रोगी, वैद्य और ओषधि तीनों दीर्घायु हों -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः वरुणः । देवता वैद्याः । छन्दः विराड् आर्षी बृहती।
दीर्घायुस्तऽओषधे खनिता यस्मै च त्वा खनाम्यहम्। अथ त्वं दीर्घायुर्भूत्वा शुतवल्शा विरिहतात्॥
-यजु० १२ । १००
( ओषधे ) हे ओषधि! ( ते खनिता ) तुझे खोदनेवाला ( दीर्घायुः ) दीर्घायु हो, (यस्मैच) और जिस रोगी के लिए ( अहं त्वा खनामि ) मैं वैद्य तुझे खोदता हूँ [वह भी दीर्घायु हो]। ( अथो) और हे ओषधि ! ( त्वं दीर्घायुः भूत्वा ) तू भी दीर्घायु होकर ( शतवल्शा) शत अंकुरोंवाली के रूप में ( वि रोहतात् ) बढ़।
कई रोग अन्य मनुष्य को तथा प्राणियों को जन्मजात मिलते हैं और अन्य बहुत-से रोगों को वे अपने शरीर में नये उत्पन्न कर लेते हैं। खान-पान तथा रहन-सहन की अनियमितता इसमें प्रधान कारण होती है। जैसे-जैसे रोग बढ़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे चिकित्सक भी बढ़ते जा रहे हैं। ओषधियों में से कुछ का ह्रास या विनाश हो रहा है और कुछ नवीन उत्पन्न होती जा रही है। प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद, ऐलोपैथी, होम्योपैथी आदि चिकित्सापद्धतियाँ भी बढ़ रही हैं। चिकित्सक और चिकित्सापद्धतियाँ बढ़ने पर भी रोग और रोगी कम न होकर बढ़ते ही जा रहे हैं तथा उनकी भयङ्करता भी बढ़ती जा रही है। फिर भी कुछ रोग जो पहले असाध्य समझे जाते थे, वे साध्यकोटि में आ गये हैं। चिकित्सा-जगत् को कई नवीन देने भी मिली हैं। प्रस्तुत मन्त्र ओषधि-विज्ञान के विषय में तीन बातों पर प्रकाश डाल रहा है, जो तीनों ही महत्त्वपूर्ण हैं।
पहली बात यह है कि जो लोग जङ्गल यो पहाड़ से ओषधियाँ खोद कर लाते हैं, उन्हें अनाड़ी नहीं, अपितु उन यजुर्वेद ज्योति ओषधियों के गुण-धर्मों का अच्छा ज्ञाता होना चाहिए, जिससे रोगी होने पर स्वयं उनका प्रयोग करके स्वास्थ्यलाभ कर सकें तथा अन्यों को भी उन ओषधियों का परिचय देकर उनके रोगनिवारण में सहायक हो सकें। यह देखा गया है कि ओषधियाँ खोद कर लानेवाले कई सेवक वैद्यों से भी अधिक आयुर्वेदज्ञ होते हैं। दूसरी बात मन्त्र मैं वैद्य की ओर से कही गयी है। वे कहते हैं कि जिस रोगी के लिए मैं स्वयं ओषधि को खोद कर लाता हूँ, या ओषधि-विक्रय-विभाग से खरीद कर लाता हूँ, वह रोगी भी दीर्घायु हो। रोगी दीर्घायु तब हो सकता है, जब वैद्य का चिकित्साशास्त्रीय ज्ञान अधूरा न होकर पूर्ण हो। अच्छा आयुर्वेदज्ञ वैद्य ही ओषधि से रोगी को लाभ पहुँचा सकता है, अन्यथा उसके पास ओषधि विद्यमान हो तो भी उसकी चिकित्सा से रोगी स्वस्थ हो ही जायेगा यह आवश्यक नहीं है। तीसरी मन्त्रोक्त बात यह है कि ओषधि को इस प्रकार काटना चाहिए कि काटने के बाद उसके अनेक अंकुर फूटें और वह पहले से भी अधिक बड़ी हो जाये, नहीं तो यदि ओषधि को गलत तरह से काटा या उखाड़ा जायेगा, तो उसके नष्ट हो जाने का भय है। पहले एक सोमलता होती थी, जिसका रस शक्तिवर्धक तथा बुद्धिवर्धक था। यज्ञों में उसका प्रयोग बहुत होता था, उसे इस बुरी तरह काटा उखाड़ा गया और मैदानों में उसकी खेती की नहीं जा सकी कि वह समाप्त ही हो गयी। यही हालत अन्य ओषधियों की भी हो सकती है, यदि इस तरह उन्हें काटेंगे कि उनके शत। शत कल्ले न फूटते रहें । अतः ओषधियो को प्रयोग के लिए इस तरह काटें कि वे भी दीर्घायु हों।
आइये, यदि हम चिकित्सक हैं तो मन्त्रोक्त बातों का ध्यान रखें। ओषधि खोदकर लानेवाला भी दीर्घायु हो, रोगी भी दीर्घायु हों और ओषधियाँ भी दीर्घायु हों।।
पाद–टिप्पमियाँ
१. शतवल्शी शताङ्करा।
२. विरोहतात् वर्धस्व ।।
रोगी, वैद्य और ओषधि तीनों दीर्घायु हों -रामनाथ विद्यालंकार