सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः हिरण्यगर्भः । देवता सर्पा: । छन्दः भुरिग् आर्षी उष्णिक्।
नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु।। येऽअन्तरिक्ष य दिवि तेभ्य: सर्पेभ्यो नमः॥
-यजु० १३।६
( नमः अस्तु ) स्तुति हो ( सर्पेभ्यः ) उन सप के लिए ( ये के च ) जो कोई (पृथिवीम्अनु ) पृथिवी पर स्थित हैं। ( ये अन्तरिक्षे ) जो अन्तरिक्ष में हैं, ( ये दिवि ) जो द्युलोक में हैं ( तेभ्यः सर्पेभ्यः नमः ) उन सर्यों के लिए भी स्तुति हो। |
शतपथब्राह्मण में लिखा है कि ये लोक ही सर्प हैं, क्योंकि जब ये सर्पते हैं, तब जो कुछ इनके अन्दर होता है, उसके साथ ही सर्पते हैं। इस कारण भी लोकों को सर्प कहा जाता है कि जो कोई पदार्थ या प्राणी सर्पता है, वह इन्हीं लोकों में रहता हुआ सर्पता है। एवं इन लोकों में सर्पण करनेवाले पदार्थ तथा प्राणी भी सर्प कहलाते हैं। मन्त्र कह रहा है कि हम उन सर्यों को नम:’ देते हैं, जो पृथिवी पर रहते हैं। ‘नम:’ के अर्थ वैदिक कोष निघण्टु में अन्न तथा वज्र दिये हैं। नमस्कार अर्थ भी वेद में भी लोक के समान होता ही है। प्रकृत में ‘नम:’ का अर्थ स्तुति या गुणवर्णन उचित है। पृथिवी पर रहनेवाले चर पदार्थ मनुष्यकृत रेलगाड़ी, मोटरकार, ट्रक, इञ्जन, ट्रैक्टर, युद्धयान आदि हैं। इनके गुण जानकर, उनका वर्णन करके तथा इन चर पदार्थों का उपयोग करके हम असीम लाभ प्राप्त कर सकते हैं। पृथिवी पर रहनेवाले प्राणीरूप सर्प मनुष्य, सिंह, व्याघ्र, हाथी, पक्षी तथा अन्य जीवजन्तु हैं। इनका ज्ञान, गुणवर्णन तथा उचित उपयोग भी लाभदायक हो सकता है। अन्तरिक्ष में रहनेवाले सर्प अनेक ग्रह और उपग्रह हैं। इन ग्रह-उपग्रहों का हम पर फलित ज्योतिष का अभिमत प्रभाव भले ही न पड़ता हो, किन्तु प्राकृतिक प्रभाव तो पड़ता ही है। और अब तो ग्रह उपग्रहों में पहुँच कर वहाँ ग्राम और नगर बसाने की योजनाएँ चल रही हैं। द्युलोक में रहनेवाले सर्प सूर्यलोक तथा असंख्य नक्षत्रमण्डल हैं। मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या आदि १२ राशियाँ और २८ नक्षत्र, जिनमें हमारी पृथिवी के प्रवेश करने से संवत्सर का निर्माण होता है, सप्तर्षि आदि अनेक नक्षत्रपुञ्ज, आकाशगङ्गा के तारे ये सब द्युलोकस्थ सर्प हैं। इन सबका कुछ न कुछ प्राकृतिक प्रभाव हमारे स्वास्थ्य आदि पर तथा भौतिक घटनाचक्र आदि पर पड़ता है। अतः अपनी बुद्धि को इनके प्रति नत करके एतद्विषयक ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करना हमारे लिए कल्याणकारी हो सकता है।
अतः आओ इन सब पार्थिव, अन्तरिक्षस्थ तथा द्युलोकस्थ सर्यों के प्रति हम अपने ज्ञान और कर्म को प्रेरित करें।
पाद–टिप्पणियाँ
१. इमें वै लोकाः सर्पास्ते हानेन सर्वेण सर्पन्ति। श० ७.३.१.२५।।
२. इमे वै लोकाः सर्पा यदि किं च सर्पति एष्वेव तल्लोकेषु सर्पति । श०७.३.१.२७।।
३. निघं० अत्र २.७, वज्र २.२० ।
सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार