वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः प्रजापतिः। देवता परमात्मा आचार्यश्च । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।
दधिक्राव्णोऽअकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।। सुरभि नो मुखा करत्प्र णूऽआयूछषि तारिषत् ॥
-यजु० २३.३२
हमने ( दधिक्राव्णः ) धारण करनेवाले तथा आगे बढानेवाले, (जिष्णोः ) विजयशील, ( अश्वस्य ) व्यापक ज्ञानवाले, ( वाजिनः ) बलवान् परमेश्वर तथा आचार्य की (अकारिषम् ) स्तुति की है। वह ( नः मुखा) हमारे मुखों को ( सुरभि ) सुगन्धित (करत् ) करे, और (नः आयूंषि ) हमारी आयुओं को ( प्रतारिषत् ) बढ़ाये ।।
आओ, दधिक्रावा वाजी ‘अश्व’ की स्तुति करें। वह हमारे मुखों को सुरभित करेगा और हमारी आयुओं को बढ़ायेगा। क्या कहा? दधिक्रावन्, वाजिन् और अश्व ये तीनों तो घोड़े के पर्यायवाची नाम है। घोड़ा कैसे हमारे मुख सुरभित करेगा और कैसे हमारी आयु बढ़ायेगा ? रहस्यार्थ कुछ और ही प्रतीत होता है। ये तीनों नाम आचार्य और परमेश्वर के भी हैं। आचार्य दधिक्रावा’ है, क्योंकि वह ब्रह्मचारी को गर्भ में धारण करने के कारण ‘दधि’ और उसे उद्यमी और क्रियाशील बनाने के कारण ‘क्रावा’ है। परमेश्वर जगत् को धारण करने के कारण ‘दधि’ और मनुष्य को सक्रिय करने के कारण ‘क्रावा’ है । आचार्य और परमेश्वर दोनों को ‘वाजी’ इस हेतु से कहते हैं कि दोनों ज्ञान के बल से बली हैं। आचार्य को ‘अश्व’ कहने में यह कारण है कि वह गुरुकुल-रूप रथ का सञ्चालक तथा व्यापक ज्ञानवाला होता है और परमेश्वर सर्वव्यापक होने से ‘अश्व’ कहलाता है। आचार्य और परमेश्वर दोनों के लिए मन्त्र में ‘जिष्णु’ विशेषण भी प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि दोनों विजयशील हैं। आचार्य ब्रह्मचारी के अज्ञान पर विजय पाता है और परमेश्वर सब दुर्गुणी राक्षसों और दुर्गुणों पर विजयी होता है।
स्तोता कह रहा है कि मैं आचार्य और परमेश्वर रूप अश्व की स्तुति करता हूँ, उनके गुणों का कीर्तन करता हूँ तथा उनमें से जो गुण मेरे धारण करने योग्य हैं, उन्हें मैं भी धारण करता हूँ। ब्रह्मचारी का कर्तव्य है कि वह अपने आचार्य का यथायोग्य सम्मान करे, उसके पढ़ाये हुए पाठ को स्मरण करे, उसके उपदेशों का पालन करे । ब्रह्मचारी आचार्य से सीख कर जब वेदमन्त्र, शिक्षाप्रद श्लोक, सूक्तियों आदि का उच्चारण करते हैं और ज्ञान की बातें बोलते हैं, तब उनसे उनके मुख सुरभित होते हैं। आचार्य उनसे यथायोग्य व्यायाम तथा प्राणायाम आदि योगक्रियाएँ करा कर उनके शरीरों को बलवान् बनाता है, जिससे उनकी आयु बढ़ती है। परमेश्वर अपने स्तोताओं को ‘श्रेष्ठ ज्ञान तथा सदाचार’ में प्रवृत्त करता है तथा उन्हें सर्वचन बोलने की प्रेरणा करता है, दूसरों की निन्दा आदि से बचाता है। इस प्रकार वह उनके मुखों को सुगन्धित करता है। वह उन्हें सत्कर्मों में प्रवृत्त कर तथा दुर्व्यसनों से हटा कर उनकी आयु को भी बढ़ाता है। |
आइये, हम भी आचार्य और परमेश्वर रूप · अश्व’ की स्तुति-उपासना करके अपने मुखों को सुरभित करें और दीर्घायुष्य प्राप्त करें।
पाद–टिप्पणियाँ
१. मुखा=मुखानि । सुरभि=सुरभीणि । ‘शेश्छन्दसि बहुलम्’ पा० ६.१.७० । | करत्-कृ धातु लेट् लकार, करोतु । प्रतारिषत्-प्र पूर्वक तृ धातुवर्धनार्थक होती है, लेट् लकार।
२. निघं० १.१४
३. गर्भे दधातीति दधिः, क्रमर्यात क्रियाशीलं करोतीति क्रावा। दधिश्चासौक्रावा चेति दधिक्रावा ।
४. दधाति जगद् यः स दधिः, क्रमयति सक्रियं करोतीति क्रावा।दधिश्चासौ क़ावा चेति दधिक्रावा ।
वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार