मृत्यु के पश्चात् जीव की गति – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः दीर्घतमाः । देवता सवित्रादयः । छन्दः विराड् धृतिः ।।
सविता प्रथमेऽहन्नग्निर्द्वितीये वायुस्तृतीयऽआदित्यश्चतुर्थे । चन्द्रमाः पञ्चमऽऋतुः षष्ठे मरुतः सप्तमे बृहस्पतिरष्टमे। मित्रो नवमे वरुणो दशुमऽइन्द्रएकादशे विश्वेदेवा द्वादशे ॥
-यजु० ३९.६
हे मनुष्यो ! इस जीव को शरीर छोड़ने पर ( सविता ) सूर्य ( प्रथमे अहन्) पहले दिन, ( अग्निः ) अग्नि (द्वितीये ) दूसरे दिन, (वायुः ) वायु ( तृतीये ) तीसरे दिन, ( आदित्यः ) मास ( चतुर्थे ) चौथे दिन, ( चन्द्रमाः) चन्द्रमा ( पञ्चमे ) पाँचवे दिन (ऋतुः ) ऋतु ( षष्ठे) छठे दिन, ( मरुतः ) मनुष्यादि प्राणी ( सप्तमे) सातवें दिन, ( बृहस्पतिः ) बड़े-बड़ों का पालक सूत्रात्मा वायु ( अष्टमे ) आठवें दिन, ( मित्रः ) प्राण ( नवमे ) नौवें दिन, (वरुणः ) उदान (दशमे ) दसवें दिन, ( इन्द्रः ) विद्युत् ( एकादशे ) ग्यारहवें दिन, (विश्वेदेवाः ) सब दिव्य उत्तम गुण ( द्वादशे ) बारहवें दिन प्राप्त होते हैं।
“हे मनुष्यो ! जब ये जीव शरीर को छोड़ते हैं, तब सूर्यप्रकाश आदि पदार्थों को प्राप्त होकर, कुछ काल भ्रमण कर, अपने कर्मों के अनुकूल गर्भाशय को प्राप्त शरीर धारण कर उत्पन्न होते हैं। तभी पुण्य-पाप कर्म से सुख-दुःखरूप फलों को भोगते हैं।”” “जब यह जीव शरीर को छोड़ सब पृथिव्यादि पदार्थों में भ्रमण करता, ‘जहाँ-तहाँ प्रवेश करता और इधर-उधर जाता हुआ कर्मानुसार ईश्वर की व्यवस्था से जन्म पाता है, तब ही सुप्रसिद्ध होता है।”२ हे मनुष्यो ! जो जीव पापाचरणी हैं वे उग्र, जो धर्मात्मा हे वे शान्त, जो भय देनेवाले हैं वे भीम, जो भय को प्राप्त हैं वे भीत, जो अभय देनेवाले हैं वे निर्भय, जो अविद्यायुक्त हैं वे अन्धकारावृत, जो विद्वान् योगी हैं वे प्रकाशयुक्त, जो अजितेन्द्रिय हैं वे चञ्चल (धुनि), जो जितेन्द्रिय हैं वे अचञ्चल, अपने-अपने कर्मफलों को सहते-भोगते, संयोग-विक्षेप को प्राप्त हुए जगत् में नित्य भ्रमण करते हैं, ऐसा जानो।”३ ५५ जो जीव शरीर को छोड़ते हैं वे वायु और ओषधि आदि पदार्थों में भ्रमण करते-करते गर्भाशय को प्राप्त होके नियत समय पर शरीर धारण करके प्रकट होते हैं।”४ “हे देह का अन्त करनेवाले जीव! तू सोमलता आदि वा यवादि ओषधियों के मध्य गर्भरूप से रहता है। पीपल आदि वनस्पतियों के मध्य गर्भरूप से रहता है, प्राण वा जलों के मध्य गर्भरूप से रहता है।'”, ” हे जीवो ! जब तुम शरीर को छोड़ो तब यह भस्मीभूत होकर पृथिवी आदि पञ्चतत्त्वों में मिल जाये। तुम और तुम्हारे आत्मा माता के शरीरों में गर्भाशय में प्रविष्ट होकर पुनः शरीर धारण कर विद्यमान होवो।’१६ हे इच्छादि-गुणप्रकाशित जीव! तू जलों और पथिवी के सदन में फिर-फिर प्राप्त होके इस माता के गर्भाशय में शयन करके इसके लिए मङ्गलकारी हो, जैसे बालक माता की गोद में शयन कर उसके लिए मङ्गलकारी होता है।’
जब पाप बढ़ जाता पुण्य न्यून होता है, तब मनुष्य को जीव पश्वादि नीच शरीर और जब धर्म अधिक तथा अधर्म न्यून होता है, तब देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता और जब पुण्य-पाप बराबर होता है, तब साधारण मनुष्य-जन्म होता है। इसमें भी पुण्य-पाप के उत्तम, मध्यम, निकृष्ट होने से मनुष्यादि में भी उत्तम, मध्यम, निकृष्ट शरीरादि सामग्रीवाले होते हैं और जब अधिक पाप का फल पश्वादि शरीर में भोग होता है, पुनः पाप-पुण्य के तुल्य रहने से (उत्तम) मनुष्यशरीर में आता और पुण्य के फल भोग कर फिर भी मध्यस्थ मनुष्य के शरीर में आता है।”
“जब शरीर से निकलता है, उसी का नाम ‘मृत्यु’ और शरीर के साथ संयोग होने का नाम जन्म है। जब शरीर छोड़ता तब यमालय’ अर्थात् आकाशस्थ वायु में रहता है। वह जीव वायु, अन्न, जल अथवा शरीर के छिद्र द्वारा दूसरे के शरीर में ईश्वर की प्रेरणा से प्रविष्ट होता है, जो प्रविष्ट होकर क्रमशः वीर्य में जा गर्भ में स्थित हो शरीर धारण कर, बाहर आता है।’ १९ ।
पाद–टिप्पणियाँ
१. यजु० ३९.४ दे०भा०, भावार्थ ।
२. यजु० ३९.५ दे०भा०, भावार्थ।
३. यजु० ३९.७ दे०भा०, भावार्थ ।
४. यजु० १२.३६ दे०भा०, भावार्थ।
५. यजु० १२.३७ दे०भा० का पदार्थ स्वरचित ।
६. यजु० १२.३८ दे०भा० भावार्थ, संशोधिते ।।
७-८. स०प्र०, समु० ९
मृत्यु के पश्चात् जीव की गति – रामनाथ विद्यालंकार