोम के साथ मिलायें। किन्तु सुरा को मदिरा समझने की भूल मत कर बैठना। स्वादी, तीव्रा, अमृता, मधुमती सुरा को स्वादु, तीव्र, अमृत, मधुपान् सोम के साथ मिलायें। ‘सुरा’ है वाक् और ‘सोम’ है मन। शब्दार्थक ‘स्वृ’ धातु से ‘स्वरा’ और व् को उ करके वाणीवाची ‘सुरा’ शब्द बना है। सोम का अर्थ मन प्रसिद्ध ही है, क्योंकि ईश्वरीय मन से ही सोम (चन्द्रमा) की उत्पत्ति हुई है। वाणी स्वादु भी हो सकती है और बेस्वाद भी, तीव्र भी हो सकती है और हल्की भी, अमृतरूप भी हो सकती है और मृत भी, मधुर भी हो सकती है और कटु भी। इसी प्रकार मन भी स्वादु, तीव्र, अमृत और मधुमय भी हो सकता है और बेस्वाद, हल्का, मृत और कटु भी। वाणी को मन में मिलाने का तात्पर्य है मौन हो जाना। जब मनुष्य बोलता है, तब मन वाणी में समाहित हो जाता है और जब मौन होता है, तब वाणी मन में समाविष्ट हो जाती है। मन पहले ही स्वादु, तीव्र, अमृत और मधुर है, वाणी का स्वादुत्व, तीव्रत्व अमृतत्व और मधुरत्व भी उसमें मिलकर मन को और भी अधिक स्वादु, तीव्र, अमृत और मधुर बना देता है। वाणी भी सोम में मिलकर सोम हो जाती है, अर्थात मन में मिलकर मन हो जाती है। मन स्वादता के साथ विचार करता है, तीव्रता के साथ करता है, अमृत अर्थात् सजीवता के साथ करता है, मधुरता के साथ करता है। परन्तु मनुष्य रहता मौन ही है। जितना ही मन किसी विषय में विचार करेगा, उतने ही उस विषय में उसके विचार परिपक्व होंगे। प्राणापान अर्थात् योगाभ्यास के विषय में विचार परिपक्व होते हैं, सरस्वती अर्थात् विद्या के विषय में विचार परिपक्व होते हैं, सुत्रामा इन्द्र अर्थात् सुत्राणकर्ता विश्वसम्राट् तथा राष्ट्रसम्राट् के विषय में विचार परिपक्व होते हैं। इस प्रकार योगाभ्यास, विभिन्न विद्याओं तथा ईश्वरविज्ञान एवं राजनीति विज्ञान के विषय में मन पूर्ण चिन्तन कर लेता है। तब मन में समाविष्ट वाणी मन से बाहर आ जाती है और मन द्वारा चिन्तित ज्ञान-विज्ञान का प्रचार करती है। यह है सुरा को सोम में मिलाने का रहस्य ।।

आओ, हम भी सुरा को सोम में मिलायें, वाणी को मन में संनिहित करके, मौन होकर गम्भीर चिन्तन करें और परिपक्व विचार बनाकर मौन तोड़े तथा वाणी को पुनः प्रवृत्त करके परिपक्व विचारों का प्रचार करें।

पादटिप्पणी

१. चन्द्रमा मनसो जातः । य० ३१.१२

सोम में सुर का मिश्रम-रामनाथ विद्यालंकार  

सम्राट कैसा और किस लिए नियुक्त -रामनाथ विद्यालंकार

सम्राट कैसा और किस लिए नियुक्त -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः आभूतिः । देवता सोमः । छन्दः निवृद् आर्षी पङ्गिः।

उपयामगृहीतोऽस्याश्विनं तेजः सारस्वतं वीर्यमैन्द्रं बलम्।। एष ते योनिर्मोदय त्वानन्दाय त्वा महसे त्वा ॥

 -यजु० १९५८

हे सम्राट् ! तू ( उपयामगृहीतः असि) यम-नियमों से गृहीत है, जकड़ा हुआ है। तेरे अन्दर ( आश्विनं तेजः ) प्राण अपान एवं सूर्य-चन्द्र का तेज है, ( सारस्वतं वीर्यम् ) सारस्वत वीर्य है, (ऐन्द्रं बलम् ) विद्युत् का बल है। (एष ते योनिः ) यह राष्ट्र तेरा घर है, आश्रम है, कार्य-स्थल है। ( मोदाय त्वा) मैं तुझे प्रजा के मोद के लिए नियुक्त करता हूँ, (आनन्दाय त्वा ) आनन्द के लिए नियुक्त करता हूँ, (महसे त्वा ) महत्त्व के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ।

हे सम्राट् ! क्या आपको मालूम है कि हमने आपके अन्दर किन गुणों को देखा है और किसलिए आपको इस पद पर प्रतिष्ठित किया है? आप उपयामों’ से बंधे-जकड़े हुए हैं। अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह ये पाँच यम और शौच-सन्तोष-तप-स्वाध्याय-ईश्वरप्रणिधान ये पाँच नियम आपको ऊँचा उठाये हुए हैं। इनके पालन करने के कारण सब प्रजाजन प्रसन्नता और विश्वास के साथ आपको अपना नेता स्वीकार करने में गौरव अनुभव करते हैं। आपके अन्दर ‘अश्वियुगल’ का तेज विद्यमान है। ‘अश्विनौ’ के अनेक अर्थों में निरुक्तकार ने सूर्य-चन्द्रमा अर्थ भी बताये हैं। आपके अन्दर सूर्य और चन्द्र दोनों का तेज विद्यमान है। जीवन में  दोनों तेजों की आवश्यकता है। सब प्राणी और वनस्पति सूर्य और चन्द्रमा दोनों के तेजों से प्राण ग्रहण करते हैं। सूर्य का तेज उष्ण प्राण और चन्द्रमा का तेज सौम्य प्राण प्रदान करता है। यदि केवल उष्ण प्राण ही प्राप्त हो, तो यह जड़-चेतन जगत् भस्म हो जाए। इसी प्रकार यदि केवल सौम्य प्राण ही प्राप्त हो, तो यह जड़-जङ्गम जगत् सर्दी से ठिठुर कर गल जाए। दोनों तेजों से सप्राण मनुष्य सच्चे अर्थों में तेज से जगमगाता है और अपने सम्पर्क में आनेवालों को तेज से सप्राण करता है। आश्विन तेज’ से भासमान होने के कारण। ही आप सबका नेतृत्व करने में समर्थ हैं। आपके अन्दर ‘सारस्वत वीर्य’ भी है। सरस्वती का वरदान आपको प्राप्त है, वेदवाणी की शिक्षाएँ आपके आत्मा में ओतप्रोत हैं, विद्या का भण्डार आपके पास विद्यमान है, ज्ञान-विज्ञान की बहुमुखी धाराओं में आप निष्णात हैं। इस कारण भी हम आपको अपना नेता बनाना चाहते हैं। फिर आपके अन्दर ‘इन्द्र का बल’ भी है, विद्युत्-जैसी चामत्कारिक शक्ति हैं, जो असंख्यों को अपने पीछे चला सकती है। इस कारण भी हम नेतृत्व का वागडोर आपके हाथों में सौंपने के लिए उत्सुक हो रहे हैं। |

राष्ट्र का यह राजमहल आपके लिए है। आवश्यकता पड़ने पर राजमहल छोड़कर आपको सड़कों पर भी आना पड़ सकता है। आपको हम राजमुकुट पहना रहे हैं। किस लिए? प्रजा को मोद प्रदान करने के लिए, कष्टों से उबार कर उन्नति के शिखर पर चढ़ा कर प्रफुल्ल करने के लिए, प्रजा को पूजास्पद बनाने के लिए, महिमान्वित करने के लिए, तेजस्विता प्रदान करने के लिए। आप आइये और अपना पदभार ग्रहण कीजिए।

सम्राट कैसा और किस लिए नियुक्त -रामनाथ विद्यालंकार 

दीक्षा का फल-रामनाथ विद्यालंकार

दीक्षा का फल-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषि: हैमवर्चिः । देवता यज्ञ: । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया त्यमप्यते ॥

-यजु० १९ । ३०

( व्रतेन ) सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थाश्रमप्रवेश आदि का व्रत लेकर (दीक्षाम्आप्नोति ) दीक्षा प्राप्त करता है। ( दीक्षया ) दीक्षा लेकर ( आप्नोति ) प्राप्त करता है। ( दक्षिणाम् ) दक्षिणा को अर्थात् दीक्षा के फल को। ( दक्षिणा ) दक्षिणा से अर्थात् दीक्षा के फल से ( श्रद्धाम्आप्नोति ) श्रद्धा को प्राप्त करता है, अर्थात् उसे दीक्षा आदि सत्कर्मों में श्रद्धा हो जाती है। ( श्रद्धया) श्रद्धा से ( सत्यम् ) सत्य (आप्यते) प्राप्त होता है।

मनुष्य जब कोई व्रत लेता है, तब पुरोहित या गुरु से उसकी दीक्षा लेता है । दीक्षा-यज्ञ में वह सत्पुरुषों तथा माताओं को भी निमन्त्रित करता है, जिससे वे भी जानें कि उसने यह व्रत लिया है और यदि वह व्रत से डिगने लगे, तो उसे सचेत कर दें। बहुतों के सामने व्रत की दीक्षा लेने में उसे व्रतपालन में सहायता मिलती है। दीक्षा लेने से दीक्षा ग्रहण करनेवाले को दक्षिणा प्राप्त होती है, अर्थात् व्रतग्रहण का फल या लाभ मिलने लगता है। जैसे किसी ने ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण किया, ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली, तो कुछ समय ब्रह्मचर्य के पालन से उसे उसका लाभ प्राप्त होने लगा। उसके चेहरे पर कान्ति आ गयी, शरीर में बल आ गया, मन शिवसङ्कल्पयुक्त हो गया, आत्मबल भी प्राप्त हुआ। यह उसे दीक्षा की दक्षिणा मिली, अर्थात् दीक्षा का फल प्राप्त हुआ। दक्षिणा से श्रद्धा प्राप्त होती है, अर्थात् यह विश्वास जम जाता है कि यह कार्य बहुत अच्छा है। यथा ब्रह्मचर्यपालन से दक्षिणी (लाभ-प्राप्ति) मिली, तो ब्रह्मचर्य के प्रति श्रद्धा जमी कि यह कार्य करना चाहिए। श्रद्धा से वह सत्य हृदयङ्गम हो जाता है। यथा ब्रह्मचर्य में श्रद्धा हुई, तो ब्रह्मचर्यरूप सत्य हृदय में घर कर गया। अब व्रतग्रहणकर्ता कभी ब्रह्मचर्य से विचलित नहीं होगा।

मन्त्रोक्त क्रम प्रत्येक व्रतग्रहण पर घटित हो सकता है। कोई प्रतिदिन प्राणायाम और योगासन करने का व्रत लेता है, इस व्रत की दीक्षा लेता है। प्रतिदिन व्रत पालन करने से उसे दक्षिणी प्राप्त होती है, अर्थात् इसका लाभ प्रतीत होने लगता है। लाभ प्रतीत होने से प्राणायाम और योगासन में श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा से प्राणायाम और योगासन रूप सत्य आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है। तब वह अन्यों को भी इसका लाभ बताने लगता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि में यह मन्त्र वानप्रस्थ आश्रम की दीक्षा के प्रमाणरूप में दिया है। उनके अनुसार जब मनष्य ब्रह्मचर्यादि तथा सत्यभाषणादि व्रत अर्थात् नियम धारण करता है, तब उस व्रत से दीक्षा को प्राप्त होता है। दीक्षा से दक्षिणा को अर्थात् सत्कारपूर्वक धनादि को प्राप्त होता है। उस सत्कार से श्रद्धा को अर्थात् सत्यधारण में प्रीति को प्राप्त होता है और श्रद्धा से सत्य विज्ञान या सत्य पदार्थ मनुष्य को प्राप्त होता है। इसलिए श्रद्धापूर्वक ब्रह्मचर्य और गृहाश्रम का अनुष्ठान करके वानप्रस्थ आश्रम अवश्य करना चाहिए।” वैसे प्रत्येक व्रतग्रहण या दीक्षा के लिए यह मन्त्र लागू होता है।

पाद-टिप्पणी

१. दक्षिणा=दक्षिणया। दक्षिणा–आ, पूर्वसवर्णदीर्घ ।

दीक्षा का फल-रामनाथ विद्यालंकार  

जीवित पितरों को श्राद्ध-रामनाथ विद्यालंकार

जीवित पितरों को श्राद्ध-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः। देवता पितरः । छन्दः निवृद् अष्टिः ।

पितृभ्यः स्वधायिभ्य: स्वधा नमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः । अक्षन्। पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृपन्त पितरः पितरः शुन्धध्वम्॥

-यजु० १९ । ३६

(स्वधायिभ्यः पितृभ्यः) अन्न-जल की इच्छा वाले पिताओं के लिए (स्वधा ) अन्न-जल हो, (नमः ) उनका नमस्कार आदि से आदर हो। (स्वधायिभ्यः पितामहेभ्यः ) अन्न-जल की इच्छावाले दादाओं के लिए (स्वधा ) अन्न जल हो, ( नमः ) उनको नमस्कार आदि से आदर हो। (स्वधायिभ्यः प्रपितामहेभ्यः) अन्न-जल की इच्छावाले परदादाओं के लिए (स्वधा ) अन्न-जल हो, (नमः ) नमस्कार आदि से आदर हो। (अक्षन् ) भोजन कर लिया है ( पितरः ) पितृजनों ने, (अमीमदन्त ) हमें आनन्दित कर लिया है। (पितरः ) पितृजनों ने, ( अतीतृपन्त ) हमें तृप्त कर दिया है। (पितरः ) पितृजनों ने। हे ( पितरः ) पितृजनो! आप हमें ( शुन्धध्वम् ) उपदेश देकर शुद्ध-करो।

परम्परानुसार मृतकश्राद्ध केवल पिता, पितामह और प्रपितामह के लिए ही किया जाता है, प्रप्रपितामह आदि के लिए नहीं । वेद में भी पिता, पितामह और प्रपितामह तक का ही नाम आता है, परन्तु वह मृतकश्राद्ध नहीं, जीवितों का श्राद्ध है। प्रतिवर्ष श्राद्ध के पखवाड़े में जिस तिथि को जिसका देहान्त हुआ होता है, उस दिन ब्राह्मणों को जिमाया जाता है। तथा उन्हें वस्त्र आदि भेंट किये जाते हैं। समझा यह जाता है।  कि हमारे पितरों को यह भोजन और ये वस्त्रादि पहुँच जाते हैं और इनसे वे तृप्त हो जाते हैं, अन्यथा वे भूखे और निर्वस्त्र रहें।।

‘स्वधा’ शब्द निघण्टु में अन्नवाचक और जलवाचक शब्दों में पठित है।’ मन्त्र कहता है कि अन्न-जल के इच्छुक पिताओं को अन्न-जल दो और नमस्कार आदि से उनका आदर करो। अन्न-जल के इच्छुक पितामहों को अन्न-जल दो और नमस्कार आदि से उनका आदर करो। अन्न-जल के इच्छुक प्रपितामहों को अन्न-जल दो और नमस्कार आदि से उन्हें आदर दो। किसी व्यक्ति के जीवनकाल में उसके अधिक से अधिक प्रपितामह ही जीवित रह सकते हैं। कल्पना कीजिए किसी व्यक्ति का विवाह २५ वर्ष की आयु में हुआ है। सामान्यतया २६ वर्ष की आयु में उसकी सन्तान हो जाएगी। जब २५ वर्ष की आयु में उसके पुत्र का विवाह होगा और उसके पौत्र या पौत्री उत्पन्न होंगे, तब उसकी आयु ५२ वर्ष की होगी, तब वह वानप्रस्थ हो जाएगा। पौत्र का २५ वर्ष की आयु में विवाह होकर जब उसकी सन्तान होगी, तब दादा लगभग ७८ वर्ष का होगा। प्रपौत्र का भी २५ वर्ष की आयु में विवाह होकर जब उसकी सन्तान होगी, तब परदादा की आयु १०५ वर्ष होगी। यदि किसी का विवाह २५ वर्ष से भी कम आयु में हो जाता है, तो प्रपौत्र का पुत्र अपने जीवनकाल में अपने शतवर्षीय प्रपितामह को देख सकेगा। इससे अधिक आयु सामान्यतः नहीं होती है। अतः प्रपितामह तक को ही अन्न-जल देने और नमस्कार आदि से आदर प्रदान करने को वेद कहता है। यदि मृतक श्राद्ध अभीष्ट होता, तो मृतक को अन्न-जल देना और नमस्कार आदि से आदर देना तो प्रपितामह से पूर्व की पीढ़ियों में भी चल सकता था, अतः प्रप्रपितामह आदि का नाम क्यों नहीं लिया गया? वस्तुतः पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र जीवित पितरों का अन्न-जल, नमस्कार आदि से सत्कार कर रहे हैं, अत: वे कहते हैं कि पितृजनों ने भोजन कर लिया  है और आशीर्वाद देकर हमें आनन्दित तथा तृप्त भी कर दिया है। अन्त में पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र उनसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमें उपदेश देकर शुद्ध-पवित्र कीजिए। इस प्रकार यह जीवितों का श्राद्ध चलता है।

यहाँ यह भी द्रष्टव्य है कि यदि पिता-पितामह वानप्रस्थ हो चुके होंगे और प्रपितामह भी वानप्रस्थ या संन्यासी होंगे, तो उन्हें भी कभी-कभी घर बुलाकर उनका सत्कार करना अभीष्ट है। अतएव महर्षि दयानन्द ने अपने भाष्य में इस मन्त्र के भावार्थ में लिखा है-”हे पुत्र, शिष्य, पुत्रवधू आदि जनो ! तुम उत्तम अन्नादि पदार्थों से पिता आदि वृद्धों का निरन्तर सत्कार किया करो तथा पितर लोग भी तुमको आनन्दित करें। जैसे पितादि बाल्यावस्था में तुम्हारी सेवा करते हैं, वैसे ही तुम लोग वृद्धावस्था में उनकी सेवा यथावत् किया करो।”

पाद-टिप्पणी

१. स्वधा=जल, निघं० १.१२, अन्न २.७।

जीवित पितरों को श्राद्ध-रामनाथ विद्यालंकार 

एक देवी -रामनाथ विद्यालंकार

एक देवी -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वैखानसः । देवता वैश्वदेवी वाक्  |छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

वैश्वदेवी पुनती देव्यागाद्यस्यामिमा बढ्यस्तुन्वो वीतपृष्ठाः। तया मर्दन्तः समादेषु यस्याम् पर्तयो रयीणाम् ॥

-यजु० १९ । ४४ |

(वैश्वदेवी ) सब विद्वानों का हित करनेवाली’, ( पुनती ) पवित्रता देती हुई (देवी) ज्ञान से प्रकाशित वेदवाणी (आगात् ) आयी है, ( यस्याम् ) जिसके अन्दर (इमाःबढ्यःतन्व:२) ये बहुत-सी विस्तीर्ण विद्याएँ (वीतपृष्ठाः३) व्याप्त पृष्ठों वाली हैं। (तया) उससे (सधमादेषु ) यज्ञों में ( मदन्तः ) आनन्दित होते हुए (वयं) हम (रयीणांपतयः ) धनों के स्वामी (स्याम) हो जायें।

एक देवी आयी है। वह सब विद्वानों का हितसम्पादन करती है, अपवित्रों को पवित्र करती है। वह बहुत-सी विद्याएँ जानती है। उससे विद्याएँ सीख कर धनवान् हो जाओ। यह देवी है वेदवाणी। यास्काचार्य के अनुसार जो दान करता है, प्रकाशित होता है, प्रकाशित करता है, उसे देव कहते हैं। देवी स्त्रीलिङ्ग है। वेदवाणी ईश्वरभक्ति, सत्य, अहिंसा आदि का दान करने, स्वयं ज्ञान से प्रकाशित होने तथा अन्यों को ज्ञान से प्रकाशित करने के कारण ‘देवी’ है। जो वेदवाणी को सीख कर विद्वान् बनते हैं, उन्हें कर्त्तव्याकर्तव्य का बोध करा कर यह उनका हित सम्पादन करती है और जो पापाचार से अपवित्र होते हैं उन्हें सदाचार में प्रवृत्त करके यह उन्हें पवित्रात्मा बनाती है। इस वेदवाणी के अन्दर बहुत-सी विस्तीर्ण विद्याएँ भरी हुई हैं। इसमें अध्यात्मविद्या, योगविद्या, प्राणविद्या और ब्रह्मविद्या भी है, अग्नि-विद्युत्-सूर्य की आग्नेय विद्या भी है, जलविद्या भी है, वायुविद्या भी है, भूगोलविद्या भी है, नक्षत्रविद्या भी है, गणितविद्या भी है, राजनीतिविद्या भी है, यन्त्रविद्या भी है, युद्धविद्या भी है, वर्णाश्रमविद्या भी है, विमानादियानविद्या भी है, सर्पविद्या भी है, हिरण्यविद्या भी है, आयुर्वेदविद्या भी है, धनुर्वेदविद्या भी है, गन्धर्वविद्या भी है, पुनर्जन्म एवं मुक्ति की विद्या भी है, सृष्टिविद्या भी है, कृषिविद्या एवं पशुपालनविद्या भी है। जिन विद्याओं में जिन्हें रुचि हो, उन्हें ध्येय बनाकर वेदवाणी का अध्ययन, पारायण और अनुसन्धान करें, आधुनिक विज्ञान से उसकी तुलना करें। यदि कोई नवीन तथ्य मिलता है, तो उसे आधुनिक विज्ञान से जोड़े। विभिन्न यज्ञ चलाएँ, उनमें वेदवाणी का प्रयोग करें। सङ्गठन करें, आगे बढ़े, उत्कर्ष प्राप्त करें, प्रत्येक क्षेत्र में विजयी हों, धन कमायें, दान करें, आनन्दित हों, आनन्दित करें।

हे वैश्वदेवी देवी! तू हमें पवित्र कर, धर्मात्मा बना, दीर्घायुष्य दे, सबसे बड़े सम्राट् परमेश्वर का सखा बना। उसके साथ हम हँसे, खेलें, दिव्यता का झूला झूलें, धन्य हों।

पाद-टिप्पणियाँ

१. विश्वेभ्यो देवेभ्यो विद्वद्भ्यो हिता वैश्वदेवी।

२. (तन्वा:) विस्तृतविद्या:-द० ।।

३. वीतानि व्याप्तानि पृष्ठानि यासु ताः ।।

४. सह माद्यन्ति यत्र स सधमादो यज्ञः । सधमादस्थयोश्छन्दसि पा०६.३.९६ से सह को सध आदेश।

एक देवी -रामनाथ विद्यालंकार 

दो मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार

दो मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वैखानसः । देवता पितरः । छन्दः स्वराड् आर्षी पङ्किः।

द्वे सृतीऽअंशृणवं पितृणामहं देवानामुत मर्त्यनाम्।। ताभ्यामिदं विश्वमेज़त्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च ॥

-यजु० १९४७

( पितृणां ) पितृजनों के, ( देवानां ) विद्वानों के ( उत ) और (मर्यानां ) मनुष्यों के (द्वेसृती ) दो मार्ग ( अशृणवम् ) मैंने सुने हैं। ( ताभ्यां ) उन दो मार्गों से ( एजद् विश्वं ) क्रियाशील यह सब जगत् ( समेति ) सञ्चार करता है ( यत् पितरं मातरं च अन्तरा) जो पिता और माता के अर्थात् द्यौ और पृथिवी के मध्य में है।

मनुष्य-जन्म प्राप्त करके संसार में जो जैसे कर्म करते हैं, उन्हें तदनुसार गति प्राप्त होती है। मनुष्यों की तीन श्रेणियाँ हैं । कुछ लोग ‘पितृजन’ हैं, जिनमें पिता, पितामह, प्रपितामह आते हैं। कुछ ‘देवजन’ हैं, जिनमें विद्वान् लोग आते हैं। कुछ ‘मर्त्य’ हैं, जिनमें साधारण मनुष्य आते हैं। दो मार्ग हैं, एक ‘पितृयाण’, दूसरा ‘देवयान’ । उक्त तीनों प्रकार के मनुष्य अपने जीवनयापन के लिए दोनों में से कोई भी मार्ग चुन सकते हैं । ‘पितृयाण’ है माता-पिता से जन्म प्राप्त करके संसार में विषयभोग का सुख प्राप्त करते हुए जीवन व्यतीत करना । जो इस मार्ग को चुनते हैं वे यदि पशु-पक्षी-कीट-पतङ्ग-सर्प आदि की योनि में जन्म न पाकर कर्मानुसार पुनः मनुष्यजन्म पाते हैं, तो पुनः विषयभोग के सुख में ही लिप्त रहते हैं। इस मार्ग को पितृजन भी चुन सकते हैं, विद्वज्जन भी चुन सकते हैं और साधारण मनुष्य भी चुन सकते हैं। वे पुनः-पुनः किसी योनि में जन्म पाते रहेंगे और जीवन-मरण के चक्र से कभी छूटेंगे नहीं। पुनः पुनः जन्म पाने में सुख और दुःख दोनों ही उन्हें प्राप्त होते हैं। कभी समृद्धि पाकर और अनुकूल वातावरण  पाकर सुखी होते हैं, तो कभी दरिद्रता से और प्रतिकूल वातावरण से, प्रेमी जनों के कष्ट, मृत्यु आदि से दुःखी भी होते हैं। सुख की अपेक्षा दु:ख ही उन्हें अधिक भोगना पड़ता है। कभी व्याधिजन्य दु:ख है, कभी अपने बहुमूल्य धन-धान्य की चोरी का दुख है, कभी डाकुओं द्वारा लूटे जाने का दु:ख है, कभी स्त्री-पुत्रादि के बिछोह का दु:ख है। वे सुख-साधन जुटाते हैं, किन्तु कभी-कभी सुख-साधन भी दु:ख के कारण बन जाते हैं। जैसे प्रासाद बनवाया सुख के लिए, किन्तु वर्षा या भूकम्प से छत कच्ची होकर गिर जाने से परिवार के लोग यमलोक चले गये, तो सुखसाधन भी दु:ख का कारण बन गया। इसी प्रकार सिंह-व्याघ्र आदि द्वारा हानि पहुँचाये जाने का भी दु:ख होता है। अनावृष्टि, अतिवृष्टि भूकम्प, नदी की बाढ़ आदि से आक्रान्त होकर भी मनुष्य दु:ख पाते हैं। विषयभोग से जो सुख प्राप्त होता है, वह भी रोग आदि हो जाने से दु:ख का कारण बन जाता है। इस प्रकार पितृयाण मार्ग का अवलम्बन करनेवाले लोग चाह सुख की ही करते हैं, किन्तु वस्तुतः उन्हें भोगने दु:ख ही अधिक पड़ते हैं।

दूसरा मार्ग है ‘देवयान’। इस मार्ग को भी पूर्वोक्त तीनों प्रकार के लोग चुन सकते हैं, वे विषयभोग की लालसा को छोड़कर सदाचारपूर्वक अपना धार्मिक जीवन व्यतीत करें, अन्य लोगों के साथ मैत्री का व्यवहार करें, व्रत-उपवास आदि करें, योगाभ्यास, ध्यान और साधना द्वारा परमेश्वर में मन को लगायें, निष्काम कर्म करें, अहिंसा-सत्य-अस्तेय आदि यमों का और शौच-सन्तोष-तप आदि नियमों का पालन करें, धारणा-ध्यान-समाधि में मन लगायें, तो वे जन्म-मरण के बन्धन से छूट कर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। अतः मन्त्र में कहा गया है कि जो भी पिता-माता अर्थात् द्यावापृथिवी के मध्य में स्थित सब जगत् है, वह इन्हीं मार्गों से गति करता है और उसका फल प्राप्त करता है।

अतः आओ, हम भी अपने विवेक का प्रयोग करें और इन मागों में से जो श्रेयस्कर है, उसी को चुन कर तदनुसारअपने जीवन को चलायें।

पाद-टिप्पणी

१. द्यौः पिता पृथिवी माता। ‘‘असौ वै पिता इयं माता” श० १२.८.१.२१

दो मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार