सेनानायक पुरोहित की गर्वोक्ति-रामनाथ विद्यालंकार

सेनानायक पुरोहित की गर्वोक्ति-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः नाभा नेदिष्ठः । देवता पुरोहितो यजमानश्च।छन्दः आर्षी भुरिक् उष्णिक्।

सशितं में ब्रह्म सर्शितं वीर्य बलम्सशितं क्षत्रं जिष्णु यस्याहमस्मि पुरोहितः

-यजु० ११ । ८१

( मे ) मेरा ( ब्रह्म ) ज्ञान ( संक्षितं ) तीक्ष्ण है। ( संशितं ) तीक्ष्ण है (वीर्यम्) वीर्य और (बलम्) बल। ( संशितं ) तीक्ष्ण और (जिष्णु) विजयशील हो ( क्षत्रं ) क्षात्रबल ( यस्य ) जिस सम्राट् का ( अहम् अस्मि) मैं हूँ ( पुरोहितः ) पुरोहित, अग्रगन्ता, मुख्य सेनानायक के पद पर स्थित ।।

मैं राष्ट्र का मुख्य सेनानायक हूँ। राष्ट्र मेरा है, मैं राष्ट्र का हूँ। राष्ट्र की स्थलसेना, जलसेना और अन्तरिक्षसेना मेरे अधीन है। जब कभी राष्ट्र पर शत्रु का संकट होता है, तब मैं बांकुरे वीरों को राष्ट्ररक्षा के लिए संनद्ध कर देता हूँ। वे भी अपने प्राणों की चिन्ता न करके शत्रु पर जा टूटते हैं और शत्रु को पराजित करके ही छोड़ते हैं। मैं राष्ट्र का पुरोहित कहलाता हूँ। दो कारणों से मुझे पुरोहित कहा जाता है। प्रथम तो यह कि अग्निहोत्र या यज्ञ में जो काम पुरोहित का होता है, वही युद्ध में मेरा है। पुरोहित यज्ञ का सञ्चालन करता है। सैन्यसङ्गठन या संग्राम भी एक यज्ञ ही है। मैं उसका सञ्चालन करता हूँ। दूसरा यह है कि सेना में मुझे ‘पुर:-हित किया जाता है, अध्यक्ष पद पर बैठाया जाता है। मेरे अन्दर क्या विशेषता है। और जिस राष्ट्रपति का मैं पुरोहित हूँ उसे मुझसे क्या उपलब्धि होती है, यह मैं बता देना चाहता हूँ। जैसे यज्ञ में यजमान द्वारा पुरोहित का वरण किया जाता है, वैसे ही जब मैंने अपने पद  की शपथ ली थी तब मैं भी राष्ट्रपति द्वारा मुख्य सेनानायक के पद पर वरण किया गया था। मेरा ब्रह्म, मेरा राजनीति और रणनीति का ज्ञान बहुत तीक्ष्ण है। कब शत्रु पर आक्रमण करना है और कब शत्रु को केवल भयभीत करते रहना है, यह मैं जानता हूँ। शत्रु को यह चकमा देना भी जानता हूँ कि शत्रु यह समझे कि मैं पूर्व दिशा से आक्रमण करूंगी, किन्तु मैं किसी दूसरी दिशा से ही आक्रमण करके उसे पराजित कर देता हूँ। तीव्र रणनीति के ज्ञान के बिना युद्ध जीतना सम्भव नहीं होता और वह रणनीति का ज्ञान मुझमें है। साथ ही मेरा वीर्य और बल भी तीव्र है। मेरी व्यूह-रचना का बल तीव्र है, मेरी अन्तरिक्ष की उड़ान तीव्र है, शत्रुओं द्वारा खड़ी की गयी बाधाओं को तोड़ते-फोड़ते-कुचलते हुए मेरे ट्रैक्टरों की आगे बढ़ने की शक्ति तीव्र है, मेरे युद्धस्तर के जलपोतों की और मेरी पनडुब्बियों की शक्ति, तीव्र है। वीर्य शब्द ‘वीर विक्रान्त धातु से बनता है, वि उपसर्ग पूर्वक गति तथा कम्पन अर्थवाली ‘ईर’ धातु से भी निष्पन्न होता है। वीर्य का अर्थ है पराक्रम, शत्रु को पाने के लिए गति अर्थात् आक्रमण करना। वीर्य से अभिप्रेत है बल को क्रिया रूप में परिणत करना। मेरा बल भी तीव्र है और उस बल का प्रयोग भी तीव्र है। जब मैं तीव्रता के साथ अपने तीव्र बल का प्रयोग करता हूँ, तब शत्रु के छक्के छुड़ा देता हूँ। सब शत्रुओं का वध ही कर दिया जाए, यह अभीष्ट नहीं होता, उन्हें हरा कर अपने वशवती कर लेना ही प्रायः अभीष्ट होता है। इस प्रकार मेरा रणनीति का ज्ञान, मेरा बल और वीर्य तीक्ष्ण है। इसका परिणाम यह है कि जिस राष्ट्रपति का मैं पुरोहित हूँ, मुख्य सेनाध्यक्ष हूँ, उसका क्षात्रबल भी तीक्ष्ण और विजयशील है। जब मेरी सेना शत्रु को पराजित करती है, तब विजय मेरी होती है और वस्तुत: मेरी भी नहीं, विजय राष्ट्रपति की या राष्ट्र की होती है। सर्वोपरि है राष्ट्र । जय बोलो मेरे तीक्ष्ण वीरों की, जय बोलो मेरे राष्ट्रपति की, जय बोलो मेरे राष्ट्र की।

पाद टिप्पणी

१. संशितं, शो तनूकरणे+क्त प्रत्यय ।

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