राजा का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः शुन:शेपः । देवता यजमानः । छन्दः विराड् धृतिः ।
अभिभूरस्य॒तास्ते पञ्च दिशः कल्पन्तां ब्रह्नस्त्वं ब्रह्मासि सवितासि सत्यप्रसव वरुणोऽसि सत्यौजाऽइन्द्रोऽसि विशौजा रुद्रोऽसि सुशेवः । बहुंकार श्रेयस्कर भूर्यास्करेन्द्रस्य वज्रोऽसि तेने मे रध्य ।।
-यजु० १० । २८ |
हे राजन् ! तू ( अभिभूः असि ) दुष्टों का तिरस्कर्ता है। (एताः ते ) ये तेरी (पञ्च दिशः ) पाँच दिशाएँ-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊध्र्वा ( कल्पन्ताम् ) प्रजा को सुख देने में समर्थ होवें । ( ब्रह्मन्) हे महिमामय ! ( त्वं ब्रह्म असि ) तू ब्रह्म है, चतुर्वेदवित् है, (सविता असि ) सविता है, प्रेरक है, ( सत्यप्रसवः ) सत्य को जन्म देनेवाला (वरुणःअसि ) पाप-निवारक, वरणीय है, ( सत्यौजाः इन्द्रः असि ) सच्चे ओजवाला इन्द्र है, ( विशौजाः ) प्रजाओं में ओज भरनेवाला ( सुशेवः ) उत्तमसुखकारी (रुद्रःअसि ) रुद्र है। ( बहुकार ) हे बहुत-से कार्य करनेवाले ! ( श्रेयस्कर ) हे प्रशस्यकारी ! ( भूयस्कर) हे प्रचुर धन-धान्य आदि उत्पन्न करनेवाले ! तू (इन्द्रस्यवज्रः असि) इन्द्र का वज्र है। ( तेन ) इस कारण ( मे ) मुझे, हम प्रजाजनों को, (रध्य ) कार्यसिद्धि या सफलता प्रदान कर ।
नवनिर्वाचित राजा को प्रजा का प्रतिनिधि कह रहा है। हे वीर ! हम तुम्हें राज्यशासन के लिए सर्वगुणसम्पन्न मानकर प्रजा के बीच से चुनकर लायें हैं और बड़े उत्साह के साथ हमने तुम्हारा अभिषेक किया है। हे राजन् ! तुम ‘अभिभू’ हो, दुष्टों का तिरस्कार करनेवाले हो । पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा ऊध्र्वा इन पाँचों दिशाओं में तुम अपनी कीर्ति का विस्तार यजुर्वेद ज्योति करनेवाले हो। ये पाचों दिशाएँ तुम्हारी प्रजा के लिए सुखदायक हों। तुम्हारे राज्य की किसी भी दिशा में कोई सत्पुरुष चला जाए, तो उसे स्वागत-सत्कार प्राप्त हो, ठोकरें न खानी पड़े। हे राष्ट्रधुरन्धर ! तुम देवों का अंश लेकर बने हो। हे ब्रह्मन् ! हे परम वृद्धि को प्राप्त राजन् ! तुम ‘ब्रह्मा’ हो, चतुर्वेदवित् हो। अतः वेदानुकूल ही प्रजा पर शासन करो। हे देव! तुम ‘सविता’ हो, प्रजा को शुभ कार्यों की एवं शुभ योजनाओं की प्रेरणा देनेवाले हो। हे सम्मानास्पद ! तुम सत्यप्रसव हो, सत्य को जन्म देनेवाले हो। तुम वरुण हो, पापनिवारक तथा वरणीय हो, श्रेष्ठ हो, अनृताचरण करनेवाले को पाशों से बाँधो और सत्यव्रती को पुरस्कृत करो। हे प्रजापालक! तुम सच्चे ओज से ओजस्वी ‘इन्द्र’ हो, परमैश्वर्यवान् एवं शत्रुविदारक हो। सच्चा ओज प्रकट करके असत्यकर्मा आततायियों का दमन करो। हे राजप्रवर! तुम ‘रुद्र’ हो, दुष्टों को रुलानेवाले तथा सज्जनों के रोगादि सन्ताप को द्रावण करनेवाले हो। तुम अपने इस गुण को क्रियान्वित करो। हे सद्गुणनिधान! तुम ‘सुशेव’ हो, उत्कृष्ट सुख के दाता हो, अतः प्रजा को श्रेष्ठ सुख प्राप्त कराओ। तुम ‘बहुकार’ हो, बहुत से कार्य करने में समर्थ हो। तुम ‘श्रेयस्कर’ हो, तुम्हारे कार्य कल्याणकारक ही होते हैं। तुम ‘भूयस्कर’ हो, प्रचुर धनधान्यादि उत्पन्न करनेवाले हो। तुम इन कर्तव्यों का पालन करते रहना। तुम ‘इन्द्र’ के वज़ हो। जैसे वेद का इन्द्र अपने वज्र से रिपुओं का संहार करता है, वैसे ही तुम भी करते रहना ।
हे नर श्रेष्ठ ! क्योंकि तुम उक्त सब गुणों से सम्पन्न हो, अतः हम प्रजाजनों को सदा सफलताएँ प्रदान करते रहना। हम तुम्हारा भावभीना स्वागत करते हैं।
पाद–टिप्पणियाँ
१. (अभिभू:) दुष्टानां तिरस्कर्ता।
२. (सुशेव:) शोभनं शेवं सुखं यस्य सः । शेव=सुख, निघं० ३.६।।
३. (रध्य) सं राध्नुहि । –द० । रध्य, रध हिंसासंराध्योः, दिवादिः ।
राजा का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार