All posts by rdhoot

Atharva Veda On Cow Urine

distilled-cow-urine
Atharva Veda On Cow Urine
Author – Subodh Kumar

AV6.57

 AV  6.57.1  इदमिद्‌ वा उ भेषजमिदं रुद्रस्य भेषजम्‌ । येनेषुमेकतज­नां शतशल्यामपब्रवत्‌   ॥अथर्व 6-57-1

To cure व्रण – wrana ie. All diseases the medicines made available by Rudra are indeed  the only cures. According to (Monier Williams wrana stands for wound, sore, ulcer, abscess, tumors, cancer, boil, scar, cicatrix, cracks etc.)

The cures are carried out by, sharp ended single arrow or multiple arrows of the medicine.

 

AV  6.57.2  जालाषेणाभि षिञ्चत जलाषेणोप सिञ्चत। जालाषमुग्रं भेषजं ते­न ­नो मृड जीवसे ॥अथर्व 6-57-2

The body parts affected by disease should be thoroughly washed with the mixture of Cow Urine and activated water. The nearest to the disease parts of the body should also be washed with mixture of Gomutra and activated water. This is the most potent remedy blessed by Rudra for giving healthy life to us for the treatment of these diseases.

हे परिचारको, (जालाषेण) जल से- गोमूत्र फे­नामिश्रित जल से (अभिषिञ्चत) व्रण को अच्छी तरहधोओ । (जालाषेण) उसी जलोषध से (उप सिंञ्चत) उस के समीपस्थ भाग को प्रक्षाल­न करो ।क्योंकि (जलाषम्‌ उग्र भेषजम्‌) गोमूत्र फे­न मिश्रित जल रोगि­निवृत्ति की उग्र दवाई है। हे रुद्ग(ते­न) उस औषधि से (जीवसे ­न मृड) जीव­न प्रदा­न कर­ने के लिए हम पर कृपा करो।अथर्ववेद संहिता , सनातन-भाष्ये­नोपेतः, माधवपुस्तकालयः ।

AV  6.57.3  शं च ­नो मयश्च ­नो मा च ­नः कि च­नाममत्‌ । क्षमा रपो विश्वं ­नोअस्तुभेषजं सर्वं ­नो अस्तु भेषजम्‌ ॥ अथर्व 6-57-3

Let there be  health for us, peace for us, pleasure for us, let nothing cause injury and harm to us, let all diseases be banished, let all the objects in this world be promoters of our health,

हे देव हमें आरोग्य और सुख मिले। हमारी  प्रजा पशु आदि कोई भी रोग ग्रस्त ­न हो। पापकी शान्ति हो। स्थावर जंगम यह समस्त विश्व हमारे लिए औषधिरूप हों । सब कुछ औषधिरूप हो।

These Veda mantras describe the Urine of Cow to be the ultimate treatment against unicellular amoeba like organisms (Vedas call them creatures without mouths) . Use of the cow urine is suggested as a mixture with  vigorously stirred – foaming water- activated water, similar to the making of Homeopathic & Bio dynamic preparations. Modern techniques to treat water describe such water variously as ‘Activated water, Alkalized water, Structured water etc. Russian scientists are reported to have done considerable research work on such water. In addition to germicidal properties of such water, great improvements in Soil fertility by improving the microorganisms in the soil, and increased agricultural crop production when irrigated with such waters have been reported. In addition to study of germicidal actions of Ganga Jal in view of above references in Vedas, It is a matter for our agriculture scientists to also investigate whether irrigation with Ganga Jal gives larger crop productions.  

MAKAR SANKRANTI

kites and sun
शुभ उत्तरायणोदय-मकरसंक्रांति अथर्ववेद 3.10
लेखक – सुबोध कुमार 
MAKAR SANKRANTI

तिलवत् स्निग्धं मनोऽस्तु वाण्यां गुडवन्माधुर्यम्
तिलगुडलड्डुकवत् सम्बन्धेऽस्तु सुवृत्तत्त्वम् ।
अस्तु विचारे शुभसङ्क्रमणं मङ्गलाय यशसे
कल्याणी सङ्क्रान्तिरस्तु वः सदाहमाशम्से ॥
– अज्ञात

Meaning of the subhAShita:

May the mind be affectionate like sesame seeds, may there be sweetness in thy words as in jaggery.
May there be goodness in thy relations as is in the relation of sesame and

jaggery in a laddoo.

May there be in thy thoughts a concurrence towards auspicious glory.

I always wish that may the festival of sankraanti prove to be blessed and

auspicious for one and all.

Commentary:

The festival of harvest, sankraanti, is celebrated on January 14th generally.  (Occasionally, it falls on the 15th of Jan).  This is one of those festivals that follow the solar axis and hence the date doesn’t change much with every year, like with other festivals that follow the lunar calendar.  It is the time when the axis of the Sun enters the zodiac sign Capricorn (makara).  Hence it is also referred to as ‘makara sankraanti‘. sankraanti literally means – proceeding well – samyak kraanti iti sankraanti.

A celebration of harvest and crop is unanimous with the Sun, he being the basic originator of the entire food chain!  Without Him, there would be no energy for the plant sources and without plant sources, there would be no energy transmission to the carnivores either.  The Sun being the sustenance for the very life on earth, is worshiped and thanked on this day.

Many people throw away old clothes and buy new ones, marking the beginning of good times.  Sharing til-gud (a mixture of sesame seeds and jaggery) is customary among many people who celebrate this festival.  The combination oftil-gud is not only tongue tickling, but very enticing as well.  The poet beautifully wishes that kind of enticement into the spoken words and relationships of everyone!  When there is harmony in mind thoughts, actions and words, then there is no stopping, the un-abound happiness one can attain in his very being.  What better can one wish for his near and dear ones!

May the Sun radiate Health, Happiness and Harmony into the lives of one and all.

रायस्पोषप्राप्ति सूक्त ( धन पशु प्राप्ति सूक्त) भाग -1

ऋषिः –अथर्वा, देवता- अष्टका (आठों प्रहर)  (मकर संक्रान्ति –उत्तरायणोदय)

अथर्व वेद 3.10

1.प्रथमा ह व्यु वास सा धेनुरभवद्‌ यमे !

   सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्‌ !!

सर्व प्रथम उषा ने अंधकार को दूर कर के इस संसार की व्यवस्था को स्वनियन्त्रित स्थायित्व के हेतु धेनु प्रदान की. जो हमारे   सब के  लिए दुग्ध के दोहन द्वारा उत्तरोत्तर उन्नति का साधन हो.

2.यां देवाः प्रतिनन्दन्ति रात्रिं धेनुमुपायतीम्‌!

  संवत्सरस्य या पत्नी सा नो अस्तु सुमङ्गली!!

संवत्सर की दक्षिणायण रूपि रात्रि और प्रतिदिन आने वाली रात्रि दोनों की देवता प्रशंसा करते हैं. प्रति दिन रात्रि को विश्राम के पश्चात जैसे धेनु हमारे लिए मंगल कारी होती है उसी प्रकार संवत्सर की दक्षिणायण रूपि रात्रि से प्रकृति मानो विश्राम के पश्चात जैसे परिवार के एक पत्नी  मंगल कारी होती है.

3.संवत्सरस्य प्रतिमां  यां त्वा रात्र्युपास्महे ! 

  सा न आयुष्मतीं प्रजां रायस्पोषेण सं सृज !!

हे रात्रि (दक्षिणायन को) संवत्सर का प्रतिनिधि मान कर हम तुम्हारी प्रशंसा करते हैं. प्रजा को वनस्पति,अन्न, पुत्र पौत्रादि से  चिरंजीवि बनाती हुई रायस्पोष –धन और पशुओं से समृद्धि का साधन बनती हो.

4.इयमेव सा या प्रथमा व्यौच्छदास्वितरासु चरति प्रविष्टा!

  महान्तो  अस्यां  महिमानो अन्तर्वधूर्जिगाय नवगज्जनित्री!!

इसी आठ प्रहर – प्रति दिन वाली उषा ने सर्व प्रथम सृष्टि में अंधकार  का नाश किया था. इन प्रति दिन वाली उषाओं में अनेक महत्वपूर्ण महिमाएं छुपी हैं. सूर्य की वधुः रूपि उषा सब जगत को प्रकाश प्रदान कर के  सर्वोत्कृष्ट रूप  उत्पन्न करती है.

5.वानस्पत्या ग्रावाणो घोषमक्रत हविष्कृण्वन्तः परिवत्सरीणम्‌ !

     एकाष्टके सुप्रजसः सुवीरा वयं स्याम पतयो रयीणाम्‌ !!

प्रकृति के वर्ष प्रति वर्ष होने वाले संवत्सरीय यज्ञ में उर्वरक मृदा द्वारा वनस्पति उत्पन्न हो कर आनंद घोष करते हैं. जिन के प्रतिदिन अनुग्रह से सुंदर वीर प्रजा पुत्र पौत्रादिक विविध समृद्धियों के स्वामी बनें.

6.इडायास्पदं घृतवत्‌ सरीसृपं जातवेदः प्रति हव्या गृभाय !

 ये ग्राम्याः पशवो विश्वरूपास्तेषां सप्तानां मयि रन्तिरस्तु !!

गाय का पैर घृत समान है.-जहां पड जाय घी ही घी है.

हे अग्निदेव इस घृत को हवि के लिए ग्रहण करो.  यज्ञ के  फल स्वरूप हमारे लिए जनोपयोगी सातों पशु ( गौ, अश्व, बकरी, खच्चर,गधा, ऊंट और भेड) आवश्यकतानुसार हमारी समृद्धि के साधन उपलब्ध  हों

7.आ मा पुष्टे च पोषे च रात्रि देवानां सुमतौ स्याम्‌ !

    पूर्णा दर्वे परा पत सुपूर्णा पुनरा पत !

    सर्वान्यज्ञान्त्संभुञ्जतीष्मूर्जं न आ भर !!

रात्रि जैसे अंधकार के समय में भी हमें देवताओं के उत्तम ज्ञान की (यज्ञ करने में श्रद्धा की) सुमति बनी रहे. जो हमारे लिए पुष्टि कारक पोषण के साधन दे. यज्ञ में हमारी पूरी भरी हुइ आहुतियां यज्ञ को पूर्ण कर के परिणाम स्वरूप  हमारे पास अन्न, ऊर्जा और समृद्धि ला कर दें.

8. आयमगन्त्संवत्सर: पतिरेकाष्टके तव !

    सा न आयुष्मती प्रजां रायस्पोषेण सं सृज !!

दक्षिणायन रूपि रात्रि पत्नी का उत्तरायण रूपि संवत्सर पति आ गया है. आठ प्रहर की रात्रि पत्नी का  उषा काल में सूर्योदय से पति के रूप दिवस भी में आ गया है, इन दोनों के द्वारा प्रजा, पुत्र पौत्र इत्यादि  को रायस्पोषण प्राप्त हो.

9.ऋतून्‌ यज ऋतुपतीनार्तवानुत हायनान्‌ !

  समाः संवत्सरान्मासान्भूतस्य  पतये यजे !!

महीने, ऋतु, ऋतुसम्बंधी तथा वार्षिक ,अर्ध मासों, संवत्सरों के अनुकूल हम यज्ञादि कर्म करते रहें.

10. ऋतुभ्यष्ट्वार्त्वेभ्यो माभ्द्यः संवत्सरेभ्यः !

    धात्रे विधात्रे समृधे भूतस्य पतये यजे !!

महीने, ऋतु, वर्ष इत्यादि सब के लिए हमारे यज्ञों के परिणाम स्वरूप , धाता, विधाता हमें सम्पूर्ण समृद्धि प्रदान करें.

11. इडया जुह्वतो वयं सं विशेमोप गोमतः !

    गृहानलुभ्यतो वयं सं विशेमोप गोमतः !!

गोदुग्ध से निर्मित , गोघृत से यज्ञ करते हुवे हम लोग समृद्धि पूर्वक गोशालाओं और अपने गृहों  में लोभ रहित हो कर निवास करें.

12. एकाष्टका तपसा तप्यमाना जजान गर्भं महिमानमिन्द्रम्‌ !

   तेन देवा व्यसहन्त शत्रुन्‌ हन्ता दस्यूनामभवच्छचीपतिः !!

आठों प्रहर, सब दिन और पूरे वर्ष हम जो तप करते  हैं उस के गर्भ से परिणामस्वरूप हम  इन्द्र स्वरूप आचरण द्वारा हम दस्युओं शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें.

13. इन्द्रपुत्रे सोमपुत्रे दुहितासि प्रजापतेः!

    कामनास्माकं पूरय प्रति गृह्णाहि नो हविः !!

हे यज्ञाग्नि इंद्र जैसे पुत्रोंवाली, सोम जैसे अंतःकरण वाले पुत्रों को उत्पन्न करने वाली तुम प्रजापति की पुत्री हो. हमारी हवि स्वीकार करो. हमारी मनोकामनाएं पूर्ण हों.

लड़के लड़कियों की सम्मिलित शिक्षा

co edu1

लड़के लड़कियों की सम्मिलित शिक्षा

                                  वैदिक आदर्श यह है की लड़के और लड़कियों की शिक्षा एक जगह न होकर पृथक पृथक होनी चाइये इसी में समाज का और देश का हित है और तब ही उत्तम सदाचारी नागरिक पैदा किये जा सकते है परन्तु पश्चिमी सभ्यता के दीवाने लड़के और लड़कियों की एक साथ शिक्षा को उच्च संस्कृति का चिन्ह समझते हुए उसे उन्नत और उपयोगी समझते है और पुराने सिद्धांतों को गली सडी और बेहूदा पागलो की बातें कह कर उनकी मखौल उड़ाते है | इस बात की पुष्टि में यह लोग यूरोप और अमेरिका की दलीले पेश करते है परन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि उन देशो कि अवस्थाये और आदर्श इस देश की अवस्थाओ और आदर्शो से सर्वथा भिन्न है और भिन्न-भिन्न अवस्थाओ उअर परिस्तिथियों और आदर्शो में समान व्यवस्थाए व्यावहारिक और उपयोगी हो यह संभव नहीं हो सकता | समाज का जो आदर्श पश्चिम में है उससे स्वयं वे देश भी अब ऊब गए है और उसे सुधारने के यत्न और सुख शांति की खोज करने लगे है | परन्तु हमारे ये दीवाने अभी तक इन परिवर्तनों को देखते और सुनते हुए पश्चिमो आदर्शो के भयंकर परिणामों और समाज की दूषित अवस्था को देखते हुए भी उन्ही का दम भरते और उन्ही की नक़ल करने में गौरव अनुभव करते है | दुःख तो उस समय होता है कि जब पौर्वात्य संस्कृति का पक्षपाती आर्य समाज भी इस रोग में ग्रसित होता चला जा रहा है और ऋषि दयानंद कि शिक्षा और वैदिक सिद्धांतों कि अवहेलना करता हुआ अपने गौरव को धक्का पहुँचा रहा है | हम इन लड़कियों के अभिभावकों से प्रार्थना करते है कि वे दूरदर्शिता और विवेक से काम ले और अपनी पुत्रियों को उस स्कूल से बुला ले अन्यथा वे शिर पकड़ कर रोयेंगे और अपने दुश्मन स्वयं बनेगे |

सम्मिलित शिक्षा के सम्बन्ध में हम एक प्रसिद्ध शिक्षा विशेषज्ञ के विचार पाठकों कि जानकारी के लिए यहाँ उद्भूत करते है | हमे आशा है कि पाठक इन्हें उपयोगी पायेंगे |

“ अनुभव बतलाता है कि यूरोप और अमेरिका कि नक़ल हमारे देश के लड़के और लड़किया को सम्मिलित शिक्षा के लिए कभी उपयोगी नहीं हो सकती | भारत में जहाँ जहाँ सम्मिलित कॉलेज है वहाँ वहाँ के परिणाम खराब निकल चुके है | दक्षिण के एक खास नगर में किसी विशेष कॉलेज के एक साथ पढ़ने वालो के कुत्सित फलो को हम सुना करते थे, बम्बई के मेडिकल कॉलेज में जहाँ पारसी लड़किया और हिंदू लड़के पढते है वहाँ पारसी लड़किया हिंदू लड़कों से शादी करने पर तय्यार सुनी जाती है | पारसी लोग ऐसी बात से बहोत घबराते है | वास्तव में इसका इलाज घबराना नहीं वरन यह है कि सम्मिलित शिक्षा न हो |

यूरोप और अमेरिका में जहाँ यह त्रुटि व्यापक थी वहाँ ईश्वर कि कृपा से अब जर्मनी के LAHELAND  नामक नगर में एक आदर्श शिक्षणालय अर्थात “ जर्मन कन्या गुरुकुल “ खुला है जिसमे केवल लड़किया ही पढ़ती है और पढाने वाली भी स्त्रिया ही है | सब प्रबंध स्त्रियों के हाथ में है | यूरोप और अमेरिका भर में इसकी चर्चा है |

शिवाजी-भारतवर्षीय सिकन्दर

King-Shivaji-Maharaj-Statue-on-Throne

शिवाजी-भारतवर्षीय सिकन्दर

लेखक- डा बालकृष्ण एम०ए०पी०यच०डी ( लंडन )

बहुत से पाठक इस लेख के शीर्षक को देखकर अशर्चार्यन्वित होंगे जैसा कि शिवाजी को भारत वर्षीया सिकंदर कहने की अतिशयोक्ति में यह कुछ कम नहीं सुनाई पड़ता | बहुत से लोग उसके विषय में कहते है कि वह डाकू लुटेरा, पहाड़ी चूहा, पहाड़ी बन्दर झूठा, विश्वासघाती व निर्दयी था जिसने मानविक व ईश्वर प्रदत नियमों को भंग किया | उसके शत्रुओ ने, जिसको उसने लुटा उसको शैतान का अवतार कहने तक में सकोच न किया | इतिहास ने इन निर्णयों ( दोषारोपणों ) को सिद्ध किया है परन्तु उसको एक महान व्यक्ति कि पदवी से विभूषित किया है

अद्वितिय सेनापति

निसंदेह वह संसार के महारथी सेनापतियो में से एक था- जैसे आरमी की सम्मति से सब समझ सकते है :-

व्यक्तिगत गुणों के विचार से संसार के महारथियों में जिनका कि अबतक कुछ प्रमाण है वह सब से श्रेष्ठ निकला | क्यों कि किसी भी सेनापति ने कभी भी सेना के अग्रमुख होकर उतनी लड़ाई तै नहीं कि जितनी उसने | उसने प्रतेयक आपति का चाहे वह आकस्मिक हो अथवा पूर्व परिचित, बड़े अमोघ साहस व तात्कालिक बुद्धिमानी से सामना किया | उसके सर्व श्रेष्ठ सेनापति ने उसकी महतवपूर्ण योग्यता को अंगीकर किया | एक सैनिक की हैसियत से वह हाथ में तलवार लिए हुए शेखी का रूप धारण किये हुए दिखता था |

अदम्य विजयी

हमारे इतिहास की पाठ्य-पुस्तक में शिवाजी के युद्ध की विशेषता नहीं दिखाई गयी है | अर्थात जैसे की कर्नाटक में | यह वह युद्ध था जो शिवाजी महाराज की संसार के प्रमुख विजयियो में स्थापना कराता है, मुग़ल सम्राट और औरंगजेब व बीजापुर के सेनापति जैसे दो शक्ति संपन्न जानी दुश्मनों के बिच व अस्थिर विश्वासी गोलकुंडा के राजा जैसे उभयपक्षी मित्र के होने पर भी शिवाजी ने विजय के उत्साह में रूढ़ी को छोडते हुए रण-दुदुंभी बजाई | उसने सयांदरी पर्वत से तन्ज्जोर तक जो दक्षिण का उपवन कहलाता है सफलता पूर्वक भ्रमण किया और फिर कारों मंडल होता हुआ मलवार से लौटा जैसा कि Kincaid कैनकैड में भली प्रकार समझाया हुआ है :-

“१८ मास के अंदर अंदर उसने प्राचीन राज्य की तरह अपने ही आधार पर ७०० मील लंबे राज्य को जित लिया | जब उसे कभी प्राणघातक आपत्ति प्राप्त होती तो वह उसे साधारण बात समझ कर पार कर जाता | एक विजय के के बाद दूसरी विजय प्राप्त हुई और एक शहर के बाद दूसरे शहर को उसने अपने आधीन किया | जब वह आगे बढता तो विजित प्रान्तों को अपने राज्य में मिलाता और जब वह रायगढ़ को लौटा, जैसा कि उसने अब किया, उसका राज्य समुद्र की एक सीमा से दूसरी सीमा तक सुरक्षितता से विस्तृत था जो दृढ़ किलो में सुसज्जित तथा स्वामी भक्त सेनाओ से रक्षित था |” [ Kincaid Vol I P 260 ]

यह उसकी विजय थी जो उस की प्रति वर्ष २० लाख होनस ( रुपयों की ) आमदनी और सकैडो किलों की प्राप्ति कराती थी | सारा कर्नाटक वज्राघात की तरह उसके लूट खसोट से सर्वनाश हो गया था |

Mr. H. Gary बम्बई के डिपुटी गवर्नर ने इंग्लैंड में ईस्ट इण्डिया कंपनी को एक पत्र लिखा जिस में उसने कर्नाटक के युद्ध का वर्णन दिखाया | यह पत्र हमको महानुभावी अंग्रेज महाशय की समकालिक सम्मति को प्रगट करता है | ३१ अक्तूबर १६७७ का पत्र एक अत्यावश्यक घटना को याद दिलाता है जिसने मुसलमान सेना के हृदयों को हिला दिया और उन्होंने भागने ही में रक्षा समझी |

“ शिवाजी ने इस साल उत्तर कर्नाटक में पूर्ण सफलता प्राप्त करके विजय वंश के दो घरानों को जो कि वंहा के गवर्नर थे, अपने अधिकार में कर लिया है जहां से कि उसने पर्याप्त धन भी प्राप्त किया है और भी छोटे-छोटे राजा जो कि उसके अधीन हो चुके है वह उनसे कर भी लेता है, और उनको धमकियां देता है जो कर देने से इनकार करते है मुसलमान लोग उसके आने की गलत फैमि को सुनकर अपने किले गडो को छोड़ रहे है इस प्रकार उसकी सेना पूर्ण फलीभूत हो रही है | संभवत: यह विश्वास किया जाता है की वह अपने राज्य को सूरत के सिमापर्वती देशो से कामोरिन तक बिना किसी रुकावट के बढ़ावेंगा, आप का एजेंट तथा काउन्सिल यह सलाह देते है की इनकी सेनाये सेंट जोर्ज की तरफ चक्कर लगा रही है और तुरंत ही हम लोगो पर उसका आक्रमण होनेवाला है लेकिन आशा करता हूँ कि परमात्मा दया कि दृष्टी हमारे राज्य के उप्पर रक्खेंगा जिसकी रक्षा के लिए हम परमात्मा से प्रार्थना करते है “ ( सूरत चिट्ठी ३१ अक्तूबर १६७७ लंडन को )

बम्बई २६|२६ सन १६७८ का पत्र इस से अधिक महत्व का है जब कि शिवाजी महाराज कि तुलना प्रसिद्ध रोम विजयी सीजर के साथ कि जाती है जिसने अपनी विजय का प्रसार फ्रांस, जर्मनी तथा ब्रिटेन तक किया | यह भी कहा जाता है कि शिवाजी महाराज सिकंदर से कम निपुण नहीं थे और वह अपने मनुष्यों को पक्षी करके संकेत करते थे | मिस्टर गैरी ने मरहाठो को “ पर वाला मनुष्य “ कहा है |

“ शिवाजी कि सीजर व सिकंदर के साथ तुलना “

शिवाजी महाराज ने महान साम्राज्य स्थापित करने कि प्रबल इच्छा से घोषित कोकण प्रान्त के मजबूत किले रैडीको अंतिम जून के दिनों के बाद त्यागा और अपने २००० हजार घोड़े सवार ४० हजार पैदल लेकर के कर्नाटक कि ओर चल दिए जहाँ कि विजयियो के दो बड़े किले जो कि चिन्दावर कहलाते थे ओर जहाँ बहोत से व्यापारिक भी थे | उसने इस प्रकार विजय की जिस प्रकार से सीजर ने स्पेन में उसने देखा ओर जीता ओर बहोत सा सोना, हिरा, मणि-माणिक आदि जवाहिरातो को लुटा ओर केरल प्रान्त को जीतकर बड़ी योग्यतानुसार शारारिक दशा को देखते हुए अपनी सेनाको बढाया ताकि उसकी भविष्य युद्ध की युक्तिया निर्विघ्नता पूर्वक चल सके | वर्तमान समय में में वह वंकाप्पुर में है, दो अन्य दृढ़ किले जो की उसने इतनी शीघ्रता से ले लिए | उसने ३ माह के अंदर ही मुगलों से ले लिया ओर जो उसने अपने उस समय के सेनापति राजा जैसिंह को दिए | विजापुर के राजा के विरुद्ध थे जो की दक्षिण के राजाओ की राजधानी थी, इस प्रकार वहाँ अधिकारी बन कर ये प्रतिज्ञा की कि जब तक दिल्ली ने पहुँच जाऊँगा अपनी तलवार को म्यान में न रखूँगा ओर औरंगजेब को इसी तलवार से वध करूँगा | मोरो पन्त जो कि उस के सेनापतियो में से एक है मुग़ल राज्य को खूब लुट रहा है ओर राज लोश के धन कि वृद्धि कि है |

शिवाजी-भारतवर्षीय हनीबाल

दूसरे पत्र में शिवाजी की तुलना ठीक Hani ball से की जो उस की अपूर्व नीति को दर्शाता है जिसे मरहाठो राज्य स्थापक ने अपने अंतिम दिनों में किया | उसने बीजापुर को मुगलों के विरुद्ध साहयता दी और मुग़ल राज्य के ऊपर आक्रमण कर के एक प्रकार से कौतुक किया | केवल उसकी साहयता ने ही शिवाजी को सर १६७८ में मुगलों के आक्रमण से बचाया |

मुग़ल सेना ८० हजार घोड़े सवार लेकर शिवाजी को जद से मिटाना चाहते थे | परंतु यह बात प्रसिद्ध है की शिवाजी दूसरा सरटोरियश है और हनीबाल से युद्ध कुशलता में किसी प्रकार कम नहीं है |इस समाचार के थोड़ी देर पश्च्यात सेना में यह खबर फैली की गोलकुंडा के राजा शिवाजी और दक्षिणियो ने मुग़ल के विरुद्ध राजद्रोह रचा है और दलितकू को दक्षिण से निकालने की तैयारी में है शिवाजी ने १००० घोड़े सवार लेकर उसके उप्पर आक्रमण किया | वाही एक ऐसा राजनीतिज्ञ था जिसने की दक्षिणियो व कुतबशाह को अपने विरुद्ध से रोका |

यह बात स्पष्ट है की शिवाजी महाराज संसार के महान सेनापतियो, वीर सिपापियो में से एक थे | अब भी उसे राजनीति, राज-तर्कशास्त्र और राज-प्रभावक गुणों में किसी ने नहीं पाया | छत्रपति शिवाजी केवल मरहटों राज्य के स्थापक ही नहीं थे बल्कि हिंदू राज्य के पुन्ह: स्थापक थे, स्वराज्य के राजछत्र के देने वाले आर्य सभ्यता के रक्षक थे और महराष्ट्र और हिंदू समाज के प्रवर्तक थे |वह उनके महान कार्यों के लिए सिकंदर, हनिबाल, सीजर बा नैपोलियन से तुलना के योग्य है | इस कारण हम शिवाजी महाराज को महान शिवाजी, भारतवर्षीय सिकंदर, भारतवर्षीय हनिबाल,भारतवर्षीय सीजर, व भारतवर्षीय नैपोलियन की पदवी देकर विभूषित करते है |

 

SWAMI VIVEKANANDA –PROPHET OF PATRIOTISM IS IT TRUE ?

Vivekanand 2
In order to have better understanding about Swami Vivekananda we have to think on the following issues also with unbiased mind:

  • What Swami Vivekananda wrote or said about the British rule in India?
  • Had he worked directly or indirectly to liberate India from the British rule?
  • Had he contributed or supported for national freedom to national congress existing & working during his time ?
  • Had he inspired any revolutionary Indians to fight for the national freedom?
  • Was he really upset for the political bondage of our nation?
  • During his foreign tours of Europe – America did he try to raise the issue of our national freedom?
  • Had he worked for other issues of national importance like cow-protection & national language (Hindi)?
  • Had he worked for the removal of superstitions from our nation?
  • Didn’t he believe his master Sri Ramkrishna Paramhansa as the greatest incarnation of Lord?
  • Doesn’t the account given in his biography of his visit of Kshir-Bhavaani temple show that he himself was superstitious?
For further reading, I quote below a chapter “PATRIOTISM AND SOCIAL REFORMS” from the English book “The Gospel of Swami Vivekanand” (edition: 1992, page: 22-24, Publisher: Sarvadeshik Arya Pratinidhi Sabha-N Delhi) written by great scholar Sri Swami Vidyananda Saraswati:

PATRIOTISM AND SOCIAL REFORMS

 

It is said that – “Ramakrishna and Vivekananda were the first awakeners of India’s national consciousness; they were India’s first nationalist leaders in the true sense of the term… The movement for India’s liberation started from Dakshineswar.” (Bio, 231)

But facts refute this tall claim. In Vivekananda’s own words – “Let no political significance ever be attached falsely to my writings or sayings. What nonsense!” (Bio, 232) He said this as early as September 1894. A year later he wrote – “I will have nothing to do with cowards or political nonsense. I do not believe in any politics. God and truth are the only politics in the world, everything else is trash.” (Bio, 232)

As a matter of fact, neither Vivekananda nor his Guru had any thing to do with India. Vedanta was their only obsession.

“First and last, he (Vivekananda) was the boy who had dedicated his life to Ramakrishna… The policy of the Ramakrishna Order has always been faithful to Vivekananda’s intention. In the early twenties, when India’s struggle with England had become intense and bitter, the Order was harshly criticized for refusing to allow its members to take part in Gandhi’s Non-Cooperation Movement.” (Teachings of Swami Vivekananda, xxxviii)

Vivekananda said – “It has ever been my conviction that we shall not be able to rise unless the Western countries come to our help. In India no appreciation of merit can be found, no financial support.” (Bio, 255)

He wrote in a letter to an Indian disciple – “What is the use of going back to India? India cannot further my ideas. This country (USA) takes kindly to my ideas.” (V, 77) In other letter he wrote – “You have remarked well; my ideas are going to work in the West better than in India… I have done more for India than India ever did for me.” (V, 92)

He did not like India because it could not give him what America could. He clearly wrote back – “Here in America I have all the comforts – food, clothing etc. Why then should I come back to a country of ungrateful people?” (Letters of Swami Vivekananda, p. 17)

He wrote it when he was in America, waiting for recognition in India. With a view to please the British Government he had given standing instructions to his associates not to forget to eulogize Queen Victoria while preparing any speech for him. (Letters of Swami Vivekananda, P. 385)

According to Dr. V.V. Majumdar, “Vivekananda received so much publicity in England for his glorifying the British government. This was a reward for his loyalty to the throne.” (History of Social and Political Ideas, P. 267)

“I do not bother about child-marriage, widow remarriage etc. I admit that child marriage makes the nation physically as well as morally strong.” (India Women, P. 34, 53)

“I also believe that child-marriage has helped the Hindus in maintaining the chastity of their women-folk.” (Gyana Yoga, P. 30)

“The Hindus can really promote their culture by grasping the basic ideal which developed the institution of child-marriage.” (Vivekananda in India, P. 430)

I do not know how Vivekananda, who always condemned social reformers (See Vivekanand in India, P. 126, 127, 153), could write – “But for Kabir, Nanak, Chaitanya and Arya Samaj, Muslims and Christians would have out-numbered Hindus in India.” (Modern India, 27)

According to Vivekananda, his source of inspiration, Ramakrishna “never recognized any sin or misery in the world, no evil to fight against.” (VII, 16)

In the words of Dr. Bhawanilal Bharatiya – “Ramakrishna was a self-cantered and emotional man. Social service, patriotism and social reforms had no place in his life. At times he would not hesitate to ridicule those who stood committed to help people in distress at the cost of their personal interests.”

Vivekananda was himself an idolater. He considered material worship to be the lowest stage, but, as has already been mentioned, he stood there into the last. But, though himself engaged in idol worship, he advised others to the contrary, saying – “He who is high and the low, the saint and the sinner, the god and the worm, Him worship, the visible, the knowable, the real, the omnipresent, break all other idols. In whom there is neither past life nor future birth, nor death nor going or coming, in whom we always have been and always will be one, Him worship, break all other idols.” (V, 136) “If you want to remain happy, throw away all your bells etc. into the Ganges and worship God in men. Opening and closing of gates and with that bathing, clothing and feeding of God is all humbug. God in the idol changing dress several times, while the living Thakurs outside be shivering in cold is mockery of worship.” (Patravali II, P. 199)

While Ramakrishna and Vivekananda fed themselves with the flesh of innocent creatures, they asked their followers to treat all beings as their own self! When in one of his lectures in Chicago Vivekananda gave a philosophical interpretation of image-worship, those in the audience ridiculed him, saying, “He is trying to mislead people in the West. No Hindu in his own country would be prepared to accept his interpretation.” (Vivekananda Charita, P. 193)

[“The Gospel of Swami Vivekanand”, edition: 1992, page: 22-24, Publisher: Sarvadeshik Arya Pratinidhi Sabha-N Delhi, by: Swami Vidyananda Saraswati]

 AUTHOR : BHAVESH MERJA

नवजीवन-उत्पादक वैदिक शिक्षाये

brahmacharya

नवजीवन-उत्पादक वैदिक शिक्षाये

लेखक – श्री डॉक्टर केशवदेव शास्त्री 

भारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति का प्रधान अंक ब्रह्मचर्य की शिक्षा था | ब्रह्मचर्य पर ही संस्कारो का आधार था | ब्रहमचर्य पर ही योग की ऋषि सिद्धियो का दारोमदार था | समय था जब विश्वास पूर्वक ऋषि महर्षि ब्रह्मज्ञान के जिज्ञासुओ को ब्रह्मचर्य के धारण करने और तदन्तर प्रश्नों के उत्तर मांगने का आदेश दिया करते थे | समय की निराली गति ने भारत वर्ष के निवासियों की वह दुर्दशा की कि जंहा नित्य प्रति लोग ब्रह्मचर्य के गीत गाते थे, वाही बाल विवाह का शिकार बन रहे है | सुश्रुत में बताया है कि यदि २५ वर्ष से न्यून आयु का पुरुष और १६ वर्ष से न्यून कि कन्या विवाह करेंगे तो प्रथम तो कुक्षि में ही गर्भ कि हानि होंगी | यदि बालक उत्पन्न हो भी जावे तो चिरकाल पर्यंत जीवेंगा नहीं और यदि जीता भी रहा तो दुर्बलेन्द्रिय होंगा |

पाठक गण ! विचारिये, आज हमारी क्या स्तिथि है ? क्या लाखो बालक बालिकाये शिशु जीवन धारण कर मर नहीं रहे और यदि जीते भी है तो करोडो नर नारी दुर्बलेन्द्रिय बन रोगों में ग्रसित दिखाई देते है | कितनी बार हम लोगो ने इन जातीय त्रुटियों पर आंसू बहाये है परन्तु निदान ही जब भूल युक्त हो तो लाभ कि आशा कैसे हो सकती है ?

वेद ने तो स्पष्ट कहा है कि :-

ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम |

अंडवान ब्रह्मचर्य्येणाश्वो घासम जिघिर्षति ||

गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकार केवल ब्रह्मचारी पुरुष और ब्रह्मचारिणी कन्या को ही प्राप्त है |

शाकभोजी बैल और घोड़े ब्रह्मचर्य कि शक्ति द्वारा बोझ को खींचते और विजय को प्राप्त करते है | जब पशु ब्रह्मचर्य कि महिमा से कितनी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति कर सकते है, इसका कोई परिमाण नहीं | वेद में तो दर्शाया है कि कोई राजा योग्य व्यक्ति बन उतमता से राज्य भी नहीं कर सकता जो पूर्ण ब्रह्मचारी न हो | यथा :-

ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति |

आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिछ्ते ||

ब्रह्मचर्य और तपस्या द्वारा राजा राज्य की विशेष रीति से रक्षा करता है और आचार्य ब्रह्मचर्य द्वारा ब्रह्मचारी तथा तपस्वी होना चाइये तभी उसमे रक्षक की क्षमता उत्पन्न हो सकती है |

जो महात्मा आचार्य बनना चाहे उसे प्रथम स्वयं ब्रह्मचारी बनना उचित है | ब्रह्मचर्य की वृति से वह मेधावी बन ब्रह्मज्ञान का उपदेश कर सकता है |

ब्रह्मचर्य का किसी समय इतना प्रचार था कि इस देश में आने वाले महापुरषों ने इस शिक्षा का प्रचार सर्वत्र भूगोल में कर दिया था | आर्यो का तो ब्रह्मचर्य में यहाँ तक विश्वास था कि प्रत्येक तपस्वी ब्रह्मचर्य को धारण करता और म्रृत्यु पर विजय पाने की कामना किया करता था |

अथर्ववेद के इसी अध्याय में वर्णित है कि-

इन्द्रो  तपसा देवा मृत्यु मुपाघत |

इन्द्रो ह  ब्रह्मचर्येण देवेभ्य: स्वराभरत ||

ब्रह्मचर्य और ताप के द्वारा देवो ने मृत्यु को नष्ट कर दिया | ब्रह्मचर्य द्वारा ही इन्द्र देवो के लिए सुख लाया है | वेद में एक सौ  वर्ष पर्यंत जीने का आदेश मिलता है | आत्मा सुखी तभी रहता है जब इन्द्रिय स्वस्थ हो जब सौ वर्ष पर्यंत वह सबल रहकर अपने अपने कर्त्तव्य का यथोचित पालन करे | क्यों कि जीवात्मा ब्रह्मचर्य द्वारा ही इन्द्रियों को सुखी बना सकता है | स्वस्थ स्त्री पुरुष ही आनंद मय जीवन का उपभोग कर सकते है |

इस प्रकार वेद में ब्रह्मचर्य कि महिमा पर अनेक वेद मंत्रो द्वारा उपदेश दिया गया है | ब्रह्मचर्य की अवधि २४, ३६, और ४८ वर्ष पुरषों के लिए और ३६, १८, और २४ वर्ष स्त्रियों के लिए बतलाया गया है |

४८ वर्ष का ब्रह्मचर्य उत्तम बताया गया है, २५ वर्ष का निकृष्ट परन्तु हम है की अपने बालक बालिकाओ को २४ और १६ वर्ष की आयु तक पहुचने ही नहीं देते कि उनके विवाहों कि चिंता करने लगते है | वेदानुसार तो वर कन्या को पारस्परिक स्वयम्वर रीति द्वारा विवाह कि आज्ञा है | आज पौराणिक संसकारो में फंसी हुई आर्य संतान वर और कन्या के अधिकार छीन माता-पिता को विवाह का अधिकार दिए बैठे है | अनपढ़ पठान ब्रह्मचर्य द्वारा हष्ट पुष्ट संतान पैदा कर सकते है परन्तु वेदों के मानने वाले आर्य दुर्बलेन्द्रिय बन अपने शरीरों को बोदा और निकम्मा बना रहे है | आवश्यकता है कि आर्य नर नारी वेद की ब्रह्मचर्य सम्बन्धी शिक्षा की और अधिक ध्यान दे और अपने अंदर विश्वास धारण करे की ब्रह्मचारी अमोघ वीर्य होता है | ऋतुगामी गृहस्थी कर संतान उत्पन्न कर सकते है | इस लिए ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी बन वह अपने शरीरों को सदृढ़, सबल और हष्ट पुष्ट रखे ताकि उनमे सभी शक्तियो  का प्रादुर्भाव हो और वह निरंतर स्वस्थ चित्त हो एक सौ वर्ष पर्यंत स्वाधीन और आनंदमय जीवन को धारण कर सखे |

Cows in Veda

GIR,Gujrat

1.    इह गाव: प्रजायध्वमिहाश्वा इह पूरुषा:।

इहो सहस्रदक्षिणोsपि पूषा नि षीदति ॥ अथर्व 20.127.12

हमारे यहां उत्तम गौएं पैदा हों, उत्तम ऊर्जा के साधन उपलब्ध हों . हमारे राष्ट्र में पौरुष सम्पन्न पुरुष पैदा हों. हमारे राष्ट्र में हज़ारों की संख्या में दानादि कर्म द्वारा समाज का पोषण करने वाले समृद्ध जन भी हों .

I pray that we are blessed with excellent cows to be born here. We should be blessed with excellent sources of energy.  We should be blessed with courageous, virile and brave men in our society. We should be blessed with thousands of philanthropists to share their wealth and knowledge with the needy among us.

2.    नेमा इन्द्र गावो रिषन्‌ मो आसां गोप रीरिषत्‌ ।

मासाममित्रयूर्जन इन्द्र मा स्तेन ईशत्‌ ।। अथर्व 20.127.13

हमारे इस उत्तम शासित  राष्ट्र में  गौओं की हिंसा  न हो. aaaगौओं की सेवा करने वालों का भी अहित न हो.  गौओं का अमित्र- अहित चाहने वाला भी गौओं का बुरा न कर पाए, गौओं के उत्पादनों की चोरी  करने वाले – मिलावट करने वाले भी न हों .

In our well governed nation, cows should never be harmed. Those who render good services to the cows should receive full encouragement and protection. Those that exploit the cows and produce adulterated milk and cow products should not be amongst us.

रक्षोहाग्नि वेदों से

RV10.87-AV 8.3- रक्षोहाग्नि

agnihotram

Author- Subodh Kumar

 

 पायुर्भारद्वाज:। रक्षोहाऽग्नि: । त्रिष्टुप्, 22-25 अनुष्टुप् ।

ऋषि:-पायुर्भारद्वाज: ‘पातीतिपायु:’ = शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करने वाला  पायु है. शक्ति से भरा होने पर ही यह शत्रुओं से रक्षा कर सकेगा, इसी से इसे ‘पायु: भारद्वाज’ नाम मिला।

This Sookt is about obtaining protection from agents that cause pain, disease and destruction of healthy life and community. It can be interpreted at different levels. Our enemies can be germs carrying diseases in the environments, and can be treated by Agnihotra. Enemies of society can also be criminals, thieves, saboteurs, black marketers, smugglers, adulterators, from which society has to be protected by joint actions of community and law enforcement by ruling forces.

Modern Science on importance of AgnihotraNegative Ion generation by Agnihotra

  Fire is Plasma & creates Negative Ions

The big difference between regular gas and plasma is that in a plasma a fair fraction of the atoms are ionized.  That is, the gas is so hot, and the atoms are slamming around so hard, that some of the electrons are given enough energy to (temporarily) escape their host atoms.  The most important effect of this is that a plasma gains some electrical properties that a non-ionized gas doesn’t have; it becomes conductive and it responds to electrical and magnetic fields.  In fact, this is a great test for whether or not something is a plasma.

For example, our Sun (or any star) is a miasma of incandescent plasma.  One way to see this is to notice that the solar flares that leap from its surface are directed along the Sun’s (generally twisted up and spotty) magnetic fields.

lax1

A solar flare as seen in the x-ray spectrum.  The material of the flare, being a plasma, is affected and directed by the Sun’s magnetic field.  Normally this brings it back into the surface (which is for the best).

We also see the conductance of plasma in “toys” like a Jacob’s Ladder.  Spark gaps have the weird property that the higher the current, the more ionized the air in the gap, and the lower the resistance (more plasma = more conductive).  There are even scary machines built using this principle.  Basically, in order for a material to be conductive there need to be charges in it that are free to move around.  In metals those charges are shared by atoms; electrons can move from one atom to the next.  But in a plasma the material itself is free charges.  Conductive almost by definition.

lax2

A Jacob’s ladder.  The electricity has an easier time flowing through the long thread of highly-conductive plasma than it does flowing through the tiny gap of poorly-conducting air.

As it happens, fire passes all these tests with flying colors.  Fire is a genuine plasma.  Maybe not the best plasma, or the most ionized plasma, but it does alright.

lax3

The free charges inside of the flame are pushed and pulled by the electric field between these plates, and as those charged particles move they drag the rest of the flame with them.

Even small and relatively cool fires, like candle flames, respond strongly to electric fields and are even pretty conductive.  There’s a beautiful video here that demonstrates this a lot better than this post does.

Negative ion production has many benefits. In general negative ion production produces air similar to the air outside after a thunder and rain storm. If you have experienced a thunderstorm then you have noticed the tension that builds up in the air before a storm as the positive ions in the air reach a peak. When the storm hits electrical charges are produced in the atmosphere and rain falls. The resultant air is oxygen rich and full of negative ions. The sensations of calm and clarity can be felt in the air after a storm. This is similar to the quality of the air produced in the home with negative ion production especially if combined with ozone production as ozone (03) is also produced in abundance after a thunderstorm. There are hundreds of scientific papers and studies on the positive effects on negative ions. The following lists a few of the findings.

  • Seasonal depression symptoms decreased for the group receiving high density treatment with negative ions.
  • Neg. ions, counteracted the effects of cigarette smoke, specifically the slowing down of the cilia (mucous and carcinogenic removing filaments) in the lungs.
  • After exposure of 15 min./ day for 25 days to male subjects. After 9 days work capacity increased 50% and by the 25 the day 87%.
  • 100s of patients treated for relief from hay fever and asthma. After 15 min. in front of a negative ionizer they felt so much better they didn’t want to leave. Relief lasted for about 2 hours after returning to unionized conditions.
  • Plants show and increased growth rate.
  • Increased in alertness in humans as well as reduced symptoms of migraines, asthma, palpitations, depression and irritability.
  • Over 5 year period treating 500 patients, negative ionization cured 45% of hyperthyroid cases.
  • Bacteria counts reduced. Escherichia, pseudomonas, klebsiella, staphylococci, streptococci and candida counts reduced by 50% within 6 hours and 70% within 24 hours of neg. ion exposure.
  • Aerosol sprayed bacteria cultures in air were virtually eliminated in 60 min. with high negative ion exposure.
  • Headaches in office air conditioned computer room reduced by 78%.
  • Hospital usage for burn victims. Sealed room with negative ion treatment for severe burn patients reduced pain to nil without the usage of morphine or narcotics in 85% of the cases. 57% of post surgical cases experienced significant pain reduction upon negative ion treatment.

 

1.रक्षोहणं वाजिनमा जिघर्मि मित्रं प्रथिष्ठमुप यामि शर्म ।
शिशानो अग्नि: क्रतुभि: समिध्द: स नो दिवा स रिष: धातु नक्तम् ।। 10.87.1

यज्ञाग्नि घृतादि हवि से बलशाली हो कर राक्षस- विनाशी रूप धारण करता है. समोधाओं से प्रचंड हो कर  दिन और रात्रि में (हर समय) हमें (दूषित पर्यावरण के) कष्ट से बचावे.

Homa strengthened by offerings of Ghee etc. destroys all negative elements unfriendly to our life. Homa fires on being fed by wood etc. gain sharpness to proved protection all time-day and night.

अयोदंष्ट्रो अर्चिषा यातुधानानुप स्पृश जातवेद: समिध्द: ।
आ जिह्वया मूरदेवान् रभस्व क्रव्यादो वृक्त्व्यपि धत्स्वासन् ।। 10.87.2

The offerings in the fire by its contact reduce the disease causing germs to ashes. This is as if the Agnihotra provides steel teeth in their jaws to chew away ‘flesh eaters’ and a tongue to digest the flesh eating enemies.

 हे सर्वज्ञ अग्ने! हमारी समिधा से प्रदीप्त हो कर अपनी लपटों जैसी डाढ़ों से मृत्यु तुल्य पीड़ा देने वाले  मांस भक्षी राक्षसों को चबा जा.

 

.(Following scientific information is thankfully acknowledged from Wikipedia)

Many different microorganisms can be in aerosol form in the atmosphere, including viruses, bacteria, fungi, yeasts and protozoan’s. In order to survive in the atmosphere, it is important that these microbes adapt to some of the harsh climatic characteristics of the exterior world, including temperature, gasses and humidity. Many of the microbes that are capable of surviving harsh conditions can readily form endosperms, which can withstand extreme conditions (Al-Dagal 336).

Details of well known airborne diseases causing germs are being given in the two tables here.

lax4

lax5

Germs’ life cycle in the environment/ atmosphere is depicted in the figure below:

 

The microbes undergo the emission process, in which they are emitted from surfaces such as water, soil or vegetation and become airborne and transported into the airstream. The red boxes indicate some of the harsh environmental conditions that the microbes must withstand while airborne. The microbes that are able to withstand and survive these environmental pressures are the more resistant varieties. The microbes make it into clouds, where they can begin the breakdown of organic compounds. Finally, the microbes are “rained” out of the clouds through wet deposition, and they begin colonization of their new location (Amato 2012).

lax6

Following is a digression to demonstrate how Agnihotra destroys various types of disease causing enemies in the atmosphere.

(Vedic tradition lays down a ten day regime of Havan in the maternity wards to bring about resistance and immunity to new born child and the mother both.

प्रातः सायं दोनो समय प्रसूतिका के कक्ष में अक्षत् – साबत चावल और सरसों के पीले बीजों से गो घृत से निम्न मंत्रों से अग्नि में न्यूनतम  दो आहुति देनी होती हैं ।

1.ओं शण्डामर्का उपवीरः शौडिकेय ऽउलूखलः ।

मलिम्लुचो द्रोणासश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा ।। इदं शण्डादिभ्यः इदन्न मम् . pa gr sookt.1.16.23

2. ओं आलिखन्ननिमिषः किंवदन्त उपश्रुतिः।

हर्यक्षः कुम्भीशत्रुः पात्रपाणिर्नृ मणिर्हन्त्रीमुखः सर्षपारुणश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा।। इदमालिखन्ननिमिषाय किंवदद्भ्यः उपश्रुतये हर्यक्षाय कुम्भीशत्रवे पात्र पाणये नृमणये हन्त्रीमुखाय सर्षपारुणाय च्यवनाय, इदन्नमम्.pa.gr.sookt. 1.16.23

 Roughly translated by a non medical science person these two mantras carry the following sense.

(शण्डामर्का –are names given to two demons. They have  killer habits and are  from  the family of bacilli such as  found in milk curds etc. being of organic origins– उपवीरः शौडिकेय  with abilities to cause physical pains discomfort to the ऽउलूखलः  the bacteria being very small in size  as if ground and mixed together in a pestle with mortar…

मलिम्लुचो  disease caused by contagion associated with lack of hygiene  द्रोणासश्च्यवनो objects entering with breath through nose (manifesting as colds and coughs in the initial stages), नश्यतादितः and causing debility to the body of this new born may get destroyed. इदं शण्डादिभ्यः इदन्न मम  This offering in the fire is for them and not for me.

2. आलिखन्ननिमिषः causing invisible scratches /coatings /injuries (insect bites)  किंवदन्त  inimical to children (those without teeth) उपश्रुति: said to be demons, हर्यक्षः depriving eyesight कुम्भीशत्रुः  enemies of both the eye cavities पात्रपाणिर्नृ  as if  seeking alms with both hands मणिर्हन्त्रीमुखः  as if  with mouths wide open to kill/destroy सर्षपारुणश्च्यवनो of different colors नश्यतादितः  may get destroyed and thrown away)

Agnihotra changes the temperaments

उभोभयाविन्नुप धेहि दंष्ट्रा हिंस: शिशानोऽवरं परं च ।
उतान्तरिक्षे परि याहि राजञ्जंभै: सं धेहयभि यातुधानान् ।। RV10.87.3, AV 8.3.3

The fire in Agnihotra –Homa has two rows of teeth. These are sharpened by strong intense fires of agnihotra, to march radiantly to reach far wide and high to crush the two enemies शिशानोऽवरं परं च desires and anger at non fulfilling of the desires from our temperament in life there. उतान्तरिक्षे परि याहि राजञ्जंभै: सं धेहयभि यातुधानान्- The agnihotra is also to establish on the horizon of our temperaments the  habit of constantly engaging in constructive activities that prevent negative self destructive /depression in our life.

यज्ञैरिषू: संनममानो अग्ने वाचा शल्याँ अशनिभिर्दिहान: ।
ताभिर्विध्य हृदये यातुधानान् प्रतीचो बाहून् प्रति भङ्ध्येषाम् ।। RV10.87.4, AV 8.3.6

The arrows and javelins of fire get directed and motivated by mantras recited loudly accompanying the Fires of Agnihotra.

अग्ने त्वचं यातुधानस्य भिन्धि हिंस्राशनिर्हरसा हन्त्वेनम् ।

प्र पर्वाणि जातवेदो शृणीहि क्रव्यात्क्रविष्णुर्वि चिनोतु वृक्णम् ।। RV10.87.5,AV8.3.4

Oh fire of Agnihotra percolate in to the skin of sufferers from skin disease. Select all the germs that eat in to the flesh and destroy every one of them.

हे यज्ञाग्नि रोगी की त्वचा का भेदन करो , मांस खाने वाले कृमियों को लक्षित कर के प्रत्येक को नष्ट कर दो.

यत्रेदानीं पश्यसि जातवेदस्तिष्ठन्तमग्र उत वा चरन्तम् ।
यद्वान्तरिक्षे पथिभि: पतन्तं तमस्ता विध्य शर्वा शिशानो ।। RV10.87.6,AV8.3.5

Agnihotra flames (and gases) travel far and wide in to the atmosphere and wherever in the environments they see a disease carrying organism they direct their arrows to destroy them.

हे यज्ञाग्नि जहां कहीं भी तुम रोगाणुओं को बैठे हुए, चलते फिरते अथवा अंतरिक्ष में उड़ते पीड़ा देने  वाले  रक्षसों को देखो उन्हें एक धनुर्धर के तीक्ष्ण बाणों से बींध दो.

यज्ञैरिषु: संनममानो   अग्ने  वाचा शल्यां अशनिभिर्दाहन: ।

विंध्य हृदये यातुधानान्‌ प्रतीचो बाहून्‌ प्रति भँङ्ग्ध्येषाम्‌॥ AV8.3.6

Mantras chanted with Agnihotra further sharpen the arrows and coat them with medicines (of Havi) which the enemies are destroyed by Agnihotra.

यज्ञों की अग्नि के  साथ साथ मंत्र ध्वनि से आचार्यों द्वारा तीक्ष्ण किये वज्र और हवि की ओषधियों से लेपन किए बाणों  द्वारा राक्षस  (रोगाणुओं की) भुजाओं को नष्ट भ्रष्ट कर के उन्हे पलट दो.

उतालब्धं स्पृणुहि जातवेद आलेभानादृष्टिभिर्यातुधानात् ।

अग्ने पूर्वो नि जहि शोशुचान आमाद: क्ष्विंकास्तमदन्त्वेनी: ।। RV10.87.7,AV8.3.7

हे यज्ञाग्नि शत्रुओं द्वारा पकड़े यज्ञ करने वाले जनों को सुरक्षा प्रदान कर. शब्द करने वाले राक्षसों ( मच्छर मक्खी आदि को) अपने चमकते हुए  आकर्षण से मार. ( अग्नि की ज्योति की ओर ऐसे कीटाणु आकर्षित हो कर नष्ट हो जाते  हैं ) पुन: कच्चा मांस खाने वाले राक्षसों को  सफेद सफेद चीलें अपना आहार बनावें .(मच्छर मक्खी इत्यादि  कि  रोक के लिए विद्युत प्रकाश से आधुनिक सन्यंत्र  बनते हैं )
Fumigation Wood treatment 

इह प्र ब्रूहि यतम: सो अग्ने यो यातुधानो य इदं कृणोति ।
तमा रभस्व समिधा यविष्ठ नृचक्षसश्चक्षुषे रन्धयैनम् ।। RV10.87.8,AV8.3.8

( निरीक्षण कर के) यह बताओ कि किस  काष्ठादि में कृमि  अनुचित  कार्य कर रहे हैं. हे यज्ञाग्नि उन को अपनी पकड़  में ले कर उन काष्ठादि को  सब जन निरीक्षकारियों द्वारा उपयुक्त बना.

Inspect and identify wooden materials which are liable to get damaged by undesirable pests (White ants, Termite etc.). Subject the wooden material to Agnihotra fumes to reach these wood damaging organisms and destroy them to make the wooden materials acceptable on inspection. (Wood treatment by in special process for fumigation is a very standard modern technique.)

तीक्ष्णेनाग्ने चक्षुषा रक्ष यज्ञं प्राञ्चं वसुभ्य: प्र णय प्रचेत: ।
हिंस्रं रक्षांस्यभि शोशुचानं मा त्वा दभन्यातुधाना नृचक्ष: ।। RV10.87.9,AV8.3.9

Sharpened vision strategy of regularly performed Agnihotra (with Mantras and medicinal Havi) , directly attacks the enemies ( the infections) and strengthens the positive healthy elements in life.

हे यज्ञाग्नि अपनी तीक्ष्ण  दृष्टि से हमारे इस यज्ञ व्यवस्था से रक्षा कर. (हम नित्य यज्ञ करने  के कर्तव्य से कभी विमुख न हों ) हमारी दी हुइ हवि समस्त वसुओं –हमारे निवास स्थानों  तक पहुंचे. हमारे चारो ओर के पर्यावरण में हमें हानि  पहुंचाने वाले शत्रु कृमि इत्यादि को भस्म कर दो. हम जीवों को ये राक्षस कभी दबा न पाएं. ( कभी कोइ महामारी रोग हमरे समाज को न पकड़े )

नृचक्षा रक्ष: परि पश्य विक्षु तस्य त्रीणि प्रति शृणीहयग्रा ।
तस्याग्ने पृष्टीर्हरसा शृणीहि त्रेधा मूलं यातुधानस्य वृश्च ।। RV10.87.10,AV8.3.10

हे अग्ने ! तुम मनुष्यों के पाप पुण्य कर्म देखने वाले हो , सब ओर निगरानी रखते हुए मुख्यत: तीन प्रकार के रोगदायक राक्षसों का विनाश करो

Agnihotra ensures well being of all. They traverse the environment to keep a watch over the three types of harmful Germs and destroy these three types of germs by appropriate three methods. (According to modern science the germs are broadly classified in to three types based on their shapes and behavior. 1. Bacteria is from ‘bacillus’ Latin word for ‘little rod’ like shapes. 2. Spherical bunch grape like shapes growing in chains are called ‘Staphylococcus’.3. Flagellate germs that have a self propelling flagellate at one end.)

अग्निहोत्र नित्यकर्म है रोगाणु 3 प्रकार के 

त्रिर्यातुधानो प्रसितिं त एत्वृतं यो अग्ने अनृतेन हन्ति ।
तमर्चिषा स्फूर्जयंजातवेदो समक्षमेनं गृणतेनि वृङ्ंधि ।। RV10.87.11,AV8.3.11

ये 3 प्रकार के रोगाणु अग्निहोत्र द्वारा बार बार नष्ट किए जाते हैं  ( और पुन: उत्पन्न हो जाते  हैं.) नित्य अग्निहोत्र करने वाले को पर्यावरण के रोगाणुओं से सुरक्षा प्राप्त होती है.

These three types of disease causing pain giving organisms come under your grips again and again. But Homa provides continuous protection to regular performer of Agnihotras, by destroying these germs. (According to modern science germs are broadly classified in to 3 categories as shown here)

  1. Bacteria – meaning little rod shaped forms, from Latin word Bacillus meaning “little rod.lax7S
  2. Streptococcus- round shaped in bunches like grapes, from “cocas” meaning round Kernel.

 

lax8

 

 

 

 

 

2. Flagellate germs- that have whip like flagellae-tails, at one end to propel themselves.

 

lax9

तदग्ने चक्षु: प्रति धेहि रेभे शफारुजं येन पश्यसि यातुधानम् ।
अथर्ववयोतिषा दैव्येन सत्यं धूर्वन्तर्मचितं न्योष ।। RV10.87.12,AV8.3.21

Agnihotra with their divine powers destroys the obvious/ visibly perceptible and invisible enemies of honest simple life style, like even the polluted earth- in soil on which cows dig with their hoof.

भूमि में दृष्य और अदृष्य सभी रोगाणुओं को जिन्हे गोपशु इत्यादि अपने खुर से खोद देते हैं,उन्हें भी अग्निहोत्र नष्ट करता है

यदग्ने अद्य मिथुना शपातो यद्वाचस्तृष्टं जनयन्त रेभा: ।

मन्योर्मनसो शरव्या जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान् ।। RV10.87.13,AV8.3.12

मंत्रोच्चार में जिन शत्रुओं को नष्ट करने के लिए कड़े शब्दों  का प्रयोग होता है अग्निहोत्र का प्रभाव उस के अनुसार ही होता है यज्ञाग्नि से निजी मानसिकता भी इष्टनुरूप बनती है

When the performers of Agnihotra are expressing their anger in chanting mantras against enemies of the community, their anger should impel you to destroy those harmful elements.

परा शृणीहि तपसा यातुधानान् पराग्ने रक्ष: हरसा शृणीहि ।

परार्चिषा मूरदेवाञ्छृणीहि परासुतृपो अभि शोशुचानो ।। RV10.87.14,AV8.3.13

यज्ञाग्नि से अमानवीय पीड़ादायक मानसिकता  का विनाश होता है. अवसाद दूर होता है, मानव तेजस्वी, तपस्वी , उत्साह पूर्ण बनता है.

Agnihotra kills those that take delight in causing self defeatist hedonistic attitudes as disease. Agnihotra performer gets the mind rid of depressive thoughts and blesses with a cheerful disposition.

वाणी की मधुरता

पराद्य देवा वृजिनं शृणन्तु प्रत्यगेनं शपथा यन्तु तृष्टा: ।
वाचास्तेनं शरव ऋच्छन्तु मर्मन् विश्वस्यैतु प्रसितिं यातुधान: ।। RV10.87.15, AV8.3.14

कटु तीक्ष्ण शब्दों  पर हिंसक प्रतिक्रिया जैसे घातक शत्रु  के स्थान पर सभ्य समाज में  उत्तम भाषा के प्रयोग से प्रतिद्वन्दी को  निरस्त्र करने की क्षमता उत्पन्न होती है .

(Agnihotra) Empower the noble well behaved persons to defeat the evil tendency to react to harsh speech by violence or harsher words.   Ability to disarm the wrong doers by well spoken words is developed in a civil society.

यो पौरुषेयेण क्रविषा समंक्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधान: ।
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च ।। RV10.87.16,AV8.3.15

पाशविक आचरण जो स्वार्थ वश अपने पशुओं पर अत्याचार करते हैं, घोड़ों को भरपेट भोजन नहीं देते ,समाज में  अमानवीय व्यवहार करते हैं , गौओं से  बलात ज़बरदस्ती दूध निकालते हैं , उन की मानसिकता धार्मिक वृत्ति से अग्निहोत्रादि करने से ठीक होती है.

Those who fill their belly by starving people, those who live by stealing horse feed, those who forcibly steal milk of cows, they should be eliminated by strong actions.( Regular performers of Agnihotra develop the temperaments of “Manyu” and there by destroy the enemies of society.)

संवत्सरीणं पय उस्रियायास्तस्य माशीद्यातुधानो नृचक्ष: ।
पीयूषमग्ने यतमस्तितृप्सात् तं प्रत्यञ्चमर्चिषा विध्य मर्मन् ।। RV10.87.17,AV8.3.17

जो अमानवीय ढंग  से गौ का दोहन साल भर  करते  हैं, जो नवजातबछड़े को पीयूष ( आरम्भ दूध भी स्वयं उपयोग करते हैं ,उन की इस प्रकार की प्रतिकूल भावनाओं का सात्विक यज्ञादि करने से निराकरण होता है.

Those who milk the cow throughout the year, themselves consume the colostrums meant for newborn calf year after year; their conduct undergoes change by following the agnihotra in life.

विषं गवां यातुधाना: पिबन्त्वा वृश्च्यन्तामदितये दुरेवा: ।
परैनान् देवो सविता ददातु परा भागमोषधीनां जयन्ताम् ।। RV10.87.18 AV8.3.16

इस प्रकार से प्राप्त किया गया दूध विष समान होता है. ऐसे दूध के सेवन से अनेक असाध्य रोग उत्पन्न हो जाते हैं . ऐसे लोग गौशाला में यज्ञादि कर के दूध मे ओषधि  तत्व को भी बढ़ा  पाएंगे. विष तुल्य दूध को सुधारना तथा   गोमूत्रादि का पान भी   करना  चाहिए .

Milk derived forcibly from cows is poisonous and leads to innumerable incurable diseases. Perform Agnihotra among cows in order that their milk is full of medicinal nutritive qualities.  Along with good milk, Cow urine should also be taken for drinking.

सनादग्ने मृणसि यातुधानान् न त्वा रक्षांसि पृतनासु जिग्यु: ।
अनु दह सहमूरान् क्रव्यादो मा ते हेत्या मुक्षत दैव्याया: ।। RV10.87.19 AV8.3.18

चिरकाल से  राक्षसी वृत्ति के रोगाणु प्रजाजन (मनुष्यों और पशुओं) को पीड़ा देकर उनका मांस खाते रहे हैं. अगिनि होत्र यज्ञादि के प्रकाश्मय वज्र से ही इन का विनाश होता है,

Agnihotra have always destroyed the disease carrying germs the enemies of men and animals disease carrying germs in the environments. Agnihotra should be performed in such a manner that it succeeds in completely destroying these infections.

(This has reference to the scale and size of Agnihotra performances to match the scale and size of the objectives.)

त्वं नो अग्ने अधरादुदक्तात् त्वं पश्चादुत रक्षा पुरस्तात् ।
प्रति ते ते अजरासस्तपिष्ठा अघशंसं शोशुचतो दहन्तु ।। RV10.87.20,AV8.3.19

अग्निहोत्र द्वारा ही सब ओर से रोगाणुओं को नष्ट कर के पूर्ण सुरक्षा प्राप्त होती है.

Agnihotra should be adequate to destroy all the infections on all sides from top to bottom and from front to our back.

पश्चात् पुरस्तादधरादुदक्तात् कवि: काव्येन परि पाहि राजन् ।
सखे सखायमजरो जरिम्णेऽग्ने मर्ताँ अमर्त्यस्त्वं न: ।।RV 10.87.21,AV8.3.20

यज्ञ देवता अमर्त्य  हैं वही हम मर्त्यों को  सदैव एक सखा के रूप में  वेद मंत्रों द्वारा स्वस्थ जरारहित शरीर और मानसिकता प्रदान करते हैं .

The immortal institution of Agnihotra provides protection from all sides. This institution that like a true friend with Veda Mantras of Agnihotra provides a lifelong is an everlasting immortal strategy for healthy body and mind for us mortals.

परि त्वाग्ने पुरं वयं विप्रं सहस्य धीमहि ।
धृषद्वर्णं दिवेदिवे हन्तारं भंगुरावताम् ।। RV10.87.22,AV8.3.22

अग्निहोत्र द्वारा चित्त वृत्तियों का निरोध होता है. प्रति दिन मंत्रोच्चारण के साथ अग्निहोत्र राक्षसी वृत्तोयों का नाश करके  मन को निर्मल बनाता है

Wise men perform Yajnas to obtain from Agnihotras all-round protection of their powerful blinding irradiance. Agnihotra are providers of bounties by always destroying our enemies the baser instincts.

विषेण भंगुरावत: प्रति ष्म रक्षसो दह ।
अग्ने तिग्मेन शोचिषा तपुरग्राभिर्ऋष्टिभि: ।। RV10.87.23,AV8.3.23

हमारी राक्षसीवृत्तियों को एक एक कर यज्ञाग्नि भस्म कर देती है वासनाएं जल जाती हैं. तीव्र ज्ञान की ज्योति सूर्य के समान सब अवगुण दाहक है.

Powerful, intense flames of Agnihotra turn to ashes all those indulging in demonical behavior by developing virtuous mentality…

प्रत्यग्ने मिथुना दह यातुधाना किमीदिना ।
सं त्वा शिशामि जागृहयदब्धं विप्र मन्मभि: ।। RV10.87.24,

पाशविक वृत्तियो के मिथुन- द्वंद्व  (जैसे काम –क्रोध, लोभ – मोह, मद – मत्सर ) हर समय अब क्या खाएं , औरों को पीड़ित कर के क्या हड़प  करें केवल यही विचार रहता है,  यज्ञाग्नि अ न्त:करण शुद्ध कर के इन वासनाओं से मुक्ति दिला कर अहिंसक बनाता है.

Duality of indecision –to be or not to be- is acting like an enemy of life. Create the wisdom in our temperaments (by Agnihotra and Vedic education) to have clear vision for leading a healthy life.

प्रत्यग्ने हरसा हर: शृणीहि विश्वत: प्रति ।
यातुधानस्य रक्षसो बलं वि रुज वीर्यम् ।। RV10.87.25, AV 13.2.22

आसुरी  भावनाएं  अति प्रबल होती हैं , इन पीड़ा देने वाली राक्षसी वृत्तियों से यज्ञाग्नि का तेज  विशेष रूप से भग्न करता है.

Agnihotra and Vedic wisdom empower to destroy the demonical enemies from our life (both in our minds the ill thoughts and disease organisms in the physical environments)

विषेणं भङ्गुरावत: प्रति स्म रक्षसो जहि।

अग्ने तिग्मेनशोचिषा तपुग्राभिरर्चभि: ॥ AV8.3.23

यज्ञाग्नि कुटिल व्यवहार करने वाले  राक्षसों को अपने व्यापक तेज और तप्ताग्री ज्वालाओं से उलट कर नष्ट कर देते हैं

Agnihotra overpowers and destroys by its powerful flames the enemy organisms that promote unhealthy life.

वि ज्योतिषा बृहता भात्यग्निराविर्विश्वानि कृणुते  महित्वा ।

प्रादेवीर्माया: सहते  दुरेवा: शिशीते शृङ्गे रक्षभ्यो विनिक्ष्वे ॥ AV 8.3.24

सब से महान ज्योति पुंज सूर्य भी अपनी तीक्ष्ण तिरछी किरणों के द्वारा  आसुरी दु:ख प्रद मय्यओं को दूर करता है .

The largest source of illumination SUN with its vast resource is also performing the actions to destroy diseases by its rays that come in slanting and straight manner. (This has a clear reference to UVB –Ultra Violet B in the slant morning and evening sun rays as source of Vitamin D and IR-Infra Red rays for solar pasteurization)

ये ते शृङ्गे अजरे जातवेद स्तिग्महेती भ्रह्मसंशिते ।

ताभ्यां दुर्हार्दमभिदासन्त  किमीदिनं प्रत्यञ्चमर्चिषा जतवेदो  वि निक्ष्व ॥ AV8.3.25

The two horns –the direct heat of flames and radiated energy never get old and lose their effectiveness to destroy our enemies. In fact they become more deeply penetrating & forceful by the mantras that are chanted simultaneously.

अग्नी रक्षांसि सेधति शुक्रशोचिरमर्त्य: ।

शुचि:  पावक ईड्य: ॥ AV8.3.26

White flames of the Agnihotra also make the entire environment clean and pure white.

 

 

Gross Happiness Entrepreneurship in Veda

veda and science

Author – Subodh Kumar 

RV1.3 Gross Happiness Entrepreneurship

ऋषि:-  मधुच्छन्दा वैश्वामित्र:, देवता:- 1-3 अश्विनौ, 4-3 इन्द्र:ू; 7-9 विश्वेदेवा:; 10-12 सरस्वती छंद-  गायत्री 

शिल्प ज्ञान उन्नति का आधार

Life sustainability by technology

अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती  पुरुभुजा चनस्यतम् ।। RV 1.3.1 (Dayanand Bhashyaadharit)

On universal scale – (द्रवत्पाणी) seek fast material growth of (पुरुभुजा) food and means that provide health (शुभस्पती) for welfare of all by (अश्विना) employing the twins of Solar energy resources and Water resources (यज्वरी:)with application technological skills (इषा:) providing objects of desire such as food & facilities (चनस्यपतम्‌) for getting selectedand liked by all.

समष्टि रूप में– (द्रवत्पाणी) शीघ्रता से समृद्धि  पाने के लिए (पुरुभुजा) सब के बल और स्वास्थ्य के लिए(इषा:) अन्नादि ऐच्छिक पदार्थों  (चनस्यपतम्‌) की  सात्विक प्राप्ति के लिए (अश्विना) प्राकृतिक  उपलब्द्ध अग्नि सौर ऊर्जा और जल तत्व के प्रयोग से  (यज्वरी:) भौतिक यज्ञादि कुशल कर्मों में प्रवृत्त होवें .

व्यष्टि रूप में – On another level प्राणापान को अश्विना शब्द से स्मरण किया जाता है. कि ये ‘ न श्व:’ यह निश्चित नहीं कि ये कल  भी रहेंगे ,और यह सदैव क्रिया करते रहते हैं .  इन्हीं के कारण यह मानव शरीर चल रहा है, भूख लग रही है और सब इच्छाएं प्रकट हो रही हैं . (यज्वरी:) यज्ञशील बनने के लिए (इषा:) अन्नदि इच्छित पदार्थ  (चनस्यपतम्‌) सात्विकता का जीवन में चयन आवश्यक है. प्राणायाम द्वारा तामसिक वृत्तियों आलस्य काम क्रोध इत्यादि के परित्याग से सात्विक वृत्तियों अहिंसा कर्मठता आत्मविश्वास यज्ञशील जीवन से ही प्रगति और सुख समृद्धि प्राप्त होती है.

प्रोद्योगकि शिक्षा

Technical Education  

1.    अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया । धिष्ण्या वनतं गिर: ।। RV 1.3.2

(अश्विना)To employ energy and material resources   (पुरुदंससा) for technologies that provides many solutions (नरा शवीरया) for speedy  implementation  (धिया) bring to knowledge । (धिष्ण्या) by fast communication methods (वनतं) to users ( गिर: ) by lecturing education.

(सौर) ऊर्जा और पदार्थ (जलादि) संसाधनों के वैज्ञानिक प्रयोग से शीघ्र  उत्तम उपब्धियों के लिए उत्तमगुरु जन उपदेश द्वारा शिक्षा प्राप्त कराएं

विषमता नाशक ज्ञान

Knowledge to remove hardship

3.दस्रा युवाकव: सुता नासत्या वृक्तबर्हिष: । आ यातं रुद्रवर्तनी ।। RV1.3.3

(दस्रा: ) that which  removes hardship  (युवाकव: ) multidiscipline ( सुता) born out of ( नासत्या ) that which is flawless (वृक्तबर्हिष: ) expert consultants- can also be pathogen destroying herbal covers   । (आ यातं) bring in common use (रुद्रवर्तनी) That does not allow any harm to come.

कठिनाइयों विषमता का नाश ही औद्योगिक शिल्प  ज्ञान की उपब्धि है.

शिल्प ज्ञान  की उपलब्धियां

Gifts of Entrepreneurship

4.इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायव: । अण्वीभिस्तना पूतास: ।। RV1.3.4

(इन्द्रा याहि)The entrepreneurs by (अण्वीभिस्तना पूतास 🙂 utilizing their knowledge and paying attention to the minutest inputs (सुता) create

(इमे त्वायव :)by their efforts (चित्रभानो) amazingly useful results.

सूक्ष्म से सूक्ष्म विषय पर ध्यान दे कर अपने ज्ञान के सदुपयोग से शिल्प द्वारा आश्चर्यजनक  उपलब्धियां सम्भव होती हैं.

चमत्कारी आविष्कार 

Creation of innovative products

5. इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूत: सुतावत: । उप ब्रह्माणि वाघत: ।। RV1.3.5

(इन्द्रा याहि) The entrepreneurs (धियेषितो विप्रजूत: उप ब्रह्माणि) by intelligent knowledge application (सुतावत: वाघत) create very useful products.

सफल शिल्पी अत्यंत सफल आविष्कारक  होते हैं

नवीन आविष्कार

New Technological products  

6. इन्द्रा याहि तूतुजान उपब्रह्माणि हरिव: । सुते दधिष्व नश्चन: ।। RV1.3.6

(इन्द्रा याहि) The entrepreneurs (सुते दधिष्व नश्चन:) create useful food etc. every day use products ( तूतुजान उपब्रह्माणि हरिव: ) by excellent knowledge base highly productive methods.

प्रोद्योगिकि शिक्षा का लक्ष्य

Objects of Technical  Education  

7. ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास  गत  दाश्वांसो दाशुष: सुतम् ।। RV1.3.7

Our education should inculcate in our progeny the fearless temperament respecting laws of Nature to provide full protection on physical and mental level to us by good health and virtuous thoughts  for the sustainability of individual and society.  

हमारी संतान की बुद्धि  में सत्य शिक्षा के उपदेशों द्वारा वे सब देवताओं के गुण स्थापित होने चाहिएं  जिस से शरीर और मन की मलिनता  दूर हो कर निर्भय, विद्वत और दानवान आचरण स्थापित हो.

शिक्षकों का दायित्व Role of Teachers

8.विश्वे देवासो अप्तुर: सुतमा गन्त तूर्णय:  उस्रा इव स्वसराणि ।। RV1.3.8

(सुतम्‌) To provide enlightenment (विश्वे देवास🙂 all the world’s teachers (आगंत)should visit daily (अप्तुर: तूर्णय:) for speedy teaching  (उस्रा इव) like sun’s rays (स्वसराणि) that  bring day light.

जिस प्रकार सूर्य प्रकाश से अंधकार को दूर करता है , उसी प्रकार सब गुरुजनों को शीघ्र ज्ञान के प्रकाश का दान को देने के लिए  आना चाहिए |

शिक्षा का  परिणाम Results of Education

9.विश्वे देवासो अस्रिध एहिमायासो अद्रुह:  मेधं जुषन्त वह्नय: ।। RV1.3.9

(अस्रिध:) Confident of their knowledge (एहिमायास:) knowledge based action oriented community (विश्वे देवास🙂 all knowledgeable persons (मेधम्‌) by implementing your knowledge based skills  (अद्रुह:) without causing destruction (to environment and society) (वह्नय:) bring welfare to all.

अपनी कर्म प्रधान शिल्प शिक्षा में दृढ़ आत्मविश्वास द्वारा सब ज्ञानवान वीर जनों बिना पर्यावरण और समाज  को क्षति पहुंचाए ,अपने शिल्प के ज्ञान से  संसार में सुख साधन उत्पन्न करो.

 उत्तम ज्ञानाधारित वाणि का महत्व  

Good articulate communication

10.पावका न: सरस्वती वाजेभिर्वाजिनिवती । यज्ञं वष्टु धियावसु: ।।RV 1.3.10

(सरस्वती)Knowledge enabled articulation is (Here importance of keeping one’s knowledge up to date should also be seen.)   (न:) for us ( पावका वाजेभिर्वाजिनिवती) provider of unsullied meritorious virtuous means of habitat  and strength.(धियावसु: )Provide the society thus with excellent (ecologically sustainable) habitat (यज्ञं वष्टु) by implementation of smart projects.

उत्तम ज्ञान आधारित वाणि, पवित्र योजनाओं को कार्यान्वित करने की क्षमता प्रदान करती है. ( यहां अपने ज्ञान को इस स्वाध्याय द्वारा उन्नत करने का भी महत्व देखा जाता है )  इस प्रकार समाज के कल्याण के  सुख साधन पर्यावरण को दूषित किए बिना उपलब्ध करो.

मिथ्याचरण का त्याग Take Ethical Stand

11.चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् | यज्ञं दधे सरस्वती ।। RV1.3.11

(चोदयित्री चेतन्ती सरस्वती) Have the ability to perceive, stand up and speak the truth (सूनृतानां सुमतीनाम्) by rejecting wrong ideas and following wise path (यज्ञं दधे)in implementation of the projects.

मिथ्याचरण का त्याग और सुमति को व्यक्त करने की अपनी  वाणि मे क्षमता द्वारा पथ भ्रष्ट योजनाओं के स्थान पर कल्याण कारी  योजनाएं कार्यान्वित करो .

उत्तम वाणि शासन का मूलमंत्र

Secret of success- Excellent Articulation

12.महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना  यो विश्वा वि राजति ।। RV1.3.12

(महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना ) One who has at his command the ocean of knowledge reflected in his speech, ( यो विश्वा वि राजति) he rules the world.

जिस की (सरस्वती) वाणि (केतुना) शुभ कर्म , श्रेष्ठ बुद्धि से (मह:) अगाध (अर्ण:)  शब्दरूपी समुद्र को (प्रचेतसी) जानने वाली है, ( यो विश्वा वि राजति) वही शासनाध्यक्ष होता है. 

l MEET DAYANAND

swamiji in sabha

l MEET DAYANAND

WRITER – SWAMI SHRADDHANAND

l was born a new when l first saw Swami Dayanand  Saraswati. I found some faith arose in me. His luster and brilliance amazed me and arrested attention. They overwhelmed me when I saw Rev. T. J.Scott and other Europeans sitting there with great interest. Swamiji had spoken scarcely for 10 minutes when I began to think. “It is surprising to see a Sanskrit pandit speaking so much of sense that astonishes even an educated man.” The subject was ‘OM’. The memories of that day are ever green in my heart. it was the effect of the Rishi’s influence that made even an atheist like me feel the pleasure in my soul‘s happiness.

Rishi’s Durbar: – It was announced that the following day’s lecture would be held in the Town Hall. Swamiji said in a clear tone that he would be ready at the appointed time it a conveyance would be made available to him.

My father was all attentive as long as the lectures were on conventional subjects like Namaste, Pope, jainee. Keerani, Korani (Salutation. jainism, Christianity. Mohamadanism). When he began to speak In strong terms against idolatry and the Avataras my interest increased and my father’s interest waned. He discontinued attending Swamiji’s lectures and in his place deputed a policeman to do bandobast duty. It had become a daily duty with me till the 24th August to go to Begum Park every evening after food. From two to three in the evening there was the Rishi’s Durbar and mine was invariably the first Namaskar to be offered to him. Questions and answers followed, and I used to enjoy them. After the assembly had dispersed the Acharya would leave the Park. I would at once go straight to the Town Hall in my wagonette. Till after Swami Dayanand had disappeared from my sight I would not return home. I was so immersed in his figure in happiness.

Discussion: with Scott.—Then discussions took place on the 26th, 27th and 29th August with the Rev. T. I. Scott on Rebirth. Incarnation and Forgiveness for sins without reaping their result. The first two days’ discussions were in writing. On the third day I had pneumonia and was prevented from attending. Afterwards l could not see Swamiji. l was so impressed with one of his acts that it still passes before my eyesight.

Spying the Swamji’s Activities.—l found Swamiji leaving always his abode after answering the calls of nature with a Langoti at about three in the morning and returning only after sun-rise. I was anxious to find out his activities and was determined to follow him at once. An editor of a newspaper also accompanied me in my attempt. Punctually at three in the morning the Acharya left his abode and we followed him from behind. After having slowly waited a quarter of a mile he began to walk so swiftly that even a swift-paced young man like myself found it difficult to follow him. Near a junction of three roads we missed him. So our first attempt was unsuccessful. On the next night we were awake from 2-30. We wanted to run away at the sight of that Rudramurti (fire-figure). He was walking swiftly and we were running behind him. The Bania editor was gasping and running after me. After covering a distance of half a mile that Rudramurti halted at a wide open place and walked slowly towards a piple tree. On reaching it he sat underneath for an hour and a half in Samadhi. I was not able to see whether he was doing Pranayam or not. But as soon as he sat down it was Samadhi. After rising he shook his body twice and then made his way to the temporary Ashram.

An Incident.—At a Saturday’s meeting it was announced that the following day’s lecture would begin an hour earlier. The Acharya made it perfectly clear that if the conveyance was to be sent to him an hour earlier he would reach the place of lecture in time. On Sunday afternoon people began to gather two hours earlier. The hall was full but the Acharya was not to be seen. Half an hour had passed after the appointed time and still the noise of the carriage was not to be heard. After three quarters of an hour the majestic figure of Dayanand was seen. Before prayer he said. “I was ready at the time but the conveyance did not come. Waiting for long. l started walking. Gentlemen it is not my fault. it is the fault of the children’s children not keeping to their promises.” Perhaps this referred to his host.

Swami Dayanandji was then staying as the guest of Seth Lakshmi Narayan. He was-the Treasurer to the Government and was then considered at Bareilly to be a millionaire.

Denunciation —Swamiji was condemning all the absurdities and the impossibilities of the Puranas. Among those present there were the Rev. T. J. Scott, Edward the Commissioner. Reid the Collector, about fifty other Europeans and many others. His speech on the Panch Pandava’s marriage. Draupadi’s polyandry. Tara and Mandodnri touched the Dharmic element in the audience to the quick. They were never tired, as the lecturer was rich in wit and humor. The Europeans who attended were reveling in joy and merriment.

The Acharya said: “So much for Purana leela. New let us go to the Kirani Ieela- Christian leela. By saying how the Virgin’s conception took place. they are polluting the spotless eternal Paramatman, With such sins they are not ashamed themselves. The face of the collector and the commissioner turned at once red and the Acharya continued examining Christianity with the same vigour till the end.

The following day the Commissioner sent for “Mr.  Lakshminarayan and said, “Make the Swami understand that he should not so play with fire. We Christians are civilised and do not get infuriated at the heat of discussion. But if orthodox Hindus and Muslims get heated your Swami’s lecture shall be stopped.” Having promised to convey this message to Swamiji the Treasurer returned. But he wanted this to be conveyed to Swamiji by someone else, himself not being bold enough to do that.

The Avatar-When l found none stood up. I volunteered and informed Swamiji that the cashier was anxious to speak to Swamiji something about a matter for which the Commissioner had sent for him. Poor man the cashier was helpless. He was either scratching his head or hanging down his head. After five minutes of surprise. Swamiji said, “You are not accustomed to do work at the appointed time. You do not realize the value of time. My time is precious. Speak out your mind.” Then the cashier, in stammering tones. said with great difficulty, “Maharajah, what if you are not so violent in your language? It is no good displeasing the Englishmen. it is better—” so on and so forth. Swamiji at once Joined him, “Why are you so nervous? You have wasted even this time. Perhaps the Saheb would have given you to understand that I am harsh and my lectures would be stopped. Either may happen. Why bother? l am not a man-eater to kill you. Why not you tell me plainly what he said ? Why did you waste so much time?'” At this a faithful Pauranic Hindu onlooker said, “Look at the Avatar! He reads others‘minds.”

Dayanandij’s Answer-—how can that day’s lecture be forgotten? I have heard the best of speeches. but the one which fell from Acharya‘s mouth in simple words so thrilled the audience that I can find no equal to it. That day’s lecture was on Atma Swaroopa, and all Europeans of the place except Rev. T.J. Scott were present. Having prefaced his day’s discourse on the might of truth. Swamiji proceeded; “People ask us not to speak the truth less the Collector would get angry, the Commissioner would get displeased and the Governor’s wrath would descend upon us. Even kings and rulers may get displeased. Why should we desist from truth? ‘Then he explained the unique feature of an Alma alter quoting a sloka which means this: “Weapons cannot pierce him, fires cannot burn him, waters cannot drench him and winds cannot move him.

“Then he continued in a roaring voice. “Body is ephemeral and it is waste to do Adharma in protecting it. Whoever wishes to do contrary to this puts an end to his soul.” Casting a glance all around Swamiji exclaimed in a stentorian voice, “Show me the hero who can destroy my soul. So long as you are not able to get one such hero in this world I am not even inclined to think whether l can dodge truth.”The whole audience was calmed into silence and the falling of at pin could be heard then.

Dayanandji meets Mr Scott.-—After the lecture, Rishi Dayanand enquired about the Rev. T. J. Scott and said. “Sincere Scott is not to be seen today”. The missionary was so regular in attendance and was so kind towards Swamiji that he liked him. Someone informed the Rishi that there was a lecture of the reverend gentleman in a chapel close by. On getting down the steps. The Rishi said. “Proceed. let us see the sincere Scott‘s church.” Followed by three to four hundred men. Swamiji went towards the church. The lecture was just then over and the congregation had not even dispersed, The Rev. Mr. Scott seeing Swamiji received him at the gate. Took him to the pulpit and requested him to speak. Swamiji spoke in harsh terms about human worship for about twenty minutes.

 

The Cashier Redeemed.—-Now about Swamiji‘s other activities. Having known that the cashier had connections with an ill-famed woman. Swamiji asked him his caste. The cashier replied. “What am I to tell you. Who judges one‘s caste from his character, conduct and disposition?”  Swamiji said that as there was Varna, he could tell his caste by birth. He said he was a Kathri, Then the Swamiji asked as in what caste a son of a Kathri by a public woman would belong to. The cashier hung down his head in shame. Swamiji said, “I am not criticising any particular individual. I am speaking the truth”. Afterwards the cashier separated from her and sent her away. One small incident and I shall close this.

Discussion on God‘s Existence. — Apart from his being a great Vedic scholar. Rishi Dayanand was an erudite logician. As I was it confirmed atheist l spoke to Rishi Dayanand against the necessity of God’s existence. Within five minutes’ talk I was silenced. Then I said “Swamiji, your logic is irresistible and, you have no doubt silenced me but you have not shown me the necessity for the existence of God.”My second attempt to question him shared the same fate. After great Preparation I again approached him a third time. Even then my arguments were completely shattered. Then l said. “You are famous for your analytical powers and you have silenced me but you have not shown me the necessity for the existence of‘God.” Laughing at this the Rishi said. “Your questions and my answers are pure and simple mental feats. When can l promise to give you faith in the existence of God? You will have faith when the Almighty is pleased to make you faithful”. I remember his having quoted this: “Not by speech, not byknowledge, not by hearing can He be seen. He manifests to those to whom He is pleased to manifest Himself.”