हे चाँद! बहकर परिपूर्ण हो जा -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः गोतमः । देवता सोमः । छन्दः निवृद् आर्षी गायत्री ।
आप्यायस्व समेतु ते विश्वतः सोम वृष्ण्यम्। भवा वाजस्य सङ्गथे॥
-यजु० १२ । ११२
( सोम ) हे चाँद ! ( आ प्यायस्व) बढ़, परिपूर्ण हो जा। ( विश्वतः ) सब ओर से ( ते ) तेरा (वृष्ण्यम् ) सेचक अमृत ( समेतु ) आये। ( भव ) हो जा ( वाजस्य ) बल के (संगथे) संगमार्थ ।
हे चाँद! किसी दिन तू परिपूर्ण आभा के साथ गगन में चमक रहा था, पूर्णिमा का चाँद था। किन्तु तू आपदा से ग्रस्त होकर घटना आरम्भ हो गया और घटते-घटते आज अमावस के दिन आकाश से लुप्त ही हो गया है। तू पुनः बढ़ना आरम्भ कर, बढ़ते-बढ़ते फिर पूर्णिमा का चाँद हो जा। तेरा अमृत फिर तुझ में लौट आये और तू अमृत से लबालब भर जा। हमारे अन्दर पुनः शीतल ज्योति के बल का सङ्गम करने में तत्पर हो जा।।
यह एक वैदिक अन्योक्ति है, जिसे अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार भी कहते हैं। चाँद के बहाने से उस मनुष्य को या उस राष्ट्र को कहा जा रहा है, जो पहले कभी बहुत उन्नति कर चुका है, किन्तु अब अवनति के गर्त में गिर गया है। हे मानव ! हे राष्ट्र ! तू एक दिन अपनी उन्नति पर गर्व करता था, अन्य सब भी तेरे गौरव का सिक्का मानते थे । तू जगत् के गगन में पूर्णिमा के चाँद के समान चमकता था। परन्तु सबके दिन सदा एक से नहीं रहते। ‘चक्र सी है घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा’ । आज तू अमावस का चाँद बन गया है, किन्तु चिन्तित मत हो, यजुर्वेद ज्योति निराशा-निरुत्साह मन में मत ला। फिर एक-एक कला से बढ़ना आरम्भ कर । तू पूनम का चाँद हो जायेगा। तेरे ‘वृष्ण्य’ की, तेरे बल की, तेरे वीर्य और पराक्रम की धाक फिर जम जायेगी। फिर तू सबको अमृत, शीतलता और शान्ति प्रदान करने लगेगा। फिर तू संग्राम में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने लगेगा। तेरे सम्मुख एक दिन फिर सब सिर झुकायेंगे। तुझे फिर शान्ति का दूत स्वीकार करेंगे। हे अमावस के चाँद! तू पूनम का चाँद हो जा।
हे चाँद! बहकर परिपूर्ण हो जा -रामनाथ विद्यालंकार