यज्ञ सामग्री -रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ सामग्री -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः स्वस्त्यात्रेयः । देवता अग्न्यश्वीन्द्रसरस्वत्याद्या लिङ्गोक्ताः ।। छन्दः निवृद् अष्टिः।

होता यक्षसमिधाग्निमिडस्पदेऽश्विनेन्द्रसरस्वतीमजो धूम्रो न गोधूमैः कुवलैर्भेषजं मधु शर्यैर्न तेजऽइन्द्रियं पयः सोमः परित्रुता घृतं मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतंर्यज।।

-यजु० २१.२९

( होता ) हवनकर्ता (इडस्पदे ) यज्ञवेदि में ( समिधा ) समिधा द्वारा (अग्निं ) अग्नि को, (अश्विना ) अश्वियुगल को ( इन्द्रं ) इन्द्र को ( सरस्वतीं ) सरस्वती को ( यक्षत् ) हवन करे। (अजः ) अजशृङ्गी ओषधि, ( धूम्रः न ) और धुमैला गूगल (गोधूमैः ) गेहुओं के साथ और ( कुवलैः ) बेरों के साथ मिलकर ( भेषजं ) औषध होती है। ( शष्पैः न ) अंकुरित धानों के साथ ( मधु) मधुयष्टि, ( तेजः ) तेजपत्र, ( इन्द्रियं ) इन्द्रायण ओषधि, ( पयः ) दूध, (परित्रुता सोमः ) परिसुत रस के साथ सोम ओषधि, (घृतं ) घीवारी, (मधु) शहद, ये सब पदार्थ (व्यन्तु ) मिलें । ( होतः ) हे हवनकर्ता ! तू इनका और (आज्यस्य ) घृत का ( यज ) यज्ञ कर।।

‘होतृ’ शब्द ‘हु’ धातु से निष्पन्न होता है, जिसका प्रचलित अर्थ ‘आहुति देना है। धातुपाठ में यह धातु दान, भक्षण और आदान अर्थों में पठित है। यज्ञनिष्पादक को ‘होता’ इस कारण कहते हैं कि वह अग्नि में हवि का दान करता है, और हविर्दान से उत्पन्न प्राणदायक और रोगनिवारक सुगन्ध का भक्षण और ग्रहण करता है। इडा शब्द पृथिवीवाचक है, अतः इडस्पद का अर्थ होता है, भूमि पर बनी हुई यज्ञवेदि। होमकर्ता यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि का आधान करता है और घृत में डूबी हुई समिधाओं के आधान से अग्निप्रदीपन करता है। समिधाएँ पलाश, शमी, पीपल, बड़, गूलर, आम, बिल्व, चन्दन आदि वृक्षों की ली जाती हैं। होमद्रव्य संस्कारविधि में चार प्रकार के लिखे हैं-प्रथम सुगन्धित कस्तूरी, केसर, अगर, तगर, श्वेत चन्दन, इलायची, जायफल, जावित्री आदि; द्वितीय पुष्टिकारक घृत, दूध, फल, कन्द, अन्न, चावल, गेहूँ, उड़द आदि; तीसरे मिष्ट शक्कर, सहत, छुहारे, दाख आदि; चौथे रोगनाशक गिलोय आदि । मोहनभोग, मीठा भात, मीठी खिचड़ी, मोदक आदि के होम का भी विधान किया है। मोहनभोग बनाने की विधि लिखी है कि सेरभर मिश्री के मोहनभोग में रत्ती भरे कस्तूरी, माशेभर केसर, दो माशे जायफल और जावित्री डाले। प्रस्तुत मन्त्र में कहा गया है कि अजशृङ्गी, धुमैला गूगल, गेहूँ और बेर मिलाकर जो आहुति दी जाती है, वह उत्तम औषध होती है। अजशृङ्गी ओषधि के लिए अथर्ववेद में कथन है कि वह रोगकृमि रूप राक्षसों को अपनी गन्ध से नष्ट करती है। गूगल के विषय में अथर्ववेद में ही यह विशेषता बतायी गयी है कि इसकी धूनी जो लेता है, उसके पास से रोग भाग जाते हैं। उक्त हवियों के अतिरिक्त मन्त्र में अंकुरित धान, मधुयष्टि (मलहठी), तेजपत्र, इन्द्रायण, गोदुग्ध, अन्य ओषधियों के रस के साथ सोमलता, घीवारी और शहद की हवि भी उत्तम बतायी गयी हैं। इन सब हवियों से होता को घृताहुति के साथ यज्ञ करने की प्रेरणा दी गयी है। महीधर ने यहाँ ‘अज’ से बकरे और ‘धूम्र’ से मेष (मेंढा) पशुओं की आहुति का ग्रहण किया है, जो भ्रष्ट लीला है।

मन्त्रपठित जिन देवों का यजन करना है वे हैं अश्वियुगल, इन्द्र और सरस्वती । प्रकृति में अश्वियुगल हैं पृथ्वी-आकाश, इन्द्र है वायु और सरस्वती है जलधारा। यज्ञ द्वारा इन सबको सगन्धित करके पर्यावरण को शुद्ध करना है। सामाजिक दृष्टि से अश्वियुगल हैं गुरु-शिष्य, अध्यापक-उपदेशक, वैद्य शल्यचिकित्सक आदि युगल। इन्द्र राजशक्ति है, सरस्वती मातृशक्ति है। इनके लिए हवि देने का तात्पर्य है, इन्हें परिपुष्ट करना, इनकी स्थिति अच्छी करना।।

पाद-टिप्पमियाँ

१. अजभृङ्गि अज रक्षः सर्वान् गन्धेन नाशय। अ० ४.३७.२

२. न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैनं शपथो अश्नुते ।यं भेषजस्य गुल्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते ।। अ० १९.३८.१

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