सहस्त्रदाः विद्वान् -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः : विरूपः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी उष्णिक्।
अग्निर्योतिष ज्योतिष्मान् रुक्मो वर्चस वर्चस्वान्। सहस्रदाऽअसि सहस्त्राय त्वा
-यजु० १३।४०
हे विद्वन् ! ( अग्निः ) अग्रनायक आप ( ज्योतिषा) विद्या की ज्योति से ( ज्योतिष्मान् ) ज्योतिर्मय हैं। ( रुक्मः ) अध्यात्म रुचिवाले स्वर्णसम आप (वर्चसा ) ब्रह्मवर्चस से (वर्चस्वान्) वर्चस्वी हैं। आप ( सहस्रदाः असि) सहस्त्र विद्याओं और गुणों के दाता हैं, (सहस्राय त्वा ) सहस्त्र विद्याओं और गुणों की प्राप्ति के लिए आपको [वरण करतेहैं]।
किसी भी समाज या राष्ट्र में विद्वानों का विशेष महत्त्व होता है। जहाँ विद्वान् लोग बड़ी संख्या में हैं, वहाँ विद्या का प्रचार भी अधिक होता है। वह राष्ट्र ज्ञान-विज्ञान में भी अग्रणी होता है। मन्त्र विद्वान् को सम्बोधन कर रहा है। हे विद्वन् ! अग्रनायक आप विद्या की ज्योति से ज्योतिष्मान् हैं। जैसे अग्नि से भौतिक ज्वालाएँ निकलती हैं, वैसे ही आपके मुख से ज्ञानप्रकाश की ज्वालाएँ निकलती हैं। जैसे अग्नि अशुद्ध स्वर्ण को मलिनता को दग्ध करके स्वर्ण को निखार देता है। वैसे ही आप अज्ञान को दग्ध करके मनुष्य को विशुद्ध ज्ञानी बना देते हो। हे विद्वन् ! जहाँ विद्याओं का धन आपके पास है, वहाँ आपकी अध्यात्म रुचि और आपका योगाभ्यास आपको ब्रह्मवर्चस्वी तथा योगी बना रहा है। ब्रह्मवर्चस्वी और योगी आप महात्मा और ऋषि की पदवी प्राप्त कर रहे हो। हे वैदुष्य और अध्यात्म विद्या के धनी विद्वन् ! आप ‘सहस्रदा:’ हैं, सहस्रों विद्याओं-उपविद्याओं और सहस्र गुणों के दाता हैं, सहस्र योगक्रियाओं के दाता हैं। सहस्त्र विद्याओं, उपविद्याओं, सहस्र गुणों और सहस्र योगविद्याओं की प्राप्ति के लिए मैंआपको गुरु के रूप में वरण करता हूँ। |
आप मुझे पहले अपरा विद्या का ज्ञान दीजिए, मुझे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष का पण्डित बनाइये। मझे दर्शनशास्त्र पढ़ाइये, इतिहास और धर्मशास्त्र का अध्यापन कराइये, सूर्यविज्ञान सिखाइये, भौतिक विज्ञान में निष्णात कीजिए। फिर अध्यात्म रुचिवाले और निखरे स्वर्ण के समान शुद्धबुद्धि तथा सदाचारी आप मुझे परा विद्या भी सिखाइये। परा वह विद्या है, जिससे अक्षर ब्रह्म का, अविनश्वर परमेश्वर का साक्षात्कार होता है। जो ज्ञान मुण्डक उपनिषद् में अङ्गिरस ऋषि ने शौनक को दिया है, वह ज्ञान आप मुझे दीजिए। परब्रह्म के कार्यों का विवरण सुनाइये। वह सृष्टि की उत्पत्ति, सृष्टि का धारण, सृष्टि का संहार कैसे करता है, यह सब समझाइये । प्रणव को धनुष बना कर, आत्मा को शर बना कर, ब्रह्म को लक्ष्य बना कर कैसे अप्रमत्त होकर लक्ष्यवेध किया जाता है, इसका क्रियात्मक अभ्यास कराइये। मुझे ध्यानयोग में निष्णात कीजिए।
हे गुरुवर ! आप अग्नि हैं, आप सुवर्ण हैं, मुझे भी अग्नि और सुवर्ण बना दीजिए। मैं आपकी शिष्यता स्वीकार करता हूँ। संसारचक्र में भ्रमते हुए मुझे ऊपर उठा कर ब्रह्मलोक में पहुँचा दीजिए। तब मैं आत्मविभोर होकर गाऊँगा, पृथिवी से उठकर मैं अन्तरिक्ष में आया, अन्तरिक्ष से द्युलोक में आया और द्युलोक से उठकर स्वर्लोक में पहुँच गया हूँ, जहाँ आनन्द ही आनन्द है, आनन्द ही आनन्द है।
पाद-टिप्पणी
१. रुक्मः, रुच दीप्तौ अभिप्रीतौ च। अध्यात्मरुचिः स्वर्णश्च । ‘रुक्म=हिरण्य,निघं० १.२’ ।
सहस्त्रदाः विद्वान् -रामनाथ विद्यालंकार