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‘आयुष्काम (महामृत्युंजय) यज्ञ और हम’

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ओ३म्
‘आयुष्काम (महामृत्युंजय) यज्ञ और हम’
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सभी प्राणियों को ईश्वर ने बनाया है। ईश्वर सत्य, चेतन, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी, सर्वातिसूक्ष्म, नित्य, अनादि, अजन्मा, अमर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान है। जीवात्मा सत्य, चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, आकार रहित, सूक्ष्म, जन्म व मरण धर्मा, कर्मों को करने वाला व उनके फलों को भोगने वाला आदि स्वरूप वाला है। संसार में एक तीसरा एवं अन्तिम पदार्थ प्रकृति है। इसकी दो अवस्थायें हैं एक कारण प्रकृति और दूसरी कार्य प्रकृति। कार्य प्रकृति यह हमारी सृष्टि वा ब्रह्माण्ड है। मूल अर्थात् कारण प्रकृति भी सूक्ष्म व जड़ तत्व है जिसमें ईश्वर व जीवात्मा की तरह किसी प्रकार की संवेदना नहीं होती।

जीवात्मायें अनन्त संख्या में हमारे इस ब्रह्माण्ड में हैं। इनका स्वरूप जन्म को धारण करना व मृत्यु को प्राप्त करना है। मनुष्य जीवन में यह जिन कर्मों को करता है उनमें जो क्रियमाण कर्म होते हैं उसका फल उसको इसी जन्म में मिल जाता है। कुछ संचित कर्म होते हैं जिनका फल भोगना शेष रहता है जो जीवात्मा को पुनर्जन्म प्राप्त कर अगले जन्म में भोगने होते हैं। कर्मानुसार ही जीवों को मनुष्य व इतर पशु, पक्षी आदि योनियां प्राप्त होती हैं। मनुष्य योनि कर्म व भोग योनि दोनो है तथा इतर सभी पशु व पक्षी योनियां केवल भोग योनियां है। यह पशु पक्षी योनियां एक प्रकार से ईश्वर की जेल है जिसमें अनुचित, अधर्म अथवा पाप कर्मों के फलों को भोगा जाता है।

हम, सभी स्त्री व पुरूष, अत्यन्त भाग्यशाली हैं जिन्हें ईश्वर की कृपा, दया तथा हमारे पूर्व जन्म के संचित कर्मों अथवा प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य योनि प्राप्त हुई। इसका कारण है कि मनुष्य योनि सुख विशेष से परिपूर्ण हैं तथा इसमें दुख कम हैं जबकि इतर योनियों में सुख तो हैं परन्तु सुख विशेष नहीं है और दुःख अधिक हैं। वह उन्नति नहीं कर सकते हैं जिस प्रकार से मनुष्य योनि में हुआ करती है। हमें मनुष्य जन्म ईश्वर से प्राप्त हुआ है। यह क्यों प्राप्त हुआ? इसका या तो हमें ज्ञान नहीं है या हम उसे भूले हुए हैं। पहला कारण व उद्देश्य तो यह है कि हमें पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्मों अर्थात् अपने प्रारब्ध के अच्छे व बुरे कर्मों के फलों के अनुरूप सुख व दुःखों को भोगना है। दूसरा कारण व उद्देश्य अधिक से अधिक अच्छे कर्म यथा, ईश्वर भाक्ति अर्थात् उसकी ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने के साथ यज्ञ-अग्निहोत्र, सेवा, परोपकार, दान आदि पुण्य कर्मों को करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें अपना ज्ञान भी अधिक से अधिक बढ़ाना होगा अन्यथा न तो हम अच्छे कर्म ही कर पायेंगे जिसका कारण हमारा यह जीवन व मृत्यु के बाद का भावी जीवन भी दुःखों से पूर्ण होगा। ज्ञान की वृद्धि केवल आजकल की स्कूली शिक्षा से सम्भव नहीं है। यह यथार्थ ज्ञान व विद्या वेदों व वैदिक साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होती हैं जिनमें जहां वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थ हैं वहीं सरलतम व अपरिहार्य ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, व्यवहारभानु, संस्कार विधि आदि भी हैं। इन ग्रन्थों के अध्ययन से हमें अपने जीवन का वास्तविक उद्देश्य पता चलता है। वह क्या है, वह है धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है जो विचारणीय है। यह जीवात्मा की ऐसी अवस्था है जिसमें जीवन जन्म-मरण के चक्र से छूट कर मुक्त हो जाता है। परमात्मा के सान्निध्य में रहता है और 31 नील 10 खरब व 40 अरब वर्षों (3,11,04,000 मिलियन वर्ष) की अवधि तक सुखों व आनन्द को भोगता है। इसको विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करना चाहिये।

ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान दिया और उसके माध्यम से यज्ञ-अग्निहोत्र करने की प्रेरणा और आज्ञा दी। ईश्वर हमारा माता-पिता, आचार्य, राजा व न्यायाधीश है। उसकी आज्ञा का पालन करना हमारा परम कर्तव्य है। हम सब मनुष्य, स्त्री व पुरूष वा गृहस्थी, यज्ञ क्यों करें? इसलिए की इससे वायु शुद्ध होती है। शुद्ध वायु में श्वांस लेने से हमारा स्वास्थ्य अच्छा रहता है, हम बीमार नहीं पड़ते और असाध्य रोगों से बचे रहते हैं। हमारे यज्ञ करने से जो वायु शुद्ध होती है उसका लाभ सभी प्राणियों को होता है। दूसरा लाभ यह भी है कि यज्ञ करने से आवश्यकता व इच्छानुसार वर्षा होती है और हमारी वनस्पतियां व ओषधियां पुष्ट व अधिक प्रभावशाली होकर हमारे जीवन व स्वास्थ्य के अनुकूल होती हैं। यज्ञ करने से 3 लाभ यह भी होते हैं कि यज्ञ में उपस्थित विद्वानों जो कि देव कहलाते हैं, उनका सत्कार किया जाता है व उनके अनुभव व ज्ञान से परिपूर्ण उपदेशामृत श्रवण करने का अवसर मिलता है। यज्ञ करना एक प्रकार का उत्कृष्ट दान है। हम जो पदार्थ यज्ञ में आहुत करते हैं और जो दक्षिणा पुरोहित व विद्वानों को देते हैं उससे यज्ञ की परम्परा जारी रहती है जिससे हमें उसका पुण्य लाभ मिलता है। यज्ञ में वेद मन्त्रों का उच्चारण होता है जिसमें हमारे जीवन के सुखों की प्राप्ति, धन ऐश्वर्य की वृद्धि, यश व कीर्ति की प्राप्ति, ईश्वर आज्ञा के पालन से पुण्यों की प्राप्ति जिससे प्रारब्ध बनता है और जो हमारे परजन्म में लाभ देने के साथ हमारे मोक्ष रूपी अभीष्ट व उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होने के साथ हमें मोक्ष के निकट ले जाता है। हमारे आदर्श मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम तथा श्री योगेश्वर कृष्ण सहित महर्षि दयानन्द भी यज्ञ करते कराते रहे हैं। महर्षि दयानन्द ने आदि ऋषि व राजा मनु का उल्लेख कर प्रत्येक गृहस्थी के लिए प्रातः सायं ईश्वरोपासना-ब्रह्मयज्ञ-सन्ध्या व दैनिक अग्निहोत्र को अनिवार्य कर्तव्य बताया है। हम ऋषि-मुनियों व विद्वान पूर्वजों की सन्ततियां हैं। हमें अपने इन पूर्वजों का अनुकरण व अनुसरण करना है तभी हम उनके योग्य उत्तराधिकारी कहे जा सकते हैं। यह सब लाभ यज्ञ व अग्निहोत्र करने से होते हैं। अन्य बातों को छोड़ते हुए अपने अनुभव के आधार पर हम यह भी कहना चाहते हैं कि यज्ञ करने से अभीष्ट की प्राप्ति व सिद्धि होती है। उदाहरणार्थ यदि हम रोग मुक्ति, सुख प्राप्ति व लम्बी आयु के लिए यज्ञ करते हैं तो हमारे कर्म व भावना के अनुरूप ईश्वर से हमें हमारी प्रार्थना व पात्रता के अनुसार फल मिलता है अर्थात् हमारी सभी सात्विक इच्छायें पूरी होती हैं और प्रार्थना से भी कई बार अधिक पदार्थों की प्राप्ति होती है। इसके लिए अध्ययन व अखण्ड ईश्वर विश्वास की आवश्यकता है।

मृत्युंजय मन्त्र ‘त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्। उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।’ में कहा गया है कि हम आत्मा और शरीर को बढ़ानेवाले तथा तीनों कालों, भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता परमेश्वर की प्रतिदिन अच्छी प्रकार वेद विधि से उपासना करें। जैसे लता से जुड़ा हुआ खरबूजा पककर सुगन्धित एवं मधुर स्वाद वाला होकर बेल से स्वतः छूट जाता है वैसे ही हे परमेश्वर ! हम यशस्वी जीवनवाले होकर जन्म-मरण के बन्धन से छूटकर आपकी कृपा से मोक्ष को प्राप्त करें। यह मन्त्र ईश्वर ने ही रचा है और हमें इस आशय से प्रदान किया कि हम ईश्वर से इसके द्वारा प्रार्थना करें और स्वस्थ जीवन के आयुर्वेद आदि ग्रन्थों में दिए गये सभी नियमों का पालन करते हुए ईश्वर स्तुति-प्रार्थना-उपासना को करके बन्धनों से छूट कर मुक्ति को प्राप्त हों। हम शिक्षित बन्धुओं से अनुरोध करते हैं कि वह यज्ञ विज्ञान को जानकर उससे लाभ उठायें।
-मन मोहन कुमार आर्य
निवासः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोन-09412985121

श्रेष्ठ मानव जीवन का आधार – ‘वैदिक संस्कार’

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ओ३म्

श्रेष्ठ मानव जीवन का आधार – ‘वैदिक संस्कार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

संस्कार की चर्चा तो सभी करते व सुनते हैं परन्तु संस्कार का शब्दार्थ व भावार्थ क्या है? संस्कार किसी अपूर्ण, संस्काररहित या संस्कारहीन वस्तु या मनुष्य को संस्कारित कर उसका इच्छित लाभ लेने के लिए गुणवर्धन या अधिकतम मूल्यवर्धन value addition करना है। यह गुणवर्धन व मूल्यवर्धन भौतिक वस्तुओं का किया जाये तो वैल्यू एडीसन कहलाता है और यदि मनुष्य का करते हैं तो इसे ही संस्कार कह कर पुकारते हैं।

 

मनुष्य जन्म के समय शिशु शारीरिक बल व ज्ञान से रहित होता है। पहला कार्य तो अच्छी प्रकार से उसका पालन-पोषण द्वारा शारीरिक उन्नति करना होता है। इसे शिशु का शारीरिक संस्कार कह सकते हें। यह कार्य माता के द्वारा मुख्य रूप से होता है जिसमें पिता व परिवार के अन्य लोग भी सहायक होते हैं। बच्चा माता का दुग्ध पीकर, कुछ माह पश्चात स्वास्थ्यय व पुष्टिवर्धक भोजन कर तथा व्यायाम आदि के द्वारा शारीरिक विकास व वृद्धि को प्राप्त होता है। मनुष्य की पहली उन्नति शरीर की उन्नति होती है और इसके लिए जो कुछ भी किया जाता है वह भी संस्कार ही हैं। शारीरिक उन्नति के पश्चात सन्तान के लिए सुशिक्षा की आवश्यकता है। शिक्षा रहित सन्तान शूद्र, पशु वा ज्ञानहीन कहलाती है और शिक्षा प्राप्त कर उसकी संज्ञा द्विज अर्थात ज्ञानवान होती है और वह अपने प्रारब्ध व इस जन्म के आचार्यों द्वारा प्रदत्त ज्ञान से ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य बनकर देश व समाज की उन्नति में योगदान करता है। इस प्रकार से संस्कार की यह परिभाषा सामने आती है कि जीवन की उन्नति जो कि धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति का साधन है, के लिए जो-जो शिक्षा, वेदाध्ययन आदि कार्य व क्रियाकलाप किये जाते हैं वह संस्कार कहलाते हैं।

 

चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ईश्वरीय ज्ञान हैं जो कि सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को वैदिक भाषा संस्कृत के ज्ञान सहित दिये गये थे। इन वेदों में ईश्वर ने वह ज्ञान मनुष्यों तक पहुंचाया जो आज 1,96,08,53,114 वर्ष बाद भी सुलभ है। यह वेदों का ज्ञान ही मनुष्य की समग्र उन्नति का आधार है। इस ज्ञान को माता-पिता और आचार्यों से पढ़कर मनुष्य की समग्र शारीरिक, बौद्धिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति होती है। उदाहरण के रूप में हम आदि पुरूष ब्रह्माजी, महर्षि मनु, पतजंलि, कपिल, कणाद, गौतम, व्यास, जैमिनी, राम, कृष्ण, चाणक्य, दयानन्द आदि ऐतिहासिक महापुरूषों को ले सकते हैं जिनकी शारीरिक, बौद्धिक और आत्मिक उन्नति का आधार वेद था। वेदाध्ययन यद्यपि वेदारम्भ और उपनयन इन दो संस्कारों के अन्तर्गत आता है परन्तु इन दोनों संस्कारों का महत्व अन्यतम है। नित्य आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय का भी जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। वेदों के आधार पर जिन सोलह संस्कारों का विधान है वह क्रमशः गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोनयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह-गृहस्थ, वानप्रस्थ-संन्यास व अन्त्येष्टि संस्कार हैं। इन संस्कारों को करने से मनुष्य की आत्मा सुभूषित, संस्कारित एवं ज्ञानवान होती है और जीवन के चार पुरूषार्थों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकती है। इनके साथ नित्य प्रति पंचमहायज्ञों यथा सन्ध्योपासना, दैनिक अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ का करना अनिवार्य है। इन संस्कारों को विस्तार से जानने के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत संस्कार विधि ग्रन्थ और इसके अनेक व्याख्या ग्रन्थ जिनमें संस्कार भास्कर और संस्कार चन्द्रिका आदि मुख्य हैं, का अध्ययन लाभप्रद होता है।

 

वैदिक धर्म और संस्कृति में वेदों व वैदिक साहित्य का अध्ययन किए हुए युवक व युवति का विवाह योग्य सन्तान और देश के श्रेष्ठ नागरिकों की उत्पत्ति के लिए होता है। संसार के शिक्षित और अशिक्षित सभी माता-पिता अपनी सन्तानों को स्वस्थ, दीर्घायु, बलवान, ईश्वरभक्त, धर्मात्मा, मातृ-पितृ-आचार्य-भक्त, विद्यावान, सदाचारी, तेजस्वी, यशस्वी, वर्चस्वी, सुखी, समृद्ध, दानी, देशभक्त आदि बनाना चाहते हैं। इसकी पूर्ति केवल वैदिक धर्म के ज्ञान व तदनुसार आचरण से ही सम्भव है। आज की स्कूली शिक्षा में वह सभी गुण एक साथ मिलना असम्भव है जिससे ऐसे योग्य देशभक्त नागरिक उत्पन्न हो सकें। केवल वैदिक शिक्षा से ही इन सब गुणों का एक व्यक्ति में होना सम्भव है जिसके लिए अनुकुल सामाजिक वातावरण भी आवश्यक है। हमारे सभी वैदिक कालीन और कलियुग में महर्षि दयानन्द इन्हीं वैदिक संस्कारों में दीक्षित महात्मा थे। वेदों के ज्ञान के कारण ही हमारे देश में ऋषि, महर्षि, योगी, सन्त आदि हुए हैं। अन्य देशों में यह सब गुण किसी एक व्यक्ति में पूरी सृष्टि के इतिहास में नहीं देखे गये हैं। हमारे पौराणिक मित्र व बन्धु वेदों के अध्ययन व आचरण को त्याग कर पुराण सम्मत मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, छुआछूत, जन्म पर आधारित जातिवाद जैसे अवैदिक व अनुचित कृत्यों को करने में समय लगाते हैं। इन अवैदिक कृत्यों का जीवन से निराकरण केवल पक्षपातरहित होकर सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर सदविवेक से कार्य करने पर ही हो सकता है।

 

सन् 1947 में भारत विदेशी दासता से स्वतन्त्र हुआ। आवश्यकता थी कि देश में सर्वत्र, आध्यात्मिक जीवन में सत्य की प्रतिष्ठा हो, परन्तु इसके विपरीत धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त बना जहां ईश्वर के सत्य ज्ञान वेदों  को प्रतिष्ठा नहीं मिली। सभी मतों की पूजा पद्धतियां अलग-अलग हैं। इन्हें संस्कारों व कुसंस्कारों का मिश्रण कहा जा सकता है। अलग-अलग उपासना पद्धतियों से परिणाम भी निश्चित रूप से अलग-अलग ही होंगे। सभी उपासना पद्धतियों से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होना असम्भव है। वह केवल वैदिक उपासना पद्धति से ही सम्भव है। अतः संस्कारों को केन्द्र में रखते हुए अपने जीवन को सत्य को ग्रहण करने वाला, असत्य को निरन्तर व हर क्षण छोड़ने के लिए तत्पर रहने वाला, सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य व्यवहार करने वाला बनाना होगा। यह संस्कारों से ही सम्भव है और यह संस्कार मर्यादा पुरूषोत्तम राम व योगश्वर कृष्ण सहित हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों एवं महर्षि दयानन्द सरस्वती में रहें हैं जिनका हमें अनुकरण करना है। इन महापुरूषों के जीवन चरित का अध्ययन कर उनके गुणों को आत्मसात कर सुसंस्कारित हुआ जा सकता है।

 

निष्कर्ष यह है कि संस्काररहित मनुष्य पशु के समान होता है। अतः प्रत्येक मनुष्य को संस्कार विधि का गहन अध्ययन कर संस्कारों की विधि और उनके महत्व को जानना व समझना चाहिये। वेदाध्ययन कर वेदानुसार आचरण करना चाहिये। शारीरिक उन्नति पर ध्यान देना चाहिये। शुद्ध शाकाहारी व पुष्टिकारक भोजन करते हुए संयमपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001/फोनः09412985121

‘ईश्वर व उसकी उपासना पद्धतियां – एक वा अनेक?’

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ओ३म्

विचार व चिन्तन

ईश्वर उसकी उपासना पद्धतियांएक वा अनेक?’

 

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

हम संसार में देख रहे हैं कि अनेक मत-मतान्तर हैं। सभी के अपने-अपने इष्ट देव हैं। कोई उसे ईश्वर के रूप में मानता है, कोई कहता है कि वह गाड है और कुछ ने उसका नाम खुदा रखा हुआ है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न भाषाओं में एक ही संज्ञा – माता के लिए मां, अम्मा, माता, मदर, मम्मी या अम्मी आदि नाम हैं उसी प्रकार से यह ईश्वर के अन्य-अन्य भाषाओं व उपासना पद्धतियों में ईश्वर के नाम हैं। क्या यह ईश्वर, ळवक व खुदा अलग-अलग सत्तायें हैं? कुछ ऐसे मत भी हैं जो ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करते तथा अपने मत के संस्थापकों को ही महान आत्मा मानते हैं जिनकी स्थिति प्रकारान्तर से ईश्वर के ही समान व ईश्वर की स्थानापन्न है। जहां तक सभी मतों का प्रश्न है, हमने अनुभव किया है कि सभी मतों के सामान्य अनुयायी अपनी बुद्धि का कम ही प्रयोग करते हैं। उन्हें जो भी मत के प्रवतर्कों व उसके नेताओं द्वारा कहा या बताया जाता है या जो उन्हें परम्परा से प्राप्त हो रहा है, उस पर आंखें बन्द कर विश्वास कर लेते हैं। उनकी वह आदत, कार्य व व्यवहार उनके अपने जीवन के लिए हानिकर ही सिद्ध होती है एवं इसके साथ यह देश व समाज के लिए भी अहित कर सिद्ध होती है। यहां यदि विचार करें तो यह ज्ञात होता है कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को बुद्धि तत्व लगभग समान रूप से दिया है। इस बुद्धि तत्व का प्रयोग व उपयोग बहुत कम लोग ही करना जानते हैं। आजकल बहुत से लोग ऐसे हैं जो विद्या का अध्ययन धनोपार्जन के लिए करते हैं। उनके जीवन का एक ही उद्देश्य है कि अधिक से अधिक धन का उपार्जन करना और उससे अपने व अपने परिवार के लिए सुख व सुविधा की वस्तुओं को उपलब्ध करना तथा उन सबका जी भर कर उपयोग करना। यह मानसिकता व सोच हमें बहुत ही घातक अनुभव होती है। एकमात्र धन की ही प्राप्ति में मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को भूलकर उससे इतनी दूर चला जाता कि जहां से वह कभी लौटता नहीं है और उसका यह जीवन एक प्रकार से नष्ट प्रायः हो जाता है।

हम यह मानते हैं कि धन की जीवन में अत्यन्त आवश्यकता है परन्तु जिस प्रकार से हर चीज की सीमा होती है उसी प्रकार से धन की भी एक सीमा है। उस सीमा से अधिक धन, धन न होकर हमारे पतन व नाश का कारण बन सकता है व बनता है। इस धन को अर्थ नहीं अपितु अनर्थ कहा जाता है। जिस प्रकार से भूख से अधिक भोजन करने पर उसका पाचन के यन्त्रों पर कुप्रभाव पड़ता है उसी प्रकार से आवश्यकता से कहीं अधिक धन का उपार्जन व संचय, जीवन व उसके उद्देश्य की प्राप्ति पर कुप्रभाव डालता है। हमारे ऋषि-मुनि-योगी साक्षात्कृतधर्मा होते थे जिन्हें अपने ज्ञान व विवेक से किसी भी क्रिया के परिणाम का पूरा ज्ञान होता था। उन्होंने एक सूत्र दिया कि जो व्यक्ति धन व काम की एषणा से युक्त है, उसे धर्म का ज्ञान नहीं होता। धर्म का सम्बन्ध हमारे दैनिक कर्तव्यों एवं आचार, विचार व व्यवहार से होता है। दैनिक कर्तव्य क्या हैं यह आज के ज्ञानी व विद्वानों तक को पता नहीं है। इन दैनिक कर्तव्यों में प्रातः उठकर शारीरिक शुद्धि करके ईश्वर के गुणों व स्वरूप का ध्यान कर निज भाषा एवं वेद मन्त्रों से अर्थ सहित सर्वव्यापाक व निराकार ईश्वर प्रार्थना की जाती है। उसका धन्यवाद किया जाता है जिस प्रकार से हम अपने सांसारिक जीवन में किसी से कृतज्ञ होने पर उसका धन्यवाद करते हैं। ईश्वर ने भी हमें यह संसार बना कर दिया है। हमें माता-पिता-आचार्य-भाई-बहिन-संबंधी-मित्र-भौतिक सम्पत्ति-हमारा शरीर-स्वास्थ्य आदि न जाने क्या-क्या दिया है। इस कारण वह हम सब के धन्यवाद का पात्र है। इन्हीं सब बातों पर विचार व चिन्तन करना, ईश्वर के गुणों व उपकारों का चिन्तन व ध्यान करना ही ईश्वर की उपासना कहलाती है। इससे मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। इससे निराभिमानता का गुण प्राप्त होता है। निराभिमानता से मनुष्य अनेक पापों से बच जाता है। दूसरा कर्तव्य यज्ञ व अग्निहोत्र का करना है। तीसरा कर्तव्य माता-पिता आदि के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन है जिससे माता-पिता पूर्ण सन्तुष्ट हों। इसे माता-पिता की पूजा भी कह सकते हैं। इसके बाद अतिथि यज्ञ का स्थान आता है जिसमें विद्वानों व आचार्यों का पूजन अर्थात् उनका सम्मान व उनकी आवश्यकता की वस्तुएं उन्हें देकर उनको सन्तुष्ट करना होता हैं। अन्तिम मुख्य दैनिक कर्तव्य बलिवैश्वदेव यज्ञ है जिसमें मनुष्येतर सभी प्राणियों मुख्यतः पशुओं व कीट-पतंगों को भोजन कराना होता है।

हम बात कर रहे थे कि अनेकानेक मतों में अपने अपने गुरू व अपने-अपने भगवान हैं। सबकी पूजा पद्धतियां अलग-अलग हैं। क्या वास्तव में ईश्वर भी अलग-अलग हैं व एक है? यदि एक है तो फिर सब मिलकर उसके एक सत्य स्वरूप का निर्धारण करके समान रूप से एक ही तरह से पूजा या उपासना क्यों नहीं करते? इसका उत्तर ढूढंना ही इस लेख का उद्देश्य है। ईश्वर केवल एक ही है, पहले इस पर विचार करते हैं। संसार में ईश्वर वस्तुतः एक ही है। एक से अधिक यदि ईश्वर होते तो न तो यह संसार बन सकता था और न ही चल सकता है। हम एक उदाहरण के लिए एक बड़े संयुक्त परिवार पर विचार कर सकते हैं। यदि परिवार का एक मुख्या न हो, समाज का एक प्रतिनिधि न हो, प्रान्त का एक मुख्य मंत्री न हो और देश का एक प्रधान न होकर अनेक प्रधान मंत्री हों तो क्या देश कभी चल सकता है? कदापि नहीं। आज हमारे देश में जितने राजनैतिक दल हैं, यदि सभी दलों के या एक से अधिक दलों के दो-चार या छः प्रधान मंत्री बना दें तो देश की जो हालत होगी वही एक से अधिक ईश्वर के होने पर इस संसार या ब्रह्माण्ड की होने का अनुमान आसानी से कर सकते हैं। हम पौराणिक भगवानों को देखते हैं कि पुराणों की कथाओं में उनमें परस्पर एकता न होकर कईयों में इस बात का विवाद हो जाता है कि कौन छोटा है और कौन बड़ा है। वैष्णव स्वयं को शैवों से श्रेष्ठ मानते हैं और शैव स्वयं को वैष्णवों से श्रेष्ठ। अतः हमें हमारे प्रश्न का उत्तर मिल गया है कि संसार व ब्रह्माण्ड केवल एक सर्वव्यापक, चेतन सत्ता ईश्वर स ेचल सकता है, उनके सत्ताओं से कदापि नहीं। संसार का रचयिता, संचालक, पालक व प्रलयकर्ता ईश्वर केवल एक ही सत्ता है जो पूर्ण धार्मिक और सब प्राणियों का सच्चा हितैषी है और वह माता-पिता-सच्चे आचार्य के समान सबके कल्याण की भावना से कार्य करता है।

अब उपासना पद्धतियों की चर्चा करते हैं। उपासना का अर्थ होता है पास बैठना। जैसे विद्यालय में एक कक्षा में विद्यार्थी अगल-बगल में बैठते हैं। जहां गुरू सामने बैठ या खड़ा होकर उपदेश दे रहा होता है तो वह गुरू-शिष्य एक दूसरे की उपासना कर रहे होते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक होने से सबके पास पहले से ही उपस्थित व मौजूद है। उसे मिलने या प्राप्त करने के लिए कहीं आना-जाना नहीं है। हमारा मन व ध्यान सांसारिक वस्तुओं में लगा रहता है जिसका अर्थ है कि हम उन-उन सांसारिक वस्तुओं की उपासना कर रहे होते हैं। यदि हम सभी सांसारिक विषयों से अपना मन व ध्यान हटाकर ईश्वर के गुणों व उसके स्वरूप में स्थिर कर लेते हैं तो यह ईश्वर की उपासना होती है। इसके अलावा ईश्वर की किसी प्रकार से उपासना हो नहीं सकती है। योग दर्शन में महर्षि पतंजलि जी ने भी ईश्वर की उपासना का यही तरीका व विधि बताई है। ध्यान अर्थात् ईश्वर के स्वरूप वा उसके गुणों का विचार व चिन्तन ध्यान करलाता है जो लगातार करते रहने से समाधि प्राप्त कराता है। समाधि में ईश्वर के वास्तविक स्वरूप व प्रायः सभी मुख्य गुणों का साक्षात् व निभ्र्रान्त ज्ञान होता है। नान्यः पन्था विद्यते अयनायः, अन्य दूसरा कोई मार्ग या उपासना पद्धति इस लक्ष्य को प्राप्त करा ही नही सकती। यही मनुष्य जीवन का और किसी जीवात्मा का परम लक्ष्य या उद्देश्य है। अतः ईश्वर की पूजा, उपासना, स्तुति व प्रार्थना आदि सभी की विधि केवल यही है और इसी प्रकार से उपासना करनी चाहिये व की जा सकती है। बाह्याचार आदि जो सभी मतों में दिखाई देता है वह पूर्ण उपासना न होकर आधी-अधूरी व आंशिक उपासना ही कह सकते हैं जिससे परिणाम भी आधे व अधूरे ही प्राप्त होते हैं। अतः सभी मनुष्यों को चाहें वह किसी भी मत, धर्म, सम्प्रदाय या मजहब के ही क्यों न हों, सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय एवं वेदादि सत्य शास्त्रों का अध्ययन, स्वाध्याय, विचार व चिन्तन करना चाहिये। यही ईश्वर की सही उपासना पद्धति है और इसी से ईश्वर की प्राप्ति अर्थात् साक्षात्कार होगा। ईश्वर केवल एक ही है और नाना भाषाओं में उसके नाना व भिन्न प्रकार के नाम यथा, ईश्वर, राम, कृष्ण, खुदा व गौड आदि शब्द उसी के लिए प्रयोग किये जाते हैं। ईश्वर का मुख्य नाम केवल एक है और वह है “ओ३म्” जिसमें ईश्वर के सब गुणों का समावेश है। इस ओ३म् नाम की तुलना में ईश्वर का अन्य कोई नाम इसके समान, इससे अधिक व प्रयोजन को प्राप्त नहीं कर सकता। “ओ३म्” का अर्थ पूर्वक ध्यान व चिन्तन करने से भी उपासना होती है और इससे समयान्तर पर मन की शान्ति सहित अनेकानेक लाभ होते हैं। रोगों का शमन व स्वास्थ्य लाभ भी होता है। इसी के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हैं। पाठकों की निष्पक्ष प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

“महाभारतोत्तर काल के देशी-विदेशी वेद भाष्यकार और महर्षि दयानन्द”

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ओ३म्

महाभारतोत्तर काल के देशीविदेशी वेद भाष्यकार और महर्षि दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

आईये, पौर्वीय एवं पाश्चात्य वेदों के भाष्यकारों पर दृष्टि डालते हैं। महाभारत काल के बाद से अब तक लगभग 5,115 वर्षों से कुछ अधिक समय व्यतीत हो चुका है। महाभारत युद्ध के बाद वेदों के अध्ययन व अध्यापन की परम्परा में बड़ा व्यवधान उपस्थित हुआ। युद्ध के बाद प्रायः ऐसा हुआ ही करता है। आजकल भी यदि घर में किसी को खर्चीला रोग हो जाये या फिर कोई मुकदमा आदि ऐसा हो जाये जिसमें उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में मुकदमा लड़ना पड़े तो अति व्यय साध्य होने से अच्छे अच्छे को पसीने आ जाते हैं मुख्यतः सामान्य व मध्यम वर्गीय व्यक्तियों को। महाभारत काल व बाद के समय में देश की आज कल की तरह वैज्ञानिक दृष्टि से उन्नति भी नहीं थी। हम अनुभव करते हैं कि वेदों का अध्ययन हो व सामान्य सांसारिक अध्ययन, हस्त-लिखित पुस्तकों से अध्ययन व अध्यापन किया जाता था। पुस्तकें हो सकता है कि ताड़पत्रों या भोज पत्रों पर होती रही हांगी। यह आजकल की तरह से किसी पुस्तक विक्रेता या प्रकाशक से सुलभ व उपलब्ध भी नहीं होती होंगी? यही स्थिति वेदों व वैदिक साहित्य की कही जा सकती थी। देश की ऐसी स्थिति में महाभारत काल के बाद मध्यकाल व उससे कुछ पूर्व हमारे अज्ञानी व स्वार्थी धर्माधिकारियों द्वारा स्त्री व शूद्रों को वेद व वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से ही वंचित कर दिया गया। जब समाज में वैदिक ज्ञान को जानने व समझने वाले लोगों की कमी या अभाव सा हुआ तो हमारे शीर्ष ब्राह्मण धर्माधिकारियों ने अपना अध्ययन, पुरूषार्थ व तप करना छोड़ दिया या कम कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि वेदाध्ययन की परम्परा प्रायः टूट गई। दूसरी ओर ऐसे अन्धकार के समय में भी हमारे देश में पाणिनी, पतंजलि व महर्षि यास्क जैसे वेदों के विश्व-विश्रुत विद्वान हुए जिन्होंने अपनी साधना व योग की प्रतिभा व पुरूषार्थ के बल पर अष्टाध्यायी, महाभाष्य एवं निरूक्त आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। यहां हम अनुमान करते हैं कि इन गुरूओं व शिष्यों ने मिलकर इन ग्रन्थों की एक-एक प्रति तैयार की होंगी। फिर उन शिष्यों ने मिलकर एक से अनेक प्रतियां बनाई होगी। यह कार्य आसान नहीं था। अतः महर्षि पाणिनी, पतंजलि एवं यास्क जी का अध्ययन व अध्यापन क्षेत्र विकसित व उन्नत होकर भी सामाजिक प्रभाव की दृष्टि से अति सीमित प्रतीत होता है। समय के साथ-साथ पाणिनी की अष्टाध्यायी जैसे ग्रन्थ भी विलुप्त व अप्राप्य हो गये। देश बहुत बड़ा है। दूरस्थ भागों में जब समस्यायें आयीं होंगी तो हमें लगता है कि वहां के विद्वानों ने अपनी ज्ञान व क्षमता के अनुसार व्याकरण व अन्य ग्रन्थ तैयार किये हांेगे। संस्कृत के यह व्याकरण ग्रन्थ शेखर, मनोरमा, लघुकौमुदी, सिद्धान्त कौमुदी आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं जिनका आज भी उपयोग किया जा रहा है। ऋषिकृत व विद्वान के ग्रन्थों में अन्तर हुआ करता है जैसे कि एक बहुत बड़ा विद्वान या आचार्य किसी महाविद्यालय में पढ़ायें और कहीं एक अल्प शिक्षित विद्वान किसी साधारण विद्यालय में अध्ययन व शिक्षण कराये। अतः अष्टाध्यायी, महाभाष्य व निरूक्त, निघण्टु आदि वैदिक संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थ ऋषियों व उच्च कोटि के विद्वानों के द्वारा बनाये हुए थे और अन्य मनोरमा, कौमुदी आदि ग्रन्थ साधारण विद्वानों के बनाये ग्रन्थ थे। हम समझते हैं कि यह सभी हमारे आदर के पात्र हैं परन्तु यहां एक नियम लागू होता है कि जब दिन निकल आता है तो बुद्धिमान लोग दीपक या प्रकाश के वैकल्पिक साधनों बल्ब आदि का प्रयोग न कर सूर्य के प्रकाश से लाभ उठाते हैं परन्तु धार्मिक व विद्वत जगत में अष्टाध्यायी व महाभाष्य एवं निरूक्त आदि सूर्य के समान उच्च कोटि के ग्रन्थ प्राप्त हो जाने पर भी हमारे पूर्वज महानुभावों ने उन्हें न अपना कर अति अल्प महत्व के व्याकरण ग्रन्थों का आश्रय लेना जारी रखा जो अब भी बदस्तूर जारी है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि वेद व्याख्या के क्षेत्र में वेद मन्त्रों के सत्य अर्थों को करने की क्षमता इन लौकिक व्याकरणाचार्यों में नहीं है। इनकी पहुंच रामायण, महाभारत व गीता आदि लौकिक ग्रन्थों तक श्लोकों का अनुवाद करने की ही है।

महाभारत काल के बाद से अब तक तथा महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायियों को छोड़कर जितने भी वेद भाष्यकार हुए हैं उनमें सायण व महीधर का नाम मुख्य है। इन दोनों ही वेद भाष्यकारों ने जो वेदार्थ किया है वह सत्य वेदार्थ को प्रकाशित व उद्घाटित करने में सर्वथा असमर्थ रहा है। इसके विपरीत इन भाष्यों में अर्थ का अनर्थ किया गया है जिसका प्रमाण-पुरस्सर प्रकाश महर्षि दयानन्द ने अपने साहित्य में किया है। इन मध्यकालीन भाष्यकारों ने तो एक कल्पना की कि वेदों का मुख्य व एकमात्र प्रयोजन केवल यज्ञों को करने वा कराने में ही हैं। इनका हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों से सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है। इससे यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि वेद मनुष्य का धर्म ग्रन्थ न होकर एक प्रकार से यज्ञ, अग्निहोत्र या संस्कार आदि कर्मों को करने वा कराने वाला ग्रन्थ ही है, इससे अधिक कुछ नहीं। इसके विपरीत जो आर्ष विद्वान महर्षि पाणिनी, महाभाष्यकार महर्षि पतंजलि तथा महर्षि यास्क आदि हुए हैं, उन्होंने वेदों को ईश्वर ज्ञान मानने के साथ इस ज्ञान को जीवन के सभी अंगों व क्षेत्रों पर व्यापक रूप से विचार, ज्ञान व विज्ञान देने वाला सभी विद्याओं का प्रकाशक ग्रन्थ स्वीकार किया है। पौराणिकों, लौकिक व्याकरणाचार्यों एवं अनार्ष विद्वानों के ग्रन्थों के कारण ही वेद विलुप्ति के कागार पर पहुंचे और देश में अनेकानेक अन्धविश्वास व कुरीतियां उत्पन्न हुईं थीं। दूसरी ओर महर्षि दयानन्द अपने गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती के मार्गदर्शन एवं शिक्षण से आर्ष ग्रन्थों को ढूढ्ने व खोजने में सफल हुए। उन्होंने गुरूजी की सहायता, मार्गदर्शन, अपने पुरूषार्थ एवं योग की उपलब्धियों व सिद्धियों का उपयोग वेद के यथार्थ रहस्य, सत्य वेदार्थ व संसार के रहस्यों को जानने में किया और इसमें वह सफल हुए। उन्होंने वैदिक धर्म, संस्कृति व प्राचीन परम्पराओं को पुनर्जीवित करने के लिए जहां आरम्भ में सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ लिखें वही वेदों के जो अनुचित, त्रुटिपूर्ण वा अश्लील अर्थ किये गये थे उनका निराकरण कर सत्य वेदार्थ को ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका व ऋग्वेद आंशिक एवं यजुर्वेंद सम्पूर्ण वेदभाष्य करके पूरा किया। आज उनका किया हुआ यह समस्त वेद भाष्य एवं उनके अनुयायी विद्वानों के किए हुए अनेक वेदभाष्य न केवल हिन्दी भाषा में ही अपितु अंग्रेजी भाषा में भी उपलब्ध हैं। वेदों के सत्यार्थ का वर्तमान में उपलब्ध होना आर्य जनता, देशवासियों एवं सारे संसार के लोगों का परम सौभाग्य है। वेदों की महत्ता इस कारण से है कि यह धर्म के आदि स्रोत होने के कारण सत्य धर्म व सच्ची आध्यात्मिकता के ग्रन्थ हैं। इनसे हमें अपने जीवन के सत्य लक्ष्य का ज्ञान होने के साथ उसकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान भी होता है। संसार के अन्य मतों से जीवन के लक्ष्य व उसकी प्राप्ति के साधनों का भली प्रकार से ज्ञान नहीं होता। योग दर्शन एक ऐसा ग्रन्थ है जो इस विषय में सहायक है एवं इसका आधार भी वेद ही है। यदि वेद न होते तो योग दर्शन न होता और योग दर्शन न होता तो ईश्वर की सही विधि से उपासना का ज्ञान संसार में किसी को न हो पाता। वेदों का महत्व इस कारण से भी है कि वेद संसार का सबसे प्राचीनतम ज्ञान है और यह हमारे आदिकालीन अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा ऋषियों को सीधा सर्वव्यापक व सृष्टिकत्र्ता से प्राप्त हुआ था। वेद सभी सत्य विद्याओं के भण्डार होने के कारण हमारे सभी के पूर्वजों की एक प्रकार से सम्मिलित थाती व पूंजी है। आज भी सभी बच्चे अपने माता-पिता की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी बनते ही हैं। इसी प्रकार से वैदिक ज्ञान का उत्तराधिकार भी सभी सन्तानों व देशवासियों को ग्रहण करना चाहिये। यदि नहीं करते तो वह पूर्वजों की योग्य सन्ताने व सन्तति नहीं हैं। अब कुछ चर्चा पाश्चात्य वेदों के विद्वानों की भी कर लेते हैं।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बाबर के आक्रमण करने पर भारत मुगलों का गुलाम हुआ। उन्होंने देश के लोगों का शोषण किया, उन पर अत्याचार किये और भारी संख्या में धर्मान्तरण किया तथा हमारे मन्दिरों आदि को तोड़ा और उनको मस्जिद के रूप में बदला। हमारे तक्षशिला व नालन्दा सहित देश के पुस्तकालयों को अग्नि के समर्पित कर दिया गया। हमें लगता है कि देश में यदि सरदार वल्लभ भाई पटेल गृहमंत्री व उपप्रधान मंत्री न हुए होते तो विध्वंसित सोमनाथ मन्दिर दुबारा अस्तित्व में कदापि न आता। भारत माता के इस भक्त सरदार पटेल को स्मरण कर अपनी श्रद्धांजलि देते हैं। इसके बाद अनेक पीढि़यों के बीत जाने के बाद मुगल शासन भी अपनी ही विसंगितों व अत्याचारों आदि के कारण कमजोर हुआ तो उनसे अधिक बुद्धिमान व बलवान अंग्रेजों ने अपनी बुद्धिचातुर्य से देश को गुलाम बनाया। उन्होंने भी अत्याचारों में कहीं कोई कमी नहीं की। इन्होंने भी अनुभव किया कि भारत पर स्थाई शासन करने के लिए भारत के वैदिक धर्मी आर्य व हिन्दुओं को ईसाई बनाना सबसे अच्छा व निरापद तरीका हो सकता है। पर्दे के पीछे षडयन्त्र व योजनायें बनी और छल व कपट से काम लिया गया। इसी योजना का एक भाग वेदों का मिथ्या व अनेक दोषों से पूर्ण भाष्य वा अनुवाद करना था जिससे वेद विश्वासी भारतीयों को अपने वैदिक धर्म से घृणा हो जाये। उनका कार्य हमारे सायण व महीधर के वेदों के भाष्यों ने कर दिया। अतः उन्हें अधिक परिश्रम व कठिनाईयों का सामना नहीं करना पड़ा। उनका किया गया वेदों का भाष्य एक प्रकार से सायण आदि वाममार्गी वेद भाष्यकारों के भाष्यों का अंग्रेजी में अनुवाद ही है। उनमें किसी के पास यथार्थ वेदभाष्य या वेदार्थ की योग्यता भी नहीं थी। प्रो. मैक्समूलर जर्मनी मूल के अंगे्रज विदेशी वेद भाष्यकारों एवं वेदों पर कार्य करने वालों लोगों के अग्रणीय प्रमुख व्यक्ति हैं। इतना ही नहीं उन्होंने व उनके विदेशी सहयोगियों ने काल्पनिक सिद्धान्त प्रस्तुत कर प्रचारित किये। जैसे कि वेदों को धर्म ग्रन्थ मानने वाले आर्य व हिन्दू भारत के मूल निवासी नहीं हैं। यह मध्य एशिया व विश्व के किसी अन्य स्थान पर रहते थे और वहां से भारत आये, यहां के मूल निवासियों जो काले रंग रूप वाले थे, उन पर आक्रमण किया, विजय प्राप्त की और उन पर शासन किया। वह अपने इस षडयन्त्र व मनोरथ में आंशिक रूप से सफल भी हुए। आज हम भारत के अनेक स्थानों पर जिन ईसाई मतावलम्बियों को देखते हैं वह इन्हीं षडयन्त्रों व छल-कपट से धर्मान्तरण का परिणाम हैं। इसमें कुछ व पर्याप्त कारण भारत की गरीबी, अशिक्षा, अज्ञान व अन्धविश्वास, धार्मिक पाखण्ड, मूर्ति पूजा, जन्म पर आधारित जन्मना जाति व्यवस्था, छुआछुत, फलित ज्योतिष आदि मुख्य रूप से रहे हैं। ईश्वर की कुछ ऐसी दैवीय कृपा भारतवासियों पर रही कि यह दोनों विदेशी आक्रान्ता अपने षडयन्त्रों में पूर्णतः सफल नहीं हो सके। इसी बीच 15 फरवरी, 1825 को भारत में महर्षि दयानन्द जी का गुजरात राज्य के राजकोट से लगभग 25 किलोमीटर दूरी पर स्थित टंकारा नामक एक ग्राम व कस्बे में जन्म होता है। शिवरात्रि को अन्ध विश्वास की घटना घटती है जिससे मूर्तिपूजा से उन्हें वैराग्य हो जाता है। उसके कुछ काल बाद बहिन व चाचाजी की मृत्यु की घटनाओं से उन्हें अपनी मृत्यु का डर सताता है। वह सत्य ज्ञान की खोज एवं मृत्यु पूजा पर विजय पाने के लिए घर से भाग जाते हैं और नवम्बर, सन् 1860 तक देश के विभिन्न भागों का भ्रमण करते हुए सच्चे योगियों व विद्वानों के सम्पर्क में आकर अपनी सभी धार्मिक, आध्यात्मिक व सामाजिक शंकाओं की चर्चा कर उनके समाधानों पर विचार करते हैं। इस प्रयास व पुरूषार्थ में वह एक सिद्ध योगी बनने के साथ संस्कृत व्याकरण के अपूर्व विद्वान और वेदों के भी अपूर्व विद्वान तथा साक्षात्कृतधर्मा ऋषि भी बन जाते जाते हैं। गुरू विरजानन्द जी के परामर्श व आज्ञा से वह अपने जीवन का उद्देश्य सत्य का मण्डन व असत्य का खण्डन निर्धारित करते हैं। गुरू जी से सत्य व असत्य को जानने की कसौटी उन्हें पहले ही प्राप्त हो चुकी होती है। अब वह एक-एक करके मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, वेदाधिकार, वेद किन-किन ग्रन्थों की संज्ञा है, छुआछूत शास्त्रीय है वा मनघड़न्त अथवा कपोल कल्पित है, इस पर वेद आदि शास्त्रों की आर्ष दृष्टि के आधार पर विचार कर निर्णय करते हैंै। उनके अनुसंधान के परिणाम के अनुसार वेद ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होता है जो सृष्टि की आदि में इस संसार को रचने वाली चेतन, आनन्द से पूर्ण, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एक सत्ता ईश्वर से आविर्भूत हुए थे। देश-विदेश के सभी धार्मिक व सामाजिक संगठनों एवं सम्प्रदाय आदि को सत्य व असत्य का निर्णय करने में सहायता करने के लिए वह अपने युग का अपूर्व क्रान्तिकारी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश का लेखन व प्रकाशन करते हैं और सबको सत्य व असत्य के निर्णयार्थ शास्त्रार्थ करने की चुनौती देते हैं। इस ग्रन्थ में वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनुसार धार्मिक जीवन कैसा होता है, इसका उल्लेख करते हैं और इसके साथ समाज में व्याप्त सभी पाखण्डों का दिग्दर्शन कराकर उनका खण्डन करते हैं। समाज के पवित्र जीवन जीने वाले निर्भीक बुद्धिजीवी व्यक्ति उनकी बातों को सुनते, समझते, उनसे वार्तालाप व शंका समाधान आदि करते हैं। बहुत से उनकी बातों को सत्य स्वीकार कर उनके अनुयायी बन जाते हैं और उनके द्वारा 10 अप्रैल, 1875 को स्थापित भारत के अपने प्रकार के प्रथम धार्मिक व क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़कर देश का भाग्य बदलने के लिए आगे आते हैं। यह आन्दोंलन आंशिक रूप से सफल होता है। उनके द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से सन् 1875 में की गई प्रेरणा से ही स्वतन्त्रता वा स्वराज्य प्राप्ति का आन्दोलन आरम्भ होता है। कालान्तर में घार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक नेताओं की किन्ही अदूरदर्शिताओं से देश का विभाजन व खण्डित देश आजाद होता है। उन्होंने अपने समय में देश भर में घूम-घूम कर सत्य वैदिक धर्म का प्रचार किया। असत्य व पाखण्डों तथा अन्धविश्वासों का खण्डन किया। उनके अनुयायी ने देशभर में गुरूकुलों व डीएवी कालेजों की स्थापना कर समाज का कायाकल्प कर दिया। आज के आधुनिक भारत में महर्षि दयानन्द का कार्य स्पष्ट दृष्टि गोचर होता है। देश की उन्नति के लिए जो कार्य उन्होंने किया वह अन्य किसी सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक व्यक्ति विशेष, पुरूष या महापुरूष ने नहीं किया। वह भारतमाता के सर्वोत्तम व योग्यतम पुत्र सिद्ध हुए।

महर्षि दयानन्द के वेद भाष्य की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। उनका भाष्य न केवल महाभारत युद्ध के बाद का सर्वोत्तम वेद भाष्य है अपितु हमारा अनुमान है कि यह सृष्टि की आदि से अब तक का सर्वोत्तम भाष्य है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि यह संस्कृत के साथ हिन्दी में भी किया गया है। हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने में महर्षि दयानन्द के कार्याें का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने अपने ज्ञान व चर्म चक्षुओं से हिन्दी के महत्व को बहुत पहले जान व समझ लिया था। स्वामीजी ने देश को क्षेमचन्द्र दास त्रिवेदी, पं. जयदेव शर्मा विद्यालंकार, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार, पं. आर्यमुनि, पं. तुलसी राम स्वामी, पं. विश्वनाथ वेदोपाध्याय, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार आदि ऋषि श्रेणी के वेदभाष्यकार विद्वान दिये हैं। इनका वेदभाष्य समस्त मानव जाति की घरोहर है। महाभारत काल के बाद पहली बार यह स्वर्णिम दिन भारत में आयें हैं कि जब वेदभाष्य घर-घर में विद्यमान है। महर्षि दयानन्द के साहित्य व इन आर्य वेद भाष्यकारों के ग्रन्थों का अध्ययन कर ही मनुष्य जीवन के लक्ष्य व उद्देश्य सहित उसकी प्राप्ति के साधनों को जानकर अपना जीवन सफल कर सकता है। अन्य कोई मार्ग जीवन को सफल करने का किसी मत आदि में नहीं है। सभी मतानुयायियों को देव व सवेर महर्षि दयानन्द की शरण में आना ही पड़ेगा। हम यह भी कहना चाहते कि महर्षि दयानन्द के देशहित के कार्यों के अनुरूप देश के लोगों व धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक नेताओं ने उनके साथ न्याय नहीं किया है। वेद भाष्य कर व वैदिक मान्यताओं का प्रचार करके महर्षि दयानन्द ने वैदिक धर्म की सबल व समर्थ विरोधी विधर्मियों से रक्षा की। हम समझते हैं कि परमात्मा के अलावा उनकी सेवाओं का मूल्यांकन कोई मनुष्य शायद कभी नहीं पायेगा। महर्षि दयानन्द की जय के साथ हम अपनी लेखनी को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

‘यात्रा व पर्यटन से देवपूजा व संगतिकरण का लाभ, देश की एकता व अखण्डता को बढा़वा तथा प्रदेशों का आर्थिक विकास’

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यात्रा पर्यटन से देवपूजा संगतिकरण का लाभ, देश की एकता अखण्डता को बढा़वा तथा प्रदेशों का आर्थिक विकास

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

जब हम किसी उद्देश्य से एक स्थान से अन्य दूरस्थ स्थान पर जाते हैं तो घर से निकल कर घर वापिस लौटने तक भ्रमण किये गये स्थानों पर जाने को हम यात्रा का नाम देते हैं। यात्रा के अनेक उद्देश्य हुआ करते हैं। जैसे बच्चे सुदूर स्थानों पर रहने वाले अपने माता-पिता, दादी-दादा व नानी-नाना के घर जाते हैं तो इसे यात्रा कहा जाता है। इसी प्रकार शिक्षा के उद्देश्य से हम आवासीय स्कूलों में पढ़ते हैं तो हमारा वहां जाना व अवकाश के दिनों में घर पर आना भी एक संक्षिप्त व सीमित यात्रा की परिधि में आता है। शिक्षा पूरी होने पर व्यवसाय के लिए युवक व युवतियां प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए आवेदन करते हैं। लिखित परीक्षा के लिए दूर-दूर के स्थानों पर जाना पड़ता है। उत्तीर्ण होने पर साक्षात्कार के लिए भी किसी अन्य दूरस्थ स्थान पर जाना होता है। यह सब भी यात्रायें हैं। यदि हमें अपने नगर या गांव से कहीं बाहर व्यवसाय करना होता है तो सप्ताह, माह या इससे अधिक अवधि के अन्तराल पर आना-जाना होता है। विवाह यदि निवास स्थान से दूर अन्य नगरों व स्थानों पर होता है तो समय-समय पर ससुराल में जाना-आना होता है तो इसके लिए भी यात्रा करनी पड़ती है।

 

केन्द्र सरकार, सार्वजनिक प्रतिष्ठान, राज्य सरकारों व कुछ प्राइवेट सेवाओं में नियोक्ताओं की ओर से अपने कार्मिकों को वर्ष, दो वर्ष या इससे कुछ अधिक अवधि में एक या अनेक बार यात्रा सुविधा दी जाती है जिसका उपभोग कर व्यक्ति पर्यटन के प्रसिद्ध स्थानों यथा पोर्ट ब्लेयर, गोवा, कन्याकुमारी, गंगटोक, शिलांग-गुवाहाटी, अरूणाचल प्रदेश, मुम्बई, द्वारिका, सोमनाथ मन्दिर, हरिद्वार, ऋषिकेश, मसूरी आदि स्थानों पर जाते हैं। उन्हें अपने विभाग की ओर से यात्रा का किराया मिल जाता है और परिवार के लोग कुछ होटल-धर्मशालाओं व भोजन आदि पर अपनी तरफ से व्यय करके इन स्थानों पर घूम कर मन को प्रसन्न व आनन्दित अनुभव करते हैं।  ईश्वरीय ज्ञान मानी जाने वाली सृष्टि की सबसे प्राचीन पुस्तक वेद में एक स्थान पर आता है कि हे मनुष्यों, तुम ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि को देखो, परखो व जानों, जो न कभी नष्ट होती है, न पुरानी और जीर्ण होती है। दार्षनिक सिद्धान्त भी है कि रचना को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। इसी प्रकार से सृष्टि की सुन्दरता, भव्यता व रचनादि विशेष गुणों को देखकर इसके रचयिता सृष्टिकर्ता अर्थात् ईश्वर का ज्ञान होता है। अतः यात्रा का उद्देश्य ऐसे स्थानों पर जाना होता है जो सुन्दर, सुविधापूर्ण, सुख की अनुभूति कराने वाले हों व इसके साथ वहां के लोगों के पहनावें, बोलचाल, व्यवहार, आचार व संस्कृति आदि का अनुभव कराने वाले हों।  मनुष्य को सुखद जीवन व्यतीत करने के लिए संसार में जड़ व चेतन की संगति करना अपरिहार्य है। मनुष्य का जन्म ही संगति का परिणाम है। परिवार में बच्चों की माता-पिता, दादी-दादा, भाई-बहिन, ताऊ-चाचा, तायी-चाची, बुआ आदि हुआ करती हैं। इनकी संगति व सहयोग से ही शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक विकास व उन्नति हुआ करती है। इसके बाद वह अपने आचार्यों व सहपाठी विद्यार्थियों की संगति करते हैं जिससे उन्हें नये-नये अनुभव होते हैं। इसी प्रकार से वह जीवन-यात्रा में जिन-जिन व्यक्तियों के सम्पर्क में आते हैं उनकी संगति से भी उन्हें नये-नये अनुभव होते हैं। इन सबसे व्यक्तित्व के निर्माण में लाभ होता है। यात्रा या पर्यटन का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ से ही हो गया था। तिब्बत में लगभग 2 अरब वर्ष पहले सृष्टि की रचना सम्पन्न होने, मनुष्य व प्राणी जगत की उत्पत्ति होने के बाद लोगों की जनसंख्या में वृद्धि के साथ लोग चारों ओर बढ़ते या फैलते गये। नये-नये स्थानों का अनुसंधान किया गया और वहां बस्तियां बसाईं गईं। आरम्भ में कुछ व्यक्ति 10, 20 या 50 बसे होगें जो आज एक नगर या देश बन गये हैं। इस प्रकार से यात्रा का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ में ही हो गया था जो सतत जारी है और आज भी समर्थ व सम्पन्न लोग समय-समय पर यात्रा कर अपनी उस प्रवृत्ति को पूरा करते हैं।

 

मनुष्यों में यात्रा की प्रवृत्ति जन्मजात या ईश्वर प्रदत्त एक गुण के रूप में है। इसी प्रवृत्ति के कारण सुदूर अतीत में धार्मिक पर्यटन का उद्भव हुआ था। देश की एकता व अखण्डता के लिए भी धार्मिक पर्यटन सहायक रहा है। हमारे सनातन धर्म के बन्धुओं के तीर्थ स्थान भारत के सभी स्थानों पर हैं जिससे दक्षिण, पूर्व व पश्चिम के लोग उत्तर में हरिद्वार, ऋषिकेश, बदरीनाथ, केदारनाथ आदि स्थानों पर आते हैं। यहां उत्तर भारत व अन्य स्थानों के लोग दक्षिण के रामेश्वरम्, मदुरै के विशाल भव्य मीनाक्षी मन्दिर, कांचीपुरम् के शंकराचार्य मठ, पश्चिम के सोमनाथ मन्दिर, द्वारिका, दिलवाड़ा व पालिताना मन्दिरों तथा पूर्व के कामाख्या, जगन्नाथपुरी, गंगासागर आदि स्थानों पर जाते हैं जिससे पूरे देश की यात्रा और धर्म-कर्म हो जाता है। देश के सभी स्थानों के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं। एक विचारधारा होने से प्रेम व सहयोग की भावना उत्पन्न होती है जिससे राष्ट्रीय एकता को बल मिलता है। अतः यात्रा बहु-प्रयोजनीय सिद्ध होती है। आजकल इन यात्राओं का एक पहलु और सामने आया है और वह है पर्यटन स्थल व प्रदेश का आर्थिक व सामाजिक विकास।  हम लोग चेन्नई में एक समुद्र तट पर गये जहां प्रतिदन सायं को मेला सा लगता था। वहां फुटपाथ पर सामान रखकर बेचने वाले सभी तमिल भाषी लोग थे परन्तु यह सब ग्राहकों से अच्छी हिन्दी बोल रहे थे। ऐसा ही हमने दक्षिण भारत के त्रिवेन्द्रम, मदुरै व कन्याकुमारी आदि स्थानों पर भी पाया। हमें लगता है कि यात्राओं व पर्यटन से गुजरात के महर्षि दयानन्द का वह स्वप्न कुछ साकार हुआ सा लगता है जिसमें उन्होंने कहा था कि मेरी आंखे वह दिन देखना चाहती हैं कि जब भारत के सभी स्थानों व प्रदेशों में देवनागरी अक्षरों, लिपि व हिन्दी भाषा = बोली का प्रचार होगा। यह सब कार्य पर्यटन और यात्राओं से सम्भव हुआ है। धार्मिक व पर्यटन स्थलों पर देश व विदेश से लोग आते हैं। इससे वहां होटल, वाहन व यात्रा के साधनों व इनसे जुड़े नाना छोटे-बड़े उद्योगों को बढ़ावा मिलता है और वहां का आर्थिक विकास होता है। सरकारें भी तीर्थ स्थलों व पर्यटन स्थलों के विकास के लिए सावधान हैं जिससे देश व समाज को नानाविध लाभ हो रहे हैं। हम यहां यह भी बताना चाहते हैं कि तीर्थ स्थान का अर्थ होता है कि जहां जाने से दुःख छूट जायें। प्राचीन काल में जिन स्थानों पर बड़े-बड़े योगी, ईश्वर के उपासक, ज्ञानी, चिन्तक व विचारक रहते थे, उनके आश्रमों को तीर्थ कहा जाता था। वहां जाने से यात्री अपनी शंकाओं, समस्याओं, दुःखों, सामाजिक व आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधान पाते थे। आजकल तीर्थ स्थानों पर जाने का महात्म्य तो बहुत बताया जाता है परन्तु वह किसी का आज तक पूरा हुआ या नहीं, इसका कोई प्रमाण किसी के पास नहीं है। यहां महर्षि दयानन्द व दर्शनों का कार्य-कारण cause and effect का सिद्धान्त काम करता है। इसे कर्म-फल सिद्धान्त भी कहते हैं। कोई भी पाप क्षमा नहीं किया जाता है। कर्मों के फल भोगने ही पड़ते हैं। हां, प्रायश्चित करने से भविष्य के लिए पापों में प्रवृत्ति को रोक कर उसे सद्कर्मों में प्रेरित किया जा सकता है। यदि हम केवल किसी जड़ पदार्थों से निर्मित देव मूर्तियों के दर्शन करके ही किसी बड़े फल की इच्छा करने लगें तो यह असम्भव है। दर्शन से तो केवल आंखों को लाभ हो सकता है जैसे भोजन का लाभ उठाने के लिए खाना पड़ता है, दवा को देखने से लाभ नहीं होता अपितु उसे भी नियम पूर्वक सेवन करने से लाभ होता है। मूर्तिपूजा से भी इसी प्रकार आंखों से अनुभूत क्षणिक सुख-लाभ ही होता अन्य कुछ नहीं। यदि हमारे कर्म व पाप-पुण्यों में ईश्वर के गुणों व शिक्षाओं का सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है तो उससे कदापि कोई लाभ नहीं न हुआ है न होगा। उदाहरण के लिए यदि कोई कसाई तीर्थ यात्रा करे और वह अपना काम उसके बाद भी जारी रखे तो उसे इस जन्म व परजन्म में लाभ होने के स्थान पर हानि ही होती है। हां, यदि बार-बार परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाला कोई मूर्तिपूजक व तीर्थगामी विद्यार्थी किसी गुरू के पास जाकर अथवा किसी तीर्थ स्थान पर जाकर वहां विद्वानों से मिलकर अपना सुधार करे, मनोयोग से समझ कर अध्ययन करे, असत्य व मिथ्या आचरण के त्याग की प्रतिज्ञा, व्रत व संकल्प करता है तथा सत्य के ग्रहण व उसके लिए पुरूषार्थ का संकल्प कर तदानुकूल आचरण करता है तो इससे निश्चित रूप से उसे लाभ होगा।

 

यात्रा के सम्बन्ध में यह भी महत्वपूर्ण है कि हमारा जीवन अपने आप में एक यात्रा है। हम यहां माता-पिता के माध्यम से संसार में आते हैं, कर्म करते हैं, पूर्व व वर्तमान जीवन के कर्मों के फलों को भोगते हैं, सुख-दुख का अनुभव कर शैषव, किशोर, युवा व वृद्धावस्थाओं से गुजरते हुए मुत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। कर्मों की बची पूंजी जिसे प्रारब्ध या भाग्य कहा जाता है उसके अनुसार हमारा पुनर्जन्म होता है और फिर उस जन्म में भी प्रारब्ध का भोग व नये कर्म करके नया प्रारब्ध बना कर वहां से फिर अन्य जन्म के लिए आगे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार से जीवन की एक अनन्त यात्रा चल रही है जिसका कोई प्रारम्भ नहीं है और न हि अन्त। यह बिना ओर व छोर वाली नदी है। इसमें निरन्तरता है। विज्ञान का अविनाशिता का नियम अर्थात् न कोई वस्तु बनाई जा सकती है और न हि नष्ट की जा सकती है, यहां भी लागू होता है। आत्मा न बनती है न नष्ट होती है। इसी बात को कहा जाता है कि आत्मा अजन्मा व अमर है, अनादि व अनन्त है। इस जीवन यात्रा में एक बड़ा मुकान “मोक्ष या मुक्ति” का आता है। मुक्ति सद्कर्मों व ईश्वर साक्षात्कार का परिणाम होती है। सद्कर्मों व ईश्वरोपासना से ईश्वर साक्षात्कार के लिए पुरूषार्थ करना पड़ता है। यह पुरूषार्थ अर्थात् धर्म-कर्म ही मोक्ष व मुक्ति का कारण, साधन या आधार होता है। चिन्तन, मनन, अध्ययन व अनुभव के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह मत, सम्प्रदाय व धर्म के नाम से माने जाने वाले सभी धर्मावलम्बी मनुष्यों के लिए एक समान ही है। संसार के सभी मत-सम्प्रदायों व धर्मों का आधार मनुष्य ही हैं, परमात्मा नहीं। परमात्मा ने तो एक ही धर्म बनाया है और वह है मानवता, मनुष्यता, सत्य का आचरण, ज्ञान पूर्वक कर्म।  सम्प्रदाय व मत विशेष की विचारधारा में अपने आपको कैद न करके इस ब्रह्माण्ड की स्वयं को एक इकाई मानना और सर्वव्यापक, सर्वोत्तम, चेतन, न्यायकारी व आनन्दस्वरूप परमात्मा को अपना नेता, आचार्य, गुरू, माता-पिता, राजा और न्यायाधीश मानना चाहिये। इससे स्वयं को भी सुख मिलेगा और संसार में भी सुख-शान्ति में वृद्धि होगी। यह जीवन यात्रा का संक्षेप में उल्लेख किया है जो कि सत्य है और इसे स्वाध्याय, विचार व चिन्तन तथा विद्वानों से शंका समाधान कर जाना व माना जा सकता है।

 

यात्रा कैसी भी हो, उसका एक उद्देश्य होता है। वह उद्देश्य सुख व सकून की प्राप्ति व उपलब्धि है। जब तक संसार है, मनुष्य छोटी-बड़ी सभी प्रकार की यात्रायें करते रहेगें। हां, हमें यह प्रयास करना चाहिये कि यात्रा में जाने पर हम जहां जायें वहां के बारे में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करें। वहां जो सबसे अधिक ज्ञानी व्यक्ति हों, उनसे मिले। उनके जीवन का निचोड़ जाने और उन्हें सम्मान व कुछ द्रव्य देकर तथा कृतज्ञता पूर्वक उनसे विदा लें। वहां सामान्य व सभी लोगों के सम्पर्क में आकर उन्हें अधिक से अधिक जानने का प्रयास करें। उनके अनुभवों से लाभ उठायें व अपने अनुभव उन्हें बतायें जिससे यात्रा का उद्देश्य भली-भांति पूरा हो सके।

मनमोहनकुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2 

देहरादून-248001

 फोनः 09412985121

मैंने इस्लाम क्यों छोड़ा………

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लेखक :डॉ आनंदसुमन सिंह पूर्व डॉ कुंवर रफत अख़लाक़ 

इस्लामी साम्प्रदाय में मेरी आस्था दृड़ थी | मै बाल्यकाल से ही इस्लामी नियमो का पालन किया करता था | विज्ञानं का विद्यार्थी बनने के पश्चात् अनेक प्रश्नों ने  मुझे इस्लामी नियमो पर चिन्तन करने हेतु बाध्य किया | इस्लामी नियमो में कुरआन या अल्लाहताला या हजरत मुहम्मद पर प्रश्न करना या शंका करना उतना ही अपराध है जितना किसी व्यक्ति के क़त्ल करने पर अपराधी माना जाता है |युवा अवस्था में आने के पश्चात् मेरे मस्तिष्क में सबसे पहला प्रश्न आया की अल्लाहताला रहमान व् रहीम है , न्याय करने वाला है ऐसा मुल्लाजी खुत्बा ( उपदेश ) करते है | फिर क्या कारण है की इस दुनिया में एक गरीब , एक मालदार , एक इन्सान , एक जानवर होते है | यदि अल्लाह का न्याय सबके लिए समान है जैसा कुरआन में वर्णन किया गया है , तब तो सबको एक जैसा होना चाहिए | कोई व्यक्ति जन्म से ही कष्ट भोग रहा है तो कोई आनन्द उठा रहा है |यदि संसार में यही सब है तो फिर अल्लाह न्यायकारी कैसे हुआ ? यह  प्रश्न मैंने अनेक वर्षो तक अपने मित्रो , परिजनों एवं मुल्ला मौलवियों से पूछता रहा किन्तु सभी का समवेत स्वर में एक ही उत्तर था , तुम अल्लाहताला के मामले में अक्ल क्यों लगाते हो ? मौज करो , अभी तो नैजवान हो | यह मेरे प्रश् का उत्तर नहीं था | निरंतर यह विषय मुझे बाध्य करता था और मै निरंतर यह प्रश्न अनेक जानकार लोगो से करता रहता था किन्तु इसका उत्तर मुझे कभी नहीं मिला | उत्तर मिला तो महर्षि दयानंद सरस्वती के पवित्र वैज्ञानिक ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में | जिसमे महर्षि ने व्यक्ति के अनेक एवं इस इस जन्म में किये गये सुकर्म या दुष्कर्मो को अगले जन्म में भोग का वर्णन किया | यह तर्क संगत था क्योंकि हम बैंक में जब खता खोलते है तो हमे बचत खाते पर नियमित छह माह में ब्याज मिलता है , मूलधन सुरक्षित रहता है , तथा स्थिर निधि पर एक साथ ब्याज मिलता है , उसी प्रकार जीवात्मा सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात् अनेक शरीरो, योनियों में परवेश करता है तथा अपने सुकर्मो और दुष्कर्मो का फल भोगता है |पुनर्जन्म के बिना यह सम्भव नही हो सकता | अतः पुनर्जन्म का मानना आवश्यक है किन्तु मुस्लिम समाज पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता |उनकी मान्यता तो यह है की चौहदवी शताब्दी में संसार मिट जाएगा | कयामत आएगी और फिर मैदानेहश्र में सभी का इंसाफ होगा |किन्तु उस मैदानेहश्र में जो भी हजरत मुहम्मद के ध्वज निचे आ जायेगा , मुहम्मद को अपना रसूल मान लेगा वही इन्सान बख्सा जाएगा | अर्थात उसे अपने कर्मो के फल भुक्त्ने का झंझट नहीं करना पड़ेगा और वह सीधा जन्नत में जावेगा , जो बुद्धिपरक नहीं लगता |क्योंकि एक व्यक्ति के कहने मात्र से यदि सारा खेल चलने लगे तो संसार में अन्य मत मतान्तरो को मानने की आवश्यकता क्यों पड़े ?और सृष्टि का अंत चौहदवी सदी में माना जाता है जबकि चौहदवी शदाब्दी तो समाप्त हो गयी | फिर यह संसार समाप्त क्यों नहीं हुआ ? कयामत क्यों नहीं आई ? क्या मुहम्मद साहब और इस्लाम से पूर्व यह संसार नहीं था ? क्योंकि इस्लाम के उदय को लगभग १५०० वर्ष हुए है संसार तो इससे पूर्व भी था और रहेगा | मेरा दूसरा प्रश्न था की जब एक मुस्लिम पीटीआई एक समय में चार पत्निया रख सकता है तो एक मुस्लिम औरत एक समय में चार पति क्यों नही राख सकती ? इस्लाम में औरत को अधिक अधिकार ही नही है | एक पुरुष के मुकाबले दो स्त्रियों की गवाही ही पूर्ण मानी जाती है | ऐसा क्यों ? आखिर औरत भी तो इंसानी जाती का अंग है | फिर उसे आधा मानना उस पर अत्याचार करना कहाँ की बुद्धिमानी है और कहाँ तक इसे अल्लाह ताला का न्याय माना जा सकता है ?८० साल का बुड्ढा १८ साल की लड़की से विवाह रचाकर इसे इस्लामी नियम मानकर संसार को मजहब के नाम पर मुर्ख बनाये यह कहाँ का न्याय है ?इस प्रश्न का उत्तर भी मुझे सत्यार्थ परकाश से मिला | महर्षि दयानंद ने महर्षि मनु और वेद वाक्यों के आधार पर सिद्ध किया की स्त्री और पुरुष दोनों का समान अधिकार है | एक पत्नी से अधिक तब ही हो सकती है जब कोई विशेष कारण हो (पत्नी बाँझ हो , संतान उत्पन्न न कर सकती हो ) अन्यथा एक पत्नीव्रत होना सव्भाविक गुण होना चाहिए | मनु ने कहा है –

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः  अर्थात जहाँ नारियो का सम्मान होता है वहां देवता वास करते है | तीसरा प्रश्न मेरे मन में था स्वर्ग व् नरक का | इस्लामी बन्धु मानते है की कयामत के बाद फैसला होगा | उसमे अच्छे कर्मो वालों को जन्नत और बुरे कर्मो वालो को दोजख मिलेगा | जन्नत का जो वर्णन है वह इस प्रकार है की वहां सेब , संतरे , शराब , एक व्यक्ति को सत्तर हुरे  तथा चिकने चुपड़े लौंडे मिलेंगे | मै मुल्ला मौलवियों व् मित्रो से पूछता था की बताये , जब एक पुरुष को जन्नत में लडकिय मिलेंगी तो मुस्लिम महिलाओं को क्या मिलेगा ? मेरे इस प्रश्न ने वे चिड़ते थे | चौहदवी सदी तो बीत गयी पर कयामत क्यों नही आई ? क्या अब नहीं आएगी ?अल्लाह के वायदे का क्या हुआ ?इससे क्या यह स्पष्ट नहीं की कुरआन किसी आदमी की लिखी है ?इन सब प्रश्नों से मेरा तात्पर्य किसी का दिल दुखाना नही अपितु केवल अपने मन में उठ रही शंकाओं का समाधान करना था | किन्तु कभी किसी ने मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया अपितु इन सब से दूर रहकर महज अल्लाह की इबादत में वक्त गुजारने और मौज उड़ाने का रास्ता दिखाया |

चौथा प्रश्न मेरे दिल में था सभ्यता का | मैंने मुस्लिम इतिहास गम्भीरता से अध्ययन किया है | इतिहास साक्षी है की इस्लाम कभी भी वैचारिकता या सवविवेक के कारण नहीं फैला अपितु इस्लाम आरम्भिक काल से अब तक तलवार का बल , भय , बहुपत्नी प्रथा , स्वर्ग का लोभ या धन का मोह आदि ही इस्लाम के विस्तार के कारण बने | इस्लाम की शैशव अवस्था में हजरत मुहम्मद साहब को अनेक युद्ध करने पड़े | स्वंय उनके चाचा अबुलहब ने अंतिम समय तक इस्लाम को नहीं स्वीकार किया क्योंकि वह उसे वैज्ञानिक व् तर्क सम्मत नहीं मानते थे | हजरत मुहम्मद को मक्का से निष्कासित भी होना पड़ा क्योंकि वह अरब की सभ्यता में आमूल परिवर्तन की कल्पना करते थे और अरब वासी अनेक कबीलों में बनते हुए थे | अबराह का लश्कर तो एक बार मक्का में स्थापित भगवान शंकर के विशाल शिवलिंग ( संगे अस्वाद ) को मक्का से ले जाने के लिए आया था किन्तु भीषण युद्ध में अनेको ने अपने प्राण गंवा दिए | यह मक्का शब्द भी संस्कृत के मख अर्थात यज्ञ शब्द का ही बिगड़ा रूप है | इस समय इस विषय पर चर्चा करना हमारा उद्देश्य नहीं है | मुस्लिम इतिहास में एक भी प्रमाण त्याग , समर्पण या सेवा का नही मिलता | वैदिक इतिहास के झरोखे से देखे तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम पिता की आज्ञा का पालन करते हुए वन को प्रस्थान करते है किन्तु दूसरी और औरंगजेब अपने पिता को जेल में कैद कर बूंद बूंद पानी के लिए तरसाता है | यह त्याग , समर्पण एवं सेवा का ही प्रतिफल है की विगत दो अरब वर्षो में वैदिक संस्कृति महँ बनी रह स्की |मेरे परिवार के इतिहास के साथ भी एक काला पृष्ठ जुदा है की उन्हें प्रलोभनवश अपना मूल धर्म त्याग कर इस्लाम में जाना पड़ा | मै स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ की आपकी पूजा पद्धति कुछ भी हो सकती है , आप किसी भी समुदाय के हो सकते है किन्तु जिस देश में प्ले बड़े है उस देश को तो अपनी माँ ही मानना चाहिए | राष्ट्रभक्ति किसी व्यक्ति का पहला कर्तव्य होना चाहिए , वैदिक धर्म की महानता के अनेक प्रमाण दिए जा सकते है किन्तु यहाँ मेरा उद्देश्य मात्र कुछ विचारों पर लिखना है |क्योंकि विगत छः वर्षो में मेरे सम्मुख यह प्रश्न रहा है की मै हिन्दू क्यों बना ?मै प्रत्येक व्यक्ति को जन्म से हिन्दू ही मानता हूँ क्योंकि कोई मनुष्य बिना माँ के गर्भ के पैदा नहीं हो सकता यहाँ तक की विज्ञानं की पहुँच टेस्ट ट्यूब चाइल्ड को भी माँ के गर्भ में आश्रय लेना पड़ा , तभी उसका पूर्ण विकास सम्भव हो पाया है |अतः माँ के गर्भ में तो प्रत्येक हिन्दू ही होता है जन्म के पश्चात्  मुस्लमानिया कराए बिना मुसलमान और बपतिस्मा कराए बिना इसाई नहीं बना जा सकता |अतः इन क्रियाओं के पूर्व बच्चा काफिर अर्थात हिन्दू होता है अतः संसार का प्रत्येक शिशु हिन्दू है | मूल हम सबका वेद है अर्थात सत्य सनातन वैदिक धर्म | आशा है मेरे मित्र मेरी भावना को समझेंगे ,  मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओ को चोट पहुँचाने का नहीं है अपितु केवल अपने विचारों से समाज को अवगत कराना मात्र है | किन्तु यदि फिर भी किसी की भावनाओं को मेरे कारण ठेस लगे तो उन सबसे मै क्षमा – याचना करता हूँ |

ईसा मसीह मुक्तिदाता नहीं था

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ईसा मसीह मुक्तिदाता नहीं था …….

लेखक :- अनुज आर्य 

इसाई लोग बड़े जोर सोर के साथ यह प्रचार किया करते है की इसा मसीह पर विश्वास ले आने से से ही मुक्ति मिल सकती है | अन्य कोई तरीका नहीं मुक्ति व् उद्धार का | स्वतः बाइबल में भी इसी प्रकार की बाते लिखी मिलती है जिनमे इसा मसीह को मुक्ति दाता बताया गया है | इस विषय में निम्न प्रमाण प्रायः उपस्थित किये जाते है | बाइबल में लिखा है कि –

” क्योंकि परमेशवर ने जगत से ऐसा प्रेम रक्खा कि उसे अपना इकलोता पुत्र दे दिया , ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वह नाश न हो परन्तु अनंत जीवन पाए (१३) जो उस पर विश्वास करता है उस पर दंड की आज्ञा नहीं होती , परन्तु जो उस पर विश्वास नहीं रखता वह दोषी ठहराया जा चूका है , इसलिए की उसने परमेश्वर के इकलौते पुत्र के नाम पर विश्वास नहीं किया (१८ ) जो पुत्र पर विश्वास करता है अनंत जीवन उसका है परन्तु जो पुत्र को नहीं मानता , वह जीवन को देखेगा परन्तु परमेश्वर का क्रोध उस पर रहता है ( ३६ ) ( युहन्ना ३  )

यह बात तो युहन्ना ने कही है की इसा पर ही विश्वास लाने से से उद्धार सम्भव है और जो उस पर विश्वास नहीं लाता उस पर परमेश्वर का कोप होगा | अब इसा मसीह का भी दावा देखिये वह क्या कहता है ? बाइबल में लिखा है –

” तब यीशु ने उनसे फिर कहा मै तुम से सच कहता हूँ की भेड़ो का द्वार मै हूँ ( ७) जितने मुझ से पहले आये वो सब डाकू और चोर है (८)द्वार मै हूँ यदि कोई मेरे भीतर प्रवेश करे तो उद्धार पायेगा (९)मेरी भेड़े मेरा शब्द सुनती है और मै उन्हें जानता हूँ और वे मेरे पीछे पीछे चलती है ( २७ ) और मै उन्हें अनंत जीवन देता हु और वे कभी नाश न होगी और कोई मेरे हाथ से छीन न लेगा (२८ )( युहन्ना १० )

इस उद्धरण में ईसा ने स्वंय को मनुष्य का उद्धारक बताया है और अपने भक्तो को भेड़े बताया है | भेड़ का यही गुण होता है की वह अन्धानुगमन करती है | यदि आगे की भेड़े कुए में गिर पड़े तो पीछे वाली भी उसी में गिरती चली जावेंगी उसमे सोचने की अकल नहीं होती | मसीह ने भी अपने चेलो को बुद्धिहीन व् मुर्ख भेड़े बताकर यह प्रकट कर दिया है की इसाई लोग बुद्धि से काम नहीं लेना चाहते है , वे सवतंत्र बुद्धि से कुछ नहीं सोच सकते है | यदि वे सोचने लगे तो न तो वे भेड़े रहे और न वे इसाई ही बने रह सकेंगे , क्योंकि फिर वे ईसा का अन्धानुगमन नहीं करेंगे |

साथ ही मसीह ने अपने से पहले पैदा हुए जननेताओ पैगमबरो को चोर डाकू बता कर गालिया दी है और उनकी निंदा की है ताकि लोगो का उन पर से विश्वास हट जावे और वे मसीह के अंधभक्त बन जावे |

अपने स्वार्थ के लिए दुसरो को गालिया देना बहुत ही निम्न स्तर की भद्दी बात है | यह बात प्रकट करती है की ईसा की विचारधारा कितनी गलत थी | ईसा मसीह अपने विरोधियो की हत्या भी कराया करता था | वह उनके विरोध को अपने सम्प्रदाय के फैलाने में घातक वा बाधक समझता था उसने स्वंय आदेश दिया था की –

” परन्तु मेरे उन बैरियो को जो नहीं चाहते की मै उन पर राज करू , उनको यहाँ लाकर मेरे सामने कत्ल करो ( लुका १९/२७ )

इस प्रकट है की मसीह प्रेम का प्रचारक नहीं था वह लोगो को धर्म और ईश्वर के नाम पर गुमराह करके अपनी हुकूमत इस्राइल में कायम करना चाहता था और एक नवीन सम्प्रदाय का प्रवर्तक बनने का प्रयत्न कर रहा था | साम दाम दंड भेद सभी हथकंडे वह काम में लाया करता था | उसने अपने विचारो को कभी छिपाकर भी नहीं रक्खा था | उसने स्पष्ट अपना उद्देश्य लोगो को बता दिया था | उसने घोषणा की थी कि –

” जो कोई मनुष्यों के सामने मेरा इंकार करेगा , उससे मै भी अपने स्वर्गीय पिता के सामने इंकार करूँगा ( ३३) यह न समझो की मै पृथ्वी पर मिलाप करने आया हूँ , मै मिलाप करने को नहीं पर तलवार चलाने को आया हूँ (३४)मै तो आया हूँ की मनुष्य को उसके पिता से , और बेटी को उसकी माँ से बहु को उसकी सास से अलग कर दूँ (३५)जो माता या पिता को मुझसे अधिक प्रिय जानता है वह मेरे योग्य नहीं है और जो बेटा या बेटी को मुझसे अधिक प्रिय जानता है वह मेरे योग्य नहीं ( ३७ )( मती -१० )

इन वाक्यों से मसीह ने अपना असली स्वरूप खोल कर सामने रख दिया है की उसका उद्देश्य इस्राइल समाज में आपस में युद्ध करवाना , समाजिक व्यवस्था का विध्वंश कराना , ईश्वर की आड़ में लोगो को धर्म का डर दिखा कर अपना चेला बनाकर सेना तैयार करना , पारिवारिक व्यवस्था को भंग करना , बाप बेटे , माँ बेटी के भाई बहन के पवित्र ओरेम को मिटवाना और घर घर में कलह पैदा कराकर लोगो को मोक्ष देने की आड़ में अपने साथ लेकर राज्य शासन को बागडोर हथियाना था | ईसा को उसके चेले यहूदियों का राजा बताते थे जैसा की उसकी सूली के समय लोगो ने उसे बताया था समाज में अव्यवस्था फैलाना व् धर्म तथा मोक्ष के नाम पर पुरानी व्यवस्थाओ को भंग करना सामाजिक व् राजनैतिक अपराध था और इसलिए ईसा को सूली दी गयी | अपना चेला बनने पर खुदा से सिफारिश करके मुक्ति दिलाने और जो चेला न बने उसकी सिफारिश न करके उसे दोजख में डलवाने आदि का प्रलोभन व् धमकी देना सरासर मसीह के गलत हथकंडे थे जिससे वह लोगो को फाँसकर अपनी भेड़ो की संख्या बढ़ाता करता था |

क्योंकि ईसा मसीह का जन्म माँ के क्वारेपन के गर्भ से हुआ था अतः उसके वास्तविक पिता को कोई नहीं जानता था और मरियम ने भी मसीह के वास्तविक मानवी पिता का नाम कभी किसी को नहीं बताया था अतः मसीह ने अपने को खुदा का ख़ास बेटा बताकर लोगो को धोखा दिया था |

मसीह का उद्देश्य उपर के प्रमाणों से अपवित्र साबित होता है | केवल वे ही लोग उसके चक्कर में फंस गये थे जिनकी बुद्धि सत्यासत्य के निर्णय में समर्थ नहीं थी इसलिए मसीह ने भी उनको भेड़े बताया था | तो जो मसीह क्रोधी हो अपने विरोधियो का कत्ल कराता हो समाज में तलवारे चलवाकर विद्रोह पैदा करता रहा हो जिसका उद्देश्य व् लक्ष्य श्रेष्ठ न रहा हो और जो स्वंय अपना उद्धार न कर सका हो जिसे उसके विरोधियो ने बदले में पकड़कर सूली पर चड़ा दिया हो और जो मौत से अपनी रक्षा न कर सका हो उसे संसार का उद्धारकर्ता खुदा का इकलौता बेटा तथा मोक्ष दाता नहीं माना जा सकता है | केवल इसाई भेड़े ही आँख बंद करके उस पर ईमान ला सकती है जैसा की बाइबल में लिखा है |

समझदार व्यक्ति यह नहीं देखते है की कोई क्या दावा करता है वरन वे यह देखते है की क्या दावा करने वाले में दावे को सत्य सिद्ध करने की क्षमता भी है या उसका दावा केवल आत्मप्रशंसा या स्वार्थपूर्ति के लिए कोरा धोखा है | मसीह का दावा सर्वथा गलत उस समय हो गया जब उसे सूली पर चड़ा दिया गया | उस समय न तो खुदा या उसकी फौजे ईसा की मदद को आई और न ही वह स्वंय मौत से बचने का कोई चमत्कार दिखा सका |मुक्ति ईसा या किसी व्यक्ति पर विश्वास लाने से नहीं मिल सकती है हर व्यक्ति के कल्याण के लिए उसके भले व् बुरे कर्म ही जिम्मेवार होते है प्रत्येक प्राणी अपने ही कर्मो का फल भोगता है | स्वंय बाईबल में भी इस विषय के कई प्रमाण मिलते है जिनसे ईसा मसीह का यह दावा झूठा हो जाता है की वह लोगो के पाप नाश करके उनका उद्धार केवल उस पर विश्वास लाने से कर देगा | बाइबल के चंद प्रमाण इस विषय में द्रष्टव्य है —

” जो प्राणी पाप करेगा वही मरेगा | न तो पुत्र पिता के अधर्म का भार उठाएगा और न पिता पुत्र के धर्मो का |अपने ही धर्म का फल और दुष्ट को अपनी दुष्टता का फल मिलेगा ( यहेजकेल १८/२० )

धोखा न खाओ , परमेश्वर टटटो में नहीं उड़ाया जाता , क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता है वही काटेगा ( गलतियों ६/७)

” परमेश्वर हर एक को उसके कर्मो का प्रतिफल देगा “( मत्ती १६/१७)

बाईबल के उपर प्रमाण यह घोषणा करते है की सभी मनुष्यों को उनके कर्मानुकुल ही फल मिलेगा | इससे किसी भी एक आदमी पर ईमान लाने की आवश्यकता नहीं है और न कोई आदमी किसी के पाप पुण्य को क्षमा कर सकता है |कर्म करना हर मनुष्य के अधिकार की बात है और फल देना परमात्मा का काम है | मनुष्य और परमात्मा के बिच किसी भीं दलाल या वकील की कोई आवश्यकता नहीं है | ईसा मसीह या मुहम्मद साहब या अन्य किसी भी एजेंट या वकील की आवश्यकता नहीं है | शुभ अशुभ कर्मो की ही प्रधानता फल भोग में रहती है | बाइबल में भोले लोगो को लिखा है की मसीह लोगो के पाप अपने साथ ले गया था यह बात भी गलत है पाप क्या कोई धातु या कपडा के थोड़े होते है जो कोई लाद  के ले जावेगा ? जो मसीह स्वंय अपने गलत कर्मो और पापो की वजह से सूली पर चडाया गया , अपने को ही अपने पापो से न बचा सका वह बेचारा दुसरो के पाप क्या दूर करेगा ? यदि ईसा मसीह की सिफारिश मान कर लोगो के पाप दूर करा देगा तो कुरआन में मुहम्मद साहब का और गीता में श्री कृष्ण जी का दावा भी क्यों न माना जाए ?सभी ने ईसा की तरह पाप दूर करने का ठेका लिया था | गंगा गंगा जपने से , शिवलिंग के दर्शन करने से , राम राम कृष्ण कृष्ण करने से भी पापो का दूर होना क्यों न माना जावे ? हिन्दुओ के पाप नाश के तरीके इसाई मुसलमानों के नुस्खो से सस्ते और श्रेष्ठ है तो इसाई स्वंय भी हिन्दुओ के तरीको से लाभ क्यों नहीं हिन्दू बनकर लाभ उठाते है ?

ईसाई जीवात्मा को अनादी अनंत सत्ता तो मानते नहीं है और न पुनर्जन्म को ही मानते है तो यदि हम उनकी मान्यता पर यह कहें की जन्म के समय उनकी आत्मा खुदा पैदा कर देता है और उसके मरने के बाद वह नष्ट हो जाती है , मरने के बाद जीवात्मा या रूह नाम की कोई वस्तु कायम नहीं रह जाती है जिसे स्वर्ग या दोजख में उनका खुदा भेजता है न कोई मुक्ति है न कोई स्वर्ग नरक है न कोई वकील या दलाल मसीह या मुहम्मद साहब की हस्ती खुदा से सिफारिश कराने वाली है तो इसमें क्या गलती होगी ? इसाई मुसलमानों के पास ऐसी कोई दलील मरने के बाद जीवात्मा अस्तित्व साबित करने की नहीं हो सकती है |जब पुनर्जन्म नहीं होना है और जीवो को पुनः भले बुरे कर्म करने का आगे कभी अवसर नहीं मिलना है तो फिर मरने के बाद उसे कायम रखने की जरूरत साबित नहीं की जा सकती है ? तब ईसा मसीह का लोगो को अपने चेले बनाकर मुक्ति खुदा से बाईबल में सिफारिश करने की सारी बात स्वंय गप्पाषटके साबित हो जाती है |

इसके अतिरिक्त इसाई खुदा से न्याय की आशा भी नहीं की जा सकती है | क्योंकि वह गुस्सेबाज है ( याशायाह ५४/७-८ ) | वह गलती करके पछताता रहता है ( शैमुअल १५/३५ तथा उत्पत्ति ६/६ ) |खुदा मुकदमे लड़ता था ( यहेजकेल १७/२० ) आदि में खुदा को कम समझने वाला भी साबित किया गया है | तो ऐसा खुदा दुसरो से क्या न्याय करेगा | सम्भव है वह न्याय में भी गलती करके फिर पछताने लगे और जीवो का सर्वनाश गुस्से में कर डाले | ऐसे कम समझ इसाई खुदा पर ईमान लाना भी इसाइयों की भूल है |

ईसा मसीह को खुदा का इकलौता बेटा बताकर भी बाइबल ने सत्य नहीं बोला है | बाइबल में अय्यूब १/६ में लिखा है की इसाई ईश्वर के बहुत से बेटे है केवल एक बेटा नहीं था तथा भजन संहिता ८२ में लिखा है की ईश्वर भी बहुत से है तो इसाई बतावे की उनका ख़ास खुदा बहुत से खुदाओ में से कोण था जिसे वे मानते है और जब सैकड़ो बेटे अय्यूब १ में लिखे है तो वे मसीह को इकलौता बेटा बता कर वे लोगो को धोखा देकर जुर्म क्यों करते है | समझदार व्यक्ति जानता है की वैदिक धर्म के सत्य तर्क युक्त सिद्धांतो के सामने इसाई मत के सिद्धांत ठहर नहीं सकते है | इसाई लोग अपनी कल्पित बात लोगो को सुना सुनाकर लोभलालच देकर फांसने व् गरीब हिन्दुओ का ईमान भ्रष्ट करते रहते है | अतः सभी को इस मजहब के प्रचारको से सावधान रहना चाहिए जहाँ भी इसाई प्रचारक जावे उन्हें शास्त्रार्थ के लिए ललकारना चाहिए और उनकी कलई खोलनी चाहिए ताकि कोई हिन्दू इनके चक्कर में न फंस सके |

सभी भारतीय इसाई नस्ल से हिन्दू ही है | कभी लोग लालच या दबाव के कारण वे या उनके पूर्वज इसाई बने होंगे | उनको पुनः शुद्ध करके हिन्दू धर्म में शामिल कर लेना चाहिए और उनके साथ समानता का व्यव्हार करना चाहिए |

शिक्षक की राष्ट्र विकास मे अद्भुत भूमिका……

shikshak

शिक्षक की राष्ट्र विकास मे अद्भुत भूमिका

संसार मे अनेक व्यक्तियों मे से दो व्यक्तियों को उच्च और श्रेष्ठ मानता है क्योंकी किसी भी राष्ट्र की उन्नति और उच्च सभ्यता का मूलाधार ये दो व्यक्ति ही होते है | एक किसान और दूसरा शिक्षक, आचार्य, गुरु आदि | जिसमे कृषि क्षेत्र का आधार तो धरती, हवा, पाणी इत्यादि है | और शिक्षा क्षेत्र का आधार है आचार और विचार | एक सफल शिक्षक वहि माना जाता है जिसे अपने विषय का पूर्ण ज्ञान हो, पढाने की लग्न हो और सभी से प्रेम हो | आज शिक्षण क्षेत्र इतना भ्रष्ठ हो चूका है की योग्य शिक्षक मिलना दुर्लभ हो चूका है |पहले बालको की योग्यता पर शिक्षा दि जाति थी इसका प्रमाण है हमारी गुरुकुलो मे पहले बालक और बालिकाओ का उपनयन संस्कार किया जाता था परन्तु आज शिक्षण क्षेत्र इतना भ्रष्ठ हो चूका है की पहले यह देखा जाता है की कौन कितना डोनेशन दे सकता है | डोनेशन, टुयशं, कोचिंग क्लास, शिक्षक बनने के लिए रिश्वत आदि ये बाते इस बात का प्रमाण है की शिक्षक क्षेत्र बहोत हद तक भ्रष्ठ हो चूका है | इसके करण कुछ भी रहे हो परन्तु इसका परिणाम ये हुआ की हर क्षेत्र, हर पेशे मे रिश्वतखोरी की बाढ़ आई हुयी है | छोटे से छोटे पद से लेकर बड़े से बड़े पद तक ज्यादातर व्यक्तियों को भिखारी वृतियो से ग्रस्त हो चूका है | सड़क का भिखारी किसे परेशान नहीं करता देना है तो दो अन्यथा न दे और वह तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ता | परन्तु ये भिखारी तो ऐसे भिखारी है जिन्होंने हमारा जिना मुश्किल कर रखा है |मै इस बात को यही विराम देकर बस इतना कहूँगा की शिक्षा क्षेत्र से जुडा व्यक्ति प्रमाणिकता से सोचे की वह बच्चो को कैसे पढाये, जिससे की बच्चो को भ्रष्ठता छूने भी ना पावे |

हज़ार डॉक्टर, हज़ार वकील जितना संसार का उपकार कर सकते है | उससे कई गुना ज्यादा उपकार मात्र एक शिक्षक कर सकता है | डॉक्टर जीवनदान देता है परन्तु शिक्षक जीवन का निर्माण करता है | लाखो बच्चो को चाहे तो देश का एक योग्य नागरिक बना कर देश की सेवा कर सकता है | अगर वह व्रत धारण कर तो नहीं तो एक रुपये कमाने की मशीन बन कर रह जाता है | आज कल के ये काचिंग क्लास उसी के नमूने है | किताबो की पढाई किताबो की पढाई और अपनी आमदनी इससे ज्यादा उन्हें और कुछ लेना देना नहीं |चाहे बच्चा पास होकर भ्रष्ठाचारी बने या रिश्वतखोर बने | एक शिक्षक की सफलता तब है जब उसका विद्यार्थी हर परीक्षा पास कर सुरक्षित देश का भविष्य बने, आदर्श मनुष्य बने |

मैक्समुलर के सफ़ेद झूठ…….

maxmuller

जिज्ञासा – समाधान

जिज्ञासा –( जिज्ञासु- अनिरुद्ध आर्य, दिल्ली ) कुछ विद्वान वेदों का काल पाश्चात्य विद्वानों के आधार पर २००० या ३००० ईसा पूर्व हि मानते है, क्या यह ठीक है ? और मैक्समुलर ऋग्वेद को दुनिया के पुस्तकालय की सबसे पुरानी पुस्तक मानता है , क्या यह मैक्समुलर की मान्यता ठीक है ? क्या हम आर्यो को भी इसी के अनुसार मानना चाइये | कृपया मार्गदर्शन करे |

समाधान – ( समाधान करता – आचार्य सोमदेव,ऋषि उद्यान, अजमेर)  वेदों का काल जब से मानव उत्पति हुई है तभी से है | आज इस काल को महर्षि दयानंद के अनुसार १ अरब ९६ करोड़ ५३ हज़ार ११५ वा वर्ष चल रहा है | पाश्चात्य विद्वानों की, की गयी काल गणना ठीक नहीं है | क्यों की इनके द्वारा की गयी काल गणना निर्धन और पक्षपात पूर्ण कपोल कल्पना मात्र है | इस गणना की लिए इन विद्वानों के पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है |जब हमे हमारा लाखो वर्ष पुराना इतिहास सप्रमाण प्राप्त हो रहा है, तब हम इनकी कुछ हज़ार वर्ष पुरानी बात कैसे स्वीकार कर ले | हा इनकी बात पर वे विश्वास कर सकते है  जिन्हें अपने ऋषियों, महापुरषो से प्रभावित न होकर, पाश्चात्य संस्कृति व विद्वानों से प्रभावित रहा हो |

कुछ लोगो का निराधार व अल्पज्ञान भरी बात है की ऋग्वेद की रचना सबसे पहले हुई और इसके बाद अन्य वेदों की | ऐसी मान्यता वाले लोग अथर्ववेद को तो ऋग्वेद के बहोत बाद का मानते है | इस बात का भी उनके पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है |

हमारे ऋषियों के अनुसार चारो वेदों का काल एक हि है, एक हि साथ एक हि समय परमेश्वर ने ४ ऋषियों के हृदय मे चारो वेदों का अलग-अलग ज्ञान दिया अर्थात अग्नि ऋषि को ऋग्वेद का, वायु ऋषि को यजुर्वेद का, आदित्य ऋषि को सामवेद का, और अंगिरा ऋषि को अथर्ववेद का ज्ञान दिया | ऋषियों ने ऐसा कही नहीं लिखा की चारो वेदों की उत्पति अलग-अलग समय मे हुई | हमे वेद व ऋषियों के अनेक प्रमाण प्राप्त है की जिनसे ज्ञात होता है की चारो वेद एक हि समय मे उत्पन्न होते है |

जैसे –

yasmin

rushayo

इन दो मंत्रो मे वेद शब्द का बहुवचनान्त वेदा: शब्द प्रयुक्त हुआ है | यह वेदा: शब्द चार वेदों का संकेतक है |

tasma

इत्यादि अनेक वेद व ऋषियों के प्रमाण सिद्ध करते है की चारो वेदों का काल एक हि है |

आप मैक्समुलर की मान्यता के विषय मे भी जानना चाहते है कि उनकी मान्यता ठीक है या नहीं | मैक्समुलर ने तथाकथित भाषा शास्त्र के आधार पर वेदों के रचना काल कि सम्भावना सर्वप्रथम १८५९ ई. मे प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ ए हिंदी ऑफ एंशियट संस्कृत लिटरेचर’ मे कि थी | उनकी यह कालावधि किसी तथ्य पर आश्रित न होकर विशुद्ध कल्पना पर आधारित थी किन्तु यह मान्यता इतनी बार दुहरायी गई कि परवर्ती समय मे आधुनिक इतिहासकारों मे बिना सोचे-समझे स्थापित सी माने जाने लगी | लेकिन स्वयं मैक्समुलर ने १८८९ मे ‘ जिफोर्ड व्याख्यानमाला ‘ के अंतर्गत अपने इस मात् पर संदेह प्रकट किया था और हृटनी जैसे पाश्चात्य व प्रो. कुंजन राजा प्रभूति भारतीय इतिहासकारों ने भी मैक्समुलर के भाषा शास्त्र के आधार पर वेदों के काल सम्बन्धी मात् का जोर्धर खंडन किया था | दूसरा जो मैक्समुलर ऋग्वेद को दुनिया कि सबसे पुरानी पुस्तक कहता है | उसकी यह बात वेदों कि रचना के सम्बन्ध मे भ्रम फैलाने के उद्देश्य से कही गयी प्रतीत होती है | ऋषियों-महर्षियो के आधार पर आर्य समाज कि दृढ़ मान्यता के विपरीत ये वेदों का क्रमिक विकास सिद्ध करती है, जिससे वेद ईश्वरीय रचना न सिद्ध होकर मानवीय रचना सिद्ध हो सके |

इस सारे प्रसंग को मैक्समुलर कि इन मान्यताओ के सन्दर्भ मे भी देखा जाना चाइये कि वह वेदों को बाइबिल से निचली श्रेणी का मानता है |कैथोलिक कॉमनवैल्थ के दिए गए साक्षात्कार मे पूछे जाने पर कि विश्व मे कौनसा धर्म ग्रन्थ सर्वोतम है, तो मैक्समुलर ने कहा था –

“There is no doubt, however, that ethical teachings are far more prominent in the old and New Testament than in any sacred book.” He also said “It may sound prejudiced, but talking all in all, I say the New Testament. After that, I should place the Quran which in its moral teachings is hardly more than a later edition of the New Testament. Then would follow…. According to my opinion, the old Testament, the Southern Buddhist Tripitika……The Veda and the Avesta.” (LLMM, vol.II, Pg. 322-323)

अर्थात “इसमें कोई संदेह नहीं कि यद्यपि किसी भी अन्य ‘पवित्र पुस्तक’ कि अपेक्षा ( ईसाइयों के धर्म ग्रन्थ ) ओल्ड और न्यू टेस्टामेंट मे नैतिक शिक्षाये प्रमुखता से विद्यमान है | उसने यह भी कहा भले हि यह पक्षपातपूर्ण लगे लेकिन सभी दृष्टियों से मै कहता हूँ कि न्यू टेस्टामेंट (सर्वोत्तम है ) | इसके बाद मै कुरान को कहूँगा जो कि अपने नैतिक शिक्षाओ मे न्यू टेस्टामेंट के नविन संस्करण के लगभग समीप है | उसके बाद…..मेरे विचार से ओल्ड टेस्टामेंट ( यहूदियों का धर्मग्रन्थ ), दी सदर्न बुद्धिस्ट त्रिपिटी का, ( बौद्धों का धर्म ग्रन्थ ) फिर वेद और अवेस्ता ( पारसियो का ग्रन्थ ) है |”

अत: आर्यो को वेद के सन्दर्भ मे मैक्समुलर जैसे लोगो के मात् को उध्दृत करने से बचना चाइये | इसके स्थान पर ऋषि-महर्षियो के मात् को रखना चाइये | लेकिन अगर कोई आर्य वेदों की प्राचीनता सिद्ध करने लिए मैक्समुलर को इस रूप मे उध्दृत करता है कि ‘मैक्समुलर’ भी वेदों कि प्राचीनता के प्रसंग मे एक सत्य को अस्वीकार न कर सका, उसे भी ऋग्वेद को प्राचीनतम पुस्तक स्वीकार करना पड़ा’ इस रूप मे बात रखी जा सकती है |

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Defiant bikers as horse riders of jihadi Islam

united muslim

Written by Ram Kumar Ohri, IPS, (Retd.)

Jihadi Islam is in fast forward mode. Not only in India, but across the globe. The soldiers of Islam are waging a jihad against the so-called ‘kaffirs’ (read the non-Muslim) from America to the Phillipines via Europe, Middle East and Indian sub-continent. The fast-forward epidemic of rowdy bike-riders have managed to hold the citizens of Delhi for ransom during the last two successive years. There is a method in their madness. They are conveying a warning to the Indian masses (read Hindus) of the coming clash of civilizations.

In June 2013 the denizens of Delhi, especially the motorists and pedestrians on Delhi roads had to wade through a harrowing experience of lawlessness throughout the night of the Muslim festival of Shab-e-Barat . Th unsuspecting motorists and commuters were caught in a frightful melee caused by thousands of skullcap wearing jihadi motorcyclists. Many of them were gesticulating at motorists, especially to frighten the lone women car drivers, while performing stunts on the roads of New Delhi. Their shameful antics and rowdy behaviour was roundly criticized by the media which faulted the police for the monumental breakdown of public order on the fateful night.

This year, too, on June 13, 2014, which was the night of Shab-e-Barat many teams of skullcap-wearing bikers tried to stage a repeat performance of lawlessness and disorder unleashed last year. In a desparate bid to dissuade the defiant jihadi bikers from creating mayhem across the city on the night of Shab-e-Barat, the Delhi Police went out of their way to seek help of several so-called ‘moderate’ Muslim leaders, including 21 Imams of various mosques. But their endeavour ended as an exercise in futility

Interestingly despite the assurances given by the Imams and leaders of the Muslim community this year, too, the jihadi bikers chose to defy the law and the police. Caring two hoots for the warnings given by the Delhi Police Commisioner and unprecedented extensive deployment of police force at nearly 180 strategic points several determined groups of biker warriors of Islam came out in large numbers in a bid to create chaos in the central and south-east Delhi. They tried to create an atmosphere of lawlessnes in certain Muslim-dominated areas of East Delhi like Seelampur and Usmanpur. They succeeded in disrupting the orderly movement of traffic on a number of roads during the late hours of night and early morning hours. The police measures failed to stem the onslaught of rowdy bikers and there were multiple traffic snarls due to erection of multiplebarricades on major roads

muslim-bikers-indianewsMercifully the police were able to prevent the jihadi bikers from going berserk. They challaned nearly 15 00 to 2,000 defiant bikers and impounded more than 300 motor cycles. Even then after idnight many bikers tried to confront the policemen by throwing stones at them. Many roguish bikers could not be caught and challaned on the spot despite best efforts of the police personnel detailed to arrest them.

There have been sporadic reports of skull-caps bearing bikers trying to create similar lawlessness in some other cities and towns of the country. Unfortunately the intelligence agencies and police officers have failed to read the tea leaves of the fast approaching ‘faultline conflicts’ forecast by Samuel Huntington in a seminal essay in 1993 which was subsequently elaborated in his famous tome on the clash of civilisations.

Our intelligence agencies have refused to learn any lessons from the havoc played by jihadi bikers in several parts of the world. Well known proactive members of Islamic outfits in several countries have been organizing Muslim bikers gangs. Some of them operating in Sydney and other twons of Australia call themselves as ‘MBM’ or Muslim Brotherhood Movement. Apparently the bikers claim to represent the ideals and goals of the notorious Muslim Brotherhood of Egypt. There is another gang of Muslim bikers, known as ‘Soldiers of Islam’, or “Sons of Islam” who have been operating with impunity in Australia’s Gold Coast, nearabout Mermaid Beach.

Similarly in the United Kingdom there is a bikers gang organized by Jamal Richards who had also founded an outfit called ‘Concerned Muslim Citizens’. Jamal is also the organizer and leading light of a devout Muslim bikers gang called ‘Deen Riders’ which was established 5 years ago in the year 2009. The Deen Riders ultimately plan to ride on motor bikes to Hajj in Saudi Arabia. According to Jamal Richards his group of the faithful proposes to call the bike journey to Hajj as “Enduring Hardship for Allah’s Pleasure”. He claims that people love to see the shining bikes of Muslims.

The Muslim bikers phenomenon has now surfaced in the USA. One such organization is known as United Muslim Bikers (or UMMA M.C.).They have branches and chapters of bikers in California, Oakland, Las Vegas,Atlanta and East Coast, etc. A number of hard-nosed Islamic preachers like Hasan of Oakland, Naim of Las Vegas and Dawud of Los Angeles are associated with the bikers movement across America The United Muslim Bikers also try to impress on their members that Prophet Muhammad was an excellent horse rider of his times. In Today’s world motorbike is a substitute for horse. The UMMA Club is meant for the Muslims who love to ride motor cycles.

The Muslim bikers of the USA had also tried to organize a ‘Million Muslim March’ on 12th anniversary of 9/11 jihadi attack. The American Muslims Political Action Committee was behind the proposed Million Muslim Rally and its avowed objective was to counter the unfair fear of Muslims caused by 9/11 terrorist attacks. But their attempt to cow down the Chritians was thwarted by a determined nationalist group who threatened to organise a two million bikers march against ‘Fear’ caused by Islamists. Though falling short of the 2 million mark, several thousand Christian bikers road into Washington D.C. on September 11. After thwarting the Million Muslim March, the national coordinator of the Christian bikers march Belinda Bee, announced that they plan to be present on 9/11 every year.

Interestingly the Muslim bikers also promised to return for a bigger show next year on anniversary 9/11. So a race for supremacy appears to have been joined by the bikers of the two communities, namely the Muslims and the Christians

It is time that the Indian police officers and intelligence agencies woke up to the reality of the bikers menace seen in Delhi for two successive years and tried to learn lessons from the growth of Muslim bikers gangs in several countries. Equally important it is for the Hindu leaders to awaken the masses of the danger posed by jihadi bikers. As explained by the United Muslim Umma of Motorcyclists, they are going to use motor-cycles as the 21st century horses of jihadi Islam.

In Delhi the gangs of Muslim bikers try to gather in the infamous ‘No Go’ areas where entry of police is invariably resisted by aggressive rowdies. During the UPA regime the number of ‘No Go’ areas in Delhi and several Indian cities has grown manifold, especially after the Intelligence Bureau, NIA and CBI shifted their focus from Indian Mujahideen and SIMI to the so-called threat of ‘saffron terrorism’ as exemplified by Rahul Gandhi in December, 2010, during a meeting with the US Ambassador,Timothy Roemer. More importantly this allegation was repetitively emphasized by Digvijay Singh, a heavy-weight political guru of Rahul Gandhi and the former Home Minister, Sushil Kumar Shinde.

The truth, however, is altogether different. India’s intelligence agencies like the Intelligence Bureau and the Research & Analysis Wing of the Cabinet Secretariat, including the top political echelons of the Indian government are fully aware that the Inter Services Intelligence of Pakistan has a long term plan to overrun India, i.e., Bharat, annihilate its Hindu population and establish a powerful caliphate in this part of the world.. Their ultimate goal is to convert the entire sub-continent into Dar-ul-Islam. For achieving their sinister objective the ISI has managed to plant thousands of fifth columnists and fellow-travellers of militant Islam across the country.

According to a news published in an obscure corner of Times of India, New Delhi on June 20, 2014, a Hindu activisit, S. Suresh Kumar who was President of Hindu Munnani’s Tiruvallur unit was killed by four assassins who came on motor-cycles on the noight of June 18. The police authorities suspect them be members of extremist outfits. The murder led to outbreak of violence next day during which 17 buses of State Transport and shops were damaged.1 [Source: Times of India, New Delhi, p.4, a news item titled ‘Munnani Neta’s murder sparks violence in TN’]

The notorious terrorist of Indian Mujahideen Yasin Bhatkal was arrested on Indo-Nepal border near Dharbhanga. His interrogation by the NIA revealed that Yasin had planned to carry out multiple jihadi attack across the country with help of his close associate, Waqas, who was an expert bomb maker and an active participant in the notorious Hyderabad blasts. Among other things it was admitted by Danish Mohammed Ansari, another member of the I.M., in a statement got recorded by the NIA under section 164 Cr. P.C. before a Magistrate that in 2010 Yasin Bhatkal had confided in him that the I.M. had already enlisted nearly 33,000 volunteers for carrying out subversive activities and terror attacks in India. The point to note is that a statement recorded under Section 164 Criminal Procedure Code is admissible as evidence during trial. Unfortunately thereafter the trail went cold.

Interestingly neither the NIA nor the Intelligence Bureau were able to make any break through for identifying and arresting thousands of fifth columnists and militant volunteers who had joined the Indian Mujahideen.

The threat posed by the skullcap-wearing rowdy bikers of Delhi and other cities and States needs urgent attention of the intelligence agencies and security experts. The gangs of bikers have become a major threat to the maintenance of law and order. It is time to remember that today India is under siege of thousands of fifth columnists. Could it be that the rowdy bikers operating in Delhi and many other cities and States part of the 33,000 members enlisted by Yasin Bhatkal and his associates for subverting the Indian nation?

In any case, the time for stringent action against the growing menace of skull-capped militant bikers has arrived.

link : http://www.indiatomorrow.co/index.php/nation/1225-defiant-bikers-as-horse-riders-of-jihadi-islam