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सहस्त्रदाः विद्वान् -रामनाथ विद्यालंकार

सहस्त्रदाः विद्वान् -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः : विरूपः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी उष्णिक्।

अग्निर्योतिष ज्योतिष्मान् रुक्मो वर्चस वर्चस्वान्। सहस्रदाऽअसि सहस्त्राय त्वा

-यजु० १३।४०

हे विद्वन् ! ( अग्निः ) अग्रनायक आप ( ज्योतिषा) विद्या की ज्योति से ( ज्योतिष्मान् ) ज्योतिर्मय हैं। ( रुक्मः ) अध्यात्म रुचिवाले स्वर्णसम आप (वर्चसा ) ब्रह्मवर्चस से (वर्चस्वान्) वर्चस्वी हैं। आप ( सहस्रदाः असि) सहस्त्र विद्याओं और गुणों के दाता हैं, (सहस्राय त्वा ) सहस्त्र विद्याओं और गुणों की प्राप्ति के लिए आपको [वरण करतेहैं]।

किसी भी समाज या राष्ट्र में विद्वानों का विशेष महत्त्व होता है। जहाँ विद्वान् लोग बड़ी संख्या में हैं, वहाँ विद्या का प्रचार भी अधिक होता है। वह राष्ट्र ज्ञान-विज्ञान में भी अग्रणी होता है। मन्त्र विद्वान् को सम्बोधन कर रहा है। हे विद्वन् ! अग्रनायक आप विद्या की ज्योति से ज्योतिष्मान् हैं। जैसे अग्नि से भौतिक ज्वालाएँ निकलती हैं, वैसे ही आपके मुख से ज्ञानप्रकाश की ज्वालाएँ निकलती हैं। जैसे अग्नि अशुद्ध स्वर्ण को मलिनता को दग्ध करके स्वर्ण को निखार देता है। वैसे ही आप अज्ञान को दग्ध करके मनुष्य को विशुद्ध ज्ञानी बना देते हो। हे विद्वन् ! जहाँ विद्याओं का धन आपके पास है, वहाँ आपकी अध्यात्म रुचि और आपका योगाभ्यास आपको ब्रह्मवर्चस्वी तथा योगी बना रहा है। ब्रह्मवर्चस्वी और योगी आप महात्मा और ऋषि की पदवी प्राप्त कर रहे हो। हे वैदुष्य और अध्यात्म विद्या के धनी विद्वन् ! आप ‘सहस्रदा:’ हैं,  सहस्रों विद्याओं-उपविद्याओं और सहस्र गुणों के दाता हैं, सहस्र योगक्रियाओं के दाता हैं। सहस्त्र विद्याओं, उपविद्याओं, सहस्र गुणों और सहस्र योगविद्याओं की प्राप्ति के लिए मैंआपको गुरु के रूप में वरण करता हूँ। |

आप मुझे पहले अपरा विद्या का ज्ञान दीजिए, मुझे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष का पण्डित बनाइये। मझे दर्शनशास्त्र पढ़ाइये, इतिहास और धर्मशास्त्र का अध्यापन कराइये, सूर्यविज्ञान सिखाइये, भौतिक विज्ञान में निष्णात कीजिए। फिर अध्यात्म रुचिवाले और निखरे स्वर्ण के समान शुद्धबुद्धि तथा सदाचारी आप मुझे परा विद्या भी सिखाइये। परा वह विद्या है, जिससे अक्षर ब्रह्म का, अविनश्वर परमेश्वर का साक्षात्कार होता है। जो ज्ञान मुण्डक उपनिषद् में अङ्गिरस ऋषि ने शौनक को दिया है, वह ज्ञान आप मुझे दीजिए। परब्रह्म के कार्यों का विवरण सुनाइये। वह सृष्टि की उत्पत्ति, सृष्टि का धारण, सृष्टि का संहार कैसे करता है, यह सब समझाइये । प्रणव को धनुष बना कर, आत्मा को शर बना कर, ब्रह्म को लक्ष्य बना कर कैसे अप्रमत्त होकर लक्ष्यवेध किया जाता है, इसका क्रियात्मक अभ्यास कराइये। मुझे ध्यानयोग में निष्णात कीजिए।

हे गुरुवर ! आप अग्नि हैं, आप सुवर्ण हैं, मुझे भी अग्नि और सुवर्ण बना दीजिए। मैं आपकी शिष्यता स्वीकार करता हूँ। संसारचक्र में भ्रमते हुए मुझे ऊपर उठा कर ब्रह्मलोक में पहुँचा दीजिए। तब मैं आत्मविभोर होकर गाऊँगा, पृथिवी से उठकर मैं अन्तरिक्ष में आया, अन्तरिक्ष से द्युलोक में आया और द्युलोक से उठकर स्वर्लोक में पहुँच गया हूँ, जहाँ आनन्द ही आनन्द है, आनन्द ही आनन्द है।

पाद-टिप्पणी

१. रुक्मः, रुच दीप्तौ अभिप्रीतौ च। अध्यात्मरुचिः स्वर्णश्च । ‘रुक्म=हिरण्य,निघं० १.२’ ।

सहस्त्रदाः विद्वान् -रामनाथ विद्यालंकार 

नारी राष्ट्रपति-सदन में -रामनाथ विद्यालंकार

नारी राष्ट्रपति-सदन में -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः उशनाः । देवता मन्त्रोक्ताः । छन्दः निवृद् ब्राह्मी बृहती।

कुलायिनी घृतवती पुरन्धिः स्योने सीद सदने पृथिव्याः। भि त्वा रुद्रा वसवो गृणन्त्विमा ब्रह्म पीपिहि सौभगायश्विनाध्वर्यु सादयतामिह त्वा

-यजु० १४।२

हे (स्योने ) सुखकारिणी नारी! ( कुलायिनी ) प्रशस्त घरानेवाली, (घृतवती ) प्रशस्त दीप्ति’ वाली, ( पुरन्धिः ) बुद्धिमती तू ( पृथिव्याः सदने ) मातृभूमि के राष्ट्रपति-सदन में (सीद ) स्थित हो। ( रुद्राः ) वानप्रस्थ विद्वगण, ( वसवः ) गृहस्थ विद्वद्गण (त्वाअभिगृणन्तु) तुझे आशीर्वाद दें। तू ( सौभगाय) सौभाग्य के लिए (इमा ब्रह्म ) इन आशीर्वादों को ( पीपिहि) ग्रहण कर । ( अश्विना ) तेरे माता-पिता और ( अध्वर्यु) यज्ञ के संयोजक और ब्रह्मा ( त्वा) तुझे ( इह ) इस राष्ट्रपति-सदन में ( सादयताम् ) स्थित करें।

हे देवी! प्रजा ने तुम्हें मातृभूमि के राष्ट्रपति-पद पर सर्वसम्मति से चुना है। तुम ‘कुलायिनी’ हो, ‘कुलाय’ नीड को कहते हैं, तुम प्रशस्त घराने से उत्पन्न हो। तुम ‘घृतवती’ अर्थात् दीप्तिमयी हो। तुम ‘पुरन्धि’ अर्थात् बुद्धिमती हो। तुम ‘स्योना’ अर्थात् प्रजा को सुख देने में समर्थ हो। तुम मातृभूमि के इस राष्ट्रपति-सदन में स्थित होकर राष्ट्रपति के कर्तव्यों का पालन करो। रुद्र और वसु अर्थात् वानप्रस्थ और गृहस्थ विद्वज्जन तुम्हें आशीर्वाद दें, तुम्हारे सम्बन्ध में दो शब्द कहें, तुम्हें उद्बोधन दें, तुम्हारे उत्तरदायित्व को तुम्हें स्मरण करायें, तुम्हारा अभिनन्दन करें । तुम इन आशीर्वचनों को ग्रहण करो, यजुर्वेद- ज्योति हृदयङ्गम करो, धरोहर की तरह अपने मन में संजो कर रखोऔर समय समय पर स्मरण कर लिया करना कि जनता के प्रतिनिधियों ने किन कामनाओं और आशाओं के साथ तुम्हें इस पद पर प्रतिष्ठित किया है। इससे तुम्हें कर्तव्य-पालन के लिए बल मिलेगा और तुम्हारा सौभाग्य बढ़ेगा, तुम्हारी और राष्ट्र की प्रतिष्ठा को चार चाँद लगेंगे। यज्ञ के संयोजक और ब्रह्मा तुम्हें राष्ट्रपति-सदन में प्रतिष्ठित कर रहे हैं।

याद रखना तुम्हें इस पद पर लाने में उस गरीब जनता का भी योगदान है जो झोंपड़ियों में रहती है और उन पूँजीपतियों का भी हाथ है, जो वैभवसम्पन्न कोठियों में निवास करते हैं। आपको गरीबी-अमीरी का भेद मिटा कर विषमता दूर करनी है। इस यज्ञमण्डप में विद्वान् और निरक्षर सभी स्त्री पुरुष आपकी आरती उतार रहे हैं। आशा है आप सभी को साक्षर की श्रेणी में ला सकेंगी। हम चाहते हैं कि जब आपका कार्यकाल पूरा होने पर हम आपका विदाई– समारोह करें, तब गौरव के साथ कह सकें कि आपने जैसे देश को अपने हाथ में लिया था, उसे बहुत आगे बढ़ाकर पद छोड़ रही हैं। जनता आपकी है, आप जनता की हैं। राष्ट्रपति रहते हुए भी आप जनता के बीच आएँ, जनता के सुख-दु:ख को देखें, वे दु:ख दूर करें। आप सफल हों, आपका गौरव गान हो। हमारी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. घृतदीप्ति, घृ क्षरणदीप्त्योः ।

२. पुरन्धिः बहुधीः, निरु० ६.५१।।

३. पि गतौ अस्मात् शप: श्लुः, तुजादित्वाद् अभ्यासस्य दीर्घश्च-२० ।

नारी राष्ट्रपति-सदन में -रामनाथ विद्यालंकार 

बल और संग्राम का अधिपति -रामनाथ विद्यालंकार

बल और संग्राम का अधिपति -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी गायत्री।

अयमग्निः सहस्रिणो वार्जस्य शतिनस्पतिः। मूर्धा कूवी रयीणाम्

-यजु० १५ । २१ |

( अयम् ) यह (अग्निः ) अग्रनायक परमेश्वर (सह त्रिणः) सहस्र गुणों से युक्त (वाजस्य) बल का और ( शतिनः ) सौ सैन्य बलों से युक्त ( वाजस्य ) संग्राम का (पतिः) अधिपति है, ( रयीणां मूर्धा ) ऐश्वर्यों का मूर्धा है, ( कविः ) क्रान्तद्रष्टा है।

आओ, तुम्हें एक विशिष्ट अग्नि की गाथा सुनायें । यह अग्नि पार्थिव आग, अन्तरिक्षस्थ विद्युत् और द्युलोकस्थ सूर्याग्नि से बढ़कर है। ये भौतिक अग्नियाँ उसी विशिष्ट अग्नि की भा से भासभान होती हैं। वह ‘अग्नि’ है अग्रनायक, तेज:पुञ्ज, हृदयों में सत्य, न्याय और दया की बिजली चमकानेवाला परमेश्वराग्नि। वह ‘वाज’ का अधिपति है। ‘वाज’ बल को भी कहते हैं और संग्राम को भी । वह सहस्र गुणगणों से युक्त बल का अधिपति है। उसका बल बड़े से बड़े बलियों के बल से अधिक है। उसका बल बड़े से बड़े यन्त्रों के बल को मात करता है। उसका बल अकेला ही भूगोल-खगोल का सर्जन, धारण और संहरण करने में समर्थ है। उसमें केवल बल ही नहीं है, बल के साथ सहस्र गुणगण भी विद्यमान हैं। वह सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव, जगदादिकारण, अजन्मा, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, सर्वजगदुत्पादक, सनातन, सर्वमङ्गलमय, करुणाकर, परम सहायक, सर्वानन्दयुक्त,  सकलदुःखविनाशक, अविद्यान्धकारनिर्मूलक, विद्यार्कप्रकाशक, परमैश्वर्यनायक, साम्राज्यप्रसारक, पतितपावन, विश्वविनोदक, विश्वासविलासक, निरञ्जन, निर्विकार, निरीह, निरामय, निरुपद्रव, दीनदयाकर, दारिद्रयविनाशक, सुनीतिवर्धक, निर्बलपालक, ज्ञानप्रद, धर्म-सुशिक्षक, पुरुषार्थप्रापक, विश्ववन्द्य आदि है। इस प्रकार वह सहस्रगुणगणयुक्त बल के माहात्म्य से समन्वित है। ‘वाज’ का संग्राम अर्थ लें तो वह सैन्य बलों वाले संग्राम का अधिपति भी है। जिस संग्राम में शत सेनाएँ आ भिड़ती हैं, ऐसे संग्राम का नेतृत्व करनेवाला और विजयी होनेवाला तथा विजयी करनेवाला भी वह है। ये शतसंख्यात सेनाएँ अविद्या, दुराचार, दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, पारुष्य आदि हैं, जो काम-क्रोध-लोभ सैनिकों की हैं । इस अध्यात्म संग्राम रूपी ‘वाज’ का भी वह अधिपति है, नायक है। वह ऐश्वर्यों का मूर्धा भी है, सब भौतिक और आध्यात्मिक ऐश्वर्योंका वह मूर्धाभिषिक्त राजा है। वह ‘कवि’ भी है, वेदकाव्य का कवि और क्रान्तद्रष्टा है, दूरदर्शी है। |

आओ, हम सब मिलकर उस परमेशरूप अग्निदेव के गुण-कर्मों को स्मरण करते हुए उसका जयगान करें।

पादटिप्पणियाँ

१. वाज=बल, संग्राम, निघं० २.९, २.१७॥

२. द्रष्टव्य : भगवद्गीता, अध्याय १६ ।।

बल और संग्राम का अधिप ति-रामनाथ विद्यालंकार 

जननायक को उदबोधन -रामनाथ विद्यालंकार

जननायक को उदबोधन -रामनाथ विद्यालंकार   

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

अयमग्निर्वीरर्तमो वयोधाः संस्त्रियों द्योतमप्रंयुच्छन्। विभ्राज॑मानः सरिरस्य मध्य॒ऽउप प्र याहि दिव्यानि धाम ॥

-यजु० १५।५२

( अयम् अग्निः ) यह जननायक (वीरतमः ) सर्वाधिक वीर, ( वयोधाः ) दूसरों के जीवनों को धारण करनेवाला, ( सहस्त्रियः ) अकेला सहस्र के तुल्य (अप्रयुच्छन् ) प्रमाद न करता हुआ ( द्योतताम् ) चमके। हे वीर ! (सरिरस्य मध्ये ) जनसागर के बीच (विभ्राजमानः ) देदीप्यमान होता हुआ तू ( दिव्यानि धाम) दिव्य धामों अर्थात् यशों को ( उप प्र याहि ) प्राप्त कर।

जननायक को वेद में अग्नि कहा गया है, क्योंकि वह जनों का अग्रणी या अग्रनेता होता है और अग्नि के समान जाज्वल्यमान, तेजस्वी तथा ऊर्ध्वगामी होता है। हमारा जननायक ‘वीरतम’ है, सर्वाधिक वीर है। वह शरीर से भी वीर है, मन से भी वीर है, आत्मा से भी वीर है। वह वयोधाः’ है, असहायों के जीवनों को सहारा देनेवाला है। वह ‘सहस्रिय’ है, अकेला सहस्र के बराबर है। जब शत्रु से रण ठनता है। या समाज पर कोई अन्य विपदा आती है, तब वह सहस्र विरोधियों से लोहा ले सकता है। परन्तु इन महान् गुणों से युक्त भी जननायक यदि प्रमादी हो जाए, तो ये सब गुण व्यर्थ हो जाते हैं। अतः हम चाहते हैं कि हमारा जननायक कभी प्रमाद ने करता हुआ, सदा अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ द्युतिमान् बना रहे। प्रमाद कालिमा है, कर्तव्यपालन ज्योति है। प्रमाद की कालिमा से काला होकर मनुष्य अपनी द्युति खो बैठता है। |

हे जननायक! तुम ‘सलिल’ के मध्य खड़े हो । सलिल पानी को कहते हैं। जब अग्निस्तम्भ पानी के बीच में खड़ा होता है तब लहर-लहर में उसकी छवि दिखायी देती है। तुम भी पानी के बीच खड़े के समान हो, क्योंकि यह जने-सागर तुम्हारे चारों ओर हिलोरें ले रहा है। यह जन-सागर तुम्हारी मित्रभूत प्रजाओं का भी हो सकता है और शत्रु-जनों का भी। मित्रों के मध्य ज्योतिस्तम्भ के समान खड़े तुम जन-जन पर अपनी आभा बखेरो, जन-जन को अपनी ज्योति से द्योतित करो। शत्रुओं के मध्य ज्योतिस्तम्भ के समान खड़े हुए तुम उनके तेज की म्लान करो। हे जननायक! तुम अपने नेतृत्व द्वारा प्रजा का सङ्कटों से उद्धार कर दिव्य धामों को, अलौकिक यशों को प्राप्त करो। प्रजा तुम्हें पुकार रही है। आओ, स्वयं सङ्कट मोल लेकर प्रजा को सङ्कट से छुड़ाओ। राष्ट्र एक होकर तुम्हारा जयजयकार करेगा।

पाद-टिप्पणियाँ

१. सहस्रेण संमित: तुल्यः सहस्रियः। ‘सहस्रेण संमितौ घः’ पा०४.४.१३५, सहस्र शब्द से तुल्य अर्थ में घ=इय प्रत्यय।।

२. युछी प्रमादे-शतृ । न प्रयुच्छन्=अप्रयुच्छन्।

३. सरिर=सलिल= जल। निघं० १.१४। सलिल बहु-वाचक भी है,निघं० ३.१।।

४. दिव्यानि धाम-दिव्यानि धामानि । ‘शेश्छन्दसि बहुलम्’ पा० ६.१.७०से शि का लोप। धामानि त्रयाणि भवन्ति, स्थानानि नामानि जन्मानाति–निरु० ९.२२ ।।

जननायक को उदबोधन -रामनाथ विद्यालंकार   

उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार

उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते ससृजेथामयं च।अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत ॥

 -यजु० १५ । ५४

हे (अग्ने ) अग्रासन पर स्थित यजमान! तू (उद् बुध्यस्व ) उद्बुद्ध हो, ( प्रति जागृहि ) जाग जा । ( त्वम् अयं च ) तू और यह यज्ञाग्नि मिलकर (इष्टापूर्ते ) इष्ट और पूर्त को (संसृजेथाम् ) करो। ( अस्मिन् उत्तरस्मिन् सधस्थे अधि) इस उत्कृष्ट सहमण्डप में ( देवाः ) हे विद्वानो! तुम ( यजमानः च) और यजमान (सीदत ) बैठो।।

हे विद्वन् ! हे अग्रासन पर स्थित यजमान ! तू यज्ञ करने बैठा है, यज्ञकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित कर रहा है। जैसे अप्रकाशित दीपशलाकाओं की रगड़ से या उत्तरारणि और अधरारणि के संघर्षण से प्रकाशमान अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, वैसे ही तू भी अपने अन्दर विद्याज्योति को जगा। अपने आत्मा से प्रणव-जप का संघर्षण करके दिव्य प्रकाश को उत्पन्न कर । अविद्या की निद्रा को त्याग दे, जाग उठ। तू और यह यज्ञाग्नि मिलकर इष्ट तथा पूर्त का सम्पादन करें। इष्ट’ शब्द इच्छार्थक इषु धातु से बनता है और देवपूजा, सङ्गतिकरण तथा दान अर्थवाली यज धातु से भी निष्पन्न होता है। अतः * इष्ट’ का अर्थ होता है अभीष्ट सुख, विद्वानों का सत्कार, ईश्वर की आराधना, सन्तों का संग, सत्य विद्यादि का दान। अतः इष्ट सम्पादन करने का आशय होता है कि यजमान को उचित है कि वह यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि को प्रदीप्त करके अभीष्ट सुख प्राप्त करने का यत्न करे, अपने से बड़े विद्वानों का यजुर्वेद ज्योति सत्कार करे, ईश्वर की आराधना करे, सत्सङ्गति करे और परोपकार के लिए तन-मन-धन का दान करे। ‘पूर्त’ शब्द पालन-पूरणार्थक पृ धातु का रूप है। इसका अर्थ होता है, पूर्ण विद्याध्ययन, पूर्ण ब्रह्मचर्य, पूर्ण यौवन, पूर्ण साधन उपसाधन आदि। अतः पूर्त सम्पन्न करने का आशय है कि यजमान पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे, शक्ति से परिपूर्ण खरा यौवन प्राप्त करे, उन्नति के सब साधन-उपसाधनों को संगीत करके भौतिक तथा आत्मिक उत्थान का प्रयास करे। यज्ञ करने के लिए यजमान अकेला ही यज्ञमण्डप में नहीं बैठता है, उसके साथ उसका परिवार, साथी संग तथा अन्य यज्ञप्रेमी जन भी बैठते हैं। ‘सधस्थ’ का अर्थ है यज्ञमण्डप, जिसमें एक साथ बहुत से लोग सुविधापूर्वक बैठ सकें। सधस्थ का विशेषण मन्त्र में उत्तरस्मिन’ दिया है, जिससे सूचित होता है। कि यज्ञ मण्डप सुसज्जित, सज-धज से युक्त तथा सामूहिक यज्ञ के वातावरण से परिपूर्ण होना चाहिए। उस यज्ञमण्डप में विद्वज्जन, यजमान, यजमान-पत्नी, होता, उद्गाता, अध्वर्यु, ब्रह्मा एवं मन्त्रपाठी आदि सब लोग श्वेत वस्त्र धारण करके पवित्र भावना के साथ बैठे। सबके सुनियन्त्रित रूप में बैठ जाने के पश्चात् यज्ञ प्रारम्भ होता है। मन्त्रोच्चारण तथा सब विधि-विधान सम्पन्न होते हैं, पूर्णाहुति प्रदान की जाती है, यजमानों को आशीर्वाद दिया जाता है, ब्रह्मा का उपदेश होता है और यज्ञशेष रूप में यज्ञ का प्रसाद लेकर यज्ञभावना से भावित और संस्कृत होकर यज्ञप्रेमी जन अपने-अपने घरों को जाते हैं। अन्यत्र जाकर भी वे यज्ञ के वातावरण से चिरकाल तक प्रभावित रहते हैं। आइये, हम भी यज्ञ रचा कर उसका लाभ प्राप्त करें।

पाद-टिप्पणियाँ 

१. (प्रतिजागृहि) अविद्यानिद्रां त्यक्त्वा विद्यया चेत-द० ।

२. (इष्टापूर्ते) इष्टं सुखं विद्वत्सत्करणम् ईश्वराराधनं सत्सङ्गतिकरणं | सत्यविद्यादिदानं पूर्ण बलं ब्रह्मचर्यं विद्यालङ्करणं पूर्ण यौवनं पूर्णसाधनोपसाधनं च-द० ।।

३. सह तिष्ठन्ति जना यत्र स सधस्थ: । सह-स्था, सह को सध आदेश ।

उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार 

विदुषी शिक्षामन्त्री -रामनाथ विद्यालंकार

विदुषी शिक्षामन्त्री -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी। देवता विदुषी । छन्दः ब्राह्मी बृहती।

परमेष्ठी त्वा सादयतु दिवस्पृष्ठे ज्योतिष्मतीम्। विश्वस्मै प्राणायापनार्य व्यनाय विश्वं ज्योतिर्यच्छ। सूर्यस्तेधिपतिस्तया देवतयाऽङ्गिस्वद् ध्रुवा सीद॥

-यजु० १५।५८

हे विदुषी ! ( त्वा ) तुझे ( परमेष्ठी ) प्रधानमन्त्री ( सादयतु ) प्रतिष्ठित करे ( दिवस्पृष्ठे ) ज्ञानप्रकाश के पृष्ठ शिक्षामन्त्री पद पर, ( ज्योतिष्मतीम् ) तुझ ज्योतिष्मती को, विद्याज्योति से जगमगानेवाली को, (विश्वस्मै ) सबके लिए ( प्राणाय ) प्राणार्थ, (अपानाय ) अपानार्थ, (व्यानाय ) व्यानार्थ । तू (विश्वं ज्योतिः ) समस्त विद्याज्योति को ( यच्छ) नियन्त्रित कर। ( सूर्यः ते अधिपतिः) सूर्य तेरा आदर्श है। ( तयादेवतया) उस देवता से ( अङ्गिरस्वद् ) प्राणवती होकर तू ( धुवा ) अपने पद पर स्थिर होकर (सीद) बैठ।

चुनाव में जो दल बहुमत से विजयी हुआ है, उसने अपने प्रधानमन्त्री का चयन कर लिया है। प्रधानमन्त्री अब अपने मन्त्रिमण्डल का गठन कर रहे हैं। शिक्षामन्त्री पद के लिए सबकी दृष्टि एक विदुषी देवी पर लगी हुई है। उसने शिक्षा की आराधना की है, ज्ञान की ज्योति अपने अन्दर जलायी है। दूसरों के अन्दर भी वे ज्ञान की ज्योति जलाना जानती हैं। वे वैदिक साहित्य और भारतीय संस्कृति की पुजारिन हैं। उस विद्या की सर्वोच्च उपाधि उनके पास है। वे शिक्षिका और प्राचार्या रह चुकी हैं। उनके महाविद्यालय की छात्राओं का परीक्षा परिणाम शतप्रतिशत सर्वोन्नत रह चुका है। प्रबन्ध में यजुर्वेद ज्योति भी उन्होंने कुशलता अर्जित की है। साहित्य-सर्जन में भी अग्रणी रही हैं। राष्ट्रपति-सम्मान तथा अन्य अनेकों पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। विदेश का भी अनुभव उनके पास है। सबकी इच्छा है कि शिक्षामन्त्री का पद उन्हें मिले । प्रधानमन्त्री के पास उनके चयन के लिए शिष्टमण्डल का प्रस्ताव पहुँच चुका है। जनता का प्रतिनिधि विदुषी को कह रहा है-”हे देवी! हम सबकी अभिलाषा है कि प्रधानमन्त्री आपको शिक्षामन्त्री के पद पर आसीन करें, क्योंकि आप * ज्योतिष्मती’ हैं । ज्ञान की ज्योति, अध्यापनकला की ज्योति, सप्रबन्ध की ज्योति आपके अन्दर जगमगा रही है। आपके द्वारा शिक्षाजगत् को प्राण प्राप्त होगा, राष्ट्र की प्रसुप्त शिक्षा जागरूक और सज्ञान हो उठेगी, देश में प्रत्येक जनपद में छात्रों और छात्राओं के विशिष्ट विद्याओं के विश्वविद्यालय और महाविद्यालय स्थापित होंगे। शिल्पकला, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कृषि, गृहविज्ञान आदि सभी विद्याओं को प्रोत्साहन मिलेगा। शिक्षाजगत् को ‘प्राण’ के साथ ‘अपान’ और ‘व्यान’ की भी आवश्यकता है। शिक्षा में जो दोष आ गये हैं, उनका निर्गमन ‘अपान’ द्वारा होगा। शिक्षा का व्यापक प्रसारे ‘व्यान’ द्वारा होगा। आप शिक्षामन्त्री के पद पर आसीन होकर सकल ज्ञान विज्ञान की शिक्षा को नियन्त्रित करें। प्राचीन भारतीय शिक्षाविदों के अनुभव से लाभ उठायें। विदेशी शिक्षाविदों ने जो शिक्षासूत्र दिये हैं, उन पर भी विचार करें कि वे कहाँ तक अपने देश में लागू हो सकते हैं । द्युलोक से प्रकाश के फब्बारे छोड़ता हुआ सूर्य आपको आदर्श है। जैसे वह विभिन्न लोकों के अन्धकार को मिटा कर प्रकाश का विस्तार करता है, वैसे ही आपको अज्ञान और अविद्या का अंधियारा हटा कर ज्ञान और विभिन्न विद्याओं के प्रकाश को प्रत्येक प्रदेश में फैलाना है । सूर्य से प्राणवती होकर आप शिक्षा का प्रसार करें। आपकी प्रजा में एक भी जन निरक्षर और अशिक्षित ने रहे। आप अपने पद पर स्थिर होकर बैठे और शिक्षा के लिए समर्पित हो  जाएँ।

तभी घोषणा होती है कि प्रधानमन्त्री ने अमुक विदुषी को शिक्षामन्त्री का पद सौंपा है। उस विदुषी के नाम के जयकारे । उठते हैं। न्यायाधीश उससे शिक्षा क्षेत्र में समर्पित रहने की तथा देश के प्रति सजग और सच्ची रहने की प्रतिज्ञा ग्रहण करवाते हैं। पुष्पमालाओं से उसका स्वागत होता है। शिक्षामन्त्री पद उस विदुषी से धन्य हो जाता है। विदुषी तुरन्त शिक्षा में क्रान्ति करने के लिए जुट जाती है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. परमे स्थाने तिष्ठतांति परमेष्ठी प्रधानमन्त्री।

२. प्राणो वै अङ्गिराः, तद्वती यथा स्यात् तथा।

विदुषी शिक्षामन्त्री -रामनाथ विद्यालंकार 

सब हष्टपुष्ट नीरोग रहे -रामनाथ विद्यालंकार

सब हष्टपुष्ट  नीरोग रहे -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः अथवा देवाः । देवता रुद्रः ।।छन्दः आर्षी जगती ।

इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्र भरामहे मृतीः। यथा शमसद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामेऽअस्मिन्ननातुरम् ॥

-यजु० १६ । ४८

( तवसे ) बल और वृद्धि देनेवाले, (कपर्दिने ) वायुरोग को दूर करनेवाले, (क्षयद्वीराय) वीरों को निवास देनेवाले (रुद्राय ) रोगनाशक वैद्य के लिए (इमाःमतीः) इन प्रशस्तियों तथा प्रज्ञाओं को (प्रभरामहे ) हम प्रकृष्टरूप से लाते हैं, ( यथा) जिससे ( द्विपदे चतुष्पदे) द्विपाद् मनुष्यों और चतुष्पात् पशुओं के लिए (शम् असत् ) सुख होवे। ( अस्मिन् ग्रामे ) इस ग्राम में ( विश्वं ) सब कोई ( पुष्टं) हृष्टपुष्ट और (अनातुरं) नीरोग ( असत् ) होवे।। |

वेद में रुद्र कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है-परमेश्वर, प्राण, सेनापति, आचार्य आदि। इसका एक अर्थ वैद्यराज भी है। वेद में रुद्र को ‘भिषजों में भिषक्तम’ कहा गया है। पीड़ादायक रोगों को दूर करने के कारण वैद्य को रुद्र कहते हैं। मन्त्र में रुद्र के तीन विशेषण दिये गये हैं। प्रथम ‘तवसे’ विशेषण गतिवृद्धिहिंसार्थक णिजन्त ‘तु’ धातु से असुन् प्रत्यय करने पर चतुर्थी विभक्ति प्रथम पुरुष का रूप है। वैद्य रोगशय्या पर पड़े। रोगी को चलने-फिरने योग्य करता है, उसकी वृद्धि-पुष्टि करता है, उसके रोग-कीटाणुओं को नष्ट करता है। निघण्टु में ‘तवस्’ शब्द बलवाचक है। वैद्य चिकित्सा-शक्ति से सम्पन्न होता है, निर्बल रोगी को बल देता है। दूसरा विशेषण ‘कपर्दी’ है। अधिकतर रोग वायुविकार से होते हैं। वायुरोग को निस्सारण करने के कारण वैद्य को ‘कपर्दी’ कहते हैं । कपर्द जटाजूट को भी कहते हैं, जटाजूट को धारण करने के कारण वैद्य ‘कपर्दी’ कहलाता है। जटाजूट धारण करने से उसके मस्तिष्क में विशेष शक्ति आती है, जिसका उपयोग वह मानसिक रोगों के उपचार में कर सकता है । कपर्द समुद्र से निकलनेवाले ‘कौड़ों को भी कहते हैं, उनका उपयोग भी चिकित्सा में होता है। तीसरा विशेषण ‘ क्षयद्वीर’ है, जिसका अर्थ है, वीरों को निवास देनेवाला । वीरों में प्रजा के वीर पुरुष और वीराङ्गनाएँ भी आ जाती हैं और सेना के वीर योद्धा भी। वैद्य प्रजा के वीर-वीराङ्गनाओं की तथा युद्ध में आहत योद्धाओं की चिकित्सा करके उन्हें जीवन प्रदान करता है। इन विशेषणों से युक्त वैद्यराज के प्रति हम प्रज्ञाओं (मतियों) को लाते हैं, अर्थात् उसे यथोचित प्रशिक्षण देते हैं, जिससे वह गम्भीर से गम्भीर रोगी की सफल चिकित्सा कर सके। वह द्विपाद् मनुष्य की भी चिकित्सा करे और गाय आदि पशुओं की भी, जिससे हमारे ग्राम या नगर में सभी हृष्टपुष्ट और नीरोग रहें। मति का अर्थ प्रशस्ति भी होता है, हम उक्त गुणों से युक्त वैद्यराज की प्रशस्तियाँ भी करते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. भिषक्तमं त्वा भिषजां शृणोमि । ऋ० २.३३.४

२. रुतः रोगान् द्रावयतीति रुद्रो भिषक् ।

३. निघं० २.९

४. पर्द कुत्सिते शब्दे, भ्वादिः। कं सुखं यथा स्यात् तथा पर्दयतिवायुदोष नि:सारयतीति कपर्दी ।।

५. कपर्दो जटाजूटो ऽस्यास्तीति कपर्दी।

६. कपर्दः ‘कौड़ा’ इति ख्यातः समुद्रजकोटाङ्गविशेषः । तद्वान् कपर्दी,चिकित्सायां तदुपयोगकर्ता इत्यर्थः ।।

७. क्षयन्तो निवसन्तो वीरा येन स क्षयद्वीरः, क्षि निवासगत्योः

सब हष्टपुष्ट  नीरोग रहे -रामनाथ विद्यालंकार 

पारिवारिक यज्ञ सत्सङ्ग -रामनाथ विद्यालंकार

पारिवारिक यज्ञ सत्सङ्ग -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः अप्रतिरथः । देवता अग्निः । छन्द निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

यस्य कुर्मो गृहे हुविस्तमग्ने वर्द्धय त्वम्। तस्मै देवाऽअधि ब्रुवन्न्यं च ब्रह्मणस्पतिः

-यजु० १७।५२

( यस्य गृहे) जिसके घर में ( हविः कुर्मः ) हम अग्निहोत्र की हवि देते हैं, ( तम् ) उसे (अग्ने) हे जगदीश्वर व यज्ञाग्नि! ( त्वं वर्धय ) आप बढ़ाओ, उन्नत करो। ( तस्मै ) उसके लिए ( देवाः अधिब्रुवन्) विद्वान् लोग उपदेश और आशीर्वाद दें, (अयंचब्रह्मणस्पतिः२ ) और यह वेदज्ञ संन्यासी भी [उसे उपदेश व आशीर्वाद दे] ।

हमने पारिवारिक यज्ञ-सत्सङ्ग की योजना बना कर उसे क्रियात्मक रूप दे दिया है। हमारे समाज के एक-सौ सदस्य हैं। प्रत्येक सदस्य के घर पर बारी-बारी से प्रतिदिन पारिवारिक सत्सङ्ग लगता है। सन्ध्या, अग्निहोत्र एवं ईश्वर- भक्ति के मधुर भजनों के उपरान्त किन्हीं विद्वान् का सारगर्भित उपदेश होता है। जिस परिवार में सत्सङ्ग का कार्यक्रम होता है, उसके गृहपति एवं घर के अन्य सदस्यों को अन्य परिवारों का अपने घर पर स्वागत करते हुए अपार हर्ष का अनुभव होता है, वे स्वयं को धन्य मानते हैं। बड़ा ही मधुर वातावरण होता है । पुरुष, माताएँ, बहनें, युवतियाँ जब भावविभोर होकर गाते हैं, ‘यज्ञरूप प्रभो हमारे भाव उज्ज्वल कीजिए’ तब अपूर्व समा बंध जाता है।

हे अग्नि! हे अग्रणी प्रभु ! हे तेजोमय जगदीश्वर ! हे यज्ञाग्नि! जिस गृहपति के घर में, जिसके परिवार में हम  सत्सङ्ग लगाते हैं, गोघृत एवं सुगन्धित हवन-सामग्री की यज्ञकुण्ड में हवि देते हैं, उसे तुम बढ़ाओ, स्वास्थ्य से बढ़ाओ, सुगन्ध से बढ़ाओ, दीर्घायुष्य से बढ़ाओ, तेजस्विती से बढ़ाओ, बल-वीर्य से बढ़ाओ, इन्द्रिय-सामर्थ्य से बढ़ाओ, मनोबल और आत्मबल से बढ़ाओ, विद्या से बढ़ाओ, सदाचार से बढ़ाओ, आनन्द से बढ़ाओ। केवल गृहपति को ही नहीं, उसके सारे परिवार को बढ़ाओ। प्रत्येक ‘स्वाहा’ की ध्वनि एवं आहुति के साथ ऊँचा उठाओ।

जिसके घर में हम पारिवारिक सत्सङ्ग लगाते हैं, उसे विद्वज्जन उपदेश दें, आशीर्वाद और आशीष दें। अपने आशीषों से उसके जीवन को सत्य, शिव, सुन्दर बना दें। उसके जीवन को अग्नि के समान पवित्र, ऊर्ध्वगामी एवं तेजोमय बना दें। उसके जीवन को अनुकरणीय एवं यशस्वी बना दें। आओ सब मिलकर आशीर्वाद दें ‘‘सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः”, “ओ३म् स्वस्ति, ओ३म् स्वस्ति, ओ३म् स्वस्ति।” सब यज्ञशेष का प्रसाद लेकर विदा हों, प्रभु का प्रसाद लेकर विदा हों, सत्सङ्गी परिवार पर अपना प्रेम बरसा कर विदा हों। ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

पादटिप्पणियाँ

१. वर्द्धया=वर्द्धय। छान्दस दीर्घ ।

२. ब्रह्मणः वेदस्य पति: रक्षक: विद्वान् संन्यासी।

उदग्राम और निग्राम -रामनाथ विद्यालंकार

उदग्राम और निग्राम -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विधृतिः। देवता इन्द्रः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

वाजस्य मा प्रसवऽउद्ग्राभेणोदंग्रभीत् अधा सपत्नानिन्द्रों में निग्राभेणार्ध२ ॥ऽअकः

-यजु० १७।६३

( वाजस्य प्रसवः ) बल, विज्ञान आदि के उद्भव ने ( भा) मुझे (उद्ग्राभेण ) उद्ग्राभ द्वारा, उत्साहवर्धन द्वारा (उदग्रभीत् ) ऊँचा उठा दिया है। (अध) और ( इन्द्रः ) इन्द्र ने ( मे सपत्नान्) मेरे आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को (निग्राभेण ) निरुत्साह एवं धिक्कार के द्वारा ( अधरान् अकः ) नीचा कर दिया है। |

हमारे आत्मा के पास दो हथियार हैं, एक उद्गाभ और दूसरा निग्राभ। उत् तथा नि पूर्वक ग्रहणार्थक ग्रह धातु से क्रमशः उद्गाह तथा निग्राह शब्द बनते हैं। वेद में ग्रह धातु के ह को भरे होकर उग्राभ और निग्राभ हो जाते हैं। उद्ग्राभ का अर्थ है उत्साहवर्धन, निग्राभ उससे उल्टा है अर्थात् निरुत्साहीकरण। उद्ग्राभ में विजयार्थ प्रेरित करना, बढ़ावा देना, साधुवाद देना, उद्बोधन देना, उत्साहित करना, नीचे गिरते को सहारा देकर ऊपर उठाना, आगे बढ़ाना आदि अर्थ समाविष्ट हैं। इसके विपरीत निग्राह में हतोत्साहित करना, धिक्कार देना, अपमानित करना, पराजित करना, नीचे धकेलना, नीचे पटकी देना, धक्का देकर निकालना आदि अर्थ आते हैं।

आज बड़े हर्ष का विषय है कि मेरा आत्मा सजग और कर्मठ होकर अपनी उद्ग्राभ और निग्राभ नामक दोनों शक्तियों का उपयोग करने लगा है। आत्मबल के उद्भव ने अपनी उद्ग्राभ नामक शक्ति से मेरी सात्त्विक वृत्तियों को जगा दिया है, मेरी महत्त्वाकांक्षा को मुखरित कर दिया है, मेरे अहिंसा सत्य अस्तेय-ब्रह्मचर्य अपरिग्रह आदि गुणों को चोटी पर चढ़ा दिया है, मेरी अभय, सत्त्वसंशुद्धि, आर्जव आदि विशेषताओं को बढ़ा दिया है, मेरे धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष नामक पुरुषार्थ चतुष्टय को बल दे दिया है, मुझ गिरते को सहारा देकर ऊपर उठा दिया है। साथ ही मेरे आत्मा ने अपनी निग्राह नामक दूसरी शक्ति का प्रयोग करके काम, क्रोध, लोभ आदि रिपुओं को गलहत्था दे दिया है, अविद्या, अधर्म, अनाचार, वैर, विरोध, कुसंगति, पशुता, अकर्मण्यता आदि को धिक्कृत कर दिया है, मेरी दुर्बलताओं को निहत कर दिया है, मेरी पापवृत्तियों को पराजित कर दिया है।

आज मैं विजयी बनकर, सिर ऊँचा करके खड़ा हुआ हूँ। मैं धरातल से ऊँचा उठकर अन्तरिक्ष में पहुँच गया हूँ, मेरी गणना शिखरारुढ़ लोगों में होने लगी है। सद्गुणों का सागर मेरे अन्दर उमड़ने लगा है। उच्च आकांक्षाएँ हिलोरें लेने लगी हैं। पाशविकता, दुर्मति, अहंकार, दैन्य आदि वृत्तियां पलायन कर गयी हैं। आन्तरिक और बाह्य शत्रु निष्कासित हो गये हैं। हे मेरे आत्मन्! मुझे ऐसा ही बनाये रखो, मुझे सबका शिरोमणि बना दो।

पादटिप्पणियाँ

१. अधा=अध। छान्दस दीर्घ ।

२. ग्रहोर्भश्छन्दसि । पा० ३.१.८४ पर वार्तिक

उदग्राम और निग्राम -रामनाथ विद्यालंकार 

आगे की दिशा में बढ़ता चल -रामनाथ विद्यालंकार

आगे की दिशा में बढ़ता चल -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विधृतिः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

प्राचीमनु प्रदिशं प्रेहि विद्वानुग्नेरग्ने पुरोऽअग्निर्भवेह। विश्वाऽआशा दीद्यान विभाह्यूर्जी नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे॥

-यजु० १७।६६

(अग्ने ) हे अग्रगामी मानव ! (विद्वान्) विद्वान् तू (प्राची प्रदिशम् अनु ) आगे बढ़ने की दिशा में (प्रेहि ) बढ़ता चल। (इह ) इस संसार में (अग्नेः पुरः अग्निः भव ) नायकों केभी आगे जानेवाला नायक बन। ( विश्वाः आशाः ) सब दिशाओं को ( दीद्यानः१ ) प्रकाशित करता हुआ (वि भाहि) विशेषरूप से चमक, यशस्वी हो। (नःद्विपदेचतुष्पदे ) हमारे द्विपाद् और चतुष्पाद् के लिए ( ऊ धेहि ) अन्न और बल प्रदान कर।।

हे मानव! क्या तू जहाँ खड़ा है, वहीं खड़ा रहेगा? देख, जो तुझसे पीछे थे, वे बहुत आगे जा चुके हैं। जो तेरे साथ खड़े थे, उन्होंने मंजिल पार कर ली है। जो भूमि पर खड़े थे, वे अन्तरिक्ष में पहुंच गये हैं। तुझे क्या आगे बढ़ने की और ऊपर उठने की साध नहीं हैं ? क्या दूसरों को आगे दौड़ लगाते देख कर तेरा हृदय उत्साहित नहीं होता? क्या दूसरों को ऊपर उठते देख कर तेरा हृदय तरंगित नहीं होता?

हे नर ! तू विद्वान् बन, शास्त्रों का वैदुष्य प्राप्त कर, अनुभवी लोगों के साथ मिल-जुल कर अनुभव प्राप्त कर। फिर वैदुष्य तथा अपने और दूसरों के अनुभव के आधार पर जो दिशा तुझे सही प्रतीत हो, उस दिशा में कदम बढ़ाता चल, खाई-खन्दकों को लांघता चल, आकाश में उड़ता चल, यजुर्वेद ज्योति आलसियों को पीछे छोड़ता चल, या उन्हें भी उत्साहित करके अपने साथ लेता चल। देख, मार्ग बहुत लम्बा है, मंजिल बहुत दूर है। थकने का नाम मत ले, विश्राम की बात मत कर। चलता चल, उछलता चल, उड़ता चल, लक्ष्य पर पहुँचकर ही दम ले।।

हे वीर! तू नायक बन, नायकों का भी नायक बन। जब तू आगे बढ़ जाएगा, उन्नत हो जाएगा, तब जन-साधारण तुझे स्वयं अपना नायक बनाने में गौरव अनुभव करेंगे। नायक लोग भी तुझे अपना नेता बनायेंगे। नेताओं का नेता बनकर तू अपने राष्ट्र की पताका विश्व के गगन में फहरा। हे जननायक! तू सब दिशाओं का अंधेरा दूर कर, सब दिशाओं को विद्या और धर्म के प्रकाश से प्रकाशित कर। सब दिशाओं के वासियों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की जगमगाहट से जगमग कर। हमारे द्विपात्, चतुष्पात् सबको अन्न दे, जीवन दे, बल दे, प्राण दे। तब तू स्वयं भी प्रकाशित होगा, तेरे यश की दीप्ति सर्वत्र प्रसृत होगी । तेरा अभिनन्दन होगा, तेरा जयगान होगा, तेरी आरती उतरेगी।

पादटिप्पणी

१. दीदयत=ज्वलति । निर्घ० १.१६

आगे की दिशा में बढ़ता चल -रामनाथ विद्यालंकार