मेरे वाणी, मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि सशक्त हो – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः दध्यङ् आथर्वणः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी पङ्किः।
ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये सार्म प्राणं प्रपद्ये । चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये। वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ ॥
-यजु० ३६.१
मैं ( ऋचं ) स्तुत्यात्मक वाणी को ( प्रपद्ये ) प्राप्त करता हूँ, ( यजुः मनः ) देवपूजा, सङ्गतिकरण और दान से युक्त मन को (प्रपद्ये ) प्राप्त करता हूँ, ( साम प्राणं ) समस्वरतायुक्त प्राण को ( प्रपद्ये ) प्राप्त करता हूँ, ( चक्षुः श्रोत्रं ) नेत्रशक्ति और श्रवणशक्ति ( प्रपद्ये ) प्राप्त करता हूँ। ( मयि ) मेरे अन्दर ( वाग्-ओजः ) वाग्बल, (सह-ओजः ) एकता का बल, तथा ( प्राणापानौ ) प्राण- अपान हों।
हे अग्नि! हे अग्रनायक, तेजस्वी परमेश्वर ! मैं चाहती हूँ कि मेरे शरीर के सब अङ्ग सशक्त हों, मेरी सब शक्तियाँ पूर्णता को प्राप्त हों। आपने सब मनुष्यों को वाणी दी है, उस वाणी से सब आपस में अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। पशु-पक्षियों तथा अन्य प्राणियों में यह सामर्थ्य नहीं है, उनकी भाषा सांकेतिक है। ऐसी उत्तम वाणी को मुझे ईशस्तुति में तथा अन्य श्रेष्ठजनों तथा सत्पदार्थों के यथार्थ-वर्णनरूप स्तुति में लगाना चाहिए, पर-निन्दा में नहीं। यदि हम अपने दैनिक चरित्र का निरीक्षण करें, तो पायेंगे कि पर्याप्त समय हम दूसरों की निन्दा या एकपक्षीय आलोचना में व्यतीत करते हैं। यह पर-निन्दा बहुत बड़ा दुर्गुण है। पर-निन्दा करते-करते मनुष्य में दूसरों के गुण देखने की प्रवृत्ति ही समाप्त हो जाती है। दूसरी मुझे मनरूप अत्युत्तम वस्तु मिली है। जिस ज्ञानेन्द्रिय से मैं ज्ञान ग्रहण करना चाहता हूँ, अपने मन को उसमें प्रवृत्त कर लेता हूँ। तब उस ज्ञानेन्द्रिय से ज्ञान की धारा मेरे आत्मा की ओर प्रवाहित होने लगती है। परन्तु मन को शिव सङ्कल्पों में भी लगाया जा सकता है और अशिव सङ्कल्पों में भी। मैं चाहता हूँ कि मेरा मन देव-पूजा अर्थात् प्रभु-पूजा और विद्वान् विदुषियों के सम्मान में लगे, सत्सङ्गति में लगे और दान में लगे। अपने तन-मन-धन से मैं परोपकार करूं। तीसरी बहुमूल्य वस्तु मुझे ‘प्राण’ मिली हुई है। शरीर आत्मा और प्राण से संयुक्त होकर ही सजीव होता है। प्राण के शरीर में से निकलते ही आत्मा भी निकल जाता है। मैं चाहता हूँ कि मेरा प्राण समस्वरतायुक्त हो। बेसुरा प्राण जीवात्मा को भी बेसुरा कर देता है। चक्षु और श्रोत्र भी मेरे शरीर को अमोल वस्तुएँ मिली हैं। आँख और कान की कैसी अद्भुत बनावट है कि दृश्य आँख की पुतली में आकर और शब्द कान के पर्दे से लग कर दिखाई और सुनाई देने लगता है। इस आँख से मैं भद्र दृश्यों को ही देखें और कान से भद्र शब्दों को ही सुनँ। मेरी कामना है कि मेरे अन्दर वाणी का बल और एकता का बल भी आये । वाग्बल से मनुष्य मुर्दादिल को भी ओजस्वी बना सकता है, मृततुल्य को भी जागरूक कर सकता है। हतोत्साह को भी उत्साही बना सकता है. भयभीत को भी समराङ्गण में भेज सकता है, रोते को भी हँसा सकता है। एकता का बल भी अपना सानी नहीं रखता। एक सूत किसी को बाँध नहीं सकता, किन्तु बहुत से सूत मिलकर जब मोटी रस्सी बन जाती है, तब वह हाथी को भी वश में कर सकती है। अनेक वीर मिलकर जब सेना बन जाती है, तब वह शत्रु के छक्के छुड़ा देती है। मेरी अभिलाषा है कि मेरा प्राण अपान का बल भी बढ़े। शिरोभाग तथा ज्ञानेन्द्रियों में प्राण रहता है और छोटी-बड़ी आँतों में, अधोद्वारों में तथा रोमकूपों में अपान रहता है। मन, बुद्धि तथा ज्ञानेन्द्रियों के व्यापार प्राण द्वारा सम्पन्न होते हैं तथा मलनिस्सारण अपान द्वारा होता है। प्राण-अपान के सशक्त होने से ये कार्य सम्यक् प्रकार सम्पादित हो सकते हैं। हे परमेश! मुझे ऐसा बल दो कि मैं अपने शरीर के सब अङ्गों और समग्र अवयवों को सक्रिय, स्फूर्त और शक्तिशाली बना सकें।
पाद-टिप्पणियाँ
१. ऋच स्तुतौ, तुदादि।।
२. यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु, भ्वादि।
मेरे वाणी, मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि सशक्त हो – रामनाथ विद्यालंकार