सूर्य और रात्री का नियम-पालन-रामनाथ विद्यालंकार

surya aur ratri ka niyam palan1सूर्य और रात्री का नियम-पालन-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः कुत्सः । देवता सूर्य: । छन्दः आर्षी त्रिष्टप् ।

तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तावित सं जभार। यदेदयुक्त हुरितः सधस्थदाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ।

-यजु० ३३.३७

( तत् सूर्यस्य देवत्वं ) वह सूर्य का देवत्व है, ( तत् महित्वं ) वह महत्त्व है कि (कर्ते:मध्या’ ) क्रियमाण कर्मों के मध्य में ही ( विततं ) फैले हुए रश्मिजाल को (संजभार ) समेट लेता है। ( यदा इत् ) जब ही सूर्य ( सधस्थात् ) आकाश मण्डप से ( हरित:४) किरणों को ( अयुक्त ) अन्यत्र जोड़ता है, (आत् ) उसके अनन्तर ही (रात्री) रात्रि ( सिममै ) सबके लिए ( वासः तनुते ) अपने अन्धकाररूप वस्त्र को फैलाती है।

किसी बूढ़ी माँ ने आँगन की धूप में अनाज सूखने रखा है, वह अभी उसे समेट नहीं पायी है। वह चाहती है सूर्य तब अस्त हो जब मैं अनाज उठा लूं। वह सूर्य से कहती है-भैया ! जरा अस्त होने से रुक जाओ, मेरा काम फैला पड़ा है, तो वह हँसकर उसकी बात अनुसुनी कर देता है। वह नियमपालन के प्रति दृढ़ है, समय पर उदित होता है, और समय पर अस्त होता है। मन्त्र कह रहा है कि इसी में सूर्य का देवत्व और महत्त्व है कि वह किये जाते हुए कर्मों के मध्य में ही फैले हुए रश्मिजाल को समेट लेता है। यदि वह सबकी इच्छा पूरी करने लगे, तो कभी अस्त न हो पाये। कोई चाहेगा आधे घण्टे बाद अस्त हो, कोई चाहेगा एक घण्टे पश्चात् अस्त हो, किसी की इच्छा होगी कि दो घण्टे और रुक जाए, कोई कहेगा आज अस्त न ही हो तो क्या बिगड़ता है, मैं अपना कार्य धूप-धूप में पूरा कर लूं। व्रतपालन के धनी मनुष्य भी निश्चित समय पर अपना कार्य आरम्भ करते हैं। और निश्चित समय पर समाप्त कर देते हैं। यदि समय की सीमा निश्चित की हुई नहीं होती है, केवल इतना ही व्रत होता है कि दिन भर में इतना कार्य करना है, चाहे किसी समय कर लें, तो वैसे नियम का पालन करते हैं। तात्पर्य यह है कि जो भी नियम बनाया हो, उसका पालन आवश्यक है।

रात्रि भी अपने नियम की पक्की है। जब सूर्य आकाशमण्डप से अपनी किरणों को खींच लेता है, तभी वह अपने अन्धकार रूप चादर को तानती है। यह कभी नहीं होता कि वह सूर्यास्त से एक-दो घण्टा पहले ही आ विराजे और सूर्य से कहे कि सरको, मैं आ गयी।

हम चाहें तो प्रकृति से बहुत कुछ सीख सकते हैं। सूर्योदय, सूर्यास्त, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर का आना जाना, पृथ्वी का सूर्य के चारों ओर घूमना, चन्द्रोदय होना, समुद्र में ज्वार-भाटा आना-जाना, बादल बनना, वर्षा होना  आदि हमारे गुरु बन सकते हैं।

पाद-टिप्पमियाँ

१. मध्ये यत् कर्मणां क्रियमाणानाम्-निरु० ४.१२ ।

२. सं जभार=सं जहार। ग्रहोर्भश्छन्दसि ।।

३. सधस्थात् सहस्थानात्, मण्डपात् ।

४. हरितः हरणान् आदित्यरश्मीन्-निरु० ४.१२।।

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