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पण्डित चमूपति जी की कुरआन-विषयक एक भविष्यवाणी

      “हम भविष्यवाणी करते हैं कि कुरान की जो नई व्याख्या लिखी जायेगी उसके ठीक (दुरुस्त) होने की कसौटी ऋषि दयानन्द की समीक्षा होगी। कुछ अहले इस्लाम अपनी कम फ़हमी (भूल भ्रान्तियों) के कारण सत्यार्थप्रकाश के चौदहवें समुल्लास: का विरोध कर तो बैठते हैं, परन्तु उन्हें ज्ञान ही नहीं कि सत्यार्थप्रकाश का चौदहवाँ समुल्लास: यात्रियों का वह मार्गदर्शक शंखनाद है, जो इस्लाम के काफिले को ठीक मान्यताओं की ओर तेज पग उठाने की प्रेरणा दे रहा है।

      काफ़िले वालो ! शंखनाद की ध्वनि को सुनो तथा ध्येयधाम की ओर पग उठाओ।”

[द्रष्टव्य, चौदहवीं का चाँद (उर्दू पुस्तक) लेखक पण्डित चमूपति, पृष्ठ १८७]

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰

[📖 साभार ग्रन्थ – कवीर्मनीषी पण्डित चमूपति – राजेंद्र जिज्ञासु]

प्रस्तुति –  🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

हम हिन्दू है वा आर्य ? । ✍🏻 पण्डित चमूपति एम॰ए॰

[यह “आर्य” का सम्पादकीय लेख का अंश है जो की आषाढ़ सम्वत् १९८२ (जुलाई सन् १९२५) अंक में छपा था]

      आर्यसमाज की स्थापना हुए ५० साल से ऊपर हो चुके हैं और तभी से उसका यह दावा रहा है कि हमारे प्राचीन साहित्य में सर्वत्र स्थान-स्थान पर इस देश के रहने वाले लोगों के लिये ‘आर्य’ शब्द ही का प्रयोग होता रहा है और ‘हिन्दू’ शब्द हमारे विरोधी यवन लोगों का ही चलाया हुआ है। इस पर समय-समय पर हिन्दू (सनातनी) लोगों की ओर से यह कहा जाता रहा कि यह सब कार्यवाही इने गिने कुछेक आर्यसमाजियों की है और इसका उद्देश्य गुप्त रूप से आर्यसमाज का प्रचार करना है। अब भी कुछेक ऐसे व्यक्ति हैं जो निष्काम भाव से इस बात का विश्वास रखते हैं और हृदय से इसे स्वीकार करते हैं कि इस देश का नाम हिन्दू है। किन्तु उन्हें यह याद रखना चाहिए कि यह प्रश्न कोई आर्यसमाजियों का उठाया हुआ नहीं है। आज से ५५ साल पूर्व (जब आर्यसमाज की इस रूप में स्थापना भी नहीं हुई थी) भी काशी के विद्वानों में इस प्रश्न ने खलबली पैदा की थी। उस समय उन विद्वानों ने इस विषय में जो व्यवस्था दी थी इसे अभी स्वामी श्रद्धानन्दजी ने पुराने कागजों से निकाल कर पत्रों में प्रकाशित कराया है। वह निम्न प्रकार है – 

      🤔प्रश्न – श्रीमद्भागवत, एकादश स्कन्ध, सत्रहवें अध्याय में लिखा है कि सतयुग हंसवर्ण सब कोई कहाबते थे; और त्रेता में हंसाक्त चार वर्ण, चार आश्रम का विभाग होता गया। इस कारण वर्णाश्रमी कहाये। अब सब कोई हिन्दू नाम करके ख्याल करते हैं। सो हिन्दू शब्द की चर्चा कोई शास्त्र में नहीं मिलती। इस हेतु हम यह जानना चाहते हैं, कि हिन्दू कहावना उचित वा अनुचित है? 

      🌺उत्तर – वर्णाश्रमी देश बोधक जो हिन्दू शब्द है सो यवन-संकेतित है। वर्णाश्रमी बोधक जो हिन्दू शब्द है, यह भी यवन-सङ्केतित है। इस कारण हिन्दू कहावना सर्वथा अनुचित है। यह निर्णय श्रीकाशी मध्य टेढ नीम तले श्रीमहाराजाधिराज काशीराज महाराज संरक्षित धर्म-सभा में सब लोगों ने किया। हस्ताक्षर –

      (१) श्री विश्वनाथ शर्मा …………….(४५) श्रीबाबा शास्त्री। 

      🔥हिन्दूशब्दो हि यवनेष्वधर्मिजनबोधकः। 

      अतो नाहति तच्छब्द बोध्यतां सकलो जनः। 

      पापिनां पानी यवनः संकेत कृतवान्नरः। 

      नोचितः स्वीकृतोस्माभिर्हिन्दूशब्द इतीरितः॥ 

      काफ़िर को हिन्दू कहत, यवर स्व-भाषा मांहि। 

      ताते हिन्दू नाम यह, उचित कहइवो नांहि॥

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰

[📖 साभार ग्रन्थ – विचार वाटिका(भाग-२) – राजेंद्र जिज्ञासु]

प्रस्तुति –  🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

गौतम-अहिल्या और इन्द्र-वृत्रासुर की सत्यकथा । ✍🏻 पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

      ब्राह्मण ग्रन्थों में निर्दिष्ट ‘गौतम-अहल्या और इन्द्र-वृत्रासुर’ की आलंकारिक कथा का वास्तविक स्वरूप न समझ कर पुराणों में इसका अत्यन्त बीभत्स रूप में वर्णन किया है। 

      ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार इन्द्र नाम सूर्य का है और गौतम चन्द्रमा का, तथा अहल्या नाम रात्रि का है। अहल्या-रूपी रात्रि और गोतम-रूपी चन्द्रमा का आलङ्कारिक पति-पत्नी भाव का कथन है। इन्द्र=सूर्य को अहल्या का जार इसलिये कहते हैं कि सूर्य के उदय होने पर रात्रि नष्ट हो जाती है। इस कथा का यही तात्पर्य निरुक्त में भी दर्शाया है –

      🔥”आदित्योऽत्र जार उच्यते रात्रेर्जरयिता। ३।५” 

      🔥”रात्रिरादित्यस्योदयेऽन्तर्धीयते। १२।११” 

      इन्द्र-वृत्रासुर कथा में भी इन्द्र नाम सूर्य का है। उसे त्वष्टा भी कहते हैं। वृत्र नाम निघण्टु में मेघ-नामों में पढ़ा है। जब वृत्र-मेघ बढ़ कर आकाश मण्डल को ढांप लेता है तब इन्द्र (त्वष्टा) इस पर अपनी वजरूपी किरणों से आघात करता है। वृत्र मर कर=बादल बरस कर पानी के रूप में भूमि पर गिर पड़ता है। निरुक्त २।१६-१७ तथा शत॰ १।१।३।४-५ में इस कथा का यही आलंकारिक रूप वर्णित है। 

      इन दोनों कथानों का वास्तविक स्वरूप ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्य प्रकरण में भी दर्शाया है। ऋषि ने मार्गशीर्ष शुदि १५ सं० १६३३ के दिन वेदभाष्य के विषय में जो विज्ञापन छपवाया था, उसमें भी इसका शुद्ध स्वरूप दर्शाया है। देखो ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन भाग १, पूर्ण[१] ७४॥

[📎पाद टिप्पणी १. पुस्तक में ‘पूर्ण’ के स्थान पर ‘पृष्ठ’ अंकित था, जो की मुद्रण दोष प्रतीत होता। हमने इसे ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन से मिलान करके सही कर दिया है – 🌺 ‘अवत्सार’]

✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

(📖 साभार ग्रन्थ – ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास)

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

यम-यमी सूक्त । पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

      ऋग्वेद मण्डल १० का १०वाँ सूक्त ऋक्सर्वानुक्रमणी के अनुसार वैवस्वत यमयमी के संवादपरक है। यम और यमी भाई बहन हैं। यमी यम से शारीरिक सम्बन्ध की कामना करती है, यम उसे इस सम्बन्ध के लिये मना करता है। ऐसा सभी भाष्यकारों ने व्याख्यान किया है। निरुक्त ११।३४ में यास्क ने भी आख्यानपक्ष में ऐसा ही व्याख्यान दर्शाया है। [🔥यमी यमं चकमे। तां प्रत्याचचक्ष इत्याख्यानम्।] 

      प्रकरणश एव तु मन्त्रा निर्वक्तव्याः नियम के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इस तथाकथित यमयमी संवादसूक्त का विषय अपनी चतुर्वेद विषयसूची के अन्तर्गत ऋग्वेदविषयसूची में जलादिपदार्थ विद्या विषय का निरूपण किया है।[द्र०-दयानन्दीय लघुग्रन्थसंग्रह, पृष्ठ १३२] इस तथाकथित संवाद सूक्त से पूर्व (ऋ० १०।९) का सूक्त का देवता आपः है । अतः इस सूक्त में पठित यमयमी का संबन्ध भी आप: के साथ होना युक्त है। ऋक्सर्वानुक्रमणी के अनुसार इस सूक्त का ऋषि यम और ऋषिका यमी विवस्वान् के पुत्र और पुत्री हैं। 

      विवस्वान् आदित्य है। आदित्य की किरणों से पृथिवीस्थ जल तपकर दो भागों में बँट कर ऊपर जाता है।[🔥’कृष्णं नियान हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति’। ऋ० १।१६४।४७] ये दो भाग ही यम यमी हैं। एक योनि आप: से उत्पन्न होने के कारण भाई बहन हैं। इन्हें ही अन्यत्र मित्र और वरुण कहा है।[उर्वशी = विद्यत् के संयोग से मित्र और वरुण का मिलन हुआ तो उससे द्रवरूप गिरा हुआ बिन्दु वसिष्ठ = जल उत्पन्न हुआ । 🔥’उतासि मैत्रावरुणो वसिष्ठो वश्या ब्रह्मन् मनसोऽधिजात:’ ऋ० ७।३३।११] आधुनिक वैज्ञानिक नामावली में ये हाईड्रोजन और आक्सीजन गैसें हैं। हाईड्रोजन आक्सीजन की अपेक्षा हल्की होती है। अत: यम (हाईड्रोजन) अन्तरिक्ष स्थान से अतिक्रमण करता हुआ धुलोक तक पहुंचता है। अत: यम को निघण्टु (५।४,६) में अन्तरिक्ष एवं द्य दोनों स्थानों में पढ़ा है। यमी (आक्सीजन) भारी होने से अन्तरिक्ष स्थान तक ही गति करती है। स्त्री प्रत्यय महत्त्व अर्थ में भी होता है।[🔥हिमारण्ययोमहत्त्वे॥ महाभाष्य ४।१।४६॥ महद् हिमं हिमानी,महदरण्यम् अरण्यानी। महत्त्वं = घनत्वम्।]  जब यम सूर्य की किरणों के साथ वापस लौटता है[🔥’त आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादि घृतेन पृथिवी व्युद्यते’ ॥ ऋ० १।१६।४७], तब अन्तरिक्ष में यमी के साथ विद्युत् के योग से यम का मेल होता है और उससे दोनों के मेल से पुष्कर (अन्तरिक्ष) से द्रव रूप वसिष्ठ ( =अतिशय वासयिता =जल) की उत्पत्ति होती है।[द्र० -पूर्व पृष्ठ टि. ४ में उद्धृत मन्त्र का उत्तरार्ध- 🔥’द्रप्स स्कन्न दैव्येन ब्रह्मणा विश्वे देवा: पुष्करे त्वाददन्त’ ॥ऋ० ७।३३।११] इसे ही 🔥आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृण्वन्नजामि (ऋ० १०।१०।१०) से सूचित किया है। 

      यमयमी सूक्त से पूर्व सूक्त में ही केवल आप: का वर्णन नहीं है, अपितु उत्तर के ११-१२-१३-१४ सूक्तों में भी प्रकारान्तर से यम द्रप्स घृतस्नू द्यावाभूमी का सम्बन्ध उपलब्ध होता है। इस प्रकार यह दशवाँ सूक्त संदश (सडासी के दोनों छोर) के मध्य में पठित होने से जलविद्या विषयक ही है। इस दृष्टि से स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेद विषयसूची में जलादिपदार्थविद्या विषय का जो उल्लेख किया है, वह सर्वथा युक्त है। इसमें यमयमी के संवाद पक्ष में जो घृणित पक्ष उपस्थित किया जाता है, वह भी नहीं है । आवश्यकता है, स्वामी दयानन्द सरस्वती की दिव्य दृष्टि के अनुसार पूरे सूक्त की व्याख्या की।

      स्वामी दयानन्द सरस्वती संकलित चतुर्वेद विषयसूची के आधार पर यमयमी सूक्त के संबन्ध में जो विचार प्रस्तुत किया गया है, उससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं 

◼️(क) वेदभाष्य रचने के उपक्रम से पूर्व स्वामी दयानन्द सरस्वती ने चारों वेदों की जो विषयसूची संकलित की थी, उसके लिये उन्होंने बड़ी गम्भीरता से पूर्वापर के सम्बन्ध को ध्यान में रखा था। 

◼️(ख) इस चतुर्वेदविषयसूची के आधार पर ऋग्वेद के शेष भाग, सामवेद तथा अथर्ववेद, जिनका वे अपने जीवन में भाष्य नहीं कर पाये, के सम्बन्ध में उनके मूलभूत मन्त्र-विषय का परिज्ञान हो जाता है। इस प्रकार यह चतुर्वेद विषयसूची उनकी दृष्टि को समझने में विशेष सहायक है।

✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

मूर्तिपूजा : एक हास्य कथा

      राजस्थान के ग्राम की बात है। एक अग्रवाल वैश्य पुत्रहीन था। उसे किसी ने कहा कि भैरव जी को भैंसा भेंट करो अर्थात् उसकी बलि दो। भैरव प्रसन्न होकर तुम्हें पुत्र देंगे। सौभाग्य से उसे पुत्र प्राप्ति हो गयी। अब भैरव को उसकी भेंट (भैंसे की बलि) कैसे दें , अहिंसक वैश्य , उसने एक तरकीब सोची। एक भैंसा खरीदा और मोटे रस्से से बांध कर भैरव मूर्ति के पास लाया। उसे उसने भैरव की मूर्ति से बांधा और बोला- भैरव बाबा मैं तो अहिंसक बनिया हूँ , आप की बलि प्रस्तुत है, यथा इच्छा इसका उपयोग करें। वह तो चला गया और भैंसे ने अपने को बंधन से छुटाने के लिए जोर लगाया तो रस्से से बंधी मूर्ति उखड़ गयी। भैंसा उसे लिए लिए भागा। आगे आगे भैंसा पीछे रस्से से बंधे भैरव। गांव के सीमान्त पार देवी अपने गढ़ में बैठी, उसने यह दृश्य देखा तो बोली, अरे ! भैरव यह क्या हाल है, “भैंसा तुम्हें खींचे लिए जा रहा है”। 

      भैरव क्षुब्ध होकर बोले – “गढ़ म बैठी मटका करे, (आँखें मटकाती है) अग्रवाल को बेटा देती तो तेरा भी यही हाल होता।”

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✍🏻 लेखक – भवानीलाल भारतीय

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’ 

॥ओ३म्॥