पं. राजाराम शास्त्री
-डा. अशोक आर्य
पंण्डित राजाराम शास्स्त्री जी अपने काल में अनेक शास्त्रों के अति मर्मग्य तथा इन के टीका कार के रुप में सुप्रसिद्ध विद्वान के रुप में जाने गये । आप का जन्म अखण्ड भारत के अविभाजित पंजाब क्शेत्र के गांव किला मिहां सिंह जिला गुजरांवाला मे हुआ , जो अब पाकिसतान में है । आप के पिता का नाम पं. सुबा मल था । इन्हीं सुबामल जी के सान्निध्य में ही आपने अपनी आरम्भिक शिक्शा आरम्भ की ।
आप अति मेधावी थे तथा शीघ्र ही प्राथमीक शिक्शा पूर्ण की ओर छात्रव्रति प्राप्त करने का गौरव पाया किन्तु इन दिनों एक आकस्मिक घटना ने आप के मन में अंग्रेजी शिक्शा प्रणाली के प्रति घ्रणा पैदा कर दी तथा संस्क्रत के प्रति आक्रष्ट किया । यह घटना एक शिक्शित युवक को ईसाई बनाने की थी । जब आप ने देखा कि एक अंग्रेजी पटे लिखे नौजवान को ईसाई बनाया जा रहा है तो आप के अन्दर के धर्म ने करवट ली । आप जान गये कि यह अंग्रेजी शिक्शा प्रणाली हमारे देश व धर्म का नाश करने वाली है । इस के दूरगामी विनाश को आप की द्रष्टी ने देख लिया तथा आप ने इस शिक्शा प्रणाली के विरोध में आवाज उटाते हुए इस प्रणाली में शिक्शा पाने से इन्कार कर दिया तथा संस्क्रत के विद्यार्थी बन गए ।
जब आप ने संस्क्रत पटने का संकल्प लिया उन्हीं दिनों ही आप के हाथ कहीं से स्त्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ आ लगा । स्वामी दयानन्द सरस्वती क्रत यह ग्रन्थ आप के लिए क्रान्तिकारी परिवर्तन का कारण बना तथा इस ग्रन्थ के अध्ययन मात्र से आप में संस्क्रत आदि शास्त्रों के गहनता पूर्वक अध्ययन करने की रुचि आप में उदय हुई । इस ग्रन्थ के विचारणीय प्रश्नों पर चिन्तन करने के मध्य ही आप में इस का दूर्गामी प्रभाव स्पष्ट दिखाई दिया तथा आपने तत्काल व्याकरण , काव्य तथा न्याय दर्शन आदि का विधिवत टंग से अध्ययन करना आरम्भ कर दिया । इतना ही नहीं इस काल में आपने शंकरभाष्य तथा उपनिषदों का , पटन , स्वाध्याय तथा खूब लगन से अनुशीलन किया ओर फ़िर महाभाष्य पटने का निर्णय लिया । अपने इस निर्णय को कार्य रुप देते हुए आपने जम्मू की ओर प्रस्थान किया ।
आपने १८८९ में अपना अध्ययन का कार्य पूर्ण किया तथा अपने घर लौट आए । यहां आ कर आप ने एक हिन्दी पाट्शाला का संचालन किया । कुछ ही समय पश्चात आपने अम्रतसर आकर आर्य समाज द्वारा संचालित एक विद्यालय में नियुक्ति पा कर अध्यापन का कार्य करते हुए वेद के सिद्धान्तों का ग्यान भी विद्यार्थियों को देना आरम्भ किया । किन्तु उत्साही व लगन शील व्यक्ति को सब लोग अपनी ओर ही खैंचने का प्रयास करते हैं । इस लगन का ही परिणाम था कि डी ए वी कालेज के प्रिन्सिपल महात्मा हंसराज जी ने इन्हें १८९२ में लाहौर बुला लिया । यहां आप को डी ए वी स्कूल में संस्क्रत अध्यापक स्वरुप नियुक्त किया गया ।
विद्वान की विद्वता के लोहे को मानते हुए शास्त्री जी को १८९४ मे डी ए वी कालेज लाहौर में संस्क्रत के प्राध्यापक स्वरुप नियुक्त किया गया । कालेज ने आप की योग्यता का सदुपयोग करते हुए आप की इच्छाशक्ति का भी ध्यान रखा तथा कालेज की मात्र लगभग पांच वर्ष की सेवा के पश्चात अगस्त १८९९ में आप को साट रुपए मासिक की छात्र व्रति आरम्भ की इस छात्र व्रति से आपने काशी जा कर मीमांसा आदि दर्शनों का अध्ययन करने के लिए काशी की ओर प्रस्थान किया ।
काशी रहते हुए आपने पण्डित शिवकुमार शास्त्री जी से मीमान्सा एवं वेद का अध्ययन किया । यहां ही रहते हुए आपने पण्डित सोमनाथ सोमयाजी से यग्य प्रक्रिया का बिधिवत परिचय प्राप्त करते हुए इसका अध्ययन किया । आप का काशी में अध्ययन कार्य १९०१ में समाप्त हुआ तथा इसी वर्ष आप काशी से लौट कर लाहौर आ गये ओर काले ज मेम फ़िर से कार्य आरम्भ कर दिया किन्तु कालेज प्रबन्ध समिति ने आप का कार्य बदल कर एक अत्यन्त ही जिम्मेदारी का कार्य सौंपा । यह कार्य था विभिन्न शास्त्रीय ग्रन्थों के भाषान्तर का । इस कार्य का भी आपने व्बखूबी निर्वहन किया । इसके साथ ही आप ने रजा राम शस्त्री पर भाषय तथा टीका लिखने का कार्य भी आरम्भ कर दिया ।
वर्ष १९०४ म३ं शस्त्री जी ने पत्रकारिता में प्रवेश किया । आप ने अधिशाषी अभियन्ता अहिताग्नि राय शिवनाथ के सहयोग से आर्ष ग्रथावलीनाम से एक मासिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ कर दिया । यह ही वह पत्र था जिसके माध्यम से आपने जो भी शास्त्र ग्रन्थों के भाष्य किये थे , उनका प्रकाशन हुआ । इस प्रकार आपके प्रकाशित भाष्यों का अब जन जन्को लाभ मिलने लगा । आर्य सामाजिक संस्थाओं मं कार्य रत रहते हुए आपने अनेक प्रकार का साहित्य भी दिया किन्तु आप के कार्यों से एसा लगता है कि आप के विचार आर्य समाज व रिषि दयानन्द के दार्शणिक सिद्धान्तों से पूरी तरह से मेल न खा सके तथा यह अन्तर बटते बटते विकराल होता चला गया ।
इस सब का यह परिणाम हुआ कि १९३१ में पं. विश्वबन्धु जी के सहयोग से आर्य समाज के कई विद्वानों से शास्त्रार्थ किया । शास्त्रार्थ का विषय रहा निरुक्त कार यास्क वेद में इतिहास मानते थे , या नहीं । इस विषय पर पं भगवद्दत जी, पं. ब्रह्मदत जिग्यासु, प. प्रियरत्न आर्ष , टाकुर अमर सिंह जी आदि से १८ मई से २२ मई १९३१ तक यह शास्त्रार्थ महत्मा हंसराज जी की अध्यक्शता में लाहौर में ही हुए ।
इस प्रकार समाज के इस सेवक ने समाज की सेवा करते हुए १८ अगस्त १९४८ को इस संसार से सदा सदा के लिए विदा ली । आपने अपने जीवन काल में अनेक ग्रन्थ लिखे जिनमें अथर्ववेद भाष्य चार भाग (सायण शैली में ),वेद व्याख्यात्मक ग्रन्थ, वेद ओर महाभारत के उपदेश, वेद ओर रामायण के उपदेश, वेद , मनु ओर गीता के उपदेश, वेदांग , दर्शन शास्त्र , उपनिषद आदि शास्त्रों तथा इतिहास व जीवन चरित हिन्दी तथा संस्कत भाषा व्याकरण आदि सहित अनेक स्फ़ुट विष्यों पर अनेक ग्रन्थ लिखे ।