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वेद में मांस भक्षण निषेध

no meat in vedas

लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती 

वेद में मांस भक्षण निषेध

वैसे तो मानने को वेद, धम्मपद, तौरेत, जबूर, इञ्जील, बाईबल और कुरान सभी धार्मिक ग्रन्थ माने जाते हैं । किन्तु वेद को छोड़कर सब अन्य ग्रन्थ भिन्न-भिन्न मत और सम्प्रदायों के हैं । इन सम्प्रदायों के पुराने से पुराने ग्रन्थ महाभारत काल से पीछे के ही हैं । इन की आयु चार हजार वर्ष से अधिक किसी की भी नहीं है । यथार्थ में ये ग्रन्थ धार्मिक ग्रन्थ की कोटि में नहीं आते । इनको किसी सम्प्रदाय विशेष का ग्रन्थ कहा जा सकता है, फिर भी इनके इन सम्प्रदायों में से भी अधिकतर सम्प्रदायों के ग्रन्थों में मांस भक्षण का निषेध किया है । यथार्थ में सच्चे धर्म का आदि स्रोत वेद ही है । इसलिये मनु जी महाराज ने धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः धर्म को जानना चाहें, उनके लिये परम श्रुति अर्थात् वेद ही है, यह माना है ।

जब जब परमात्मा सृष्टि की रचना करता है, तब तब अपने परम पवित्र ज्ञान को प्राणिमात्र के कल्याण के लिये प्रकाशित करता है । वेद के किन्हीं एक दो सिद्धान्तों को पकड़ कर चतुर लोग अपने ग्रन्थों की रचना करके नये नये सम्प्रदायों और मतों को खड़ा कर लेते हैं और उन्हीं को धर्म का नाम दे देते हैं । यथार्थ में धर्म अनेक नहीं होते, धर्म और सत्य एक ही होता है । जैसे दो और दो चार ही होते हैं, न्यून वा अधिक नहीं होते । इसलिये महर्षि दयानन्द ने वेद सब विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों (श्रेष्ठ पुरुषों) का परम धर्म है यह लिखकर इस सत्यता पर अपनी मोहर लगाई है ।

बाह्य अन्धकार को दूर करने के लिये परम दयालु प्रभु ने जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश दिया है इसी प्रकार मानव के आन्तरिक अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने के लिये ज्ञानरूप वेदज्योति का प्रकाश किया है । इस बात को सभी एकमत होकर स्वीकार करते हैं कि वेद सब से प्राचीन है । यहां तक कि विदेशी विद्वानों के मतानुसार भी संसार के पुस्तकालय में सब से प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ वेद ही माने जाते हैं । वहां लिखा है –

 

इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम् ।

त्वष्टुं प्रजानां प्रथम जनित्रमग्ने मा हिंसीः परमे व्योमन् ॥

 (यजुर्वेद अ० १२, मन्त्र ४०)

इन ऊन रूपी बालों वाले भेड़, बकरी, ऊंट आदि चौपाये, पक्षी आदि दो पग वालों को मत मार ।

यदि नो गां हमि यद्यश्वं यदि पूरुषम् ।

तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोऽसो अवीरहा ॥

(अथर्ववेद १।१६।)

यदि हमारी गौ, घोड़े पुरुष का हनन करेगा तो तुझे शीशे की गोली से बेध देंगे, मार देंगे जिससे तू हननकर्त्ता न रहे । अर्थात् पशु, पक्षी आदि प्राणियों के वध करने वाले कसाई को वेद भगवान् गोली से मारने की आज्ञा देता है ।

वेदों में मांस खाने का निषेध इस रूप में किया है । मांस बिना पशुहिंसा के प्राप्त नहीं होता है । अश्व, गौ, अजा (बकरी), अवि (भेड़) आदि नाम लेकर पशुमात्र की हिंसा का निषेध किया है और द्विपद शब्द से पक्षियों के मारने का भी निषेध है ।

पशुओं को पालने की आज्ञा सर्वत्र मिलती है –

यजमानस्य पशून् पाहि ।१॥१॥ (यजुर्वेद)

यजमान के पशुओं की रक्षा करो ।

मनुस्मृति के प्रमाण पहले दे चुके हैं । मांस न खाने का फल सौ अश्वमेध यज्ञों के समान बताया है ।

वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः ।

मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम् ॥मनु ५।५३॥

जो सौ वर्ष पर्यन्त प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ करता है और जो जीवन भर मांस नहीं खाता है, दोनों को समान फल मिलता है ।

याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है –

सर्वान् कामानवाप्नोति हयमेधफलं तथा ।

गृहेऽपि निवसन् विप्रो मुनिर्मांसविवर्जनात् ॥

(आचाराध्याय ७।१८०॥)

विद्वान् विप्र सर्वकामनाओं तथा अश्वमेध यज्ञ के फल को प्राप्त होता है । ऐसा गृहस्थी जो मांस नहीं खाता, वह घर पर रहता हुआ भी मुनि कहलाता है ।

इस युग के विधाता महर्षि दयानन्द ने मांस भक्षण का सर्वथा निषेध किया है । वे सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं –

१. : मद्य मांस आदि मादक द्रव्यों का पीना – ये स्त्री को दूषित करने वाले दुर्गुण हैं ।

२. : मद्य मांसादि के सेवन से अलग रहें ।

३. : जो मादक और हिंसा कारक (मांस) द्रव्य को छोड़ के भोजन करने हारे हों, वे हविर्भुज (हवन यज्ञशेष खाने वाले) हैं ।

४. : जब मांस का निषेध है तो सर्वत्र ही निषेध है ।

५. : हां, मुसलमान, ईसाई आदि मद्य माँसाहारियों के हाथ के खाने में आर्यों को भी मद्य मांसादि खाना पीना अपराध पीछे लग पड़ता है ।

६. : इनके मद्य मांस आदि दोषों को छोड़ गुणों को ग्रहण करें ।

७. : हां, इतना अवश्य चाहिये कि मद्य मांस का ग्रहण कदापि भूल कर भी न करें ।

वेदादि शास्त्रों में मांस भक्षण और मद्य सेवन की आज्ञा कहीं नहीं, निषेध सर्वत्र है । जो मांस खाना कहीं टीकाओं में मिलता है, वह वाममार्गी टीकाकारों की लीला है, इसलिये उनको राक्षस कहना उचित है, परन्तु वेदों में मांस खाना नहीं लिखा ।

महाभारत में मांस भक्षण निषेध

सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।

धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥

(शान्तिपर्व २६५।९॥)

सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि खाना धूर्तों ने प्रचलित किया है, वेद में इन पदार्थों के खाने-पीने का विधान नहीं है ।

अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः । (आदिपर्व ११।१३)

किसी भी प्राणी को न मारना ही परमधर्म है ।

प्राणिनामवधस्तात सर्वज्यायान्मतो मम ।

अनृतं वा वदेद्वाचं न हिंस्यात्कथं च न ॥

(कर्णपर्व ६९।२३)

मैं प्राणियों को न मारना ही सबसे उत्तम मानता हूँ । झूठ चाहे बोल दे, पर किसी की हिंसा न करे ।

यहाँ अहिंसा को सत्य से बढ़कर माना है । असत्य की अपेक्षा हिंसा से दूसरों को दुःख अधिक होता है क्योंकि सबको जीवन प्रिय है । इसीलिये यह महान् आश्चर्य है कि –

जीवितुं यः स्वयं चेच्छेत् कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् ।

यद्यदात्मनि चेच्छेत् तत्परस्यापि चिन्तयेत् ॥

(शान्तिपर्व २५९।२२॥)

जो स्वयं जीने की इच्छा करता है, वह दूसरों को कैसे मारता है । प्राणी जैसा अपने लिये चाहता है, वैसा दूसरों के लिये भी वह चाहे । कोई मनुष्य यह नहीं चाहता कि कोई हिंसक पशु वा मनुष्य मुझे, मेरे बालबच्चों, इष्टमित्रों वा सगे सम्बन्धियों को किसी प्रकार का कष्ट दे वा हानि पहुंचाये अथवा प्राण ले लेवे, वा इनका मांस खाये । एक कसाई जो प्रतिदिन सैंकड़ों वा सहस्रों प्राणियों के गले पर खञ्जर चलाता है, आप उसको एक बहुत छोटी और बारीक सी सूई चुभोयें तो वह इसे कभी भी सहन नहीं करेगा । फिर अन्य प्राणियों की गर्दन काटने का अधिकार उसे कहां से मिल गया ? प्राणियों का हिंसक कसाई महापापी होता है । महाभारत में कहा है –

घातकः खादको वापि तथा यश्चानुमन्यते ।

यावन्ति तस्य रोमाणि तावदु वर्षाणि मञ्जति ॥

(अनुशासनपर्व ६४।४॥)

मारनेवाला, खानेवाला, सम्मति देनेवाला – ये सब उतने वर्ष दुःख में डूबे रहते हैं जितने कि मरने वाले पशु के रोम होते हैं । अर्थात् मांसाहारी घातकादि लोग बहुत जन्मों तक भयंकर दुःखों को भोगते रहते हैं । मनु महाराज के मतानुसार आठ कसाई इस महापातक के बदले दुःख भोगते हैं ।

हिंसा न करे

धर्मशीलो नरो विदानीहकोऽनहीकोऽपि वा ।

आत्मभूतः सदालोके चरेद् भूतान्यहिंसया ॥

(शान्तिपर्व २६५।८॥)

धार्मिक स्वभाववाला पुरुष इस लोक को चाहता हो वा न चाहता हो, सबको समान समझ कर किसी की हिंसा न करता हुआ संसार यात्रा करे । किसी को सताये नहीं ।

मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षामहे ।

हम सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें । इस वेदाज्ञानुसार सब प्राणियों को मित्रवत् समझकर सेवा करे, सुख देवे । इसी में जीवन की सफलता है । इसी से वह लोक और परलोक दोनों बनते हैं ।     

लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती 

 

 

 

निश्चिन्त सिद्धांत

principal

निश्चित सिद्दांत

 

१. किसी भी तत्व में परस्पर विरोधी गुण नहीं होते है |

 

२. किसी एक तत्व का स्वयं पर बिना किसी दुसरे तत्व के परिणाम नहीं होता |

 

३. किसी भी तत्व को स्वयं के स्वरूप (गुणों) की प्रतीति नहीं होती |

 

४. जड़ तत्व को स्वयं की या किसी दुसरे तत्व की अनुभूति नहीं होती है ! जिसे अनुभूति होती है वह तत्व चेतन  है |

 

५. जिस वस्तु का सर्वथा अभाव है उस वस्तु का कभी भाव नहीं हो सकता |

 

६. कोई भी मूल तत्व अपने गुणों (स्वभाव) का त्याग नहीं करता है |

 

७. कोई भी तत्व अपने स्वाभाविक गुणों (स्वभाव) का त्याग करता है, तो वह तत्व अपना अस्तित्व अथवा स्वरूप खो देता है |

 

८. व्यापक तत्व का अंष नहीं हो सकता ,क्यों की अंष होने के लिए कही जगह नहीं है |

 

९. किसी भी तत्व में उस तत्व से सुक्ष्म तत्व रह सकता है या रहता है पर स्थूल तत्व नहीं रह सकता |

 

१०. जिस तत्व का भाव है,उस तत्व का सर्वथा कभी अभाव नहीं हो सकता |

 

११. कारण के गुणों का या स्वभाव का कार्य में अभाव नहीं होता |

 

१२. जिस वस्तु का सर्वथा अभाव है,उस वस्तु का कभी भ्रम नहीं होता और उस वस्तु का कभी स्वप्न भी नहीं आता है |

 

१३. एक मूल तत्व में दुसरे मूल तत्व का मिश्रण(एकाकार)नहीं हो सकता है |

 

१४. किसी (जड़ या चेतन) मूल तत्व का कभी सर्वथा नाश नहीं होता | जड़ का अपने कारण में लय होता है और चेतन एकरूप,अपरिवर्तनशील रहता है |

 

१५. किसी भी प्राणी के स्वयं के विचारो (भाव) के कारण उसकी संतति में आकृति परिवर्तन नहीं होता है | जाती भले ही नष्ट हो जाये पर किसी प्रकार का असाधारण परिवर्तन नहीं आता है |

 

१६. प्रत्येक कार्य अपने योग्य कारण से उत्पन्न होता है , शुन्य में से नहीं या दुसरे वस्तु से नहीं | जैसे तिल से ही तेल निकलता है रेत से नहीं |

 

१७. जो मूल कारण होगा वह निश्चित रूप से अव्यक्त होगा | यदि उसे व्यक्त कहा जाय तो वह मूल कारण नहीं माना जा सकता | कार्य रूप में परिणित होना व्यक्त का स्वरूप है  |

 

१८. किसी भी प्राणी को भोग प्राप्ति की तीव्र इच्छा होती है और यह तीव्र इच्छा होना ही प्रमाणित करता है की भोग तत्व से इच्छा करनेवाला तत्व दूसरा है,क्यों की भोग स्वयं का नहीं हो सकता |

 

१९. कोई भी ऐसा पदार्थ जिसका किसी रूप में विश्लेषण अथवा विच्छेदन हो सकता हो वह तत्व मूल तत्व होना संभव नहीं | वह अवश्य किन्ही तत्वों अथवा अवयवो के संगठन का परिणाम कहा जा सकता है |

 

२०. जन्मांद व्यक्ति को कभी रूप का स्वप्न नहीं आता है |

 

२१. कोई भी तत्व स्वयं के स्वरूप का भोक्ता नहीं होता है | भोग से भोक्ता अन्य तत्व ही होता है |

 

२२. जो कर्ता है वाही भोक्ता है |

 

२३. भ्रम और स्वप्न से किसी वस्तु की उत्पति नहीं होती है ,यह प्रत्यक्ष देखा जाता है |

 

२४. व्यक्ति के स्वप्न का आधार जाग्रत अवस्था में देखि हुई वस्तु ही होती है | स्वप्न की यह वस्तुए अस्त-व्यस्त होते हुए भी जाग्रत में देखे हुए का ही प्रतिभिम्ब है |

 

२५. एक व्यक्ति की अनुभूति से अथवा तृप्ति से दुसरे व्यक्ति या अर्थात आत्मा की तृप्ति या अनुभूति नहीं होती |

 

२६. किसी प्रमाण,तर्क,या दृष्टान्त के आधार पर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता, की कोई मूल तत्व स्वयं किसी रूप या कार्य में परिणित हो जाये |

 

२७. ब्रह्मांडो की उत्पत्ति से पहले किसी भी तत्व का अस्तित्व नहीं था और यह जगत शुन्य में से निर्मित हुआ, ऐसा विचार किसी तर्क या प्रमाण से सिद्ध नहीं किया जा सकता |

 

२८. एक मात्र तत्व ही उपादान,वही निमित ,वही कार्य,वही कारण,वही जड़ और वही चेतन आदि.. ऐसा किसी भी तर्क या प्रमाण से सिद्ध नहीं किया जा सकता |

 

२९. कोई भी कार्य अथवा विकार बनता और बिगड़ता रहता है |

 

३०. चट्टानों या अन्य पदार्थो का संयोग और वियोग यह सिद्ध कर्ता है की जगत का भी संयोग और वियोग होता है क्यों की जगत छोटे छोटे परमाणु से बना सिद्ध होता है |

 

संसार में कोई ज्ञात तत्व स्वत: परिणित होते नहीं देखा जाता है |

 

३१. जिसे ज्ञान होता है, प्रतीति होती है,जो प्रयत्नशील है,जिसे सुख दुःख की अनुभूति होती है उसे आध्यात्मिक भाषा में आत्मा कहते है और जिसे ऐसे प्रतीति नहीं होती है उसे जड़ कहते है|

 

३२. कोई भी मूल तत्व स्वत: कार्य रूप में परिणित होने में असमर्थ है | अत: उसे कार्य रूप में परिणित होने में एक चेतन के प्रेरणा चाहिए |

 

३३. कोई भी अनुभव चेतन (आत्मा) के होने का प्रमाण है | चेतन के अस्तित्व के बिना अनुभव हो ही नहीं सकता |

 

३४. प्रत्येक वस्तु की सत्ता अथवा असत्ता का तथा उनके स्वरुप का निश्चय प्रमाणों के द्वारा किया जा सकता है इस तरह से मूल तत्व तक पंहुचा जा सकता है |

 

३५. कार्य कारण परंपरा से विचार करते हुए मूल तत्व तक पंहुचा जा सकता है |

 

३६. दुःख किसी तत्व का स्वाभाविक गुण नहीं है , दुःख प्रतिकूल परिस्तित्यो से उत्तपन होता है अथवा प्रतिकूल परिस्तिती दुखदायी होती है |

 

३७. एक आत्मा (जीवात्मा) को दुसरे आत्मा की अनुभूति शरीर के माध्यम से होती है अन्यथा नहीं हो सकती है |

 

३८. अँधियारा या अँधेरा कोई तत्व नहीं है,जहा प्रकाश का अभाव है उसे अँधियारा या अँधेरा कहते है |

 

३९. किसी भी कार्य का अस्तित्व कारण को छोड़कर अतिरिक्त पृथक नहीं हो सकता |

 

४०. दुःख की प्रतीति और उसकी निवृति के लिए प्रयत्न चेतन तत्व अर्थात जीवात्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को सिद्ध करता है |

 

४१. अगर चेतना अर्थात आत्मा प्रकृति के विशेष अवस्था से उत्पन्न हुई होती, तो उसे प्रकृति से उत्पन्न होने वाले दुःख की प्रतीति न होती और वह उससे छुटने का प्रयत्न न करता |

 

४२. कोई भी परिणामी तत्व अपने लिए किसी प्रयोजन को सिद्ध नहीं करता है | और प्रत्येक परिणामी तत्व अचेतन है | इससे सिद्ध होता है की परिणामी तत्व किसी दुसरे परिणामी तत्व का अनुमान कराता है,जिसके लिए उस परिणामी तत्व का अस्तित्व है |

 

४३. जैसे शरीर के रहते हुए रोज नहाने से भी शरीर मल नाश्ता नहीं होता| ऐसे ही कामना के रहते हुए दुःख नष्ट नहीं होता |

 

४४. संसार का हर प्राणी इस संसार का भोग अपनी शारीरिक रचना और अपनी बुद्धि अनुसार अलग अलग भोग करता है | दुःख सुख का अनुभव करता है,पर एक का दुःख सुख दूसरा अनुभव नहीं कर सकता | इससे यह सिद्ध होता है की हर देह का आत्मा अलग है,सब देह का आत्मा एक नहीं प्राणी रूप से अनेक है |

 

४५. कोई भी परिणामी तत्व अपने मूल उपादान के बिना नहीं हो सकता यह नियम है |

 

४६. कोई भी कार्य अस्तित्व में आने से पहेले अपने कारण में लिन रहता या विद्यमान रहता है |

 

४७. चित्त वृतियो का निरोध होना ही “ध्यान” है. सास की फु फा नहीं |

 

४८. प्रत्येक व्यक्ति “मै हु” इस सोच से आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करता है | मिट्टी,अग्नि,जल इत्यादि तत्व नहीं कहते मै हु |

 

४९. यदि अचेतन प्रकृति कल्पना मात्र है, उसकी वास्तविक सत्ता कुछ भी नहीं है तो जीवात्मा के भोग,तृप्ति,मुक्ति,प्रयत्न,आदि भी यहाँ संभव नहीं |

 

५०. पहेले संभंध,संभंध से इच्छा,इच्छा के बाद संकल्प,संकल्प के बाद प्रवृति!इसी क्रम से मनुष्य कर्म करने में प्रवृत होता है |

 

 

परमात्मा का स्वरुप

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परमात्मा – अर्थात परम याने पूज्यनीय,आत्मा याने सर्वत्र उपलब्ध पूरा अर्थ है, जो पूजने लायक है, उपासना के योग्य है उस जैसा दूसरा कोई नहीं | आत्मा का दूसरा भी अर्थ है – जो सर्वत्र विचरण करता है, यह दोनों ही अर्थ एक दूसरे के विपरीत है और किसी भी एक तत्त्व में विपरीत योग्यता नहीं हो सकती | व्यापक भी होना और विचरण भी करना ऐसा नहीं हो सकता, इसलिए आत्मा दो है – एक आत्मा परमात्मा कहलाता है, जो व्यापक है और दूसरा जीवात्मा कहलाता है जो विचरण करता है जन्म – मृत्यु के द्वारा अनंत जन्मो में और लाखो योनियों में विचरता है |

 

परमात्मा सर्वत्र व्यापक है, उससे रहित यहाँ न कोई वस्तु है, न कोई स्थान रिक्त ( वास्तव में “स्थान” नाम से यहाँ यह कहना है की रिक्त कुछ नहीं है ) है | परमात्मा सीमा रहित, अखंड, एक रस, एक रूप, अर्थात कही कोई छेद नहीं है, उसमे कोई बदलाव नहीं, उसका कोई परिणाम नहीं, उसका कोई परिमाण नहीं | न वह घटता है न वह बढता है | न वह सुक्ष्म है और न वह स्थूल है | परमात्मा किसे कहा है, वह कैसा है इस बात को समझना ( पर समझना जरा कठिन ही है ) है | तो हम इसे ऐसा समझ सकते है, की जो अनंत सृष्टि का पसारा है, अर्थात यह करोडो सूर्य मंडल, आकाश गंगाये जिसमे बनती बिगड़ती है जिसको सब,जगह कहते है | वास्तव में वह जगह नहीं है परमात्मा ही है | उस परम आत्मा में ऐसी विशेषता है, की वह इस सृष्टि के मूल  परमाणुओं को नित्य क्रियाशील रखता है, गति प्रधान करता है | अर्थात उसके ही कारण ये मूल परमाणु गति करते है और इस स्रष्टि का निर्माण और विनाश होता है | क्योंकि विरोधी शक्ति रहे बिना क्रिया संभव नहीं | कोई दो रहे बिना निर्माण संभव नहीं, और विनाश भी संभव नहीं |

 

स्व का स्व पे कोई असर नहीं होता इसलिए दो सिद्ध होते है | जैसे स्त्री-पुरुष के मिलन से संतान का निर्माण होता है ऐसे ही परमात्मा और प्रकृति ( मूल प्रकृति ) से ब्रह्मांडो का निर्माण-विनाश नित्य होता रहता है, जैसे यह सम्बन्ध नित्य है, तो सृष्टि रूपी कार्य भी नित्य है | उत्पत्ति और विनाश परस्पर विरोधी कार्य नहीं है, विनाश का अर्थ है अपने कारण मूल में जाना और फिर निर्माण होना | इसलिए इसे विशेष नाश कहा है सर्वथा नाश नहीं, यही सृष्टि का चक्र है | चक्र में जैसा कोई छोर नहीं होता, शुरवात या अंत नहीं होता वैसे ही यह सृष्टि रूपी चक्र है जो घूमता है | यही सुक्ष्म रूप परमाणु स्थूल रूप में आते है और फिर सुक्ष्म रूप में जाते है क्योंकि यही इनकी योग्यता है | ऐसी योग्यता परमाणुओं में नहीं होती तो यह रचना भी संभव न  होती, क्योंकि परमात्मा किसी के सामर्थ्य को बढाता भी नहीं और घटाता भी नहीं, यह तो प्रकृति में ही योग्यता है की वह परमात्मा के नित्य संपर्क से या स्पर्श से या संभंध से नित्य क्रियाशील बनी हुई है |

 

वास्तव में ऐसी कोई जगह यहाँ खाली नहीं है | जिसे हम खाली जगह समजते है या कहते है ( जिसमे इन ब्रह्मांडो का निर्माण और विनाश हो रहा है ) | कोई उसे शुन्य कहता है, वास्तव में वह परमात्मा ही है | परमात्मा कोई दो हाथ और दो पैर वाला नहीं, कही उसका कोई दरबार नहीं | वह एक ऐसा विशेष पदार्थ है, जिसे किसी भी तरह से देखा नहीं जा सकता, सुना नहीं जा सकता, स्पर्श नहीं किया जा सकता, चखा नहीं जा सकता, पकड़ा नहीं जा सकता | वह तो सिर्फ और सिर्फ बुद्धि से ही जाना जा सकता है, तर्क से ही जाना जा सकता है, शुद्ध विचारों से ही जाना जा सकता है, की सृष्टि से परे, मूल जड़ परमाणुओं से परे ऐसा कोई तत्व है जो इन जड़ परमाणुओं को क्रिया दे रहा है और इन ब्रह्मांडो को धारण कर रहा है | इस जड़ संसार से परे कोई शक्ति है जो इसे निरंतर गतिशील रख रही है | मै फिर से कहता हू की संसार का नियम है, की विरोधी दूसरी शक्ति रहे बिना उत्पन्न की क्रिया संभव नहीं | यही नियम मूल तक कार्य करता है, या यु कहिये जो मूल में कार्य कर रहा है वही ऊपर  प्रगट हो रहा है | उत्पत्ति के लिए दो या दो से ज्यादा तत्वों की आवश्यकता होती है | अकेला क्या कोई उत्पन्न करेंगा, चाहे जड़ हो या चेतन इसमें से किसी का खुद पर क्या असर होंगा असर तो एक का दूसरे पर होंगा और परिवर्तन होता है | संसार में कोई एक भी उदाहरण ऐसा दे सकता है की स्व का स्व पर असर होता हो ? आज का विज्ञानं भी ऐसी कोई क्रिया साबित नहीं कर सकता | न ऐसा कोई उदहारण मौजूद है | विरोधी शक्ति को, आश्रय की आवशयकता होती ही है, इसके बिना कोई भी कार्य संभव नहीं | ऐसे हम कैसे कह सकते है, की मूल में एक ही है कोई दो नहीं | क्या एक बिना किसी सहारे के बिना किसी दूसरे के कारण अनेक हो सकते है ? और यह जो दूसरा है वही परमात्मा है और खास बात वह दूसरा व्यापक ही हो सकता है एक देशी नहीं | मूल कण सर्वत्र है तो उसे गति देनेवाला भी सर्वत्र होना चाइये और जो उसके भीतर भी हो और बाहर भी तब ही तो कण क्रियाशील होंगे |  कण के भीतर और बाहर होने से उसकी व्यापकता सिद्ध होती है | सर्वव्यापक ही सर्वत्र कणों को गति दे सकता है, क्रियाशील रख  सकता है | संसार के इस रूप को, आकार को, सुंदरता को, निर्माण करने की या बिजो की योग्यता स्वयं प्रकृति में है |

 

परमात्मा को माने बिना, समझे बिना इस सृष्टि की पहेली भुज नहीं सकती, इस प्रश्न का हल नहीं हो सकता, परमात्मा को समझे बिना पूर्णता को पा नहीं सकता | परमात्मा को समझे बिना प्रकृति को कोई समझ नहीं सकता | जो मूल परमाणु है वह अव्यक्त होते है वही अव्यक्त परमाणु परमात्मा के संभंध से गतिशील होकर इस संसार रूप में व्यक्त होते है | अव्यक्त से व्यक्त, व्यक्त से अव्यक्त इसका जो मूल कारण है वही परमात्मा है | जो सदा अव्यक्त रहता है |