शान्ति की पुकार – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः दध्यङ् आथर्वणः । देवता लिङ्गोक्ताः । छन्दः भुरिक् शक्चरी।
द्यौः शान्तिरन्तरिक्षः शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः । सर्वशान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥
-यजु० ३६.१७ |
( द्यौः शान्तिः ) द्युलोक शान्तिकर हो, ( अन्तरिक्षं शान्तिः ) अन्तरिक्ष शान्तिकर हो, ( पृथिवी शान्तिः ) पृथिवी शान्तिकर हो, ( आपः शान्तिः ) जल शान्तिकर हों, (ओषधयः शान्तिः ) ओषधियाँ शान्तिकर हों, ( वनस्पतयः शान्तिः ) वनस्पतियाँ शान्तिकर हों, (विश्वे देवाः शान्तिः ) समस्त विद्वज्जन शान्तिकर हों, ( ब्रह्म शान्तिः ) परब्रह्म परमेश्वर शान्तिकर हो, ( शान्तिः एव शान्तिः ) शान्ति ही शान्ति हो, (सामाशान्तिः एधि ) वह तू शान्ति भी मेरे लिए शान्तिकर हो।
आतङ्कवाद, हाहाकार, आर्तनाद, कलह, विद्वेष, युद्ध से मानव संत्रस्त हो चुका है। अब विभिन्न राष्ट्र प्रतीक्षा कर रहे हैं पारस्परिक मैत्रीभाव, सांमनस्य, सौहार्द और शान्ति की। आवश्यकता इस बात की है कि अशान्ति और चीत्कार को हटा कर शान्ति और सहृदयता की दुन्दुभि बजे। देखो, दिन में सूर्य-रश्मियों से और रात्रि में छिटकती हुई चन्द्र-तारावलि से जगमगाता हुआ द्युलोक हमें शान्ति का सन्देश दे रहा है। परस्पर हार्दिक आकर्षण से खिंचे हुए द्यौ के विभिन्न लोक हमें भी शान्ति से एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट होने की शिक्षा दे रहे हैं। सूर्य अन्धकाराच्छन्न मंगल, बुध आदि ग्रहों को अपना प्रकाश प्रदान कर उनके प्रति कैसा स्नेह दर्शा रहा है। आओ, हम भी विभिन्न राष्ट्रों के प्रति स्नेह और मैत्री की भावना अपने मन में उत्पन्न करें। अन्तरिक्ष की ओर भी दृष्टिपात करो। पृथिवी और अन्तरिक्ष में कैसा अद्भुत प्रेम है। पृथिवी सूर्यताप के माध्यम से अपना जल अन्तरिक्ष में पहुँचा देती है, अन्तरिक्ष पुन: उस जल को प्यासी पृथिवी पर बरसा कर ताल, तलैया, नदी, सागर को अपने स्नेह से सिक्त कर देता है। पृथिवी की शान्तिप्रियता को भी देखो। उत्तुंग हिमशैल, रंग-बिरंगे पुष्प-फलों से लदी ओषधि-वनस्पतियाँ, जलस्रोत सरोवर-प्रपात-सरिता-समुद्र, भूगर्भ की खानें, तैलकूप आदि सभी पृथिवी पर शान्ति बखेर रहे हैं। जल की शान्ति को भी निहारो। पसीने से तर-बतर, प्यास से व्याकुल मनुष्य एक गिलास पानी पीकर कैसी शान्ति का अनुभव करता है। पर्वतीय स्रोतों, झरनों, सरोवर-परिसरों, नदी-तटों की शीतलता किसे शान्ति की लहरों में स्नान नहीं करा देती। ओषधि-वनस्पतियाँ कैसे शान्तभाव से खड़ी हुई अपने मूल, छाल, पत्र, पुष्प एवं फलों से प्राणियों का कैसा उपकार कर रही हैं।
विद्वानों की विद्वत्ता और उनके चरित्र-बल का भी मूल्याङ्कन करो। वेद, ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद्, दर्शनशास्त्र, योगशास्त्र, भौतिक विज्ञान, आयुर्वेद, शिल्पशास्त्र आदि विविध ज्ञान-विज्ञान का पाण्डित्य प्राप्त करके अध्ययन-अध्यापन, प्रबोधन एवं अनुसन्धान में संलग्न यह विद्वन्मण्डली प्रत्येक राष्ट्र के लिए गौरव का विषय है। विद्वज्जन एक जुट होकर शान्ति के साथ विज्ञान को कैसा विकसित कर रहे हैं। अन्त में परब्रह्म परमेश्वर की शान्ति को भी दृष्टिगत करो। सृष्टि की उत्पत्ति, उसका लालन-पालन और समय आने पर उसकी प्रलय-लीला सब शान्तभाव से वह कर रहा है। इसके साथ शुभ गुण-कर्म-स्वभाव की प्रेरणा और न्याय–व्यवस्था भी उसके द्वारा शान्तिपूर्वक हो रही है। उसकी शान्तिमयी रीति नीति से भी हम शान्ति का पाठ पढे।।
शान्ति ही शान्ति हमें चाहिए, अशान्ति बिन्दुमात्र भी अभीष्ट नहीं है। शान्ति की बात समाप्त करते हुए वेदमन्त्र कह रहा है कि शान्ति भी हमें शान्ति देनेवाली हो। हमें सजीव शान्ति चाहिए, मरघट की शान्ति नहीं। ऐसी शान्ति चाहिए जो हमारे हृदयों को गुदगुदाये, तरङ्गित करे, आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे, हमें विजय का सन्देश दे, ऊध्र्वारोहण की शिक्षा दे, हमें ब्रह्मानन्द के झूले में झुलाये।
शान्ति की पुकार – रामनाथ विद्यालंकार