All posts by rdhoot

पं. राजाराम शास्त्री

Pandit Rajaram Shastri

पं. राजाराम शास्त्री       

-डा. अशोक आर्य

पंण्डित राजाराम शास्स्त्री जी अपने काल में अनेक शास्त्रों के अति मर्मग्य तथा इन के टीका कार के रुप में सुप्रसिद्ध विद्वान के रुप में जाने गये । आप का जन्म अखण्ड भारत के अविभाजित पंजाब क्शेत्र के गांव किला मिहां सिंह जिला गुजरांवाला मे हुआ , जो अब पाकिसतान में है ।  आप के पिता का नाम पं. सुबा मल था । इन्हीं सुबामल जी के सान्निध्य में ही आपने अपनी आरम्भिक शिक्शा आरम्भ की ।

आप अति मेधावी थे तथा शीघ्र ही प्राथमीक शिक्शा पूर्ण की ओर छात्रव्रति प्राप्त करने का गौरव पाया किन्तु इन दिनों एक आकस्मिक घटना ने आप के मन में अंग्रेजी शिक्शा प्रणाली के प्रति घ्रणा पैदा कर दी तथा संस्क्रत के प्रति आक्रष्ट किया । यह घटना एक शिक्शित युवक को ईसाई बनाने की थी । जब आप ने देखा कि एक अंग्रेजी पटे लिखे नौजवान को ईसाई बनाया जा रहा है तो आप के अन्दर के धर्म ने करवट ली । आप जान गये कि यह अंग्रेजी शिक्शा प्रणाली हमारे देश व धर्म का नाश करने वाली है । इस के दूरगामी विनाश को आप की द्रष्टी ने देख लिया तथा आप ने इस शिक्शा प्रणाली के विरोध में आवाज उटाते हुए इस प्रणाली में शिक्शा पाने से इन्कार कर दिया तथा संस्क्रत के विद्यार्थी बन गए ।

जब आप ने संस्क्रत पटने का संकल्प लिया उन्हीं दिनों ही आप के हाथ कहीं से स्त्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ आ लगा । स्वामी दयानन्द सरस्वती क्रत यह ग्रन्थ आप के लिए क्रान्तिकारी परिवर्तन का कारण बना तथा इस ग्रन्थ के अध्ययन मात्र से आप में संस्क्रत आदि शास्त्रों के गहनता पूर्वक अध्ययन करने की रुचि आप में उदय हुई । इस ग्रन्थ के विचारणीय प्रश्नों पर चिन्तन करने के मध्य ही आप में इस का दूर्गामी प्रभाव स्पष्ट दिखाई दिया तथा आपने तत्काल व्याकरण , काव्य तथा न्याय दर्शन आदि का विधिवत टंग से अध्ययन करना आरम्भ कर दिया । इतना ही नहीं इस काल में आपने शंकरभाष्य तथा उपनिषदों का , पटन , स्वाध्याय तथा खूब लगन से अनुशीलन किया ओर फ़िर महाभाष्य पटने का निर्णय लिया । अपने इस निर्णय को कार्य रुप देते हुए आपने जम्मू की ओर प्रस्थान किया ।

आपने १८८९ में अपना अध्ययन का कार्य पूर्ण किया तथा अपने घर लौट आए । यहां आ कर आप ने एक हिन्दी पाट्शाला का संचालन किया । कुछ ही समय पश्चात आपने अम्रतसर आकर आर्य समाज द्वारा संचालित एक विद्यालय में नियुक्ति पा कर अध्यापन का कार्य करते हुए वेद के सिद्धान्तों का ग्यान भी विद्यार्थियों को देना आरम्भ किया । किन्तु उत्साही व लगन शील व्यक्ति को सब लोग अपनी ओर ही खैंचने का प्रयास करते हैं । इस लगन का ही परिणाम था कि डी ए वी कालेज के प्रिन्सिपल महात्मा हंसराज जी ने इन्हें १८९२ में लाहौर बुला लिया । यहां आप को डी ए वी स्कूल में संस्क्रत अध्यापक स्वरुप नियुक्त किया गया ।

विद्वान की विद्वता के लोहे को मानते हुए शास्त्री जी को १८९४ मे डी ए वी कालेज लाहौर में संस्क्रत के प्राध्यापक स्वरुप नियुक्त किया गया । कालेज ने आप की योग्यता का सदुपयोग करते हुए आप की इच्छाशक्ति का भी ध्यान रखा तथा कालेज की मात्र लगभग पांच वर्ष की सेवा के पश्चात अगस्त १८९९ में आप को साट रुपए मासिक की छात्र व्रति आरम्भ की इस छात्र व्रति से आपने काशी जा कर मीमांसा आदि दर्शनों का अध्ययन करने के लिए काशी की ओर प्रस्थान किया ।

काशी रहते हुए आपने पण्डित शिवकुमार शास्त्री जी से मीमान्सा एवं वेद का अध्ययन किया । यहां ही रहते हुए आपने पण्डित सोमनाथ सोमयाजी से यग्य प्रक्रिया का बिधिवत परिचय प्राप्त करते हुए इसका अध्ययन किया । आप का काशी में अध्ययन कार्य १९०१ में समाप्त हुआ तथा इसी वर्ष आप काशी से लौट कर लाहौर आ गये ओर काले ज मेम फ़िर से कार्य आरम्भ कर दिया किन्तु कालेज प्रबन्ध समिति ने आप का कार्य बदल कर एक अत्यन्त ही जिम्मेदारी का कार्य सौंपा । यह कार्य था विभिन्न शास्त्रीय ग्रन्थों के भाषान्तर का । इस कार्य का भी आपने व्बखूबी निर्वहन किया । इसके साथ ही आप ने रजा राम शस्त्री पर भाषय तथा टीका लिखने का कार्य भी आरम्भ कर दिया ।

वर्ष १९०४ म३ं शस्त्री जी ने पत्रकारिता में प्रवेश किया । आप ने अधिशाषी अभियन्ता अहिताग्नि राय शिवनाथ के सहयोग से आर्ष ग्रथावलीनाम से एक मासिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ कर दिया । यह ही वह पत्र था जिसके माध्यम से आपने जो भी शास्त्र ग्रन्थों के भाष्य किये थे , उनका प्रकाशन हुआ । इस प्रकार आपके प्रकाशित भाष्यों का अब जन जन्को लाभ मिलने लगा । आर्य सामाजिक संस्थाओं मं कार्य रत रहते हुए आपने अनेक प्रकार का साहित्य भी दिया किन्तु आप के कार्यों से एसा लगता है कि आप के विचार आर्य समाज व रिषि दयानन्द के दार्शणिक सिद्धान्तों से पूरी तरह से मेल न खा सके तथा यह अन्तर बटते बटते विकराल होता चला गया ।

इस सब का यह परिणाम हुआ कि १९३१ में  पं. विश्वबन्धु जी के सहयोग से आर्य समाज के कई विद्वानों से शास्त्रार्थ किया । शास्त्रार्थ का विषय रहा निरुक्त कार यास्क वेद में इतिहास मानते थे , या नहीं । इस विषय पर पं भगवद्दत जी, पं. ब्रह्मदत जिग्यासु, प. प्रियरत्न आर्ष , टाकुर अमर सिंह जी आदि से १८ मई से २२ मई १९३१ तक यह शास्त्रार्थ महत्मा हंसराज जी की अध्यक्शता में लाहौर में ही हुए ।

इस प्रकार समाज के इस सेवक ने समाज की सेवा करते हुए १८ अगस्त १९४८ को इस संसार से सदा सदा के लिए विदा ली । आपने अपने जीवन काल में अनेक ग्रन्थ लिखे जिनमें अथर्ववेद भाष्य चार भाग (सायण शैली में ),वेद व्याख्यात्मक ग्रन्थ, वेद ओर महाभारत के उपदेश, वेद ओर रामायण के उपदेश, वेद , मनु ओर गीता के उपदेश, वेदांग , दर्शन शास्त्र , उपनिषद आदि शास्त्रों तथा इतिहास व जीवन चरित हिन्दी तथा संस्कत भाषा व्याकरण आदि सहित अनेक स्फ़ुट विष्यों पर अनेक ग्रन्थ लिखे ।

पण्डित कालीचरण शर्मा

om5

पण्डित कालीचरण शर्मा

-डा. अशोक आर्य

वैसे तो विश्व की विभिन्न भाषाओं का प्रचलन इस देश में बहुत पहले से ही रहा है किन्तु आर्य समाज के जन्म के साथ ही इस देश में विदेशी भाषाओं को सीखने के अभिलाषी , जानने के इच्छुक लोगों की संख्या में अत्यधिक व्रद्धि देखी गई । इस का कारण था विदेशी मत पन्थों की कमियां खोजना । इस समय आर्य समाज भारत की वह मजबूत सामाजिक संस्था बन चुकी थी , जो सामाजिक बुराईयों तथा कुरीतियों और अन्ध विश्वासों  को दूर करने का बीडा उटा चुकी थी । इस का लाभ विधर्मी , विदेशी उटाने का यत्न कर रहे थे । इस कारण इन के मतों को भी जनना आवश्यक हो गया था किन्तु यह ग्रन्थ अरबी , फ़ार्सी और हिब्रू आदि विदेशी भाषाओं में होने के कारण इन भाषाओं का सीखना आर्यों के लिए अति आवश्यक हो गया था । विदेशी भाषा सीख कर उसमें पारंगत होने वाले एसे आर्य विद्वानों में पं. कालीचरण शर्मा भी एक थे ।

पं कालीचरण जी का जन्म आर्य समाज की स्थापना के मात्र तीन वर्ष पश्चात सन १८७८ इस्वी में बदायूं  जिला के अन्तर्गत एक गांव में हुआ । आप ने आगरा के सुविख्यात विद्यालय “मुसाफ़िर विद्यालय” से शिक्शा प्राप्त की । इस विद्यालय की स्थापना पं. भोजदत शर्मा ने की था । यह विद्यालय आर्य समाज के शहीद पं. लेखराम के स्मारक स्वरुप स्थापित किया गया था । इस कारण यहां से आर्य समाज सम्बन्धी शिक्शा तथा वेद सम्बन्धी ग्यान का मिलना अनिवार्य ही था । इस विद्यालय के विद्यार्थी प्रतिदिन संध्या – हवन आदि करते थे तथा आर्य समाज के सिद्धान्तों का ग्यान भी इन्हें दिया जाता था । अत: इस विद्यालय से पटने वाले विद्यार्थियों पर आर्य समाज  का प्रभाव स्पष्ट रुप में देखा जा सकता था ।

पण्डित जी ने प्रयत्न पूर्वक फ़ारसी और अरबी का खूब अध्ययन किया और वह इस भाषा का अच्छा ग्यान पाने में सफ़ल हुए । इस ग्यान के कारण ही आप अपने समय के इस्लाम मत के उत्तम मर्मग्य बन गए थे । आप ने इस्लाम तथा इसाई मत का गहन अध्ययन किया । इस्लाम व ईसाई मत के इस गहन अध्ययन के परिणाम स्वरूप आप ने मुसलमानों तथा इसाईयों से सैंकडों शास्त्रार्थ किये तथा सदा विजयी रहे । परिस्थितियां एसी बन गयी कि इसाई और मुसलमान शास्त्रर्थ के लिए आप के सामने आने से डरने लगे ।

आप ने अध्यापन के लिए भी धर्म को ही चुना तथा निरन्तर अटारह वर्ष तक डी. ए. वी कालेज कानपुर में धर्म शिक्शा के अध्यापक के रुप में कार्य करते रहे । इस काल में ही आपने कानपुर में ” आर्य तर्क मण्डल” नाम से एक संस्था को स्थापित किया । इस सभा के सद्स्यों को दूसरे मतों द्वारा आर्य समाज पर किये जा रहे आक्शेपों का उत्तर देने के लिए तैयार किया गया तथा इस  के सदस्यों ने बडी सूझ से विधर्मियों के इन आक्रमणों का उत्तर दे कर उनके मुंह बन्द करने का कार्य किया ।

जब आप का कालेज सेवा से अवकाश हो गया तो आप ने राजस्थान को अपना कार्य क्शेत्र बना लिया । यहां आ कर भी आपने आर्य समाज का खूब कार्य किया तथा शास्त्रार्थ किये । आप ने “कुराने मजीद” के प्रथम भाग का हिन्दी अनुवाद कर इसे प्रकाशित करवाया, इस के अतिरिक्त आप ने विचित्र “जीवन चरित” नाम से पैगम्बर मोहम्मद की जीवनी भी प्रकाशित करवाई । इन पुस्तकों का आर्यों ने खूब लाभ उटाया । इस प्रकार जीवन भर आर्य समाज करने वाले इस शात्रार्थ महारथी का ९० वर्ष की आयु में राजस्थान के ही नगर बांदीकुईं में दिनांक १३ सितम्बर १९६८ इस्वी को देहान्त हो गया ।

स्वामी आत्मानन्द सरस्वती

Swami Aatmanand saraswati

स्वामी आत्मानन्द सरस्वती

-डा. अशोक आर्य

स्वामी आत्मानन्द जी सरस्वती आर्य समाज के महान विचारक तथा प्रचारक थे । आप का जन्म गांव अंछाड जिला मेरट उतर प्रदेश में संवत १९३६ विक्रमी तदानुसार सन १८७९ इस्वी को हुआ । आअपका नाम मुक्ति राम रखा गया । आपके पिता जी का नाम पं. दीनदयालु जी था । आपकी आरम्भिक शिक्शा मेरट में हुई तत्पश्चात उतम व उच्च शिक्शा के लिए आप को काशी भेजा गया ।

आप बडे ही मेहनती प्रव्रति के थे । अत: आप ने काशी में बडी लग्न , बडी श्रद्धा व पुरुषार्थ से विद्याध्ययन किया । यहां रहते हुए आप ने व्याकरण व साहित्य के अध्ययन के साथ ही साथ वेदान्तिक दर्शनों का भी अध्ययन किया । यहां शिक्शा काल में ही आप आर्य समाज के सम्पर्क में आये । आप ने आर्य समाज के सम्पर्क में आने के पश्चात आर्य समाज के सिद्धान्तों का बडी बारिकी से चिन्तन मनन व अनुशीलन कर , इन सिद्दन्तों को आत्मसात किया ।

काशी से अपनी शिक्शा पूर्ण कर आप रावल पिण्डी ( अब पाकिस्तान में ) आ गये तथा रावलपिण्डी के गांव चोहा भक्तां में उन दिनों जो गुरुकुल चल रहा था , उस में अध्यापन का कार्य करने लगे । इस गुरुकुल की आपने लम,बेर समय तक सेवा की तथा यहाम पर सन १९१६ से४ सन १९४७ अर्थात देश के विभाजन काल तक आप इस गुरुकुल के आचार्यत्व को सुशोभित करते रहे ।

आप को सब लोग पण्डित मुक्ति राम के नाम से ही अब तक जानते थे किन्तु शीघ्र ही आप ने संन्यास लेने का मन बनाया तथा इसे कार्य रुप देते हुए संन्यास ले कर अपना नाम स्वामी आत्मा राम रख लिया ।

देश के विभाजन के पश्चात जब पाकिस्तान का हिन्दु , सिक्ख तथा आर्य समुदाय भारत आने लगा तो आप भी रावलपिण्डी से भारत आ गये तथा यमुनानगर (हरियाणा) को आपने अपना केन्द्र बना लिया । आप आरम्भ से ही पुरुषार्थी व मेहनती थे । यह आप के पुरुषार्थ का ही परिणाम था कि रावल पिण्डी का गुरुकुल बडे ही उतम व्यवस्था के साथ चलता रहा तथा भारत आने पर भी आप के मन में एक उतम गुरुकुल चलाने की उत्कट इच्छा शक्ति बनी हुई थी । अत: इस विचार पर कार्य करते हुए आप ने यमुना नगर में वैदिक साधना आश्रम की स्थापना की  तथा इस आश्रम के अन्तर्गत उपदेशक विद्यालय आरम्भ किया ।

आप के अथक प्रयत्न का ही परिणम था कि यमुना नगर का उपदेशक विद्यालय कुछ काल में ही आर्य समाज की श्रोमणी संस्थाओं में गिना जाने लगा तथा इससे पटकर निकलने वाले उच्चकोटि के विद्वानों की एक लम्बी पंक्ति दिखाई देने लगी । गुरुकुल कांगडी महाविद्यालय के वेद विभाग के पूर्व अध्यक्श आचार्य स्वर्गीय सत्यव्रत जी राजेश भी इस विद्यालय की ही देन थे ।

आप की लगन , आपके रिषि मिशन से लगाव को तथा आप की आर्य समाज के प्रचार व प्रसार की लगन को देखते हुए आप को आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का प्रधान भी नियुक्त किया गय । आप ने अपने पुरुषार्थ से आर्य समाज्के कार्य को भर पूर प्रगति दी । इन्हीं दिनों पंजाब में हिन्दी आन्दोलन का भी निर्नय हुआ । आपको इस आन्दोलन की बागदॊर सौंपी गयी तथा यह पूरा व सफ़ल आन्दोलन आप ही के नेत्रत्व में लडा गया ।

यह रीषि का सच्चा भक्त जीवन प्रयन्त आर्य समाज के प्रचार व प्रसार में लगा रहा तथा अन्त में जब वह किसी कार्य वश गुरुकुल झज्जर गये हुए थे , अक्स्मात दिनांक १८ दिसम्बर १९६० इस्वी को उनका देहान्त हो गया ।

 

वीतराग स्वामी सर्वदानन्द

om

वीतराग स्वामी सर्वदानन्द

-डा. अशोक आर्य

आर्य समाज ने अनेक त्यागी तपस्वी साधू सन्त पैदा किये हैं । एसे ही संन्यासियों में वीतराग स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती जी भी एक थे । आप का जन्म भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से मात्र दो वर्ष पूर्व विक्रमी सम्वत १९१२ या यूं कहें कि १८५५ इस्वी को हुआअ । आप का जन्म स्थान कस्बा बस्सी कलां जिला होशियारपुर पंजाब था । आप के पिता का नाम गंगा विष्णु था, जो अपने समय के सुप्रसिद्ध वैद्य थे । यही उनकी जीविकोपार्जन का साधन भी था ।

स्वामी जी का आरम्भिक नाम चन्दूलाल रखा गया । यह शैव वंशीय परम्परा से थे । इस कारण वह शैव परम्पराओं का पालन करते थे तथा प्रतिदिन पुष्पों से प्रतिमा के साज संवार में कोई कसर न आने देते थे किन्तु जब एक दिन देखा कि एक कत्ता शिव मूर्ति पर मूत्र कर रहा है तो इन के ह्रदय में भी वैसे ही एक भावना पैदा हुई , जैसे कभी स्वामी दयानन्द के अन्दर  शिव पिण्डी पर चूहों को देख कर पैदा हुई थी । अत; प्रतिमा अर्थात मूर्ति पूजन से मन के अन्दर की श्रद्धा समाप्त हो गई । इस कारण वह वेदान्त की ओर बटे । इसके साथ ही साथ फ़ारसी के मौलाना रूम तथा एसे ही अन्य सूफ़ि कवियों की क्रतियों व कार्यों का अधययन किया । यह सब करते हुए भी मूर्ति पर कुते के मुत्र त्याग का द्रश्य वह भुला न पाए तथा धीरे धीरे उनके मन में वैराग्य की भावना उटने लगी तथा शीघ्र ही उन्होंने घर को सदा के लिए त्याग दिया ओर मात्र ३२ वर्ष की अयु में संन्यास लेकर समाज के उत्थान के संकल्प के साथ स्वामी सर्वदानन्द नाम से कार्य क्शेत्र में आए ।

अब आप ने चार वर्ष तक निरन्तर भ्र्मण , देशाट्न व तिर्थ करते हुए देश की अवस्था को समझने आ यत्न किया । इस काल में आप सत्संग के द्वारा लोगों को सुपथ दिखाने का प्रयास भी करते रहे ।

स्वामी जी का आर्य समाज में प्रवेश भी न केवल रोचकता ही दिखाता है बल्कि एक उत्तम शिक्शा भी देने वाला है । प्रसंग इस प्रकार है कि एक बार स्वामी जी अत्यन्त रुग्ण हो गए किन्तु साधु के पास कौन सा परिवार है , जो उसकी सेवा सुश्रुषा करता । इस समय एक आर्य समाजी सज्जन आए तथा उसने स्वामी जी की खूब सेवा की तथा उनकी चिकित्सा भी करवाई । पूर्ण स्वस्थ होने पर स्वामी जी जब यहां से चलने लगे तो उनके तात्कालिक सेवक ( आर्य समाजी सज्जन ) ने एक सुन्दर रेशमी वस्त्र में लपेट कर सत्यार्थ प्रकाश उन्हें भेंट किया । इस सज्जन ने यह प्रार्थना भी की कि यदि वह उसकी सेवा से प्रसन्न हैं तो इस पुस्तक को , इस भेंट को अवश्य पटें ।

स्वामी जी इस भक्त के सेवाभा से पहले ही गद गद थे फ़िर उसके आग्रह को कैसे टाल सकते थे । उन्होंने भक्त की इस भेंट को सहर्ष स्वीकार करते हुऎ पुस्तक से वस्त्र को हटाया तो पाया कि यह तो स्वामी दयानन्द क्रत स्त्यार्थ प्रकाश था । पौराणिक होने के कारण इस ग्रन्थ के प्रति अश्रद्धा थी किन्तु वह अपने सेवक को वचन दे चुके थे इस कारण पुस्तक को बडे चाव से आदि से अन्त तक पटा । बस फ़िर क्या था ग्रन्थ पटते ही विचारों में आमूल परिवर्तन हो गया । परिणाम स्वरूप शंकर व वेदान्त के प्रति उनकी निष्था समाप्त हो गई । वेद , उपनिषद, दर्श्न आदि आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया तथा आर्य समाज के प्रचार व प्रसार मे जुट गये । आर्य समाज का प्रचार करते हुए आप ने अनेक पुस्तके भी लिखीं यथा जीवन सुधा, आनन्द संग्रह, सन्मार्ग दर्शन, ईश्वर भक्ति, कल्याण मार्ग, सर्वदानन्द वचनाम्रत , सत्य की महिमा, प्रणव परिचय , परमात्मा के दर्शन आदि ।

जब वह प्रचार में जुटे थे तो उनके मन में गुरुकुल की स्थापना की इच्छा हुई । अत: अलीगट से पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर काली नदी के किनारे (जिस के मुख्य द्वार के पास कभी स्वामी दयानन्द सरस्वती विश्राम किया करते थे ) तथा स्वामी जी के सेवक व सहयोगी मुकुन्द सिंह जी के गांव से मात्र पांच किलोमीटर दूर साधु आश्रम की स्थापना की तथा यहां पर आर्ष पद्धति से शास्त्राध्ययन की व्यवस्था की ( यह गुरुकुल मैने देखा है तथा इस गुरुकुल के दो छात्र आज आर्य समाज वाशी , मुम्बई में पुरोहित हैं ) । आप के सुप्रयास से अजमेर के आनासागर के तट पर स्थित साधु आश्रम में संस्क्रत पाट्शाला की भी स्थापना की ।  आप को वेद प्रचार की एसी लगन लगी थी कि इस निमित्त आप देश के सुदूर वर्ती क्शेत्रों तक भी जाने को तत्पर रहते थे । आप तप , त्याग ,सहिष्णुता की साक्शात मूर्ति थे । इन तत्वों का आप मे बाहुल्य था । आप का निधन १० मार्च १९४१ इस्वी को ग्वालियर में हुआ ।

स्वामी आनन्दबोध

om in gujrati

स्वामी आनन्दबोध    

-डा. अशोक आर्य

           सन १९०९ में काशमीर के अनन्तनाग क्शेत्र में एक बालक का जन्म हुआ , जिसका नाम रामगोपाल रखा गया । इनके पिता का नाम लाला नन्द लाल था । आप मूलत: अम्रतसर के रहने वाले थे । यह बालक ही उन्नति व व्रद्धि करता हुआ आगे चल कर राम गोपाल शालवाले के नाम से विख्यात हुआ ।

            आप काशमीर से चलकर सन १९२७ में दिल्ली आ गए । दिल्ली आकर आप आर्य सम,आज के नियमित सदस्य बने । आप को पं.रमचन्द्र देहलवी की कार्य्शैली बहुत पसन्द आयी तथा आप ने उन्हें अपनी प्रेरणा का स्रोत बना लिया ।

          आप के आर्य समाज के प्रति समर्पण भाव तथा मेहनत व लगन के परिणाम स्वरूप आपको आर्य समाज दीवान हाल का मन्त्री बनाया गया । बाद में आप इस समाज के प्रधान बने । इन पदों को आपने लम्बे समय तक निभाया । इस आर्य समाज के पदाधिकारी रहते हुए ही आपने सामाजिक कार्यों का बडे ही सुन्दर टंग से निर्वहन किया ।

        आप की प्रतिभा का ही यह परिणाम था कि आप आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के अनेक वर्ष तक अन्तरंग सद्स्य रहे । अनेक वर्ष तक आप आर्य समाज की सर्वोच्च सभा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के उपमन्त्री, उप प्रधान तथा प्रधान रहे । उच्चकोटि के व्याख्यान करता, उच्चकोटि के संगटन करता तथा आर्य समाज के उच्चकोटि के कार्य कर्ता लाला रामगोपाल जी  ने सदा आर्य समाज की उन्नति मेम ही अपनी उन्नति समझी तथा इस के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते थे । देश के उच्च अधिकारियों से आप का निकट का सम्पर्क था तथा बडे बडे काम भी आप सरलता से निकलवा लेते थे ।

        जब अबोहर के डी ए वी कालेज में सिक्ख विद्यार्थियों ने उत्पात मचाया तथा यग्यशाला को हानि पहुंचाई तो कालेज के प्रिन्सिपल नारायणदास ग्रोवर जी ने मुझे आप से सम्पर्क कर यथा स्थिति आप के सामने रखने के लिए भेजा । आप ने मुझ किंचित से युवक की बात को ध्यान से सुना , समझा व कुछ करने के आदेश दिये ।

        जब १९७१ में अलवर में सम्पन्न सार्वदेशिक के अधिवेशन में स्वामी अग्निवेश के साथियों ने उत्पात मचाया तो आप की बात मंच द्वारा न मानने पर आप जब यहां से पलायण करने लगे तो मेरे तथा प्रा. राजेन्द्र जिग्यासु जी की प्रार्थना पर आप ने अपना निर्णय बदला तथा फ़िर से सम्मेलन को सुचारु रुप से चलाया ।

        आप ही के प्रयास से हैदराबाद सत्याग्रह को राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम स्वीकार किया गया । जिसका लभ आर्य समाज को मिला । आपके नेत्रत्व में अनेक आन्दोलन व अनेक सम्मेलन किए गय । कालान्तर में आपने संन्यास की दीक्शा स्वामी स्रर्वानन्द जी से ली तथा रामगोपाल शालवाले से स्वामी आनन्द बोध हुए ।

        आप ने पूजा किसकी , ब्रह्मकुमारी संस्था आदि पुस्तकें भी लिखीं । १९७८ इस्वी में आप की सेवाओं को सामने रखते हुए आप का अभिनन्दन भी किया गया तथा इस अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित किया गया । अन्त में आप का  अक्टूबर १९९४ देहान्त हो गया ।

जम्मू के शहीद वीर रामचन्द्र

om in english

जम्मू के शहीद वीर रामचन्द्र           

-डा. अशोक आर्य

आर्य समाज के वीरों ने विभिन्न समय पर विभिन्न प्रकार ए बलिदानी वीर पैदा किये । किसी ए धर्म की रक्शा के लिए, किसी ने जाति की रक्शा के लिए , किसी ने जाति के उत्थान  मे लिए अपने बलिदान  दिए । एसे ही बलिदानियों में एक आर्य बलिदानी हुए हैं वीर राम चन्द्र जी । जम्मू रियासत के कटुआ जिला की तहसील हीरानगर के लाला खोजूशाह महाजन नामक खजान्ची जी ए यहां दिनांक १९ आषाट स्म्वत १९५३ को जन्मे बालक ने मेघ जाति के उद्धार के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया था ।

बालक रमचन्द्र के आट भाई और एक बहिन थी । भाई बहिनों में सबसे बडे रामचन्द्र ने मिडिल तक की शिक्शा सदा अपनी कक्शा में प्रथम आते हुए पास व पूर्ण की । जब सरकार के कार्याल्यों में सब कर्य डोगरी भाषा के स्थान पर होने लगा तो पिता के स्थान पर खजान्ची का कार्य इस बालक को दिया गया ।

राम चन्द्र को आरम्भ से ही समाचार पत्र पटने व धर्म के कार्य करने में अत्यधिक रुचि थी । जब वह आर्य समाज के सत्संगों में जाने लगे तो आर्य समाज के कार्यों में इन्हें खूब आनन्द आने लगा तथा शीघ्र ही प्रमुख आर्यों में सम्मिलित हो गये  । जब आप की बदली बसोहली स्थान पर हुई तो इस स्थान पर आप ने आर्य समाज की निरन्तर दो वर्ष तक खूब सेवा की । तदन्तर आप बद्ल कर कटुआ आ गये । यह वह स्थान था कि जहां आर्य समाज का काम करना मौत को निमन्त्रण देने से कम न था किन्तु आप ने इस सब की चिन्ता किए बिना आर्य समाज का काम जारी रखा तथा अछूतोद्धार के कार्य व शुद्धि में भी लग गए । जब विरोध जोर से होने लगा तो आप को बदल कर १९१८  इस्वी को साम्बना भेज दिया गया । यहां पर जाते ही आपके यत्न से आर्य समाज की स्थापना हो गई तथा जब देश भर में एन्फ़्ल्यूऎन्जा का रोग फ़ैला तो आप ने सेवा समिति खोलकर रोगियों की खूब सेवा की । आप ने आर्य समाज के लिए बडे से बडे खतरों का भी सामना किया । आर्य समाज के प्रचार के कारण आपको अकेले ही वहां के राजपूतों और ब्राह्मणों के विरोध का सामना करना पडा किन्तु आर्य समाज के उत्सव में आपने किसी प्रकार की कमीं  न आने दी तथा इसे उत्तम प्रकार से सफ़ल किया ।

रामचन्द्र जी कांग्रेस के कार्यों के प्रति भी अत्यधिक स्नेह रखते थे । इस के वार्षिक समारोह में लगभग एक दशाब्दि तक निरन्तर जाते रहे ।जब पंजाब में मार्शल ला लगा हुआ था तो सरकारी कर्मचारी होते हुए भी यहां के समाचार आप गुप्त रुप से अन्य प्रान्तों में भेजते रहे । आप अपनी नौकरी को भी देश से उपर न मानते थे । यह ही कारण था कि १९१७ में जब आप को अम्रतसर जाने की सरकार ने सरकारी कर्मचारी होने के कारण अनुमति न दी तो आप ने तत्काल अपनी सरकारी सेवा से त्यागपत्र दे दिया किन्तु उनकी उत्तम सेवा को देखते हुए तहसीलदार उन्हें छोडना नहीं चाहते थे , इस कारण उन्हें अम्रतसर जाने की अनुमति दे दी गई । साम्बा क्शेत्र के लोग तो आप को देश सेवक के रुप मे ही जानते थे तथा इस नाम से ही आप को पुकारते थे ।

जब १९२२ में आप की नियुक्ति अखनूर में हुई तो वहां जा कर आप ने पाया कि यहां के लोग छूतछात को मानने वाले थे । यहां के लोग मेघ जाति के लोगों को अत्यधिक घ्रणा से देखते थे । रामचन्द्र जी ए इनका उत्थान करने क निश्चय किया तथा इन के लिए एक पाट्शाला आरम्भ कर दी । अब आप अपनी सरकारि सेवा के अतिरिक्त अपना पूरा समय इन पहादों मेम घूम घूम कर मेघों के दु:ख , दर्द के साथी बन उनकी सेवा, सहायता तथा उन्हें पटाने व उनकी बिमारी मेम उनकी सहायता करने लगे ।

इस सब का परिणाम यह हुआ कि जो लोग दलितों को उन्नत होता हुआ न देख सकते थे , उन्होंने सरकार के पास आप की शिकायते भेजनी आरम्भ कर दीं , मुसलमानों को आप के विरोध के लिए उकसाने लगे , आप के व्याख्यानों का भी विरोध आरम्भ कर दिया । इतने से ही सब्र न हुआ तो कुछ लोग लाटियां लेकर आप पर आक्र्मण करने के लिए आप के घर पर जा चटे किन्तु पुलिस ने उनका गन्दा इरादा सफ़ल न होने दिया । परिणाम स्वरुप १९२२ इस्वी में इन लोगों ने आर्य समाजियों का बाइकाट कर दिया , जो चोबीस दिन तक चला किन्तु एक दिन जब रामचन्द्र जी कहीं अन्यत्र गये हुए थे तो पीछे से सरकारी अधिकारियों के दबाब में आकर वहां के आर्य जन झुक गये तथा यह बात स्वीकार कर ली कि मेघों की पाटशाला गांव से दूर ले जावेंगे  । लौटने पर रमचन्द्र जी ने इस समझौते के सम्बन्ध सुना तो उन्होंने इसे स्वीकार करने से साफ़ इन्कार कर दिया । इस सम्बन्ध में लम्बे समय तक गवर्नर , वजीर आदि से पत्र व्यवहार होता रहा ।

रामचन्द्र जी ने जिस प्रकार मेघों की नि:स्वार्थ भाव से सेवा की , इस कारण मेघ लोग उन पर अपनी जान न्योछावर करने लगे  । इधर रामचन्द्र जी भी अपने आप को मेघ कहने लगे, चाहे आप महाजन ही थे । पाटशाला का निजी भवन बनाने की प्रेरणा से मेघ पण्डित रूपा तथ भाई मौली ने अपनी जमीन दान कर दी । मुसलमानों व सरकारी अधिकारियों के विरोध की चिन्ता न करते हुए आप ने इस के भवन निर्माण के लिए अपील की निर्माण के पश्चात १९२२ में ही इस वेद मन्दिर का प्रवेश संस्कार सम्पन्न हो गया । इस पाटशाला के खुलने से मेघ अत्यधिक उत्साहित हुए । यह एक सफ़लता थी , जिसने दूसरी उपलब्धि का मार्ग प्रशस्त कर दिया । अब रामचन्द्र जी को अन्य स्थानों से भी पाटशाला खोलने के लिए आमन्त्रण आने लगे कि इस मध्य ही आपको जम्मू स्थानन्तरित कर दिया गया ।  किन्तु अभी यहां की पाट्शाला का कार्य प्रगति पर थ इस कारण आपने चार महीने का अवकाश ले लिया।

बटोहडा से मेघ लोगों ने इन्हें निमन्त्रित किया । यह स्थान अखनूर से मात्र चार मील दूर है आप अपने आर्य बन्धुओं तथा विद्यार्थियों सहित हाथ्में औ३म की पताकाएं लेकर, भजन गाते तथा जय घोष लगाते हुए चल पडे किन्तु इस शोभायात्रा के बारे में सुन वैसे देख विरोधी भडक उटे । आप को गालियां देते हुए अपमानित किया गया झण्डे छीन लिये तथा हवन कुण्ड भी तोड दिया । इस कारण इस दिन कोई कर्यक्रम नहीं हो सका किन्तु आप ने शीघ्र ही ४ जनवरी १९२३ को यहां बडे ही समारोह पूर्वक पाटशाला आरम्भ करने की योजना बना डाली । इसके लिए लाहौर से उपदेश्क भी आ गए । यह सब देख राजपूतों ने आप के जीवन का अन्त करने का निर्णय  लिया । इस निमित उन्होंने गांव में एक दंगल का आयोजन कर लिया ।

इधर जम्मू से रामचन्द्र जी भी अपने आर्य बन्धुओं व विद्वानों सहित बटौहडा के लिए रवाना हो गए । इनके साथ लाला भगतराम,लाला दीनानाथ, लाला अनन्तराम, ओ३मप्रकाश तथा स्त्यार्थी जी आदि थे । मार्ग में ही आर्योपदेशक सावन  मल जी भी अपने दल के साथ आ कर मिल गए । इस मध्य ही पता चला कि गांव में विरोधियों ने भारी षडयन्त्र रच रखा है तथ हालात बेहद खराब हैं । इस कारण लौट जाने का निर्णय लेकर यह सब वापिस चल पडे किन्तु इस की सूचना भी तत्काल गांव में राजपूतों को मिल गई । वह तो भडके ही  हुए थे अत: भगतू नामक एक व्यक्ति के नेत्रत्व में मुसलमान , गूजर डेट सौ के लगभग राजपूतों के सवारों व पैदल लोगों ने पीछे से इन पर आक्रमण कर दिया । सब पर लाटियां बरसाईं । सब और से एक ही आवाज आ रही थी कि खजान्ची को बचने नहीं देना । इस को मारो । यह सुन भगतराम जी उन्हें बचाने के लिए आगे आए किन्तु उन पर भी भारी मात्रा में लाटियों की मार पडी । अन्त में रामचन्द्र जी उनके हाथ आ गये तथा उन पर लोहे की छडों से प्रहार किया गया ।  वह जब बुरी तरह से घायल व बेहोश हो गये तो यह आक्रमण कारी इन्हें मरा समझ कर लौट गए ।

घायल व बेहोश वीर रामचन्द्र जी को अस्पताल में भर्ती किया गया । यहां निरन्तर छ: दिन तक बेहोश रहते हुए मौत से युद्ध करते रहे किन्तु अन्त में प्रभु की व्यवस्था ही विजयी हुई तथा मात्र २३ वर्ष की आयु में यह योद्धा आर्य समाज को अपना जीवन समझते हुए तथा दलितों को ऊंचा उटाने का यत्न करते हुए अन्त में दिनांक २० जनवरी १९२३ इस्वी तदानुसार ८ माघ १९७० को रात्रि के ११ बजे वीरगति को पराप्त हुआ ।

इस वीर योद्धा तथा आर्य समाज के इस धुरन्धर प्रचारक की स्म्रति में आर्य प्रतिनिधि सबा पंजाब ने कुछ प्रकल्प आरम्भ किये । इन प्रकल्पों के अन्तर्गत वीर रामचन्द्र जी की स्म्रति को बनाए रखने के लिए एक स्मारक बनाया गया । इस स्मारक के चार कर्य निर्धारित किये गए । जो इस प्रकार थे :-

१.      दलितो को उन्नत कर उन्हें स्वर्णों के समकश लना ।

२.      दलितों के लिए नि:शुल्क शिक्शा की व्यवस्थ करना ।

३.      दलितों मेम धर्म प्रचार करने की व्यवस्था करना ।

४.      दलितों में आत्म सम्मान की भावना पैदा करना ।

इस प्रकार का स्मारक बना कर वीर रामचन्द्र जी को आर्य समाज के महाधनों की श्रेणी में लाया गया । सभा की और से रामचन्द्र जी की स्म्रति में यहां प्रतिवर्ष एक मेला का आयोजन होने लगा । आर्य समाज के पुरुषार्थ तथा महाराज हरिसिंह जी के उदारतापूर्ण सहयोग से यह कार्य निरन्तर चलता रहा । आरम्भ में इस स्मारक के अधिष्टाता लाला अनन्तराम जी को बनाया गया । इस स्मारक स्थल पर बाद में एक कुंआ बन गया । यह स्मारक स्थल नहर से सटा हुआ नहर के किनारे पर ही बनाया गया था ।

पण्डित ओंकारनाथ वाजपेयी

om 5

पण्डित ओंकारनाथ वाजपेयी

– डा. अशोक आर्य

आर्य समाज के त्यागी व तपस्वी कार्यकर्ताओं में पण्डित ओंकार नाथ मिश्र भी एक थे । महुआ नामक गांव जिला आगरा में आप का जन्म महर्षि दयानन्द जी के निर्वाण से मात्र दो वर्ष पूर्व सन १८८१ इस्वी में हुआ । यह समय आर्य समाज का समय कहा जा सकता है । इस कारण आप पर आरम्भ से ही आर्य समाज का प्रभाव दिखाई देने लगा ।

आप ने प्रयाग विश्वविद्यलय से मैट्रिक की परीकशा उतीर्ण्करने के तदन्तर इलाहाबाद में एक प्रैस की स्थापना कर , प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया तथा इसके साथ ही एक पिस्तक विक्री एन्द्र ( बुक डिपो ) भी आरम्भ किया । आप के इस प्रकाशन संस्थान ने प्रकाशन के क्शेत्र में अच्छी ख्याति अर्जित की । आप ने अनेक महपुरुषों के जीवन जन जन तक फुंचाने का स्म्कल्प लिया तथा इस चरित प्रकाशन का कार्य एक माला के अन्तर्गत किया । इस माला का नाम आदर्श माला रका गया ।

आप ने आर्य कुमार सभा इलाहाबाद को भी अपना सक्रिय योगदान दिया तथा इसके सक्रिय कार्यकर्ता बन गए । आप के सतत प्रयास से इस आर्य कुमार सभा के सदस्यों की खूब व्रद्धि हुई तथा अनेक एसे बालक इस सभा के सदस्य बने , जो बाद में अपने कार्य के कारण अत्यधिक ख्याति प्राप्त हुए । एसे लोगों में हिन्दी के प्रख्यात कवि डा. हरिवंशराय बच्चन भी एक थे जो इस कुमार सभा के कार्यक्रमों में नियमित रुप से भाग लेते थे । बच्चन जी को आर्य समाज सम्बन्धी प्रेरणा बाजपेयी जी से ही मिली थी ।  बच्चन जी स्वामी सत्य प्रकाश जी के भी अन्तरंग मित्र तथा सह्पाटी थे । कहा जता है कि स्वामी जी जब आर्य कुमार सभा के प्रधान होते थे , उस समय बच्चन जी इस कुमार सभा के सदस्य थे । सम्भवतया यह ही वह समय रहा होगा ।

आप ने महिलोपयोगी साहित्य भी काफ़ी मात्रा में लिखा । इतना ही नहीं नारी शिक्शण को बटावा देने के लिए आपने “कन्या मनोरंजन” नाम से एक पत्रिका भी आरम्भ की । आप क नारि उत्थान तथा सदाचार की ओर विशेष ध्यान रहता था , इस कारण आप ने आदर्श कन्या पाटशाला , कन्या दिनचर्या, कन्या सदाचार , दो कन्याओं की बातचीत , शान्ता (उपन्यास) आदि पुस्तकेंलिखीं व प्रकाशित कीं ।

इस प्रकार अपने जीवन्का प्रत्येक क्शण आर्य समाज्के प्रचार प्रसार , लेकन व प्रकाशन को देने वाले पण्डित ओंकारनाथ वाजपेयी जी का देहान्त २८ जुलाई १९१८ को हो गया ।

मेहरचन्द महाजन by Dr. Ashok Arya

 

om 2   

 मेहरचन्द महाजन

-डा. अशोक आर्य

श्री मेहरचन्द महाजन एक महान न्यायविद तथा एक उत्तम प्रशासक थे । हिमाचल के टीका नगरोटा नामक स्थान पर २१ दिसम्बर १८८९ इस्वी को आप का जन्म हुआ । आप ने खूब दिल लगा कर शिक्शा प्राप्त की तथा एक अच्छे वकील बन गए ।

आप ने वकालत का आर्म्भ तो गुर्दासपुर पंजाब से किया किन्तु जल्दी ही आप लाहौर चले गये । लाहौर उन दिनों रजनीति तथा शिक्शा का केन्द्र था । अत: जल्दी ही आप लाहौर के कानूनविद से प्रतिष्टित कानून विद अर्था कानून के व्यवसायी हो गए ।

अपनी मेहनत व उसमें सफ़लता के कारण आप कानून के क्शेत्र में एक अच्छी विभूति बन गए इस कारण आप को लाहौर हाईकोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया गया । आप की सफ़लता यहां तक ही न रुकी , आप ने आगे बटते हुए काशमीर का प्रधान मन्त्री का पद भी प्राप्त किया । जब भारत स्वाधीन हुआ तो आप को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश भी बनने का गौरव मिला ।

देश की इस न्यायिक सेवा से मुक्त होने के पश्चात आप को डी ए वी कालेज प्रबन्ध कर्त्री समिति का प्रधान भी बनाया गया । आज हम टंकारा में जो महर्षि दयानन्द स्मारक ट्र्स्ट के नाम से एक बडी सुद्रट संस्था देख रहे हैं , इस का निर्माण व स्थापना भी आप ही ने की । इस कारण आप ही इस के संस्थापक अध्यक्श बने ।

आप ने अपनी एक आत्मकथा भी लिखी । अंग्रेजी में लिखी इस आत्मकथा का नाम लुकिंग बैक रखा गया । य्हह आत्मकथा आर्य समाज्के उस कल के संस्मरणों का पोथा बन गया है । सन १९६७ इस्वी में अप का देहान्त हो गया ।

कविरत्न पं. अखिलानन्द शर्मा By Dr. Ashok Arya

om 1

कविरत्न पं. अखिलानन्द शर्मा

पण्डित अखिलानन्द जी का जन्म गांव चन्द्र नगर जिला बदायूं में मिती माघ शुक्ला २ दिनांक १९३७ विक्रमी को हुआ । आप के पिता का नाम पं. टीका राम स्वामी तथा माता का नाम सुबुद्धि देवी था । आप अपने समय के संस्क्रत के उच्चकोटि के कवि थे ।

जब स्वामी दयानन्द सरस्वती अलीगट से लगभग तीस किलोमीटर दूर गांव कर्णवास , जो गंगा के तट पर है तथा यह वह स्थान है जहां पर स्वामी जी ने कर्णवास के राजा राजा से तलवार छीन कर तोड दी थी , इस स्थान पर ही जब स्वामी जी टहरे थे तो पंण्डित जी के पिता पं. टीका राम स्वामि जी स्वामी जी से मिले थे । इस प्रकार स्वामी जी से प्राप्त विचार ही उन्हें आर्य समाज की ओर लेकर आये तथा इस का प्रभाव पंडित अखिलानन्द जी पर भी हुआ ।

पण्डित अखिलानन्द जी ने शास्त्रों का खूब अध्ययन किया तथा इस निमित स्वामी दयानन्द सरस्वती जी  के सह्पाटी पं. युगलकिशोर जी तथा अल्मोडा निवासी पं. विष्णु दत जी के मार्ग दर्शन से आप ने इन शास्त्रों का अध्ययन किया तथा पारंगतता प्राप्त की ।

शास्त्रों में पारंगत होने पर आप ने अपने पिता के बताये पथ पर चलना ही उपयुक्त समझते हुए आर्य समाज के उपदेशक्स्वरुप कार्य आरम्भ किया । आप को संस्क्रत काव्य से विशेष आत्मीयता थी तथा आप इस क्शेत्र में असाधारण गति के भी स्वामी थे । इस प्रकार आप अर्य समाज के प्रचार व प्रसार करने लगे ।

जब आप आर्य समाज्के प्रचार कार्य को गति देने में लगे थे तब ही आप का आर्य समाज के सिद्दन्तो के प्रश्न पर जब वर्ण व्यवस्था का प्रशन आया तो आप को आर्य समाज्का वर्ण व्यवस्था के प्रश्न पर कुछ मतभेद हो गया तथा इस कारण ही आप ने आर्य्समाज के क्शेत्र का परित्याग कर दिया तथा सनातन धर्म के प्रवक्ता बन गए । अब आप ने आर्य समाज के विद्वानों से कई शास्त्रार्थ भी किए । आप ने संस्क्रत काव्य के आधार पर आप ने लगभग तेरह पुस्तकें भी लिखीं । आअप की लिखी द्यानन्द लहरी एक उतम पुस्तक थी । दयानन्द दिग्विजय महाकाव्य , वैदिक सिद्धान्त वर्णन आदि आदि उनके प्रमुख ग्रन्थ थे । आप का देहान्त ८ मई १९५८ इस्वी को हुआ । इस समय आप की आयु ७८ वर्ष की थी

मुन्शी कन्हॆयालाल अलखधारी By Dr. Ashok Arya

om 4

डा. अशोक आर्य

मुन्शी जी का जन्म उतर प्रदेश के आगरा में सन १८०९ इस्वी में हुआ । आर्य समाजी तो सदा ही क्रान्तिकरी विचारों के लिए प्रसिद्ध रहे हैं । इस कारण आप भी क्रान्तिकारी विचार रखते थे । मुन्शी जी के पिता का नाम धर्म दास था ।

मुन्शी कन्हॆयाला जी की शिक्शा कलकत्ता में हुई । आप ने कुछ समय के लिए बर्मा में  भी अपना निवास रखा किन्तु फ़िर आप भारत में वापिस लॊट आये । आप में अत्यधिक लगन ने आप को लुधियाना भेज दिया । यहां आ कर आप ने सन १८७३ में ” नीति प्रकाश” नाम से एक संस्था की स्थापना की । इस संस्था की स्थापना के साथ ही इस स्म्स्था के प्रचार व प्रसार के लिए एक समाचार पत्र भी आरम्भ किया इसका नाम भी ” नीति प्रकाश ” ही रखा गया ।

आज जो आरती नाम से यह भजन सब जगह गाया जाता है “ओ३म जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे ।” , के रच्यिता श्रद्धानन्द फ़िल्लोरी , जो कि सनातन धर्म के अपने समय के अच्छे विद्वान थे ( मुसलमानों से जिनका अत्यधिक लगाव था ) , मुन्शी कन्हॆयालाल अलखधारी जी के घोर प्रतिद्वन्द्वी थे तथा इन का विरोध व इनकी आलोचना क अवसर खोजते ही रहते थे । मुन्शी जी के प्रगतिवादी विचारों से उन्हें अत्यधिक घ्रणा थी ।

मुन्शी जी आर्य समाज के एक अच्छे सिपाही थे तथा महर्षि के उत्तम बक्त थे तथा स्वामी जी को पंजाब आने का निमन्त्रण देने वाले लोगों में मुन्शी जी का महत्व पूर्ण योग व अत्यधिक भूमिका थी । स्वामी जी के सामाजिक न्याय के विचारों के कारण अलख्धारी जी स्वामी जी के प्रशंसक तथा उत्तम शिष्य थे ।

मुन्शी जी ने आर्य समाज के प्रसार तथा वेद प्रचार के लिए अनेक ग्रन्थ लिखे । मुन्शी जी का समग्र साहित्य ” कुलियात अलखधारी ” शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित हुआ । इसके अतिरिक्त चिराग – ए – हकीकत ,शमा -= ए मारिफ़ल, उपनिषद , भगवद्गीता एवं योगवाशिष्ट क उर्दू अनुवाद , स्वामी दयानन्द का हाल ( उनके नीति प्र्काश मेंप्रकाशित लेखों का संग्रह) {इस का हिन्दी अनुवाद “महर्षि दयानन्द का सर्वप्रथम जीवन व्रत द्वारा प्रा. राजेन्द्र जिग्यासु }आदि

मौन्शी जी ने समाज के उत्थान के लिए भरपूर कार्य करते हुए अन्त में १ मई सन १८८२ इस्वी में , स्वामी जी से एक वर्ष पूर्व जीवन लीला समाप्त की ।