विजेता सेनाध्यक्ष का अभिनन्दन -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः बृहदुक्थो वामदेवः । देवता इन्द्रः । छन्दः निवृद् आर्षी जगती ।
होता यक्ष्त्तनूनपतिमूतिभिर्जेतारमपराजितम्। इन्द्र देवस्वर्विदै पृथिभिर्मधुमत्तमैर्नराशसेन तेजसा वेत्साज्यस्य होतर्यज॥
-यजु० २८.२
( होता ) अभिनन्दन-यज्ञ का निष्पादक (यक्षत् ) पूजन अभिनन्दन करे। किसका? (ऊतिभिः ) रक्षण-शक्तियों द्वारा ( तनू-नपातम् ) शरीर को न गिरने देनेवाले, (जेतारम् ) विजेता, ( अपराजितम् ) अपराजित ( देवं ) दीप्तिमान् (मधुमत्तमैःपथिभिः ) अधिकाधिक मधुर मार्गों से तथा (नराशंसने तेजसा ) वीर नरों द्वारा प्रशंसनीय तेज से ( स्वर्विदं ) सुख पहुँचाने वाले ( इन्द्रं ) सेनाध्यक्ष का। वह सेनाध्यक्ष अपने अभिनन्दन में ( आज्यस्य वेतु ) घृत का भक्षण करे। ( होतः ) हे अभिनन्दन-यज्ञ के होता! तू ( यज ) अभिनन्दन-यज्ञ कर।
हमारे राष्ट्र ने शत्रु-राष्ट्र पर विजय प्राप्त की है। उसका श्रेय है हमारे वीर सेनानायक को और बहादुर सैनिकों के क्षात्रबल को। विजयी राष्ट्र विजयोत्सव मना रहा है, अपने सेनानायक का अभिनन्दन कर रहा है, सैनिकों को वधाई दे रहा है, सम्मानित कर रहा है। हे होता ! हे अभिनन्दन-यज्ञ के निष्पादक! आरती उतारो अपने वीर सेनाध्यक्ष की, तिलक करो सब वीरों के मस्तकों पर। हमारा सेनाध्यक्ष ‘तनू-नपात्’ है, इसने अपने शरीर को युद्ध में गिरने नहीं दिया है, धराशायी नहीं होने दिया है, हताहत नहीं होने दिया है। इसके विपरीत इसने शत्रुओं के सिरों को धूल चटाई है, शत्रु योद्धाओं को संत्रस्त किया है, शत्रु वीरों की चौकड़ी भुलायी है, शत्रु-दलों के युद्धोन्माद को लज्जित किया है। हमारा नायक विजेता है, अपराजित है, इसका मुखमण्डल तेज से दमक रहा है। यह अधिकाधिक मधुर मार्गों से और वीर नरों के प्रशंसनीय तेज से विजयी होकर राष्ट्र को सुख पहुँचानेवाला है। इसे घृत और मोदक खिलाकर घृतास्वादनविधि से इसका सत्कार करो। नगाड़े बजाओ, ‘वन्दे मातरम्’ का गीत गाओ, जयकारे लगाओ, राष्ट्रध्वज फहराओ, विजयपदक देकर विजेता वीरों का उत्साह बढ़ाओ।
हे होता! तुम विजय-यज्ञ करो, यज्ञाग्नि में विजय की आहुतियाँ दो, यज्ञ की सुगन्ध से दिशाओं को सुवासित करो, ** आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायताम्” की राष्ट्रिय प्रार्थना का स्वर गुंजाओ। पूर्णाहुतियाँ दो-” ओ३म् सर्वं वै पूर्ण स्वाहा, ओ३म् सर्वं वै पूर्ण स्वाहा, ओ३म् सर्वं वै पूर्ण स्वाहा।”
पाद–टिप्पणियाँ
१. यक्ष-यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु, लेट् लकार, ‘सिब्बहुलं लेटि’सिप् का आगम, ‘लेटोऽडाटौ’ अडागम।
२. स्वः सुखं वेदयति लम्भयति यः स स्वर्वित् तम् ।
३. वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु, लोट् लकार।
विजेता सेनाध्यक्ष का अभिनन्दन -रामनाथ विद्यालंकार