यज्ञ को प्रेरित करो, यज्ञपति को प्रेरित करो-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ को प्रेरित करो, यज्ञपति को प्रेरित करो-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  नारायण: । देवता  सविता । छन्दः  आर्षी त्रिष्टुप् ।

देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय दिव्यो गन्धर्वः कैपूः केते नः पुनातु वाचस्पतिर्वार्चनः स्वदतु ॥

-यजु० ३०.१ |

( देव सवितः ) हे प्रकाशक प्रेरक जगदीश्वर! आप ( प्रसुव यज्ञं ) प्रेरणा दीजिए जीवन-यज्ञ को, (प्रसुव यज्ञपतिम् ) प्रेरणा दीजिए यज्ञपति आत्मा को ( भगाय) भग की प्राप्ति के लिए। (दिव्यः) दिव्य, ( गन्धर्व:१) लोकों तथा इन्द्रियों को धारण करनेवाला, ( केतपू:२) प्रज्ञा एवं विचारों को पवित्र करनेवाला वह सविता देव (केतंनःपुनातु ) हमारी प्रज्ञा तथा विचारों को पवित्र करे। ( वाचस्पतिः ) वाणी का स्वामी एवं पालनकर्ता वह परमेश्वर ( नः वाचंः ) हमारी वाणी को ( स्वदतु ) मीठा बनाये।।

हे मेरे परम प्रभु ! तुम दानी, द्युतिमान्, प्रकाशक, मोदमय, आनन्ददाता होने से ‘देव’ कहलाते हो। हृदयों में शुभ प्रेरणा करने के कारण तुम्हारा नाम ‘सविता’ है। हे सविता देव! मैं * भग’ प्राप्त करना चाहता हूँ। धर्म, धन, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य आदि जो भी भजनीय ऐश्वर्य है, वह भग कहलाता है। तुम इस ‘भग’ की प्राप्ति के लिए मेरे जीवन-यज्ञ को प्रेरित करते रहो। जीवन-यज्ञ को चलानेवाला जो यज्ञपति मेरा आत्मा है, उसे भी तुम उक्त ऐश्वर्यों की प्राप्ति के लिए सदा उत्प्रेरित करते रहो।

हे मेरे सविता प्रभु ! तुम दिव्य हो, अलौकिक हो, तुम्हारी  झाँकी तुम्हारे भक्त को भी दिव्य बना देनेवाली है। हे देव ! तुम ‘गन्धर्व’ हो। जैसे तुम विश्ववर्ती गौओं को अर्थात् लोक लोकान्तरों को धारण करनेवाले हो, वैसे ही देहवर्ती गौओं के अर्थात् इन्द्रियादि अङ्गोपाङ्गों के भी धारणकर्ता हो । केनोपनिषद् में शिष्य ने आचार्य से प्रश्न किया है कि यह मन किससे प्रेरित होकर गति करता है, यह वाणी किससे प्रेरित होकर पदार्थों के वर्णन में प्रवृत्त होती है, चक्षु-श्रोत्र आदि इन्द्रियों को कौन देव विषयों के ग्रहण में प्रवृत्त करता है? आचार्य ने उत्तर दिया है कि वह मन का भी मन है, प्राण का भी प्राण है, वाणी की भी वाणी है, चक्षु का भी चक्षु है, श्रोत्र का भी श्रोत्र है, उसी परम प्रभु से प्रेरित होकर ये सब धृत हैं तथा अपने-अपने ग्राह्य विषयों में प्रवत्त हो रहे हैं। इसीलिए उस प्रभु को ‘गन्धर्व’ कहते हैं। वह सविता प्रभु केतपू:’ भी है, मनुष्य के विचारों को, प्रज्ञाओं को, सङ्कल्पों को पवित्र करनेवाला है। वह मेरे भी विचारों को, प्रज्ञाओं को, सङ्कल्पों को पवित्र कर देवे। वही ‘वाचस्पति’ भी है, हमारी वाणी का स्वामी भी है। अतः वह हमारी वाणी को स्वादिष्ठ बनाये, मिठास से भर दे ।।

इस प्रकार सविता जगदीश्वर से संवल पाकर हमारा यज्ञपति आत्मा मानस एवं सामाजिक यज्ञ रचाये और आध्यात्मिक एवं भौतिक सर्वविध ऐश्वर्यों से धनी होकर लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो।

पाद-टिप्पमियाँ

१. गन्धर्वः–यो गाः पृथिवी: इन्द्रियाणि वा धरतीति गन्धर्वः । गोशब्दस्य| गंभावः ।।

२. केतं विज्ञानं पुनातीति केतपूः । कित ज्ञाने, जुहोत्यादिः ।

३. ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ।।ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।

यज्ञ को प्रेरित करो, यज्ञपति को प्रेरित करो-रामनाथ विद्यालंकार

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