सम्राट् को उद्बोधन -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः अग्निः । देवता अग्नि: । छन्दः स्वराड् आर्षी पङ्किः।
क्षत्रेणाग्नेि स्वायुः सरभस्व मित्रेणग्ने मित्रधेये यतस्व। सुजातान मध्यमस्थाऽएधि राज्ञामग्ने विहुव्यो दीदिहीह॥
-यजु० २७.५
( अग्ने ) हे तेजस्वी सम्राट् ! ( क्षत्रेण ) क्षात्रबल से ( स्वायुः ) अपनी राजकीय आयु (संरभस्व ) प्रारम्भ कर । ( अग्ने ) हे अग्रनायक! (मित्रेण ) मैत्रीसचिव की सहायता से ( मित्रधेये ) अन्य राजाओं को मित्र बनाने में ( यतस्व) यत्न कर। ( सजातानां राज्ञां) सहजात राजाओं में ( मध्यमस्थाः ) केन्द्रस्थ ( एधि ) हो। ( अग्ने ) हे प्रगतिशील ! (विहव्यः ) विशेष प्रशंसनीय होकर ( इह ) यहाँ राजसंघ में ( दीदिहि ) देदीप्यमान हो।
हे अग्नितुल्य नवनिर्वाचित तेजस्वी सम्राट् ! आज से आप सम्राट का कार्यभार संभाल रहे हो। क्षात्रबल के प्रदर्शन से अपनी राजकीय आयु प्रारम्भ करो। शस्त्रास्त्रों का प्रदर्शन करो, सैनिक व्यूहरचना का प्रदर्शन करो, सैनिक अभियान का प्रदर्शन करो, स्थल-सेना, जल-सेना और अन्तरिक्ष-सेना के साहसों का प्रदर्शन करो। अपना क्षात्रबल बढ़ाओ, सेना का क्षात्रबल बढ़ाओ, प्रजा का क्षात्रबल बढ़ाओ। राष्ट्र में सैनिक शिक्षा अनिवार्य करो। क्षात्रबल के प्रदर्शन से आप अजातशत्रु हो सकोगे और यदि कोई राष्ट्र शत्रुता का दम भरेगा भी, तो उससे आत्मरक्षा भी कर सकोगे और उसे पराजित करने को सामर्थ्य भी जुटा सकोगे। आप अपने मन्त्रिमण्डल में ‘मित्र’ नामक मैत्री-सचिव भी रखोगे। उसकी सहायता से राष्ट्रों को अपने मित्र बनाना, मैत्री की सन्धि करना। अपने शत्रु उत्पन्न करना स्वस्थ राजनीति नहीं है। शत्रु यदि कोई राष्ट्र हो भी, तो उससे मैत्री कर लेना ही उचित है। आपके समान कोटि के जो सम्राट् हैं, उनमें शीर्षस्थ या केन्द्रस्थ बनने का यत्न करना। प्रगतिशील बनना, उदासीन नहीं। तब आप अन्य सम्राटों में प्रशंसनीय कहलाओगे। तब राष्ट्रसंघ की सदस्यता ग्रहण करने पर आपको अध्यक्ष का पद प्राप्त होगा, आप देदीप्यमान होंगे। आप अन्य सम्राटों का मार्गदर्शन कर सकोगे और शान्तिस्थापना में आपका विशेष योगदान माना जायेगा।
पद–टिप्पणी
१. दीदयति= ज्वलति । निघं० १.१६
सम्राट् को उद्बोधन -रामनाथ विद्यालंकार