सब परस्पर मित्रदृष्टि से देखें – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः दध्यङ् आथर्वणः । देवता ईश्वरः । छन्दः भुरिग् आर्षी जगती ।
दृते दृह मा मित्रस्य म चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् । मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे॥
-यजु० ३६.१८
हे ( दृते ) अविद्यान्धकार निवारक जगदीश्वर ! ( दूंह मा ) दृढ़ता प्रदान कीजिए मुझे । (मित्रस्य चक्षुषा ) मित्र की आँख से ( मा ) मुझे ( सर्वाणि भूतानि ) सब प्राणी (समीक्षन्ताम् ) देखें । ( मित्रस्य चक्षुषा ) मित्र की आँख से ( अहं ) मैं (सर्वाणिभूतानि) सब प्राणियों को ( समीक्षे ) देखें। ( मित्रस्य चक्षुषा ) मित्र की आँख से ( समीक्षामहे ) हम सब एक-दूसरे को देखें।
अविद्यान्धकार में ग्रस्त रहने के कारण हम यही नहीं जानते कि समाज में दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, एक-दूसरे को कैसी दृष्टि से देखना चाहिए। हम परस्पर कलह, विद्वेष, असन्तोष, उपद्रव, मार-काट में ही आनन्द मानते हैं, भय के वातावरण में ही रहना पसन्द करते हैं, चोरी-डकैती, आतङ्कवाद और हिंसा के नग्न ताण्डव और आर्तनाद में ही जीना चाहते हैं। पता नहीं कब कोई किसी की जान ले लेगा, पता नहीं कब किस पर वज्रपात हो जायेगा और उसके आश्रय में रहनेवाले चीत्कार कर उठेंगे, पता नहीं कब कोई साध्वी विधवा हो जाएगी और उसके तथा शिशुओं के विलाप से दिशाएँ कराहने लगेंगी, पता नहीं कब राजमहलों में रहनेवाले परिवार खण्डहरों के निवासी हो जाएँगे, पता नहीं कब अच्छे घरानों के लोग सड़कों पर बसेरा करने को बाध्य हो जाएँगे। ऐसी भीषण परिस्थितियाँ पैदा करनेवाले आतङ्कवादी लोग इसकी पीड़ा को, वेदना को, क्यों अनुभव नहीं करते? वे शान्ति को भङ्ग करने तथा हँसतों को रुलाने में ही क्यों सुखी होते हैं?
आओ, संहारलीला को छोड़कर हम परस्पर प्रेम और भाईचारे से रहना सीखें । हम जिनके घर बर्बाद करते हैं, वे यदि हमारे घर बर्बाद करें तो हमें कैसा लगेगा, थोड़ी देर के लिए यह भी सोचें । हम जिनकी जान लेते हैं, वे यदि हमारी जान लेने पर उतारू हो जाएँ, तो हम कैसा अनुभव करेंगे, यह भी सोचें । एक दिन आयेगा जब हम हिंसा, मार-धाड़, चीत्कार, हाहाकार, विलाप के वातावरण से तङ्ग आकर शान्ति और प्रेम के वातावरण की आवश्यकता अनुभव करने लगेंगे। तब बन्दूकों, तलवारों और बम के गोलों से हमारा विश्वास उठ जाएगा। कराहती लाशें हमें प्रेम, सौहार्द और मैत्री का वातावरण पैदा करने को बाध्य करेंगी।
हे विद्वेषविदारक जगदीश्वर! आप हमें दृढ़ता प्रदान कीजिए। आज से हम पारस्परिक मैत्री का सङ्कल्प करते हैं, हम उस पर दृढ़ रहें। हमने विद्वेष के परिणामों को भुगत लिया है, विद्वेष और वैरभाव ने हमें विनाश के कगार पर पहुँचा दिया है। हमें न केवल सब मनुष्य, अपितु सब प्राणी मित्र की दृष्टि से देखें। जब मनुष्य में अहिंसा प्रतिष्ठित हो जाती है, तब सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक प्राणी भी वैरभाव को छोड़कर मित्र बन जाते हैं। क्या आपने वह सच्ची कहानी नहीं सुनी है कि एक शेर बन्दूक की गोली से आहत हो गया था, जिसकी मरहमपट्टी एक साधु ने की और उस साधु के चरणों में सिर झुकाने वह शेर प्रतिदिन नियत समय पर आता था। सब प्राणी हमें मित्र की आँख से देखें, हम सब प्राणियों को मित्र की आँख से देखें। मित्रता और शान्ति के साम्राज्य में हम निवास करें। एक-दूसरे के सुख-दु:ख में हम साझी हों। दूसरे के आनन्दित होने पर हम भी आनन्दित हों, दूसरे की कराहट पर हम भी कराहें । हे जगदीश्वर हमें वह दिन देखने का सौभाग्य प्रदान करो।
पाद-टिप्पणियाँ
१. (दृते) अविद्यान्धकारनिवारक जगदीश्वर, विद्वेषविदारक विद्वन् वा-द० ।।
२. द्रष्टव्य-कल्याण मार्ग का पथिक : स्वामी श्रद्धानन्द ।
सब परस्पर मित्रदृष्टि से देखें – रामनाथ विद्यालंकार