विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः प्रजापतिः । देवता सविता । छन्दः भुरिग् आर्षी पङ्किः।
युजे वां ब्रह्म पूर्घ्यं नमोभिर्वि श्लोकऽएतु पथ्येव सूरेः। शृण्वन्तु विश्वेऽअमृतस्य पुत्राऽआ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः ।।
-यजु० ११ । ५
हे यजमान पति-पत्नी ! ( वाम् ) तुम दोनों के ( पूर्त्य ब्रह्म ) पूर्व योगियों से प्रत्यक्षीकृत ज्ञान को ( नमोभिः ) नमन के भावों से ( युजे ) जोड़ता हूँ। तुम्हें ( श्लोकः ) यश (विएतु) विशेषरूप से प्राप्त हो, ( सूरेः पथ्या इव ) जैसे विद्वान् भक्त को धर्ममार्ग में चलने की गति प्राप्त होती है। इस धर्मोपदेश को ( शृण्वन्तु ) सुनें ( विश्वे) सब (अमृतस्य पुत्राः) अविनाशी सविता जगदीश्वर के पुत्र, ( ये ) जो ( दिव्यानि धामानि ) प्रकाशित धामों में ( आ तस्थुः ) आकर स्थित है
तुमने गुरुचरणों में बैठकर ज्ञान प्राप्त किया है, समस्त विद्याओं और कलाओं में तुम निष्णात हो चुके हो । समावर्तन संस्कार करा कर आचार्य से विदा लेकर अपने घर आकर विदुषी कन्या से विवाह करके गृहस्थाश्रम बसाकर आज तुम दोनों पति-पत्नी लोकोपकार-यज्ञ में प्रवृत्त हुए हो। पर यह क्या ! तुम्हारे अन्दर तो विद्वत्ता का अहङ्कार हिलोरें ले रहा है। तुम समझते हो कि तुम-जैसे विद्वान् और विदुषी संसार में दुर्लभ हैं, तुम्हारी विद्वत्ता की थाह पाना असम्भव है। परन्तु भले ही तुम चारों वेद, चारों उपवेद, छहों वेदाङ्ग, षड् दर्शन तथा इनसे अतिरिक्त भी इनकी शाखा-प्रशाखाओं सहित समग्र विद्याओं के धनी हो चुके हो, तो भी ये विद्याएँ तब तक किसी काम आनेवाली नहीं हैं, जब तक तुम्हारे अन्दर नम्रता नहीं आती। अहङ्कार या अभिमान मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं। ज्ञान के साथ नमन, नम्रता या विनय का गठजोड़ होना अनिवार्य है। वह विद्या विद्या नहीं है, जो विनय को नहीं देती। कवि ने कहा है-‘विद्या विनय को देती है, विनय से मनुष्य पात्रता को प्राप्त करता है। पात्र बनने से उसे धन मिलता है। धन पाकर वह धर्माचरण करता है। इससे वह सुख पाता है।’४ अहङ्कारी होकर यदि तुम धर्मोपदेश करोगे, ज्ञानचर्चा करोगे, तो उसका कुछ फल नहीं होगा। तुम्हारे अन्दर विनय आते ही विद्या फलवती होने लगेगी। इसलिए तुम्हारे महान् ज्ञान को मैं विनय को भावों के साथ जोड़ता हूँ। विनय के आने से तुम्हें यश प्राप्त होगा, जैसे विद्वान् भक्त को धर्ममार्ग में चलने की गति प्राप्त होती है।
विद्या और विनय के योग की बात मैं केवल तुम्हारे लिए ही नहीं कह रहा हूँ, किन्तु अविनाशी सविता प्रभु के सभी पुत्र-पुत्रियाँ इस उपदेश को सुनें, समझें, जीवन में लायें । किसी देश-विशेष के नर-नारियों के लिए ही यह विद्या विनय के सङ्गम का उपदेश नहीं है, किन्तु प्रभु से प्रकाशित सभी धामों में जो लोग स्थित हैं, उन सभी के लिए यह वेदोपदेश है। आओ, हम भी अपने अन्दर विद्या और विनय का सङ्गम करें।
पाद–टिप्पणियाँ
१. (पूर्व्यम्) पूर्वयोगिभिः प्रत्यक्षीकृतम्-२० । पूर्व शब्द से ‘पूर्वैःकृतमिनयों च, पा० ४.४.१३३ से कृत अर्थ में ये प्रत्यय।
२. (पथ्या) पथि साध्वी गति:-द० | पथोऽनपे ता पथ्या‘धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते’, पा० ४.४.९२ से यत् प्रत्यय।।
३. (अमृतस्य) अविनाशिनो जगदीश्वरस्य-२० ।
४. विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।।पात्रत्वाद् धनमाप्नोति धनाद् धर्मं ततः सुखम् ॥
विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार