यज्ञाग्नि यजमान को प्रबुद्ध करें -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः अग्निः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।
सं चेध्यस्वग्नेि प्र चे बोधयैनमुच्च तिष्ठ महुते सौभगाय। मा च रिषदुपसत्ता तेअग्ने ब्रह्माणस्ते यशसः सन्तु माऽन्ये॥
-यजु० २७.२
( अग्ने ) हे यज्ञाग्नि ! (सम् इध्यस्व च ) तू समिद्ध भी हो ( प्रबोधय च एनम् ) और इस यजमान को प्रबुद्ध भी कर। ( उत् तिष्ठ च ) ऊँचा स्थित हो ( महते सौभगाय ) हमारे महान् सौभाग्य के लिए। (अग्ने ) हे यज्ञाग्नि! ( मा च रिषत् ) हिंसा न करे ( ते उपसत्ता) तेरे समीप बैठनेवाला यजमान। ( ते ब्रह्माणः ) तेरे ब्राह्मण पुरोहित, यजमान आदि (यशसः सन्तु ) यशस्वी हों, ( मा अन्ये ) अन्य अयाज्ञिक जन यशस्वी न हों।
वायुमण्डल को सुगन्धित और रोगकीटाणुरहित करने के लिए सुगन्धित, मीठे, पुष्टिप्रद और रोगहर द्रव्यों एवं ओषधियों का अग्नि में होम करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। ये द्रव्य अग्नि में जल कर सूक्ष्म होकर वायु में मिलकर पंचभूतों को शुद्ध करते हैं। हे यज्ञाग्नि! तू यज्ञकुण्ड में समिद्ध हो, प्रदीप्त हो, ऊँची-ऊँची ज्वालाओं से प्रकाशित हो और यजमान को प्रबोध भी प्रदान कर। यजमान तुझसे ऊर्ध्वगामिता का सन्देश ग्रहण करे, तेरे समान स्वयं को ज्योतिष्मान् करे, स्वयं प्रबुद्ध और अन्यों को ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित करे। तुझमें जो आहुति दी जाती है, उसे तू अपने पास न रख कर जनकल्याण के लिए वायुमण्डल में प्रसारित कर देता है, वैसे ही यजमान जो सम्पदा प्राप्त करे उसमें से पर्याप्त अंश वह सर्वोपयोगी बनाने के लिए दान द्वारा अन्यत्र प्रसारित कर दे। इस प्रकार के बोध यदि यजमान तुझसे ग्रहण करती है, तो यज्ञ से दोहरा लाभ उसे प्राप्त हो जाता है, वायु-जल आदि की शुद्धि और आत्मप्रबोध। हे यज्ञाग्नि! तू हम यजमानों के महान् सौभाग्य के लिए आकाश में ऊँचा होकर स्थित हो। तेरी उच्चता से हम भी उच्च होने का व्रत ग्रहण करेंगे। हे यज्ञाग्नि ! तेरे सामीप्य को प्राप्त करनेवाले यजमान यज्ञ में कोई पशुबलि आदि की हिंसा न करें। यज्ञ का नाम ही ‘अध्वर’ है, अतः उसमें किसी प्रकार की हिंसा न होनी चाहिए। जैसे हमें अपना जीवन प्यारा है, वैसे ही पशु भी अपने जीवन से प्यार करते हैं। यदि हम यज्ञ में पशुहिंसा करते हैं, तो किसी दिन यज्ञ में मनुष्य की भी बलि दी जाने लगेगी। हे यज्ञाग्नि! तुझसे सम्बन्ध स्थापित करनेवाले पुरोहित, यजमान, वेदपाठी, दर्शक आदि सब ब्राह्मण यशस्वी हों। जो भी परोपकार का कार्य करता है, उसे उपकृत लोगों का आशीर्वाद प्राप्त होता है और वह यशस्वी होता है। यज्ञ भी परोपकार का कार्य है, यज्ञकर्ता ब्रह्मज्ञ लोग भी निश्चय ही यशस्वी होते हैं। अन्त में मन्त्र कहता है-‘ मा अन्ये’ अर्थात् जो यज्ञकर्ता नहीं हैं, वे यशस्वी न हों। यदि यज्ञ न करनेवाले लोग भी यशस्वी होने लगेंगे, तो फिर यज्ञ कोई क्यों करेगा? यज्ञ करने से देव परमेश्वर की पूजा होती है, सबके मिल-बैठकर मन्त्रोच्चारण आदि करने से सङ्गतिकरण या सङ्गठन होता है और आहुति-दान, दक्षिणा दान, उपदेश-प्रदान, प्रसाद वितरण आदि का दान भी होता है। इस श्रेष्ठतम कर्म को सभी करें और यशस्वी हों। जो न करेंगे वे अभागे लोग यशस्वी नहीं होंगे, तो वे भी यशस्वी होने के लिए यज्ञ करने लगेंगे और यज्ञ करके वे भी यशस्वी हो सकेंगे। अत: आओ, सब यज्ञ करें और सब यशस्वी हों।
पाद टिप्पणियाँ
१. रिषत्, रिष हिंस्तर्थः, लेट् ।
२. उपसत्ता, उप-षद्लू विशरणगत्यवसादनेषु, तृच् ।
यज्ञाग्नि यजमान को प्रबुद्ध करें -रामनाथ विद्यालंकार