हमारा सुव्यवस्थित शासन – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः भारद्वाजः । देवता मन्त्रोक्ताः । छन्दः विराड् आर्षी जगती ।
ब्राह्मणासुः पितरः सोम्यासः शिवे न द्यावापृथिवीऽअनेहसा। पूषा नः पातु दुरितादृतावृधो रक्षा माकिर्नोऽअघशसऽईशत॥
-यजु० २९ । ४७
( सोम्यास:१) शान्ति के उपासक ( ब्राह्मणास:२) ब्राह्मण जन और (पितरः) रक्षक क्षत्रियजने ( नः शिवाः ) हमारे लिए सुखदायक हों। ( अनेहसा ) निर्दोष निष्पाप (द्यावापृथिवी ) पिता-माता (नः शिवे ) हमारे लिए सुखदायक हों। ( ऋतावृधः पूषा ) सत्य को बढ़ानेवाला पोषक राजा व न्यायाधीश (दुरितात् ) अपराध एवं पाप से (नःपातु ) हमारी रक्षा करे। हे परमात्मन् ! ( रक्ष) हमारी रक्षा कर। (अघशंसःनःमाकिः ईशत ) पापप्रशंसक दुष्टजन हम पर शासन न करे।
हम चाहते हैं कि हमारा राष्ट्र पूर्णतः सुव्यवस्थित हो। गुण-कर्मानुसार वर्णव्यवस्था और आश्रमव्यवस्था राजकीय आदेश से प्रचलित हो, जिससे सब अपने-अपने कर्तव्य के पालन में तत्पर रहें। सौम्य, वेदज्ञ, शास्त्रमर्यादा के वेत्ता ब्रह्मवर्चस्वी ब्राह्मण ज्ञान और सदाचार का प्रजा में प्रचार प्रसार करते रहें, राज्य के शिक्षा-स्तर को उन्नत करते रहें, प्रजा के दुरितों का ध्वंस करते रहें। रक्षक क्षत्रियवर्ग चोरों, लुटेरों, आतंकवादियों, आततायियों तथा शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करते रहें। इस प्रकार राष्ट्र का ब्रह्मबल और क्षात्रबल मिल कर सबको समुन्नत करता रहे। वेद में सामाजिक दृष्टि से द्यावापृथिवी का अर्थ पिता-माता होता है, द्यौ पिता है, पृथिवी माता है। देश के पिता माताओं का कर्तव्य है कि वे स्वयं निष्पाप हों तथा प्रजा को भी निष्पाप होने की प्रेरणा करते रहें। इस प्रकार प्रजा के लिए शिव और मंगलकारी हों।
पूषा, अर्थात् प्रजापोषक राजा को भी चाहिए कि वह राज्य में न्यायालयों के विकास द्वारा पापों और अपराधों से प्रजा को बचाये। ऐसी व्यवस्था हो कि पापियों और अपराधियों को न्यायालय द्वारा समुचित दण्ड मिले तथा सत्कर्मियों को सम्मानित करके प्रोत्साहित किया जाए। ऐसा न हो कि राजा और न्यायाधीश ही पाप और अपराध के प्रशंसक होकर प्रजा में पापों तथा अपराधों को प्रोत्साहन देने लगें तथा शासन में रिश्वतखोरी आदि कदाचार व्याप्त होकर शासन कु-शासन होजाए। पूषा को मन्त्र में ‘ऋतावृध’ कहा गया है, इससे सूचित होता है कि राजा और न्यायाधीश का कर्तव्य है कि वे सत्य को बढ़ावा दें और असत्य की निन्दा करें।
प्रजा को भी सावधान रहना चाहिए कि जब राजा और राजमन्त्रियों का निर्वाचन होने लगे, तब ऐसे व्यक्तियों को ही मत प्रदान करे, जो न स्वयं किसी पाप या अपराधवृत्ति में फंसे हुए हों और न ही पाप और अपराध के प्रशंसक हों। सदाचारी, सत्यव्रती, पापविद्रोही ‘पूषा’ के द्वारा ही राष्ट्र में सत्कर्मों की वृद्धि और दुराचारों की विनष्ट हो सकती है। ऐसे ही पूषा के द्वारा राष्ट्र में सत्य, बृहत्त्व, ऋत, उग्रत्व, दीक्षा, तप, यज्ञ आदि पृथिवीधारक तत्त्वों का विकास और अपराधी तत्त्वों का विनाश हो सकता है।
पाद–टिप्पणियाँ
१-२सोम्यास:=सोम्या: । ब्राह्मणास:=ब्राह्मणाः । ‘आजसेरसुक्’ पा० ७.१.२०
से जस् को असुक् का आगम।
३. अनेहसा=अनेहसौ । सुपां सुलुक्–पा० ७.१.३९ से औ को आ।
४. ऋतं वर्धयतीति ऋतावृधः । ऋत के अ को छान्दसे दीर्घ ।
हमारा सुव्यवस्थित शासन – रामनाथ विद्यालंकार